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मीना धर पाठक की कहानी 'लोभ'

मीना धर पाठक की कहानी 'लोभ'

कुसुम की दोनों बेटियाँ पढ़ रही थीं। एक दिन उसके न रहने पर कुछ मनचले उसकी झुग्गी में घुस कर बड़ी बेटी से ज़ोर ज़बरजस्ती पर उतर आए थे। वो तो अच्छा हुआ कि पड़ोस का राममोहन उस दिन मजदूरी पर नहीं गया था। शोर सुन कर उसी ने गँइती उठा कर उन लड़कों को दौड़ाया था। साँझ को घर लौटने पर पता चला तो वह काँप उठी थी।

उसकी देह मात्र अस्थि-पिंजर भर बची है। त्वचा झूल कर लटक गयी है। सिर पर सफ़ेद खूँटियाँ-सी निकल आयी हैं। शायद कुछ दिनों पहले ही उसके बाल उतारे गए हैं। वह बिस्तर पर लेटी अपनी धँसी आँखों से पंखे को टुकुर-टुकुर निहार रही है। अचानक बिजली जाने से पंखे की गति धीमी होने लगी है। उसकी दृष्टि पंखे से हट कर पास रखे स्टूल की ओर घूमी। अपना काँपता हाथ बढ़ा कर पानी का गिलास उठाना चाहा उसने पर उँगलियों से फिसल कर गिलास झन्न की आवाज़ के साथ गिरा और पानी फ़ैल गया| 
"पानी चाहिए...?" आवाज़ सुन कर एक वृद्धा ने आ कर गिलास उठाते हुए पूछा।
हाँ में सिर हिला दिया उसने। वहीं रखे  घड़े से पानी निकाल कर वृद्धा ने गिलास उसके सूखे होठों से लगा दिया।

शहर से लगभग बीस किलोमीटर दूर है ये वृद्धाश्रम। यहाँ लगभग डेढ़ सौ वृद्ध रहते हैं। जिनमें से कुछ की दशा अत्यंत दयनीय है। उन्ही में से एक वह भी है जिसे दो वर्ष पहले रात के अँधेरे में कोई वृद्धाश्रम के गेट पर बैठा गया था। तब से जैसे उसने मौन साध रखा है। यहाँ सब उसके बारे में जानना चाहते हैं पर वह कैसे बताएँ कि आज जो उसकी ये दशा है, वह उसी के कर्मों का फल है! कैसे बताए कि काग़ज़ों पर अँगूठे की छाप लेने के बाद उनका दामाद ही यहाँ धकेल गया है! कैसे बताएँ कि पैसों और सुविधाओं के लोभ में छिः...! डायन भी अपने आस-पास सात घर छोड़ देती है पर उसने तो...!
 उस दिन भाभी जी के कहे शब्द आत्मा पर घाव कर गए थे। वह घाव आज नासूर बन चुके हैं। सच ही तो कहा था उन्होंने, “धिक्कार है तुझ पर...धिक्कार है!” सोचते हुए उसकी आँखें फिर से पंखे पर स्थिर हो गयीं। अचानक खट्ट की आवाज़ से पंखा चल पड़ा है। पंखे की बढ़ती गति के साथ ही उसकी स्मृतियों के पन्ने तेजी से फड़फड़ा उठे हैं। 
*
“ये तेरी बेटी है?” कुसुम काम कर के जाने को हुई कि मालकिन पूछ बैठीं।
“हाँ भाभी जी! मेरी छोटी बेटी है।“ कुसुम आँचल से हाथ पोछती हुई बोली।लगभग दो महीने हो गए थे उसे इस नए बँगले में काम करते हुए। आज वह पहली बार हाथ बँटाने के लिए कला को साथ ले आई थी।
“यह तो बहुत सुन्दर है री !” 
“सब यही कहते हैं भाभी जी, अब ये भी बड़ी हो रही है। कोई कमाता-खाता लड़का मिले तो इसके भी हाथ पीले कर गंगा नहाऊँ।“
“अरे ! अभी तो ये छोटी है। क्यूँ कर देगी ब्याह! पढ़ने दे इसे।“
“जितना पढ़ना था पढ़ ली है भाभी जी! मेरा जी डरा रहता है। आपने तो अख़बार में पढ़ा ही होगा! एक छोटी बच्ची का स्कूल वालों ने ही...! राम राम राम !”
“अरे तो पकड़े भी तो गए न! अब सड़ेंगे जेल में।” 
“हम ग़रीब लोग किस-किस से लड़ेंगे भाभी जी! बस्ती में भी कुछ ठीक नहीं है।” 
“ऐसे तो कहीं भी कुछ ठीक नहीं है कुसुम! पर चल ठीक है। जैसी तेरी मर्जी। वैसे मेरी नज़र में एक लड़का है। अगर तू कहे तो बात चलाऊँ।“  
“आप की बड़ी दया होगी भाभी जी! बस लड़का कमाता-खाता हो।“ 
“उसकी चिंता मत कर। पैसों की कमी नहीं होगी तेरी बेटी को।“ सुन कर कुसुम का चेहरा खिल उठा था।  

कुसुम की दोनों बेटियाँ पढ़ रही थीं। एक दिन उसके न रहने पर कुछ मनचले उसकी झुग्गी में घुस कर बड़ी बेटी से ज़ोर ज़बरजस्ती पर उतर आए थे। वो तो अच्छा हुआ कि पड़ोस का राममोहन उस दिन मजदूरी पर नहीं गया था। शोर सुन कर उसी ने गँइती उठा कर उन लड़कों को दौड़ाया था। साँझ को घर लौटने पर पता चला तो वह काँप उठी थी। उसी के बाद उसने स्कूल छुड़ा कर बड़ी बेटी को ब्याह दिया था और अब कला को भी ब्याह देना चाहती थी।
 
“कल वह लोग तेरी कला को देखने आ रहे हैं।“ अगले दिन जैसे ही कुसुम काम पर पहुँची, मालकिन बोल पड़ीं। कुसुम उनके प्रति कृतज्ञता के भाव से भर उठी। इस लिए कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं कर पायी कि लड़का कौन है? कैसा है? क्या करता है? उसे विश्वास था कि मालकिन ने बताया है तो ठीक ही होगा। लड़का किसी बंगले में ड्राइवर या चपरासी तो ज़रूर होगा। 
रात भर वह बेटी के सुखद भविष्य के सपने बुनती रही। अगले दिन कला को ले कर पहुँच गयी और घर की साफ़-सफ़ाई के बाद नाश्ते की तैयारी में जुट गई। दस बजे होगें, गेट पर दो गाड़ियाँ आ कर रुकीं। “गाड़ी से तो मालकिन की सहेलियाँ आयीं होंगीं।“ सोचते हुए गेट खोल कर वह रसोई में चली आयी और प्लेट में बर्फी सजा कर काँच के सुन्दर-सुन्दर गिलासों में पानी भरने लगी।
वह ट्रे लिए जैसे ही बैठक में दाख़िल हुयी, मालकिन बोल पडीं, “कला को भी ले आती न!” वह ठिठक कर उनका मुँह देखने लगी। मालकिन ने उठ कर उसके हाथ से ट्रे ले लिया और धीरे से बोलीं, “यही लोग तो हैं। जा, कला को ले आ।“ कुसुम उनका मुँह देखने लगी। वे समझ गयीं।
“मेरा भतीजा। उसी के साथ मैंने कला की बात चलाई है। अब जा।“  
“इतने बड़े घर में मेरी बेटी का रिश्ता...!” आश्चर्यचकित-सी वह भीतर जा कर कला को लिवा लायी। गोरा रंग, सुन्दर नाक-नक्श, दो चोटियों में बँधे हुए केश और चेहरे पर भोलापन! सभी की दृष्टि कला पर थी और कला सकुचाई-सी खड़ी थी।

उसे देख कर सबके चेहरे खिल उठे थे। कुसुम की आँखें लड़के को तलाशने में लगी थीं कि तभी मालकिन की बगल में बैठी महिला ने उनके कान में कुछ कहा। कला को सोफ़े पर बैठा कर मालकिन कुसुम को दूसरे कमरे में ले आईं और वहीं से अपने भतीजे को दिखाईं जिससे वह कला का रिश्ता करा रही थीं। कुसुम चौंक पड़ी। उसके चेहरे की खुशी छिटक कर कहीं दूर जा गिरी। लगा जैसे किसी ने उसे आकाश पर चढ़ा कर धक्का दे दिया हो। 
“मैं अपनी बेटी को कुएँ में धकेल दूँगी पर इस लड़के से न ब्याहूँगी।“ खुद को संभालती हुई एकाएक वह चीख़-सी पड़ी। 
“क्या करती है कुसुम! किसीने सुन् लिया तो! ज़ रा धीरे बोल।“ मालकिन ने घुड़क दिया|
“ना भाभी जी! मुझे अपनी कला को नहीं ब्याहना।“
“ज़रा दिमाग़ से सोच कुसुम...! पागल मत बन। बड़े लोग हैं। तेरी बेटी राज करेगी राज...!”
“ना...! मैं अपनी कला का हाथ इसके हाथ में न दूँगीं भाभी जी।“ 
“सोच ले कुसुम! रंग-रूप से घर नहीं चलता। इतना बड़ा घर मिल रहा है कला को और क्या चाहिए? ब्याह का सारा ख़र्च मेरे भैया ही उठाएँगे। तुझे कुछ नहीं करना है। तू हाँ कर दे बस...! बेटी के साथ तेरे हालात भी सुधर जायेगें! कब तक यूँ घर-घर की जूठन बटोरती फिरेगी! क्या तेरी तरह कला भी यही सब करती रहेगी! खूब अच्छे से सोच ले।“ मालकिन उसे समझा कर कमरे से बाहर चली गयीं।

कुसुम सिर पर हाथ रखे वहीं बैठ गयी। बात तो सही थी। बड़ा दामाद देखने में कितना सुन्दर सजीला है पर आए दिन घर में लड़ाई-झगड़ा मचाए रहता है। काम-काज में मन नहीं लगता उसका। रोज़-रोज़ की किच-किच से तंग आ कर उसने बड़ी बेटी को दो-चार घर का काम दिला दिया है जिससे वह उससे दूर रहेगी तो लड़ाई नहीं होगी और बेटी के हाथ में चार पैसे भी आएँगे। 
“क्या सोचा कुसुम?” तभी मालकिन उसके पास आ कर बोलीं। कुसुम भावनाओं के समंदर से बाहर निकल कर यथार्थ के धरातल पर खड़ी थी। उसने अपनी मौन सहमति मालकिन को दे दी थी।
“ये हुई न बात! चल आ जा।“ चहक उठी थीं मालकिन।

सोफ़े पर बैठी कला के सिर पर सितारों जड़ी चुन्नी ओढ़ा दी गयी। सभी लोग एक-एक कर कला को टीका कर कुछ न कुछ उपहार देने लगे। उसका आँचल रुपयों, और गहनों के छोटे-बड़े डिब्बों से भर गया। कला के किशोर मन की फुलबगिया इतने रुपये और गहनें देख कर खिल उठी थी। छोटी उम्र से ही अभाव का जीवन जिया था उसने। घरों का बचा खाना, उतरन पहनना और गूदड़ पर सो रहना। पर आज अचानक उपहार में मिली इतनी सारी चीज़ों ने उसकी आँखों में चमक ला दी थी। मिठाइयाँ देख कर उसके मुँह में पानी आ रहा था। तभी मालकिन ने उसका हाथ पकड़ कर किसीके हाथ में थमा दिया। कला के शरीर में झुरझुरी-सी हुयी। उसने जैसे ही ऊपर देखा, चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। लगा जैसे कोई कंकाल कीमती कपड़े पहने उसका हाथ थामे खड़ा हो। उसके स्पर्श की ठंडक से वह भीतर तक जमती जा रही थी। काला रंग, भीतर की ओर धसी छोटी-छोटी गोल आँखें, पिचके गुब्बारे जैसे गाल, लंबा कद, मुँह में मसाला, झुके हुए कंधे और आँखों में चमक ऐसी, जैसे किसी बिल्ले ने नन्ही चुहिया को झपट लिया हो। डर कर वह उठ खड़ी हुई। आँचल में भरा शगुन गिर कर बिखर गया। उसकी आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा। वह गिरने ही वाली थी कि मालकिन ने उसे थाम लिया। तबतक उसने कला की उँगली में हीरे की अँगूठी पहना दी थी।
*
“अम्मा ! मैं उससे ब्याह नहीं करूँगी, चाहे तू मेरी जान ले ले।“ कला रोये जा रही थी। कुसुम उसे ऊँच-नीच समझा रही थी पर कला मानने को तैयार न थी। कुसुम ने अपनी बड़ी बेटी को बुला लिया था। उसने भी कला को बहुत समझाया। 
“मेरी बहन! जीवन वैसे नहीं चलता जैसा हम सोचते हैं। वह तो समझौता है हम जैसों के लिए। तू तो भाग्यशाली है जो इतने बड़े घर की बहू बन रही है।“ वह तो बस रोए जा रही थी। उसकी समझ में बहन की एक भी बात नहीं आ रही थी। 

उस दिन भी कला बैठी रो रही थी कि तभी गेट खटका। आँसू पोंछते हुए जा कर उसने दरवाज़ा खोल दिया। सामने जीजा मनोहर खड़ा था। वह कला की सूजी आँखों में झाँकता हुआ बोला, “क्या हुआ कला! ऑंखें क्यों सूजी हैं तुम्हारी?” मनोहर से अपनापा और हमदर्दी पा कर कला उसके गले लग कर रो पड़ी और देर तक रोती रही वह उसका पीठ सहलाता रहा। 
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शर्मा परिवार का जेवरात का व्यापार था। लक्ष्मी जैसे हाथ-गोड़ धो कर उनके घर बैठ गयी थीं। घर में किसी चीज़ की कमी नहीं थी अगर कमी थी तो छोटी बहू की। दोनों बड़े बेटों का विवाह हो चुका था। उनके बच्चे भी थे पर तीस-बत्तीस की उम्र में भी छोटे बेटे का लगन नहीं हुआ था। कारण थी उसकी बीमारी। अब तो वे लोग उम्मीद ही छोड़ चुके थे।अचानक बहन का फोन सुन कर उस दिन सारा परिवार दौड़ता चला गया और कला को पसंद कर शगुन भी दे आया था। उनके घर में खुशियों के मंगल गीत गाए जा रहे थे।
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कुसुम के जाने के बाद अब प्रतिदिन मनोहर आ जाता। उसका साथ पा कर कला के चेहरे की रंगत वापस आने लगी थी। उसे अपनी अम्मा और बहन से अच्छा मनोहर लगने लगा था। ऐसा नहीं था कि मनोहर और कला की नज़दीकियाँ कुसुम से छुपी थीं। पर उसने कुछ सोच कर अपनी आँखें मूँद ली थीं। 
जीवन के बद्तर दिन वह काट चुकी थी। अब अगर ईश्वर उसे अच्छे दिन दिखा रहा था तो वह क्यों छोड़ दे! वह तो नहीं गयी थी रिश्ता माँगने! रिश्ता खुद चल कर आया था। दुनिया में न जाने कितने बेमेल रिश्ते होते हैं तो क्या वह निभते नहीं? हर ब्याह में कहीं न कहीं कुछ समझौता करना ही पड़ता है पर ब्याह होते ही सब ठीक हो जाता है। वह स्वयं को हर तरह से सांत्वना देती फिर भी मन के किसी कोने में कुछ कसकता रहता।
*
शर्मा जी ने कुसुम के नाम एक छोटा सा घर ख़रीद कर कुछ ज़रूरत का सामान भी जुटा दिया था। बेटे के ब्याह के लिए जो कुछ भी करना पड़े, वह पीछे हटने वाले नहीं थे। संतान का घर बस जाय, यही तो हर माता-पिता चाहते हैं। उन्हें बेटे के ब्याह के साथ-साथ अपने स्टेटस का भी ख्याल रखना था। ताकि कोई यह न कह सके कि शर्मा जी झुग्गी बस्ती की लड़की ब्याह लाए।
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जैसे-जैसे ब्याह का समय निकट आता जा रहा था, कला की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं। वह बार-बार कहती, “अम्मा ! अब भी मान जा।“ कुसुम हर बार उसे दुनियादारी समझा-बुझा देती। मनोहर से लिपट कर रोती तो वह भी कहता, “क्यूँ परेशान है कला! मैं हूँ न!” वह रो-धो कर रह जाती।
*
ब्याह का छोटे से बड़ा सभी ख़र्च शर्मा जी ने उठाया। धूम-धाम से विवाह संपन्न हुआ। कला बनारसी साड़ी और जेवरों से लदी अपनी ससुराल आ गयी पर अन्य लड़कियों की तरह उसकी आँखों में भावी जीवन के सुखद स्वप्न के स्थान पर भय और क्षोभ था। रस्में निभाते-निभाते रात हो गयी। दोनों जेठानियों ने उसे ला कर एक कमरे में फूलों से सजे पलंग पर बैठा दिया था। जिठानियों के जाते ही उसने घूँघट उठा कर देखा। बेला और गुलाब की लड़ियों से पूरा कमरा सजा था। खिड़की दरवाज़े पर क़ीमती पर्दे लटक रहे थे। दीवार पर बड़ी-सी टीवी लगी थी। प्लेट में मिठाई, चाँदी के वर्क से सजे पान के दो बीड़े और दूध का गिलास उसके सामने ही मेज़ पर रखा था। पूरा कमरा महमह हुआ था। जब वह माँ के साथ काम पर जाया करती थी तब ऐसे कमरों में मालकिनों को रहते देखती थी। पर अब वह स्वयं इस कमरे की मालकिन है। एक क्षण के लिए उसकी आँखों में बिजली-सी चमकी पर अगले ही पल बुझ गयी। 

तभी दरवाज़ा बंद होने की आहट पा कला सिहर उठी। घूँघट खींच कर उसने भीतर से ही देखा। सफ़ेद कुर्ता-पजामा में वह कहाँ था? कुछ पता ही नहीं चल रहा था। वह आ कर उसके क़रीब बैठ गया। मसाले की तीव्र गंध उसके नथुनों में समा गयी। उसने दूसरी तरफ मुँह फेर कर भीतर की साँस छोड़ी और एक लंबी साँस भर कर आँखें मूँद लीं। घूँघट उठाने की रस्म भी नहीं हुयी और प्याज़ के छिलके के मानिंद उसके वस्त्र उतरते चले गए। एक झटका लगा और वह नर्म बिस्तर पर गिर पड़ी। लगा जैसे अचानक सैकड़ों जोकें उसकी देह छेद कर भीतर समाती जा रही हों। 

तीसरे दिन ही चौथी का सामान ले कर कुसुम, मनोहर के साथ शर्मा जी के बंगले पर पहुँच गयी। कुसुम तो रस्म \ निभाने भर आयी थी। सारा प्रबंध तो शर्मा जी ने ही किया था। जब से इस घर से रिश्ता जुड़ा था, उसकी तो क़िस्मत ही बदल गयी थी। दूसरों के घर के बचे-कूसे पर दिन गुजारने वाली कुसुम अब शर्मा परिवार की बदौलत खुद मुख्तार थी। जैसे ही कुसुम बेटी के कमरे में पहुँची, कला उसके गले लग कर बिलख पड़ी।  
“अम्मा ! ये किस नर्क में धकेल दिया! उससे घिन आती है मुझे...।”
“चुप कर लड़की ! अगर किसी ने सुन लिया तो ग़ज़ब हो जाएगा। जीवन रबड़ी का दोना नहीं जो स्वाद ले-ले कर तू चाटती रहे! क्या ख़राबी है उसमे ? लंगड़ा-लूला है या काना-कुबड़ा है? और सुन! अब यही तेरा घर है और यही तेरी ज़िन्दगी। जब तू दो साल की थी न! तभी तेरे बाप ने मुझे छोड़ कर दूसरी कर ली थी। मैंने कैसे-कैसे दिन देखे हैं, मैं ही जानती हूँ। मालिकों की खा जाने वाली नज़रों से कैसे बचती आई हूँ, ये कोई नहीं जानता। तू क्या चाहती थी! उसी नर्क में मैं तुझे भी धकेल देती? फिर गिरवाती रहती तू सारी उम्र पेट!” कुसुम उसे झकझोरती हुई कहती चली गयी।

तभी नीचे से बुलावा आ गया। कुसुम कमरे से बाहर आ गयी। मनोहर वहीं सोफे पर बैठा चुपचाप दोनों को देख रहा था। उसके जाते ही कला दौड़ कर मनोहर से लिपट गयी। कला की देह से उठती इत्र की भीनी-भीनी सुगंध मनोहर को मदहोश किए दे रही थी। उसने कला का आँसुओं से भीगा चेहरा चूम लिया। कला भी उसकी बाँहों में सिमटती चली गयी। 
*
अभी नया-नया ब्याह हुआ था इस लिए शर्मा जी नहीं चाहते थे कि बेटा अपनी पत्नी या ससुराल वालों के साथ देर तक समय बिताये। क्या पता कब ‘फिट’ पड़ जाय! इस लिए बहू को अकेले ही पगफेरे के लिए उसकी माँ के साथ भेज दिया था।

ज़िन्दगी बदल चुकी थी कला की। ससुराल में उसके ऊपर सभी का नेह बरसता था पर उसकी हर रात भयावह होती थी। छोटी उम्र में ही वह समझ चुकी थी कि अब ये समझौते का जीवन ही उसका जीवन है। अपने ससुराल में रहने के सिवा अब उसके पास कोई चारा नहीं था। क्योंकि एक उसके कारण दोनों परिवार सुखी थे। वह इस रिश्ते से भाग नहीं सकती थी।

यूँ तो बेटियों के घर का पानी भी नहीं पीते पर कुसुम बेटी के घर से मिलने वाली सुख-सुविधाओं की आदी होती जा रही थी। पंखे के बाद कूलर और कूलर के बाद अब घर में ए.सी. लग रहा था। बहाना था कि कला अब ए.सी. के बिना नहीं रह पाती। दिन पर दिन कुसुम स्वर्थी होती जा रही थी।  

गर्मियों के दिन थे। कला की जेठानियाँ बच्चों के साथ मायके गयीं थीं। घर में बस सास-ससुर और नौकर-चाकर थे। पति तो रात के अँधेरे में प्रेत की तरह प्रकट होता और सुबह होते ही अदृश्य हो जाता। इधर मनोहर कभी-कभी उससे मिलने आ जाता था। उसके आते ही कला खिल उठती थी। मिसेज शर्मा ने पति से मनोहर को ले कर ऐतराज़ जताया था पर शर्मा जी ने उन्हें समझा दिया कि “बहू के कोई भाई नहीं है, तो वही आएगा न!” 

वट सावित्री का त्यौहार आ रहा था। कला का पहला व्रत था। उसी की ख़रीदारी करने मिसेज शर्मा पति संग बाज़ार गयी हुई थीं। उस दिन मनोहर आया और सीधे कला के कमरे में चला गया। 

थोड़ी देर बाद जैसे ही कमरे से निकला सामने कला की सास को देख कर मनोहर को पसीना छलक आया। वह लंबे-लंबे डग भरता हुआ बाहर निकल गया। मिसेज शर्मा अपनी ग़ैरहाज़िरी में मनोहर को यूँ बहू के कमरे से निकलता देख चौंक पड़ीं। जैसे ही वह कला के कमरे में पहुँचीं उसे अस्त-व्यस्त देख वह सब समझ गयीं। कला भी सपनी सास को देख कर सन्न रह गयी। सास की आँखों से अंगारे बरस रहे थे। वे चल कर उसके पास आयीं। खींच कर एक ज़ोर का थप्पड़ उसके गाल पर रसीद किया और बिना कुछ कहे बाहर निकल गयीं। 

कला अपना चेहरा घुटनों में छुपाये रोये जा रही थी। क्या मुँह दिखाएगी अब सबको, अम्मा ने उसे किस जंजाल में फँसा दिया था! इससे अच्छा तो वह किसी नदी-नाले में धकेल दी होती, कितना मना किया; पर किसीने मेरी एक न सुनी। वह फफक-फफक कर रोती जा रही थी कि तभी किसीने उसको ज़ोर से झकझोरा। आँसुओं से भीगा चेहरा उठा कर देखी तो सामने अम्मा थी। वह अम्मा के गले से लग कर रोना चाहती थी। आज उनके आँचल तले सिमट जाना चाहती थी। उसका दुःख अम्मा से सिवाय और कौन समझ सकता था! इसी उम्मीद से बिलखती हुई उनकी ओर हाथ बढ़ाया ही थी कि, “निर्लज्ज कहीं की ! कितना समझाया था मैंने कि अब मनोहर से मिलना-जुलना बंद कर दे पर तू नहीं मानी। तूने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा...! अपनी बहन का भी नहीं सोचा! अब मैं इन लोगों को क्या जवाब दूँ? तूने तो मेरे मुँह पर कालिख ही मल दी। बे-हया..! बदचलन !” कुसुम उसे पागलों की तरह पीटती जा रही थी। अंत में अपना सिर पीट कर रोने लगी। कला को जैसे काठ मार गया। बढ़ा हुआ हाथ बेजान-सा गिर पड़ा। उसे उसी हाल में छोड़ कुसुम उठ कर नीचे आ गयी।
“ले जा अपनी बदचलन बेटी को। नहीं चाहिए मुझे ऐसी बहू। हमने तुम लोगों को गंदी बस्ती से उठा कर एक अच्छा घर दिया। अच्छा समाज दिया। रहन-सहन, पहनावा, सब कुछ बदल दिया और तुम लोगों ने हमें मुँह दिखाने लायक़ भी नहीं छोड़ा।“ उसे देखते ही मिसेज शर्मा चीख़ पड़ी थीं। 
“बच्ची है, मैं समझाऊँगी। आगे से वह ऐसी ग़लती कभी नहीं करेगी।“ कुसुम हाथ जोड़ कर घिघियाती हुई बोली। 
शर्मा जी सिर पर हाथ धरे सन्न-गन्न बैठे थे। इस माहौल में उनके मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे। तभी मिसेज शर्मा फिर चीखीं..
“मैं एक शब्द नहीं सुनना चाहती। अपनी बेटी को ले, और दफ़ा हो इस घर से।“ वह क्रोध से थर-थर काँप रहीं थीं। तभी शर्मा जी उठे और पत्नी के कन्धे पर हाथ रख कर उन्हें शांत कराते हुए कुसुम से बोले, “अभी आप जाइए यहाँ से। हम कल इस विषय पर बात करेंगे। आज ‘यह’ अपने होश में नहीं है।“ 
“घर की इज़्ज़त की बात है। तुम्हारे इस तरह चीख़ने चिल्लाने से बात बाहर तक जाएगी और हमलोग किसी को मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहेंगे। शान्ति से कोई रास्ता निकालते हैं पर ख़बरदार...! जो किसी भी लड़के को कुछ बताया। बेटों को पता चल गया तो ग़ज़ब हो जाएगा !” कुसुम के जाने के बाद वे पत्नी को देर तक समझाते रहे। 

दोपहर से रात हो चली थी। कला वहीं प्रस्तर प्रतिमा-सी अँधेरे में बैठी थी कि तभी कमरे में कोई आया। पट्ट की आवाज़ हुयी और कमरा रोशनी से नहा गया। वह आ कर उसके सामने बैठ गया और अपने काले-पीले दाँत निकाल दिए। कला इस तरह अँधेरे में क्यूँ बैठी थी? उसे कुछ लेना-देना नहीं था। वह तो एक आहार थी, उसकी देह की भूख मिटाने के लिए। पर आहार बनते हुए कला हर बार कितनी पीड़ा से गुज़रती थी, ये तो वही जानती थी।
 
मनोहर ने उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया और उसे इस हाल में अकेला छोड़ कर भाग गया था। अम्मा ने उसे ब्याह कर अपना बुढ़ापा सुरक्षित कर लिया, ससुराल वालों ने पैसे के बल-बूते अपना खोटा सिक्का भी चला लिया था; पर किसी ने भी उसके बारे में नहीं सोचा? अब वह किस-किस को जवाब देगी? हिकारत भरी नज़रों का सामना नहीं कर सकेगी। उसके भीतर मंथन चल रहा था कि तभी पति ने उसकी कलाई पकड़ कर खींचा। जब नहीं खींच पाया तब कालीन ही बिछौना बन गया।

फिर से सैकड़ों जोंकें कला से लिपट गयीं। आँखें मूँदे वह उनसे बिधती रही। मसाले की गंध साँसों में भरती रही। होंठ दाँतों से लहुलुहान होते रहे पर उसके मुँह से आह तक न निकली। कुछ देर बाद आँखें खुलीं तो भरभरा कर आँसुओं की गर्म धारा बह निकली। पास ही उसका पति स्वान-सा हाँफ रहा था। 

कला ने छत्त की ओर देखा, पंखा मौन सब कुछ देख रहा था। दीवारें साँस रोके खड़ी थीं। पर्दे थरथरा रहे थे। ए.सी.की हवा उसके आहत जिस्म को सहला रही थी और कला को स्वयं से घृणा हो रही थी। अब वह न तो किसी की बेटी थी न पत्नी न प्रेमिका। दूर-दूर तक अँधेरा पसरा था, उसे कहीं कोई रौशनी की किरण नज़र नहीं आ रही थी। वह जीवन के उस मोड़ पर खड़ी थी जहाँ आगे कुआँ और पीछे खाई थी। अचानक उसने एक निर्णय लिया और चिंदी चिंदी बिखरे अपने अस्तित्व के टुकड़ों को समेटती उठ खड़ी हुयी। उसने पति की ओर देखा, वह गहरी नींद सो चुका था। दीवार घड़ी रात के तीन बजने का संदेश दे रही थी। 
*
रात भर कुसुम को नींद नहीं आयी। ये क्या किया कला ने! मनोहर को कितना डाँटा था पर उसने एक न सुनी। बड़ी बेटी भी उसीको भला बुरा सुना गयी थी। अगर उन लोगों ने कला को घर से निकाल दिया तो सिर से यह छत्त भी चली जाएगी और फिर से वही झुग्गी, बजबजाती नालियाँ, रोज़ पानी की किच-किच और घर-घर के झूठे बर्तनों का ढेर! नहीं-नहीं, वह ऐसा नहीं होने देगी। अब दोबारा वह किसी की चाकरी नहीं करना चाहती। यही सब सोचते-सोचते कुसुम की पूरी रात निकल गयी थी। सुबह पाँच बजे ही उसका फोन बज उठा। शर्मा जी का फोन था। उन्होंने तुरंत बुलाया था। 

शर्मा जी के बँगले पर भीड़ देख कर किसी अनहोनी की आशंका से कुसुम का दिल धड़क उठा। ऑटो से उतर कर भीड़ को चीरती हुई वह धड़धड़ाती भीतर चली गयी। पूरा परिवार सिर पर हाथ धरे बैठा था। मिसेज शर्मा उसे देखते ही उसकी कलाई पकड़ कर खींचती हुई कला के कमरे की ओर बढ़ गयी। अचानक कुसुम की चीख़ वातावरण में गूँज गयी।
“अरे मार डाला रे ! दहेज के लोभियों ने मेरी फूल सी बच्ची को मार डाला।”
मिसेज शर्मा के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। कुसुम की चीख़ के साथ की सायरन की आवाज़ सुन कर भीड़ में खुसुर-फुसुर शुरू हो गयी थी।
*
इस घटना को छ: महीने हो गए थे। पूरा शर्मा परिवार यहाँ-वहाँ भागा-भागा फिर रहा था। बच्चों की पढाई रुक गयी थी। सब के सिर पर गिरफ़्तारी की तलवार लटक रही थी। दस दिन इस रिश्तेदारी तो दस दिन उस रिश्तेदारी में भाग-भाग कर वे थक गए थे। उस दिन फोन पर शर्मा जी अपनी बहन को कुछ धीरे-धीरे समझा रहे थे।

डोर बेल की आवाज़ सुन कर कुसुम ने जा कर गेट खोल दिया। सामने अपनी पुरानी मालकिन को देख कर पहले तो ठिठकी फिर रूखे स्वर में बोली- "जी कहिए...!" 
"भीतर आने को नहीं कहोगी समधन!" व्यंग्यात्मक लहजे में बोलीं वे।
"आइए।" कुसुम ने थोड़ा सा हट कर उन्हें भीतर आने का रास्ता दे दिया।
भीतर आ कर वह बड़े ग़ौर से उसका घर देखने लगीं।, “तेरे तो बड़े ठाट हैं री...! भैया ने तुझे कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया और तूने उन्हीं को घर से बे-घर कर दिया? आज वह दर-दर भटक रहे हैं और तू यहाँ चैन की बंसी बजा रही है !” कुसुम पर घृणा भरी दृष्टी डालते हुए बोलीं वे। 
“मेरी बच्ची के हत्यारे कभी चैन से नहीं रह सकेगें, चली जाइए आप...नहीं तो आप का नाम भी लिखवाने में मुझे देर न लगेगी।“ रोष में कहा कुसुम ने।
“एक तमाचा लगाऊँगी तो चेहरा बिगड़ जायेगा तेरा...! तू अपनी औक़ात भूल गयी...! सच्चाई क्या है ये तू भी जानती है और मैं भी। ये ले, और अपना केस वापस ले...।“ अपने बैग से अख़बार बार में लिपटा एक भारी-सा बण्डल कुसुम के सामने फैंक दिया उन्होंने।
कुसुम ने बंडल खोल कर देखा, “बस इतना ही...!”
“मैं जानती थी कि तू यही कहेगी पर पहले केस वापस ले फिर इतना ही और मिल जाएगा तुझे। वैसे तेरे जैसी लोभिन मैंने ज़िन्दगी में नहीं देखी, जिसने अपनी मरी हुई बेटी का भी सौदा कर लिया हो, धिक्कार है तुझ पर...धिक्कार है !”

खट्ट की आवाज़ के साथ पंखा रुक गया है। वृद्धा की आँखें पंखे पर स्थिर हैं और वृद्धाश्रम की बिजली फिर से चली गयी थी।
 
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रचनाकार परिचय

मीनाधर पाठक

ईमेल : meenadhardwivedi1967@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

शिक्षा- एम.ए. (हिन्दी)
जन्मतिथि-
 05 मई 1967
जन्मस्थान- कानपुर(उत्तर प्रदेश)
संप्रति- अध्यापन, लेखन
प्रकाशित कृतियाँ- ‘घुरिया’ (2019) ‘व्यस्त चौराहे’ (2022) (कहानी-संग्रह)
साझा प्रकाशन- उपन्यास ‘खट्टे-मीठे रिश्ते’ (साझा उपन्यास) के साथ दस से भी अधिक साझा संकलन और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। प्रसारण- रेडियो पर कहानियाँ प्रसारित डब्ल्यू सम्मानित हुईं। 
सम्मान- शोभना वेलफेअर सोसायटी द्वारा शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान, मांडवी प्रकाशन द्वारा साहित्यगरिमा सम्मान, अनुराधा प्रकाशन द्वारा विशिष्ट हिन्दी सेवी सम्मान, विश्व हिन्दी संस्थान कल्चरल आर्गेनाइजेशन कनाडा द्वारा सम्मान तथा विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ द्वारा विद्यावाचस्पति सारस्वत सम्मान प्राप्त हुआ|
मोबाईल- 9140044021