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मक़सूद अनवर मक़सूद की ग़ज़लें

मक़सूद अनवर मक़सूद की ग़ज़लें

ग़म न दो इतना कि मेरी जाँ निकल जाए कहीं 
आँसुओं से जिस्म की मिट्टी न गल  जाए  कहीं

ग़ज़ल-एक
 
हँस रहा होगा शिकारी  जाल  फैलाते  हुए
 ख़ौफ़ आता है मुझे घर लौट कर जाते हुए
 
माँगते हैं लोग पानी की दुआ बा चश्म-ए-नम
ख़ुश है बादल हर तरफ तेज़ाब  बरसाते  हुए
 
ख़ामुशी तो मसअले का हल नहीं लगती है और
बात  
बिगड़ी  है  हमेशा   बात   मनवाते   हुए
 
मुख्तलिफ है सोच उस की मैंने चाहा था मगर 
मेरा बच्चा हो बड़ा कल मुझ को  दोहराते  हुए
 
ख़त्म होता ही नहीं है ख़्वाहिशों का सिलसिला 
शर्म  आती  है  मुझे  अब  हाथ  फैलाते  हुए
 
मैं उसी आवाज़ के पीछे चला हूँ झूम कर 
आगे-आगे चल रहा  है  रास्ता  गाते  हुए
 
काँप उठता है दिल-ए-'मक़सूद' गम के नाम पर
मैं तो इक-इक दर्द  सह  लेता  हूँ  मुस्काते  हुए
 
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ग़ज़ल-दो
 
इक नई राह की ईजाद तो  कर  जायेंगे
जिस तरफ कोई नहीं जाता उधर जायेंगे
 
ज़ात का ग़म नहीं, चुनते हैं मुज़ाफ़ात का ग़म 
हम तो औरों की ख़ुशी  के  लिये  मर  जायेंगे
 
तुम से तो अद्ल की मीज़ान सम्भलती ही नहीं 
मुन्सिफ़ों   बोलो  ये   मज़लूम  किधर  जायेंगे
 
इस लिये भीड़ लगी है कि तमाशा हैं हम 
हम हुए ख़त्म तो सब लोग बिखर  जायेंगे
 
उन के चेहरे पे चमकते हैं लहू के  छींटे 
आईना उन को दिखाओगे तो डर जायेंगे

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ग़ज़ल-तीन
 
ग़म न दो इतना कि मेरी जाँ निकल जाए कहीं 
आँसुओं से जिस्म की मिट्टी न गल  जाए  कहीं
 
पक रहा हो जैसे लावा जिस्म की चट्टान में 
तेरा दामन मेरी आहों से न जल जाए कहीं
 
दिल में उस की परवरिश  करना  अगर  सूद  है 
अश्क बन कर ख़्वाब आँखों से निकल जाए कहीं
 
लो  अभी  से  रात  के  आसार  गहराने  लगे 
मेरा सूरज फिर नमू पा कर न ढल जाए कहीं
 
तेरी ये सोहबत है ऐसी जिस पे सदियाँ  वार  दूँ 
छोड़ कर मुझ को न यह मासूम पल जाए कहीं
 
वह मेरे  एहसास  में  लिपटा  है  मौसम  की  तरह 
अब मेरी शाख़-ए-दिल ओ जाँ में न फल जाए कहीं
 
कह दिया 'मक़सूद' को अपनी फ़क़ीरी है अज़ीज़ 
हो नहीं सकता ये बंदा  सर  के  बल  जाए  कहीं

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ग़ज़ल-चार
 
पानी की ख़ातिर भी  मुझे  तरसाया  है 
मर गई प्यास तो अमृत लेकर आया है
 
हाथ में जब हाथ आया तो एहसास हुआ 
मैंने   दस्ताने   से   हाथ   मिलाया   है 
 
जाते हुए बावन हफ़्तों की झोली से 
अपनी ख़ातिर लम्हा एक चुराया है
 
पड़ गए है आबले मेरी दोनों आँखों में 
तुम  ने  ये  कैसा   मंज़र  दर्शाया  है
 
कैसी रिवायत डाली नाम बदलने की 
धूप दिखा कर कहता है कि साया है
 
टकरा कर होती है सम्म आलूद हवा 
उसने क्या  ज़हरीला  पेड़  उगाया है
 
यह मुँह देखी बातें करता है 'मक़सूद' 
मैंने   आईने   से   धोका   खाया   है

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ग़ज़ल-पाँच
 
ऐ  अब्र  टूट  गए  हैं  तेरे  अज़ाइम  क्या 
ज़मीं को अपने लहू से करूँ मुलाइम क्या
 
जो तू नहीं तो  कहीं  कोई  वारदात  नहीं 
तेरी ही शह पे थे चारों तरफ जराइम क्या
 
हिलाल-ए-ईद तो आता नहीं नज़र छत पर 
बनाए रक्खेगा यूँ ही मुझे  वह  साइम  क्या
 
मुझे  कहे  कोई  आब-ए-हयात  क्या   शै  है 
किसी की ज़ात को रक्खा है उस ने दाइम क्या
 
है तेरी  ज़ात  मेरी  कायनात  का  महवर 
मुझे पता नहीं असबाब क्या, अलाइम क्या
 
सदा-ए-ख़ैर  मिनन   नौम  टाल   जाते  हैं 
तो बाँग-ए-सूर से जागेंगे अब ये नाइम क्या
 
बगल से गुज़रा है 'मक़सूद' मुझ को देखे  बग़ैर 
वो शख़्स आज भी है अपनी ज़िद पे क़ाइम क्या

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रचनाकार परिचय

मक़सूद अनवर 'मक़सूद'

ईमेल : maqsoodanwar96@yahoo.com

निवास : दोहा, क़तर

जन्मतिथि- 17 जून, 1970 
जन्मस्थान-जमशेदपुर, झारखंड
शिक्षा-बी एस सी (रसायन विज्ञान,हॉनर्स), बी ए (इतिहास,हॉनर्स) 
सम्प्रति- नौकरी, स्वतंत्र लेखन 
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, नज़्म एवं आलेख 
प्रकाशित कृति- आसमाँ तू ही बता (उर्दू एवं हिंदी में)
प्रकाशनरेख़्ता पर ग़ज़लों के प्रकाशन के साथ ही देश विदेश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
प्रसारण- दूरदर्शन एवं टी० वी० चैनलों पर काव्य-पाठ।
काव्य-पाठ- देश एवं विदेश के प्रतिष्ठित काव्य मंचों पर काव्य-पाठ

विशेष-
अदब सराय, जमशेदपुर के संस्थापक-संरक्षक
पूर्व उपाध्यक्ष, बज़्म-ए-क़तर
पूर्व पूर्व अध्यक्ष, बज़्म-ए-सदफ़ इंटरनेशनल
बज़्म-ए-उर्दू, क़तर और कारवान-ए-उर्दू, क़तर से जुड़ाव
बज़्म-ए-हमख़याल और शायक़ीन अदब, जमशेदपुर की संस्थाओं के भी सदस्य।
नेशनल कॉउंसिल फ़ॉर प्रोमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज में आपकी पुस्तकें संरक्षित की हैं।
सम्मान- विभिन्न साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित