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मुकेश आलंम की ग़ज़लें

मुकेश आलंम की ग़ज़लें

दुनिया का दिल रखते-रखते सब अरमाँ क़ुर्बान किये
हमने सारी फ़ौज लगा  दी  पत्थर  की  निगरानी  में

ग़ज़ल-एक 
 
ख़ाबों की काई पर चलना भारी पड़ा बे-ध्यानी में
एक ज़रा सी प्यास बुझाते डूब गये हम  पानी  में
 
दिल का कोई हाथ कहाँ   दिल  की  कारिस्तानी  में
दरिया का कुछ दख़्ल नहीं होता दरिया की रवानी में
 
दुनिया का दिल रखते-रखते सब अरमाँ क़ुर्बान किये
हमने सारी फ़ौज लगा  दी  पत्थर  की  निगरानी  में
 
एक ही है वो जिसको सारे अपना-अपना कहते  हैं
चाँद तो एक है अक्स जुदा है अपने-अपने पानी में
 
आँख का पानी, दर्द का सालन, भरा हुआ मन, ढेरों ख़ाब
रिज़्क़ की  कोई  कमी  नहीं  ऐ  इश्क़  तेरी  सुल्तानी  में
 
ज़ब्त तो 'आलम' सावन से पहले का मौसम होता है
ये मौसम ही तय करता है आगे  क्या है  कहानी  में
 
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ग़ज़ल-दो 
 
मैं सोचता था सवाल रख्खूँगा और देंगी जवाब आँखें
वो आए भी तो घने अंधेरे में और मेरी ख़राब  आँखें
 
दिमाग़ सर चढ़ के बोलता था कि मुझसे बेहतर है क्या बदन में
तो दिल ज़रा दिल में मुस्कुराया, उचक के बोला जनाब!  आँखें
 
हमारी आँखों की पुतलियों में अजीब दरबार सज गया है
उसे निहारा है जब से हमने, बनी  हुई  हैं  नवाब  आँखें
 
इधर जो सीना धड़क रहा है उधर वो पलकें झपक रहे हैं
ये दिल जो तबला बना हुआ है बजा रही हैं  रबाब  आँखें 
 
हुई मुहब्बत तो रात की  रात  जागने  का  अज़ाब  झेला
उठा तो रख्खा है क़र्ज़ दिल ने चुका रही हैं हिसाब आँखें
 
मेरा तो क्या है मैं शायरी के गुनाहगारों की सफ़ में अव्वल
ग़ज़ल जो आँखों पे हो गई है कमा  रहीं  हैं  सवाब  आँखें
 
हज़ार चेहरों के मील पत्थर गुज़र चुके हैं नज़र से 'आलम'
किसी जगह पर टिकीं न लेकिन हमारी ख़ाना-ख़राब आँखें
 
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ग़ज़ल-तीन 

अब इस पे कैसा रंज कि  ख़ासा  नहीं  दिया
क्या ये करम भी कम है कि कासा नहीं दिया
 
ख़ुशियाँ जो दीं तो उसका कोई शुक्रिया नहीं
इक दर्द  दे  दिया  तो  दिलासा  नहीं  दिया
 
हम जी रहे हैं और बहुत जी रहे हैं हम
पर ज़िन्दगी पे ध्यान ज़रा सा नहीं दिया
 
जब दिल दिया है चाहने वाला भी कोई हो
दरिया बना दिया है तो  प्यासा  नहीं  दिया
 
इस ख़ाना-ए-हयात ने दुनिया जो दी सो दी
अपना कहें  जिसे  वो  शनासा  नहीं  दिया
 
'आलम' तेरी शिकायतों से बाज़ आए हम
जब दे दिया ख़ुदा तो ख़ुदा सा नहीं  दिया
 
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ग़ज़ल-चार 

हम उसे यूँ बयान करते  हैं
जिस तरह बेज़ुबान करते हैं
 
बात करते हैं वो  भी  नज़रों  से
हम भी आँखों को कान करते हैं
 
रिज़्क़ मिट्टी से खोदने वाले
आस्मान आस्मान करते  हैं
 
मैं तो गर्दन ही पेश करता हूं
बाक़ी सब मेहरबान करते हैं
 
जो शिफ़ा की दुआएं देते  थे
अब दवा की दुकान करते हैं
 
दर्द हो ही गया है जब मेहमान 
करो  जो  मेज़बान   करते  हैं
 
आख़िरी बार तुमको देख लिया
आज हम आँखें दान  करते  हैं
 
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ग़ज़ल-पाँच 

पहले सबको ज़ख़्म दिखाना पड़ता  है
फिर पलकों से नमक उठाना पड़ता है
 
ख़ुद से ख़ुद तक दूरी तो है  मामूली
बीच में लेकिन एक ज़माना पड़ता है
 
शौक़ से ऊपर जा लेकिन सीढ़ी तो न फैंक
इक दिन  वापिस  भी  तो  आना  पड़ता है
 
अफ़्वाहों को उड़ने  की  आज़ादी  है
सच को रुकते-रुकते जाना पड़ता है
 
फूंक मार कर धुंध नहीं छटती 'आलम'
आख़िर सूरज को  ही आना   पड़ता है
 
 
 

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रचनाकार परिचय

मुकेश आलम

ईमेल : mukeshaalam@gmail.com

निवास : लुधियाना (पंजाब)

जन्मतिथि- 14 अगस्त 1969
जन्मस्थान- तलवाड़ा (होशियारपुर), पंजाब
लेखन विधा- पंजाबी और उर्दू ग़जलें और नज़्में
शिक्षा- बी फ़ार्मेसी
सम्प्रति- व्यवसाय 
प्राकाशन- एक पंजाबी और एक उर्दू ग़ज़ल संग्रह
संपर्क- बी-35/5697, रघुवीर पार्क, हैबोवाल कलाँ, लुधियाना
मोबाइल- 9988102854