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मंजूश्री की कहानी - एक नई सुबह

मंजूश्री की कहानी - एक नई सुबह

मैं कमरे की खिड़की पर खड़ी सोचने लगी कि क्या सोचकर मैं इस अपरिचित जगह पर सबकुछ छोड़कर चली आयी हूँ! ये घर, ये लोग, ये रिश्ते सब तो अपरिचित हैं। बीच में कहीं भी किसी से जुड़ाव नहीं, लगाव नहीं। कहीं किसी भी रिश्ते में नहीं। कोई सपने नहीं, पुलक नहीं, उछाह नहीं, उस व्यक्ति के लिए भी नहीं, जिसके सहारे मैं सबकुछ छोड़कर चली आयी हूँ। झटका लगा ये क्या किया मैंने! क्या वाक़ई मेरा क़दम सही था?

पूना
प्रिया निंबालकर,

अभी मैंने देहरी के भीतर क़दम बढ़ाया भर था कि दालान के सामने वाले कमरे का दरवाज़ा धड़ाम से मेरे मुँह पर इतनी ज़ोर से बंद हुआ कि मेरे क़दम वहीं थम गये। अचकचा कर गिरते-गिरते बची। नज़र उठायी तो सामने बंद होते दरवाज़े के उस पार मुझे घूरते हुए बिखरे बालों वाली एक सोलह-सत्रह साल की लड़की का चेहरा दिखायी दिया। ज़रूर वही होगी। उसके बारे में सुना तो था ही। तुरंत पूजा की थाली बग़ल में खड़ी एक बुजुर्ग महिला को थमाकर अविनाश की माँ उस दरवाज़े को खुलवाने के लिए ज़ोर-ज़ोर से भड़भड़ाने लगीं। यहाँ तक कि मेरी बग़ल में खड़ा मेरा पति भी मेरे पल्लू से गांठ में बंधे पटके को फेंककर बिना मेरी चिंता किये उसी तरफ भागा और मैं हतप्रभ-सी वहीं खड़ी रह गयी। पूरे माहौल में एक अजब-सा सन्नाटा छा गया। सब औरतें आपस में खुसर-पुसर करते हुए इधर-उधर देखने लगीं। तभी पूजा की थाली थामे उस बुजुर्ग महिला ने मेरी पीठ पर हाथ रखा और मुझे धीरे से अंदर लेकर एक कुर्सी पर बिठा दिया। अचानक हुई इस घटना के कारण शर्म और अपमान से मेरा चेहरा लाल हो गया और आँखें डबडबा आयीं।

मैंने धीरे से नज़र उठाकर देखा। कुल मिलाकर आठ-दस औरतें होंगी। मोहल्ले वाली ही होंगी, रिश्तेदार तो कोई लग नहीं रही थीं। वैसे भी इस शादी में दोनों ही तरफ से कोई टीम-टाम तो हुआ नहीं था, घर के दो-चार लोग और कुछ मोहल्ले वाले, बस मानो शादी न हो कोई बेगार निपटाया जा रहा हो। हाँ, बेगार ही तो था, जो जैसे-तैसे निपट गया। बूढ़ी नौकरानी ने भैया से कहा भी था।

"ये क्या भैया, शादी क्या रोज़-रोज़ होती है! घर में कुछ तो रौनक होनी चाहिए। बिटिया की तो पहली शादी है ना!" पर सब वैसे ही निपट गया।
सब औरतें मुझे ही देख रहीं थीं, क्या बोलतीं भला! बोलने लायक था भी क्या? बड़ी विचित्र-सी स्थिति हो गयी थी। धीरे-धीरे सब इधर-उधर होने लगीं तभी उनमें से किसी ने मुझे एक गिलास पानी देते हुए कहा कि मैं बग़ल वाले कमरे में बैठ जाऊँ और अगर थक गयी होऊं तो बाथरूम में हाथ-मुँह धोकर ताज़ा हो सकती हूँ।

मैंने चुपचाप बाथरूम में जाकर मुँह पर ठंडे पानी के छींटे मारे और सामान्य होने की कोशिश करने लगी। एक तो दिन भर की कार यात्रा, थकान और भूख से पेट में अजब गुड़गुड़ाहट हो रही थी। शायद नयी जगह के कारण भी। उस पर यह नया नाटक। कितनी देर तक मैं वाश-बेसिन पकड़े शीशे के सामने खड़ी रही। सामने शीशे में दिखता उड़ा हुआ चेहरा मेरा अपना लग ही नहीं रहा था। हवाइयाँ उड़ रही थीं। अपने इस अप्रत्याशित स्वागत से मैं बुरी तरह हिल गयी थी। तमाम शंकाएँ-कुशंकाएँ सिर उठाने लगीं। बाथरूम से बाहर निकली तो वही बुजुर्ग महिला कमरे में दिखायी दीं, जिनके हाथ में पूजा की थाली थमा दी गयी थी। बोलीं, "चलो, तुम कपड़े बदल लो। मैं कुछ खाने के लिए भिजवाती हूँ।" फिर चारों तरफ देखते हुए बोलीं, "अरे! तुम्हारा सामान नहीं उतारा क्या किसी ने अब तक गाड़ी से? रुको अभी भिजवाती हूँ।"
मुझे अपनी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हुए बोलीं- "अरे मैं अविनाश की मौसी हूँ। वे दोनों तो पंकजा को मनाने में लगे हुए हैं। बड़ी गुस्सैल है और थोड़ी ज़िद्दी भी। बिना माँ की बच्ची बेचारी!"
मेरा हाथ पकड़कर बिस्तर पर बिठाते हुए बोलीं, "आओ बैठो, मैं तुम्हारा सामान और कुछ खाने के लिए भिजवाती हूँ। सब ठीक हो जायेगा धीरे-धीरे। घबराओ मत।" इतनी देर बाद इस अनजान घर में किसी के दो प्यार भरे बोल सुनकर आँखें भर आयीं मेरी। गले में अटकते थूक के गोले को गटकते हुए मैंने उनके पाँव छुए। उन्होंने आशीर्वाद दिया और फिर चली गयीं।

मैं कमरे की खिड़की पर खड़ी सोचने लगी कि क्या सोचकर मैं इस अपरिचित जगह पर सबकुछ छोड़कर चली आयी हूँ! ये घर, ये लोग, ये रिश्ते सब तो अपरिचित हैं। बीच में कहीं भी किसी से जुड़ाव नहीं, लगाव नहीं। कहीं किसी भी रिश्ते में नहीं। कोई सपने नहीं, पुलक नहीं, उछाह नहीं, उस व्यक्ति के लिए भी नहीं, जिसके सहारे मैं सबकुछ छोड़कर चली आयी हूँ। झटका लगा ये क्या किया मैंने! क्या वाक़ई मेरा क़दम सही था? पर अब तो क़दम उठा ही लिया है मेरा ही तो निर्णय था। वहाँ भी तो कौन था अपना! दिनोंदिन अपरिचय या कहें कि दूरियाँ बढ़ती ही जा रही थीं। अब बस लोग और जगह बदल गयी है। नरेन भैया ज़रूर कभी-कभी हाल पूछ लेते थे, भाभी तो बस यूँ ही, यूँ ही मतलब…! क्या उन्हें भी ऐसा ही लगता रहा होगा, जैसा मुझे लग रहा है इस समय अपरिचित-सा! शायद ऐसा ही हो। फिर भी भैया से उनकी शादी तो बड़ी धूमधाम और चाहना से हुई थी। सपने और प्यार था। समझौता तो कतई नहीं। पर उनके लिए हम कहाँ आज तक अपने हो पाये। अम्मा भी तो कितनी स्वार्थी हो गयी थीं बाद में। ठिठकी-सी खड़ी मैं जैसे अपने आपसे बातें कर रही थी।

जान-बूझ कर उठाये गये अपने इस क़दम पर इतनी हैरानी और सोच विचार क्यों! मुझे तो पहले से थोड़ा बहुत मालूम था फिर यह उहापोह क्यों! कितने दिनों से अपने मन को तैयार कर रही थी पर सोचने और करने में बहुत फर्क है। मेरी और अविनाश की कोई ख़ास जान-पहचान नहीं थी, जो कहीं कोई उमंग जागती, सपने बुने जाते। फिर उम्र के इस पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते सपनों को सच्चाइयों ने पीछे धकेल दिया था और बस ले लिया निर्णय एक-दो मुलाकातों में। कुछ ज़्यादा सोचा नहीं पर क्यों नहीं सोचा ज़िंदगी के इस अहम फैसले के बारे में! बिस्तर पर अनमनी-सी लेटी सोच रही थी। तो क्या मैं वाक़ई अकेलेपन से घबराकर किसी का मजबूत कंधा ढूँढ रही थी! पर फिर अविनाश ही क्यों! भैया का मित्र था इसलिए या इस उम्र में एक बसा-बसाया घर पाने की चाह और अपने पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा! पता नहीं क्या था? आँखों की कोर से आँसू की बूंदें लुढ़कने लगीं। तब क्यों नहीं कोई निर्णय लिया, जब पापा बार-बार कहते थे- "बेटा शादी कर ले तो मैं भी मुक्त हो जाऊँ। मेरे जीते जी तू अपने घर चली जाये।"
कितना भड़की थी मैं। "क्यों, क्या यह मेरा घर नहीं है? मैं नौकरी करना चाहती हूँ, घूमना चाहती हूँ। शादी, शादी, शादी जैसे यही है सबकुछ। मैं इस चक्कर में अभी नहीं फंसना चाहती।"

माँ भी बार-बार समझातीं और फिर अचानक एक दिन पापा नहीं रहे और माँ एकदम टूट गयीं। सबकुछ एक झटके में बदल गया। माँ टूटी हुई बेल की तरह एक तने से छिटककर दूसरे तने से चिपक गयीं। शुरू में भैया ने एक-आध बार माँ को अपने साथ चलने के लिए कहा भी फिर छोड़ दिया। माँ अक्सर कहतीं- "मेरा क्या है, एक दो साल की मेहमान हूँ। तू अपना घर बसा ले फिर दूसरे ही पल रोने लगतीं। पर तू तो जानती है न मेरा नरेन की बहू के साथ गुज़ारा होना मुश्किल है, तू चली जायेगी तो मेरा क्या होगा, सोच-सोचकर मेरे कलेजे में हौल उठने लगता है।"
"मैं कहाँ जा रही हूँ माँ?" मैं उन्हें ढाढ़स बंधाती।

पिताजी के गुज़र जाने के बाद माँ बारह साल ज़िन्दा रहीं और मैं उम्र की एक-एक सीढ़ी चढ़ती चली गयी और अब! ये मैं क्या सोचने लगी हूँ? क्या मैं माँ के जल्दी चले जाने की कामना करने लगी थी? ये क्या हो गया है मुझे? मैं कब से इतनी ख़ुदगर्ज हो गयी? मुझे ख़ुद की सोच पर शर्म आने लगी। उनकी अपनी वजह थी फिर मुझ पर हक़ भी तो था उनका। मैं कैसे इतनी गैरज़िम्मेदाराना बात सोचने लग गयी! मेरा मन उमड़ने-घुमड़ने लगा। लगा एक बार बुक्का मार कर ज़ोर से रो पडूँ। सबकुछ बाहर आ जाये। बीता सब आँखों के सामने घूमता रहा और न जाने कब आँख लग गयी।

सुबह आँख खुली तो देखा बिस्तर पर दूसरी तरफ अविनाश सो रहा था। रात वह कब आया, कुछ पता ही नहीं चला। यह हमारी पहली रात थी, जब हम दो अजनबी एक ही बिस्तर पर बिना एक भी शब्द बोले सोये थे। एक तरह से अच्छा ही हुआ, बात होती तो मैं गुस्से में न जाने क्या कह जाती या फिर रोने लगती। कमरे की खिड़की बाहर की तरफ खुलती थी, ज़रा-सा पर्दा खिसका कर देखा तो अभी सुबह होने वाली थी। थोड़ा अँधेरा था। हवा अच्छी चल रही थी। बाउंड्री वाल के उस तरफ सड़क के पार चाय की छोटी-सी दुकान पर थोड़ी-सी हलचल थी। दुकान वाला तैयारी में जुटा था दो-तीन लोग चाय के इंतजार में खड़े बीड़ी फूँकते बतिया रहे थे। सड़क पर ज़्यादा चहल-पहल शुरू नहीं हुई थी। इक्का-दुक्का गाड़ियाँ सड़क पर आ-जा रही थीं। धीरे-से बाथरूम का दरवाज़ा खोलकर मैं तैयार होने लगी। अब तक कमरे के बाहर से कुछ आवाजें सुनाई देने लगी थीं। बाहर निकली तो देखा दालान में पड़ी डाइनिंग टेबल पर माँ जी और वह लड़की चाय पी रही थीं। मुझे देखते ही वह हाथों की मुटिठयाँ बांधकर नथुने फड़काती उठ खड़ी हुई और बिस्किट की प्लेट को हाथ से धक्का देकर नीचे गिराते हुए अपने कमरे की ओर भागी।

"तुम क्यों आयी हो यहाँ हमारी ज़िंदगी में दखल देने? जाओ यहाँ से, निकलो बाहर।"
"पंकजा! यह क्या बचपना है? इधर आओ।" मांजी ने आवाज़ दी पर उसने सुनकर भी अनसुना कर दिया और ज़ोर से कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया। मुझे बहुत गुस्सा आया। अभी चौबीस घंटे भी नहीं हुए हैं और यह दूसरी बार। और वह भी सुबह-सुबह।

मैं दाँत पीसते हुए चुपचाप खड़ी रह गयी। तब तक मेरी चाय भी आ गयी थी। वहीं पास में दस-बारह साल का उसका भाई एक कुर्सी पर बैठा ज़ोर-ज़ोर से हाथ-पाँव हिला रहा था। सामने रखे खाने को आधा खा रहा था, आधा गिरा रहा था। मेरा मन ख़राब हो गया। यह सही था कि मुझे स्थिति की थोड़ी बहुत जानकारी थी पर उसका सामना ऐसे होगा इसकी कल्पना नहीं की थी।

"आओ बैठो, चाय पियो। सब ठीक हो जायेगा धीरे-धीरे। असल में अपनी माँ की जगह किसी और को देखना।"
"समझती हूँ पर क्या बच्चों से पहले बात नहीं की थी?" मैंने धीरे से पूछा।
"की थी अविनाश ने। मैंने भी की थी। पर अब वह बच्ची नहीं रही। समझाना कठिन है। प्रणव को तो वैसे भी कुछ समझ नहीं आयेगा।"
"मतलब!"
"उसे जल्दी चीजें समझ नहीं आतीं। थोड़ा मंदबुदिध है, उसे तो रोज़मर्रा के सभी कामों में भी सहायता करनी पड़ती है। दरअसल डिलीवरी के समय कुछ कॉम्पलीकेशन हो गये थे, जिससे ऑक्सीजन की कमी का दिमाग़ पर असर पड़ गया।"
मेरी तरफ देखते हुए पूछा उन्होंने, "अविनाश ने बताया तो होगा तुम्हें"
"हाँ, थोड़ा-बहुत।" तभी प्रणव के हाथ से खाना नीचे गिर गया और वह आं-आं करता उसे उठाने की कोशिश करने लगा।
मेरा तो मूड ही उखड़ गया था।

घर नहीं पागलख़ाना लग रहा था। हर तरफ एक अलग-सी अव्यवस्था। कैसे रह पाऊंगी यहाँ! क्या होगा! ये क्या कर डाला मैंने? इसकी कल्पना की थी क्या? क्या सोचा था कि धड़ल्ले से सबकी ज़िंदगियों में घुस जाऊंगी और खुल जा सिम-सिम बोलते ही दिलों के बंद दरवाज़े खुलते जायेंगे और बिना मेहनत के सब चुटकी बजाते ही जादू से ठीक हो जायेगा।

गहरी-गहरी साँस लेकर अपने आपको संयत करने ही लगी थी कि अविनाश आ गया। माँ को विश किया और मेरी तरफ एक नज़र डाल कर प्रणव के गाल पर हाथ फेरा और केवल एक कप चाय पीकर बाहर निकल गया।
"शाम को पंकजा से बात करूंगा।"
पंकजा का चिल्लाना ज़रूर उसने अंदर से सुना होगा। थोड़ी देर में माँ जी भी उठकर किचन में चली गयीं। मैं वहीं टेबल पर अपनी ठोढ़ी के नीचे दोनों हाथ रखे मुँह दबाये सामने बैठे प्रणव को देखते सोचने लगी कि क्या बारह साल माँ की देखभाल करने के बाद मैंने फिर वही क़दम इसलिए तो नहीं उठा लिया कि एक ढर्रे में जीने की आदत पड़ गयी थी या अकेलेपन से भागकर बच्चों और पति का साथ ढूँढ रही थी। एक बसा-बसाया घर, नये सिरे से घर बसाना क्या ज़्यादा आसान होता इस उम्र में! अपने आप पर कुछ ज़्यादा ही भरोसा कर लिया था पर यहाँ तो सिर मुंडाते ही ओले पड़ने लगे।

यह क्या हो गया है मुझे! इतनी जल्दी हिम्मत हारने लगी हूँ! नहीं, नहीं। समझाने लगी अपने आपको। पंकजा की जगह अगर मैं होती तो क्या बर्दाश्त कर पाती किसी का दखल अपनी ज़िंदगी में! उसे समझना पड़ेगा मुझे और समय देना पड़ेगा। समझाने लगी अपने आपको कि दखलदांजी तो है। थोड़ा मन शांत हुआ। देखूंगी। कोशिश तो करनी पड़ेगी। दोपहर के खाने के बाद मौसी जी भी वापस चली गयीं और शाम तक न मैं अपने कमरे से बाहर निकली, न पंकजा।

सात बजे के करीब अविनाश लौटा। थका हुआ था, आते ही हाथ-मुँह धोया और माँ से बात करने लगा। पंकजा और प्रणव के बारे में पूछा। मैं कमरे में ही खिड़की के पास रखी मेज़ पर बैठी बाहर ताकती उसके अंदर आने का इंतज़ार कर रही थी। पूरा दिन यूँ ही कमरे में बंद गुज़र गया था। अजीब बोरियत लग रही थी। ज़रूरत से ज़्यादा लंबा दिन। अंदर आकर उसने मेरे कंधे को धीरे से छूकर बाहर आकर माँ और अपने साथ चाय पीने के लिए कहा। हम दोनों के बीच यह पहला संवाद था। सबकुछ कितना यंत्रचालित-सा। कल से आज तक की दिनचर्या कितनी ख़ामोश और बोझिल। समझ नहीं आ रहा था कि किससे क्या बात की जाये। पंकजा अभी भी कमरे के अंदर ही थी। पर यह ज़रूर था कि अविनाश के आते ही घर में जान आ गयी थी या हो सकता है मैं बड़ी बेसब्री से उसका ही इंतज़ार कर रही थी। आखिर वही तो मेरा इस घर और बाक़ी लोगों के बीच की कड़ी है।

रात के खाने के समय अविनाश के बार-बार बुलाने पर पंकजा डाइनिंग टेबल पर आयी तो सही पर वही नाटक। ज़ोर-ज़ोर से गुस्से से चम्मच प्लेट पटकने लगी। अविनाश के मना करने पर मेरी ओर गुस्से से देखती हुए रोने लगी। ठीक से खाना भी नहीं खाया। आधा खाना छोड़कर कमरे में भाग गयी। खाना खाने की मेरी इच्छा ही ख़त्म हो गयी। बड़ी मुश्किल से खाना निपटा। मैं तो अपने कमरे में चली आयी और रात काफी देर तक पंकजा के कमरे से अविनाश के समझाने की और सामान इधर-उधर फेंके जाने की आवाज़ें आती रहीं। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। अविनाश जब कमरे में आया तो परेशान-सा निढाल होकर बिस्तर पर मेरी कुर्सी के सामने बैठ गया।

"सॉरी प्रिया, पंकजा के रवैये के लिए। समझ सकती हो कि उसके लिए कितना कठिन है तुम्हें स्वीकार करना।"
"और तुम्हारे लिए!" मैंने धीरे से पूछा।
"मैं कामिनी से बहुत प्यार करता था। अब भी मैं उसे भूल नहीं पाया हूँ। हमारा बीस साल का साथ था। सब इतना कठिन होगा सोचा नहीं था।"
"इस सबमें मैं कहाँ आती हूँ? मेरे लिए तो सब पहला ही है। नया और अनजाना। मेरे लिए तो और भी कठिन है। तुम सब तो फिर भी एक ही हो। तुम्हारा पूरा परिवार है। मैं ही मिसफिट हूँ। जानती हूँ तुम कहोगे कि मुझे पहले मालूम था और शायद तुम्हें भी, फिर भी न जाने मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि मैं जानबूझ कर एक ज़बरदस्त बवंडर के बीच आ फंसी हूँ, जिसके थमने के बाद न जाने क्या बाक़ी रहेगा और क्या उड़ा ले जायेगा!"

मेरे दोनों हाथों को अपने हाथों में लेकर वह मेरी उंगलियों को धीरे-धीरे अंगूठे से सहलाता रहा। हम काफी देर तक यूँ ही अपने-अपने में बंद कुछ सोचते बैठे रहे फिर गहरी साँस लेकर धीरे से उठते हुए मेरे कंधे को हल्के से दबाते हुए बोला- "मुझे थोड़ा वक्त दो प्रिया!" और उठते हुए उसने मेज़ पर रखी हुई फोटो पर हाथ फिराया। कितनी देर तक हम दोनों बिस्तर पर एक-दूसरे की तरफ पीठ किये अपनी-अपनी जंग लड़ते सोने की कोशिश करते रहे। वक्त तो मुझे भी चाहिए था। बारह साल बाद नयी राह पर चलने के लिए। कहने-सुनने के लिए तो बहुत कुछ था पर बीच में, बहुत दूरी थी। मेरे लिए उसके हाथों का स्पर्श तपती धूप में छाँव का एक छोटा-सा टुकड़ा था। ज़िंदगी की गाड़ी धीमी रफ्तार से चटकी पटरियों पर अटकती हुई चलने की कोशिश करने लगी। इससे पंकजा का रवैया बद से बदतर होने लगा। उसे लगने लगा कि मैं कहीं जाने वाली नहीं हूँ। मेरी हर बात और काम से वह चिढ़ने लगी। हर चीज़ में अपनी माँ से मेरी तुलना करने लगती। मेरी माँ ये करती थी, ऐसे करती थी, वैसे करती थी। ये मत छुओ, वह मत करो। माँ जी भी अक्सर उसकी तरफदारी करने लगतीं। इससे उसे और शह मिलती। मैं हर पल बीते हुए कल की उपस्थिति अपने चारों तरफ महसूस करती। मैं रोज़ एक नयी सुबह की कामना करती। वह अविनाश के सामने ज़रूर कुछ ज़्यादा बोलती नहीं थी। गुस्से में तन्नायी जैसे-तैसे खाना निगल लेती पर उसके जाते ही शुरू हो जाता सब फिर से। दो महीने से ज़्यादा हो गये। मेरा धीरज भी अक्सर टूटने की कगार पर आ जाता. लगता ज़ोर से एक थप्पड़ लगा दूँ। जानती हूँ यह कोई हल नहीं है इससे और समस्या बढ़ जायेगी पर हर चीज़ की हद होती है। बहुत मुश्किल से रोकती अपने आपको। मुसीबत भी तो मैंने ही मोल ली है। कितनी बार मैंने ख़ुद उससे बात करने की कोशिश की। मैं कहना चाहती थी कि मैं उसकी माँ नहीं, उसकी दोस्त बनना चाहती हूँ पर वह कुछ सुनने को तैयार नहीं थी।

पता नहीं क्यों उसने पढ़ाई छोड़ दी थी। साल हो गया घर बैठे। मुझे आश्चर्य हुआ कि अविनाश ने पढ़ाई छोड़ने से उसे रोका क्यों नहीं! यह क्या बात हुई, इतनी बड़ी लड़की सारा दिन घर में फ़ालतू बैठी खुराफ़ात में लगी रहती है। स्कूल जाती तो कम से कम दूसरे बच्चों के साथ मन बहलता और सोच में भी बदलाव आता। यह क्या कि फेल हो जाने और झगड़ा करके स्कूल से भाग जाने पर स्कूल ही छुड़ा दिया। लगाने थे दो-चार हाथ। इतना भी क्या लाड़! कोई छोटी बच्ची तो नहीं है, आगे क्या होगा! अचानक अपने पापा की याद आ गयी। कितना प्यार करते थे मुझे। मेरी किसी बात को कभी नहीं टालते थे। सब पापा ऐसे ही होते हैं शायद। पर फिर भी यह तो! अपनी माँ के कमरे में अपने पिता के साथ मुझे देखकर, कर तो कुछ नहीं पाती थी पर आग-बबूला हो जाती। ग़लती से भी उसकी माँ की किसी चीज़ को हाथ लगा देती तो आसमान सिर पर उठा लेती। घर के लोगों के दिलों के साथ-साथ घर की, कमरे की हर चीज, हर जगह पर अपने लिए एक छोटी-सी जगह तो बनानी ही पड़ेगी मुझे। अब तो कितने महीने हो गये। कहीं से तो शुरुआत होनी होगी। पर क्या यह आसान होगा। सबको थोड़ा-थोड़ा वक़्त देते हुए मेरा वक़्त तो रेत की तरह मुट्ठी से फिसलता जा रहा है। मेरा वजूद और अविनाश भी तो सहज नहीं हो पा रहा है। हम दोनों वक़्त की प्रतीक्षा में वहीं अटके खड़े हैं।

प्रणव से भी पंकजा काफ़ी नाराज़ रहने लगी है क्योंकि उसको मुझसे कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था। वह उसका साथ नहीं दे पाता था। मैंने सोच लिया था कि वह न सही, कम से कम प्रणव को तो ज़रूर किसी स्पेशल स्कूल में भेजना पड़ेगा। वहाँ प्रशिक्षित शिक्षकों से उसे कुछ सीखने को मिलेगा और दूसरे बच्चों का साथ भी। उस दिन जब मैंने डाइनिंग टेबल पर यह बात चलाई तो अविनाश ने कहा कि वह ऐसे स्कूलों के बारे में पता करेगा पर पंकजा एकदम उखड़ गयी। एकदम से उठ खड़ी हुई। चेहरा लाल और आँखों में आँसू।

"तुम ख़ुद उसकी देखभाल नहीं करना चाहती हो न मेरी माँ की तरह! वे कितना ख़याल रखती थी उसका। तुम तो चाहती हो कि वह घर से बाहर रहे। तुम हम दोनों को इस घर से बाहर निकाल देना चाहती हो। पापा भी कितना बदल गये हैं, जबसे तुम आयी हो कितना गुस्सा करने लगे हैं। हम दोनों को प्यार नहीं करते। हमें तुम्हारी ज़रूरत नहीं है, निकलो हमारे घर से।" उसने मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचना शुरू कर दिया तभी मैंने ज़ोरों से उसका हाथ पकड़कर झटक दिया और अपने कमरे की तरफ जाने के लिए पलटी ही थी कि तभी अविनाश का ज़ोरदार चाँटा पंकजा के गाल पर पड़ा।
"बस बहुत हो गया! अब और बर्दाश्त नहीं करूँगा। ये तुम्हारी नयी माँ हैं और ये कहीं नहीं जा रही हैं। यहीं रहेंगी हम सबके साथ। नो मोर टैंट्रम्स। तंग आ गया हूँ रोज़-रोज़ के तुम्हारे नाटक से। समझा-समझाकर हार गया हूँ।" और वह उठकर कमरे की तरफ जाने के लिए बढ़ा।

"आपने मुझे मारा पापा! मेरे ऊपर हाथ उठाया! इनकी वजह से आपने...! ये मेरी माँ नहीं है। ये मेरी कोई नहीं है। मैं आपसे कभी बात नहीं करूँगी।" और वह सुबकने लगी।

माँ जी पंकजा को गले से लगाकर सिर पर हाथ फेरने लगीं। वह और ज़ोर-ज़ोर से रो-रोकर कह रही थी कि अब वह इस घर में नहीं रहेगी। चली जायेगी कहीं। बात इतनी बढ़ जायेगी, मैंने भी नहीं सोचा था। यह सब नहीं होना चाहिए था पर अब तो तीर हाथ से निकल चुका था। हालाँकि मैं भी तंग आ गयी थी और अक्सर मेरा भी मन उसे चाँटा लगाने का करता था पर इससे तो मेरे लिए उसके मन में और ज़्यादा नफ़रत पैदा हो गयी। पर अब जो भी होगा देखा जायेगा।

कमरे में जब मैं आयी तो अविनाश बिस्तर पर आँखों के ऊपर हाथ रखे लेटा हुआ था। धीरे-से मैं उसके बग़ल में पलंग का सहारा लेकर बैठ गयी। उसके बग़ल में अधलेटी हुई मैं किसी तरह बातों का सिरा पकड़ने की कोशिश कर रही थी।

"सॉरी अविनाश, मेरी वजह से..."
"तुम्हारी वजह से नहीं, मैं ही बच्चों को समझ नहीं पाया। हम सब एक भंवर में फँस गये हैं। मेरी वजह से तुम भी! जो भी हो पर यह नहीं होना चाहिए था। ठीक नहीं हुआ। मुझे अपने गुस्से के ऊपर क़ाबू रखना चाहिए था। मैंने आज तक कभी बच्चों के ऊपर हाथ नहीं उठाया।"

उस रात अविनाश बहुत बेचैन था। पहली बार उसका हाथ उठा था। बहुत बुरा लग रहा था उसे। रह-रह कर अपने को कोस रहा था। मेरा मन हो रहा था कि उसे बाँहों में भर लूँ पर अविनाश न जाने क्या सोचे। हम दोनों के बीच अब भी एक फ़ासला था। अक्सर मेरा मन होता कि मैं उससे लिपट कर ख़ूब रोऊं और वह मेरे बाल सहलाता रहे। हम दोनों एक-दूसरे से सब कह-सुन डालें। कमरे में फैली उसकी हल्की ख़ुशबू हर समय उसके यहीं कहीं मेरे आस-पास होने का एहसास दिलाती और मेरी बेचैनी बढ़ाती। मैं उसको अपने भीतर बहुत गहरे तक महसूस करने लगी हूँ। हर पल एक सुंदर एहसास। पास बहुत पास होते जाने की प्यास जागने लगी है। यह मुझे क्या हो रहा है! मेरे भीतर यह कैसी चाहत जाग रही है! मुझे तो लगता था कि मेरे सारे एहसास ख़त्म हो गये हैं, सब मर गया है मेरे भीतर। यह कैसी अजब-सी बेचैनी है! इतने पास होकर भी मीलों लंबी दूरी है। क्या अविनाश भी ऐसा कुछ महसूस करता होगा मेरे लिए! बीच-बीच में चौंककर सुनने लगती, जो वह बोल रहा था। बता रहा था मुझे कुछ, पर मैं कहाँ कुछ सुन रही थी। काफ़ी देर तक वह बोलता रहा। उसने अभी तक मुझसे कभी इतनी बातें नहीं की थीं। बस मतलब भर की ही। तभी अचानक मेरी कमर को अपनी बाँहों में पकड़कर मेरी गोद में सिर रखकर फफक पड़ा, "थक गया हूँ प्रिया मैं अकेले सब झेलते-झेलते। मेरा कल मुझे पीछे खींचता है और तुम...तुम मेरा आज हो, फिर भी कहीं कुछ है, जो हमारे बीच है। सुन रही हो न तुम! मैं सब पीछे छोड़कर आगे बढ़ना चाहता हूँ। समझ पाओगी न मुझे! बोलो, थाम लो मुझे।"
क्या बोलती मैं। था क्या कुछ बोलने के लिये! सबकुछ तो था यहीं इन बाँहों के घेरे में।
और आँखों में कल नई सुबह के सपने....।


पूना
अविनाश निंबालकर

यह क्या किया मैंने! देहरी पर उसे यूँ ही छोड़ दिया बिना सोचे कि वह इस घर में अपरिचित लोगों के बीच नितांत अकेली केवल मेरे भरोसे आयी है। माँ तो गयी थी न पंकजा को मनाने, अगर मैं न जाता तो कौनसा पहाड़ टूट जाता? पंकजा को तो मैं जानता हूँ न! फिर जितना सोचता हूँ उतना पछताता हूँ अपनी इस हरकत पर। क्या करूँ अब! क्या सोचती होगी वह मेरे बारे में कि कहीं भी मैं ऐसे ही उसे कभी भी अकेली छोड़ दूँगा। क्या कहूँगा उससे कि मैं ऐसा ही हूँ! शायद कमरे में बैठी मुझसे शादी के अपने इस निर्णय पर पछता रही हो। सोच रहा हूँ मुझसे शादी का निर्णय क्यों लिया होगा उसने। शायद मेरी तरह वह भी अकेलेपन से घबरा गयी होगी। पर मुझसे ही क्यों! हम दोनों जानते कहाँ थे पहले से एक-दूसरे को।

घड़ी देखी रात काफ़ी देर हो गयी है। बारह बजने वाले हैं। बिस्तर के एक तरफ सिमटी-सी सोयी हुई प्रिया। उसने ज़रूर मेरा इंतज़ार किया होगा। मैं ही तो उसके और घर के सब लोगों के बीच की कड़ी हूँ। मैंने जानबूझ कर थोड़ी देर कर दी थी। उसका सामना करने से बच रहा था। पर कब तक यूँ अवॉइड करूँगा। कल देखूंगा। पंकजा को समझाना इतना कठिन होगा, सोचा नहीं था। पहले जब उससे इस संदर्भ में बात की थी तब तो ज़्यादा कुछ बोली नहीं थी। क्या वाक़ई मैंने ग़लती कर दी है दोबारा शादी करके! कामिनी के जाने के बाद ये दो साल कितने कठिन रहे हैं हम सबके लिए! प्रणव के पैदा होने के बाद से ही वह धीरे-धीरे ऐसी टूटी कि फिर पूरी तरह से उबर ही नहीं पायी और उसके जाते ही मानो धुरी से छिटक गये हम सब। सबकुछ बिखर गया। घर, बच्चे और माँ। पंकजा तो अजब घुन्नी-सी हो गयी। लगातार फेल होने लगी। बात-बात पर सबसे लड़ाई-झगड़ा, रोना-धोना, जिद्द तो क्या मैंने सिर्फ सब समेटने के लिए ही दोबारा शादी की है! अपने मन में झाँकता हूँ तो वहाँ कुछ और भी दिखता है। मैं ख़ुद भी तो कितना टूट गया हूँ। दिल में छाया घना अंधेरा और सबके बीच रहते हुए भी निपट सन्नाटा सोने नहीं देता। गहरी नींद में डूबी प्रिया को देखते सोच रहा हूँ कि कहाँ खींच लाया हूँ मैं उसे! उठा पायेगी वह मेरे बीते कल का बोझ! मैंने जो जिया है बीस साल, वह ऐसे ही तो नहीं कहीं चला जायेगा। पर उसके लिए तो ज़िंदगी की नयी शुरुआत है, नये सपने, नयी उमंग, नयी चाह। उतर पाऊँगा मैं उसकी उम्मीदों पर खरा! ये तो सोचा ही नहीं था कि मेरे कल और उसके आज के बीच के लंबे फ़ासले को मुझे ही तय करना है। क्या मैं सब भूलकर कभी पूरा उसका हो पाऊँगा?

कल फिर पंकजा से बात करूँगा। मेरे बिस्तर पर लेटी प्रिया, कितना अलग रहा है। देर तक सोने की कोशिश करते-करते कब नींद लगी पता नहीं। सुबह उठा तो डाइनिंग हॉल में फिर वही झगड़ा। क्या सोचती होगी वह कहाँ आ गयी हूँ! कल से आज तक और कुछ सुना ही नहीं। कौन है उसका यहाँ! कितना पछता रही होगी! मैं भी तो कहाँ कुछ कर पा रहा हूँ! चुपचाप सब बर्दाश्त कर रही है। क्या करूँ मैं?

दिन निकलते जा रहे हैं। घर एक ढर्रे पर चल रहा है। माँ को समझाया भी है कि ग़लत बात पर पंकजा की तरफ़दारी न करें बल्कि उसे स्थिति को समझाएँ। प्रिया ने भी कई बार उससे बात करने की कोशिश की है पर वो है कि कुछ सुनने के लिए तैयार ही नहीं है। प्रिया को क्या गुस्सा नहीं आता होगा? क्यों बर्दाश्त कर रही है वह यह सब! क्या मेरे लिए या फिर बर्दाश्त करने की उसमें इतनी ताकत है। मेरे लिए क्यों! मैंने क्या दिया है उसे! सोचता हूँ पंकजा को कुछ दिनों के लिए दीदी के पास मुंबई भेज दूँ। दूर रहकर ठंडे दिमाग़ से कुछ सोचने-समझने के लिए। पर डरता हूँ कि वह और भी भड़क जायेगी। घर सिर पर उठा लेगी। इस सबके लिए प्रिया को ही दोष देगी। समझ नहीं आता क्या करूँ! प्रिया ठीक कहती है प्रणव को स्पेशल स्कूल में डाल देना चाहिए। पंकजा की भी पढ़ाई शुरू करवानी पड़ेगी तब शायद सब ठीक होगा।

पंकजा के इस तरह भड़क कर प्रिया को बुरा-भला कहना और उसका हाथ पकड़कर खींचना मैं बर्दाश्त कैसे करता और मेरा हाथ उठ गया। पहली बार मैंने हाथ उठाया। क्या करता आख़िर हद होती है बर्दाश्त की भी। वह जो कह रही थी ग़लत था क्या! इतनी बातें सुनने के बाद भी उन दोनों के लिए ही सोच रही है। मेरी ख़ातिर ही तो! पर यह सही नहीं हुआ। यह मैं क्या कर बैठा! इसका उल्टा ही असर होगा पंकजा पर। पर प्रिया की और बेइज्जती नहीं होने दूँगा। कहीं तो रोकना होगा इस सबको। फिर क्यों बुरा लग रहा है मुझे! भीतर ही भीतर जल रहा हूँ। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, कैसे सब पलट दूँ!

आँख बंद करते ही कभी पंकजा का लाल चेहरा आँखों के सामने घूम जाता है तो कभी प्रिया का अपमान से लाल हुआ चेहरा। तो क्या प्रिया को यूँ ही ज़लील होने दूँ सिर्फ इसलिए कि वह जानबूझकर इस खाई में कूद पड़ी है और उसका यहाँ कोई नहीं है और महीनों से बेइज्जती बर्दाश्त कर रही है। मैं ऐसा नहीं होने दे सकता। उसका क्या कुसूर है! क्या सिर्फ इसलिए कि वह इस घर में अपने मन से आयी है! फिर मैं भी तो उतना ही ज़िम्म्दार हूँ बल्कि और ज़्यादा क्योंकि मैं ही उसे लाया हूँ फिर सारा गुस्सा वही क्यों झेले! बस अब और नहीं। गुस्सा तो उसे भी आता होगा। वह किससे कहे अपनी बात! मैं भी उसका कुसूरवार हूँ।

जब सब समझता हूँ तब मैं क्यों नहीं जा पा रहा हूँ उसके क़रीब! क्यों नहीं झटक देता कल को और उसे जकड़ लेता अपनी बाँहों में! सारे गिले-शिकवे दूर कर देता! कितनी बार लगा कि खींच लूँ अपने क़रीब। कमरे में आते-जाते उसके नरम बालों की ख़ुशबू भर लूँ अपने भीतर। कितनी बार उसके हाथों के स्पर्श ने सिहरन पैदा की है। क्या रोकता है मुझे! फिर क्यों इतने अकेले हैं हम दोनों इतने पास होकर भी! मेरे पास बैठी वह क्या वही सोच रही होगी, जो मैं सोच रहा हूँ! शायद कुछ अलग भी। मेरा कल उसके कल से अलग जो है।

मैंने आँख उठाकर उसकी तरफ देखा। वह मेरी बातें सुन रही थी और उसका चेहरा आँसुओं से तर था। उसकी आँसुओं से झिलमिलाती आँखों में न जाने क्या था कि मैं अपने को रोक नहीं पाया और उसकी गोद में सिर रखते ही मेरे सब्र का बांध टूट पड़ा।

मुंबई
मिसेज नीला शर्मा

"अरे तुम!" अचानक उसे अपने दरवाज़े पर खड़ा देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गयी। वह मिठाई का डिब्बा लिए अपनी बुआ और फूफाजी के साथ दरवाज़े पर खड़ी थी। मैंने उन्हें अंदर बुलाया। उसने मुझे बताया कि वह पास हो गयी है।
मेरे पैर छूकर बोली, "थैंक्स मिस।" इतना ख़ुश मैंने उसे कभी नहीं देखा था। उसकी आँखों में चमक लौट आयी थी।
उसकी बुआ बोलीं, "आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। आपने हमारी पंकजा हमें लौटा दी। आपकी बहुत तारीफ करती है। मैंने नोट किया है कि आपके संपर्क में आने के बाद उसमें बहुत बदलाव आया है।" और वे उसकी तमाम बातें करती रहीं।

मेरी आँखों के सामने वह दिन घूम गया, जब अटैंडेंस रजिस्टर में सब नामों के आख़िर में पेँसिल से लिखा नया नाम पंकजा अविनाश निंबालकर देखकर मैंने आँख उठाकर देखा तो दूसरी बेंच के एकदम कोने में बैठी वह दुबली-पतली लड़की दिखाई दी थी। स्टाफ रूम में मिसेज शिंदे ने बताया था कि मेरी क्लास में एक नयी लड़की दो दिन पहले आयी है। चूंकि मैं छुट्टी पर थी इसलिए उन्होंने उसका नाम पेंसिल से सबसे अंत में लिख दिया है। अब तो सत्र शुरू होकर लगभग एक महीना हो चुका है। इतनी देर से! सोचा किसी दूसरे शहर से ट्रांसफर होकर यहाँ एडमिशन लिया होगा! पढ़ाते-पढ़ाते कई बार मेरा ध्यान उसकी तरफ गया पर वह सिर झुकाए कॉपी पर पेंसिल से न जाने क्या कर रही थी! उसका ध्यान क्लास में बिल्कुल नहीं था। पूरे लेक्चर में वह कहीं और खोयी हुई थी। जबकि कुछ लड़कियाँ बीच-बीच में एक-दूसरे से बातें भी कर रही थीं। होता है कभी-कभी, पर उसके चेहरे पर एक अलग-सा सूनापन और बेपरवाही थी जैसे बस शरीर से वहाँ बैठी हो, मन कहीं और हो। इस उम्र में इतनी उदासी! किसी से बात नहीं कर रही थी। घंटी बजी तो चौंक कर उठ खड़ी हुई। खोयी-खोयी सी।

दो हफ्ते गुज़र गये। वह वैसे ही आती और पूरे दिन हर पीरियड में खोयी-सी चुपचाप बैठी रहती। किसी से कोई बात नहीं करती थी। कुछ बच्चों ने कोशिश भी की बात करने की पर वह मिक्स ही नहीं होती थी। इंटरवल में भी कोने में बैठी रहती। मेरे पूछने पर इतना ही बताया कि वह पूना से अपनी बुआ के पास रहने के लिए आयी है। इतनी-सी उम्र में पता नहीं उसे कौनसा ग़म खाये जा रहा था! इस उम्र के बच्चों की चुलबुलाहट, मस्ती, बेफिक्री, आँखों की चमक और दोस्त उससे कोसों दूर थे। पूना में उसने ग्यारहवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। बहुत पूछने पर भी कारण नहीं बताया। मैंने उसे कोने से हटाकर बीच में बिठाया और क्लास मॉनीटर सत्या से सभी पिछले नोट्स के जेरॉक्स करके उसे दिलाये। सत्या भी अब उसे अपने साथ रखने लगी थी। धीरे-धीरे कुछ और लड़कियाँ भी उसे अपनी ओर खींचने लगीं। बच्चों के दिल कितने साफ होते हैं पर उसके दिल में न जाने क्या था, जो वह पूरी तरह खुल नहीं पाती थी।

वह क्यों मुझे अपनी ओर खींच रही है! मेरा ध्यान सबको छोड़कर उसकी ही ओर क्यों खिंचता है? ऐसा तो है नहीं कि किसी और की कोई समस्या न हो तो फिर! पता नहीं क्यों पर रह-रह कर उसका ध्यान आ जाता। मैं उसके भीतर जमी गाँठों को खोलने की कोशिश करना चाहती थी शायद इसलिए कि उसकी आँखों का सूनापन मुझे कहीं कचोटता था। मुझे लगता कि अपने भीतर की लड़ाई वह अकेली कैसे लड़ पायेगी! किसी से बात करे तो शायद कोई हल निकले। एक दिन जब क्लास जल्दी छूट गयी और मैं फ्री थी, मैंने उसे रोक लिया और ख़ाली क्लास में एकदम पीछे कोने की बेंच पर उसके साथ बैठकर यूँ ही मुंबई, उसकी बुआ और उनके परिवार के बारे में पूछती रही। वह कभी बोलती छोटे-छोटे वाक्यों में, कभी चुप हो जाती। मैं देख रही थी कि वह बात नहीं करना चाहती है। पता नहीं उसके भीतर क्या चल रहा था। एकदम बंद कर लिया था अपने आपको। पर उस दिन के बाद मुझे देखकर धीरे-से गुड मॉर्निंग मिस ज़रूर कहती। इसी बीच हुए दो विषयों के यूनिट टेस्ट में उसने केवल एक-एक प्रश्न के छोटे से उत्तर केवल प्वाइंट्स में लिखे पर सही। मतलब उसे विषय तो मालूम थे केवल विस्तार नहीं किया था। उसमें मार्क्स भी मिले। उससे उसमें थोड़ा उत्साह जागा। सत्या से थोड़ा खुलने लगी थी पर अपने बारे में कुछ नहीं बोलती थी।

राखी का त्योहार आने वाला था। सब लड़कियाँ कपड़ों, मिठाई, गिफ्ट्स की चर्चा में चहकती रहतीं। मैंने देखा कि इन दिनों वह ज़्यादा ही चुप रहने लगी है। बार-बार मैं सोचती हूँ कि क्यों मैं उसमें इतनी रुचि ले रही हूँ! मेरा उससे क्या संबंध है! मेरी क्लास की एक स्टूडेंट ही तो है। शायद बस एक कन्सर्न। एक अपने में सिमटती जाती ज़िंदगी के लिए। वह सबसे अलग जो है। फिर एक दिन मैंने अकेले में उससे पूछा- "क्या बात है पंकजा, तुम फिर चुप रहने लगी हो! किसी ने कुछ कहा है क्या?"
"नहीं मिस, ऐसे ही।"
"लगता है घर की याद आ रही है।"
घर का नाम सुनते ही टप से दो आँसू लुढ़क पड़े। तुरंत पोंछते हुए बोली- "सॉरी मिस।"
"इट्स ओके। बताओगी नहीं तो कैसे पता चलेगा। शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूँ।"
"कोई मेरी मदद नहीं कर सकता।" पहली बार वह इतना बोली।
"कोशिश तो करो। मैं बताऊं, तुम थोड़ा रो लो दिल हल्का हो जायेगा। मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगी।"
वह थोड़ी देर यूँ ही खड़ी रही फिर बोली- "मुझे अपने छोटे भाई की याद आ रही है।"
"क्यों तुमने राखी नहीं भेजी। और कौन है घर में?"
"नहीं भेजी ऱाखी। पापा, दादी...।"
"और माँ?" उसकी आँखों में आँसू भर आये।
"माँ नहीं हैं। दो साल हो गये। पापा ने अभी कुछ दिन पहले दूसरी शादी कर ली है।"
मेरे सामने उसके गुमसुम रहने का कारण साफ हो गया।
"पापा से बात होती है?"
"वे करते हैं फोन बुआ को हर दूसरे दिन पर मैं उनसे बात नहीं करती।"
"राखी भेजना है?"
"बुआ लायी हैं पर मुझे नहीं भेजना। मना कर दिया है मैंने। उस घर से मुझे कुछ लेना-देना नहीं।"
"ऐसा नहीं कहते। सोचो ज़रा भाई से तो लेना देना है न! और सोच लो कल तक। चलो कल बात करते हैं।"
इतनी बातें करके वह कुछ शांत लग रही थी।

दूसरे दिन उसने राखी मुझे दिखायी। मैं जानती हूँ कि वह राखी भेजना चाह रही है पर हिचकिचा रही हैं। गुस्सा जो है। नाराज़ होकर आयी है घर से।
एक काग़ज़ पर मैंने उसका नाम लिखवाया और उसमें राखी लपेट कर कहा कि बुआ से पोस्ट करवा दे।

थोड़े दिन बाद उसने बताया कि पापा ने एक ड्रेस और पैसे भेजे हैं पर उसने ड्रेस खोलकर नहीं देखी है। पापा से बहुत नाराज़ है। उनकी भेजी कोई चीज़ उसे नहीं चाहिए। अब वह मुझसे बीच-बीच में कभी-कभी कुछ बताने लगी थी।

दीवाली पर मेरे बहुत समझाने पर उसने पूना एक कार्ड भेजा, जिस पर दादी, पापा और प्रणव का नाम तो लिखा पर अपनी माँ का नाम नहीं लिखा। बहुत कहने पर भी राज़ी नहीं हुई। पर एक छोटी शुरुआत थी। फोन पर अब भी पापा से बात नहीं करती थी।

क्लास में अब भी चुप रहती थी पर सत्या और मुझसे खुलने लगी थी। मैं अक्सर ख़ाली समय में उससे थोड़ी बहुत बात कर लेती थी पता नहीं क्यों मेरा उससे लगाव बढ़ता जा रहा था। शायद इसलिए कि वह बिल्कुल अकेली थी और मुझ पर भरोसा करने लगी थी।

दिसंबर के महीने में एक दिन बोली कि पूना से पापा ने उसके जन्मदिन पर एक कार्ड भेजा है, जिस पर प्रिया का साइन भी है और उसके नाम प्रिया की एक चिठ्ठी भी है, जो उसने खोली ही नहीं है। मुझे उसी से मालूम पड़ा कि उसकी नयी माँ का नाम प्रिया है और वो नासिक की हैं।

मैंने उससे कहा, "पत्र का जवाब चाहे मत देना, पढ़ो तो सही लिखा क्या है।"
"बिल्कुल नहीं, मुझे उनसे कुछ लेना-देना नहीं है। उनसे मेरा कोई संबंध नहीं है।"
"अच्छा यह बताओ वे ख़ुद तो नहीं आयी हैं तुम्हारे घर। तुम्हारे पापा शादी करके उन्हें अपने साथ लाये हैं फिर तुम पापा से इतनी नाराज़ क्यों नहीं हो, जितना उनसे? थोड़ी देर चुप रहकर बोली, "मुझे वो बिल्कुल अच्छी नहीं लगतीं। मेरी मम्मी नहीं हैं वो। उन्होंने मेरे पापा को हमसे छीन लिया। मेरे पापा ने उनकी वजह से मुझ पर हाथ उठाया।" वह रुंआसी हो आयी।
"क्यों! क्या ऐसे ही! तुमने क्या किया था?" प्रश्न सुनकर थोड़ी देर के लिए चुप्पी छा गयी। फिर उसने सारा किस्सा टुकड़े-टुकड़े में बताया।
"पर ये बताओ जैसा तुम बता रही हो उसके अनुसार उन्होंने तो कभी कुछ कहा ही नहीं। क्या तुमने कभी उनके नज़रिए से भी देखने की कोशिश की। उनकी तो पहली शादी है। उनके भी तो कुछ सपने कुछ इच्छाएँ होंगी। शादी करते ही दो बच्चे मिल गये, जो उन्हें स्वीकारने को कतई तैयार नहीं। और तुम्हारा भाई भी। पापा ने भी तो कुछ सोचा ही होगा शादी करने से पहले!"
"तो! उन्होंने ख़ुद शादी की है सब जानते हुए। हमारी क्या ग़लती?" उसकी आवाज़ थोड़ी तेज होने लगी थी।
"ठीक है उन्होंने ख़ुद शादी की है। सोचा होगा संभाल लेंगी सब। पर तुमने उन्हें मौका ही नहीं दिया। उन्हें एक मौका दो पंकजा प्लीज! तुम्हारा एक घर है। पापा हैं, भाई है, जहाँ तुम कभी भी हक़ से आ-जा सकती हो। रिश्ते यूँ ही नहीं तोड़ दिये जाते। उनका पत्र तो पढ़ो एक बार।"
सुनती रही पर कुछ बोली नहीं। पता नहीं सुन भी रही थी या नहीं। मैं सोच रही थी कि उसके दिमाग़ में निरंतर क्या चलता रहता होगा। कितना गुस्सा और विद्रोह भरा है उसके मन में। क्या कुछ किया जा सकता है। फिर बहुत दिनों तक उसने कोई बात नहीं की। मैंने भी कुछ पूछा नहीं, बस ऐसे ही चलता रहा फिर एक दिन उसने मुझे प्रिया का पत्र दिखाया। पत्र खुला हुआ था। मतलब उसने पढ़ा था और फाड़ा नहीं था। इसका अर्थ क्या वही था, जो मैं चाह रही थी!

प्रिय पंकजा,
जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। यह नहीं पूछूंगी कि कैसी हो। जानती हूँ बहुत नाराज़ हो मुझसे। पर मैं नाराज़ नहीं हूँ। न ही तुम्हारे पापा। उम्र के जिस पड़ाव पर तुम हो, वहाँ मैं भी ऐसे ही रिएक्ट करती। तुम्हें बताऊं, मेरी भी माँ नहीं हैं। पापा के बाद वे बारह साल मेरे साथ रहीं। मैं महसूस करती हूँ उस कमी को। कोई नहीं भर सकता उस कमी को। सच मानो, मैं तुम्हारी माँ की जगह नहीं लेना चाहती। ले भी नहीं सकती। हम सबकी अपनी-अपनी जगह है एक-दूसरे की ज़िंदगी में। माँ नहीं दोस्त बनना चाहती हूँ तुम्हारी। बनाकर तो देखो। बनोगी क्या मेरी दोस्त? मेरे लिए थोड़ी-सी जगह बना पाओगी क्या अपने मन में?
पंकजा, क्या हम अपनी-अपनी जगह बचाए रखते हुए भी थोड़ी-थोड़ी जगह सबके लिए नहीं बना सकते? मेरे लिए भी क्या आसान है सबकुछ! सोचा था हम दोनों ज़रूर एक-दूसरे को समझ पायेंगे। थोड़ा समय ज़रूर लगेगा। समझ रही हो न! एक-दूसरे को मौका तो देकर देखें। तुम्हें घर से इस तरह दूर करके मैं क्या अपने को कभी माफ़ कर पाऊंगी। यह घर पहले तुम्हारा है। हम सब तुम्हें बहुत मिस करते हैं।

प्रिया

मैंने पत्र पढ़कर उसे वापस करते हुए उसकी तरफ देखा। वह वैसे ही बैठी थी चुपचाप। मैंने कुछ कहा नहीं। इतने दिनों बाद उसने पत्र पढ़ा। फाड़ा नहीं और मुझे दिखाया। कुछ तो चल रहा होगा दिमाग़ में। परीक्षाएँ पास आ रही थीं। प्रिपरेशन लीव हो गयी थीं। बीच में कभी वह लाइब्रेरी या किसी प्रॉब्लम को पूछने के लिए आती थी। मैं भी काफी व्यस्त हो गयी। फिर परीक्षाएँ, कॉपी करेक्शन। पेपर ख़त्म होने के बाद एक बार मिलने आयी थी पर ज़्यादा बात नहीं हो पायी। छुट्टियों में बुआ के साथ घूमने जाने वाली थी। वैसे भी वह पहले के मुक़ाबले काफी संभल गयी थी। और फिर आज अचानक मेरे घर पर। पास हो गयी है यह तो मुझे मालूम था।

"और अब आगे क्या पंकजा?" मैंने पूछा।
"एक मौका तो देना चाहिए न मिस!" कहकर वह हौले-से मुस्कराई।
मैं ख़ुश थी कि वह उड़ने के लिए धीरे-धीरे पंख खोल रही है।

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1 Total Review

शशि श्रीवास्तव

11 July 2024

एक अच्छी सवेदनशील कहानी

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रचनाकार परिचय

मंजुश्री

ईमेल : saksena.manju@gmail.com

निवास : मुंबई (महाराष्ट्र)

जन्मस्थान- उरई (उ०प्र०)
शिक्षा- एम० ए० (अर्थशास्त्र एवं हिंदी), बी० एड
संप्रति- लेखन
प्रकाशन- जागती आँखों का सपना, शह और मात, मेरी प्रिय कहानियाँ, अतीत के अंधेरे में (कहानी संग्रह), आखिरी पायदान पर खड़ा आदमी (उपन्यास)
सारिका, कथाबिंब, पुष्पगंधा, हिंदी चेतना, विभोम स्वर, परिकथा, वागर्थ, हंस, कथा समवेत, सोच-विचार, सरस्वती सुमन, पाखी, वीणा, अक्षरा, प्रेरणा, लमही, समहुत, कथाक्रम, साहित्य अमृत, समकालीन भारतीय साहित्य, कथादेश, किस्सा, गगनांचल, कथायन, जनसत्ता सबरंग (मुंबई) व कुछ अन्य पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित। कथाबिंब, ऋतुचक्र, पूर्वा, आघात, अपूर्वा, अर्पण, दैनिक कश्मीर टाइम्स में कविताएँ प्रकाशित। आकाशवाणी बंबई से कविताओं का प्रसारण। विभिन्न पत्रिकाओं में लेख, साक्षात्कार व लघुकथाएँ भी प्रकाशित व पुरस्कृत। कुछ कहानियाँ मराठी, पंजाबी, उड़िया व अंग्रेजी में अनूदित।
सम्मान- विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा द्वारा 'विश्व हिंदी साहित्यरथी सम्मान (2018), ग्लोबल हिंदी साहित्य शोध संस्थान भारत द्वारा 'ग्लोबल साहित्यश्री सम्मान (2018), महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा 'प्रेमचंद कहानी पुरस्कार, स्वर्ण' (2023)
पुरस्कार- पुष्पगंधा अंतर्राष्ट्रीय हिंदी कहानी प्रतियोगिता में तृतीय स्थान (2020)
पता- ए-10, बसेरा, ऑफदिन-क्वारीरोड, देवनार, मुंबई (महाराष्ट्र)- 400088
मोबाइल- 9819162949