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शिवानी शांतिनिकेतन की कहानी 'नक्कालों से सावधान'

शिवानी शांतिनिकेतन की कहानी 'नक्कालों से सावधान'

"मतलब कि मोहित और सोहित तुमसे कोई मतलब नहीं रखते! ये तो बहुत बुरी बात है।" किशन के कहने में नाराज़गी थी।
"अरे छोड़ो इन सब बातों को, अब इस बूढ़े शरीर से किसी को कोई फायदा तो रहा नहीं तो हम अपना बुढ़ापा ख़ुद ही सम्भाल रहे हैं। और तुम भी क्या बातें करने लगे, चलो भई जल्दी चाय ख़त्म करो फिर चलो ज़रा बाहर टहल कर आते हैं।

पैंसठ वर्षीय गिरधारीलाल सामान से भरा बैग उठाने की कोशिश करते हुए घर की तरफ बढ़ रहे थे कि तभी किसी ने उनके बैग को सहारा देते हुए उनके भार को संभाल लिया। उसने जैसे ही अपने बग़ल में चल रहे शख्स़ की तरफ देखा तो मारे ख़ुशी के बैग छोड़कर उसके हाथों को थामते हुए बोले, "अरे किशन तुम! अचानक यहाँ कैसे? शहर से कब लौटे?" गिरधारी का चेहरा अपने पुराने मित्र को देखकर चमक उठा।
"कल शाम को ही आया हूँ।" किशन ने भी अपने दोस्त को गले लगाते हुए जवाब दिया।
"इस बार बड़े दिनों बाद तुम्हारे दर्शन हो रहे हैं। अब तो तुम शहर कर के ही जो गए हो भाई! हमारी याद कहाँ से आएगी।"
"ऐसी बात नहीं है गिरधारी! जब तक नौकरी में था तो शहर में रहना ज़रूरत थी लेकिन अब मेरा रिटायरमेंट हो चुका है तो सोच रहा हूँ घर में ख़ाली बैठने से अच्छा है कि यही अपने गाँव में कोई काम-धंधा शुरू करूँ। इसी सिलसिले में आया हूँ। शहर में अकेले मन नहीं लगता। बच्चे भी अपनी-अपनी नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहरों में बस चुके है।" किशन ने अपनी बात पूरी की।
"अच्छा, अगर काम न होता तो तुम दिखते भी न! जबसे तुम शहर में क्या रहने लगे, सब पुराने सगे-संबंधियों को भूल ही गए।" गिरधारी चलते-चलते अपने दोस्त से नाराज़गी दिखाने लगे।
"कहाँ भूला हूँ, देखो तुमसे मिलने आया कि नहीं!"
"बहाने मत बनाओ।"
"अच्छा अब घर तो चलने दो कि यहीं से बात करके वापिस टरका दोगे?" किशन भी हँसते-हँसते बोले उठे।
"हाँ, हाँ...पहले घर चलो फिर आराम से बात करते हैं।" फिर से बैग का एक सिरा पकड़ते हुए गिरधारी बोले।

बात करते-करते दोनों गिरधारी के घर पहुँच गए। गिरधारी की पत्नी जो कि आँगन में कुछ बड़े-बड़े बरतनों को रखे कुछ काम कर रही थी। अचानक यूँ सामने किशन को देखकर अचंभित होती हुई। बोली, "अरे किशन भैया! आप कब आये? यूँ अचानक कोई ख़बर दिए बिना! घर में सब ठीक तो है!"
"हाँ भाभी, सब ठीक है। बस आप सबकी की याद आ रही थी तो चला आया मिलने।"
"हमसे मिलने नहीं आया है बल्कि अपने काम के सिलसिले में आया है।" गिरधारी ने फिर से किशन की खिंचाई करते हुए कहा।
कुसुम भी कुछ बैठने के बाद दोस्तों की नोंक-झोंक पर मुस्कुराती हुई किचन की तरफ बढ़ गयी। वह चाय का पतीला गैस पर चढ़ाकर नाश्ते की प्लेटें सजाने लगी।

"गिरधारी, यार घर में बड़ा सन्नाटा लग रहा है। सब बच्चे कहाँ है? मोहित-सोहित और उनके बीबी-बच्चे कोई नहीं दिखाई पड़ रहा है!" किशन ने घर में सब तरफ देखते हुए कहा।
"हैं हैं सब यही हैं। असल में ये घर सबके हिसाब से थोड़ा छोटा था तो वे लोग पास में ही एक नए घर में रहने लगे हैं।" गिरधारी ने कहा।
"और तुम दोनों यहाँ अकेले रहते हो?" किशन ने आश्चर्य से पूछा।
"अब पुराना मकान हमसे तो नहीं छोड़ा जाएगा। हम दोनों मियाँ-बीबी यही रहते हैं।" गिरधारी ने किशन से कहा फिर अपनी पत्नी की तरफ देखते हुए बोले, "अरे सुनो...! पेड़े और मठरी बनाने का सारा सामान ले आया हूँ। शर्मा जी का ऑर्डर कल शाम तक पहुँचाना है। कल सुबह तड़के उठकर मैं खोया बनाने बैठ जाऊँगा और तुम मठरी बना लेना।"
"ये क्या गिरधारी, तुम अब भी इस बुढ़ापे में खोया बनाते हो! अरे भई अब तो कंजूसी छोड़ो! अब ये सब मेहनत के काम नौकरों से करवाया करो। तुम तो बस अपनी दुकान की गद्दी सम्भालो।" किशन ने मज़ाक में कहा।
"कैसी दुकान किशन भैया! हमारी तो यही रोजी-रोटी है। दुकान-वुकान सब छूट गयी। जो पुराने लोग हमें जानते है, मिठाई-नमकीन का ऑर्डर दे देते हैं तो हम दोनों मिलकर बना लेते हैं और सुख से बिना किसी के अहसान के दो रोटी खा लेते हैं।" कुसुम ने बड़े-बड़े बर्तनों में सामान निकालते हुए कहा।

"मतलब कि मोहित और सोहित तुमसे कोई मतलब नहीं रखते! ये तो बहुत बुरी बात है।" किशन के कहने में नाराज़गी थी।
"अरे छोड़ो इन सब बातों को, अब इस बूढ़े शरीर से किसी को कोई फायदा तो रहा नहीं तो हम अपना बुढ़ापा ख़ुद ही सम्भाल रहे हैं। और तुम भी क्या बातें करने लगे, चलो भई जल्दी चाय ख़त्म करो फिर चलो ज़रा बाहर टहल कर आते हैं। और हाँ, रात का खाना यहीं खाना। ये न हो कि अपने पुराने घर चले जाओ।" गिरधारी ने किशन की बात को नज़रअंदाज करते हुए कहा।
"हाँ भई, रात का खाना तो मैं भाभीजी के हाथ का ही खाऊँगा।" कहकर किशन ने जल्दी से अपनी चाय ख़त्म की।

गिरधारी और किशन दोनों ही बहुत पुराने दोस्त थे। बचपन से ही साथ में पले-बढ़े और कुछ सालों के अंतर पर दोनों की गृहस्थी भी जम गई। गिरधारी ने अपने पिता के साथ ही उनकी मिठाई की दूकान सम्भाल ली तो वहीं किशन शहर में नौकरी कर, वहीं के हो गए। शुरुआत में किशन अक्सर ही अपने दोस्त से मिलते रहते थे लेकिन समय और व्यस्तता के कारण दोनों के मिलने का सिलसिला कम होता गया लेकिन फोन व पत्र व्यवहार के कारण उनकी दोस्ती में कोई कमी नहीं आयी और जब कभी किशन गाँव न आ पाता तो गिरधारी ढेर सारे पकवानों के साथ उससे मिलने शहर चला जाता।

सड़क से गुज़रते हुए किशन की नज़र गिरधारी की मिठाई की दूकान पर चली गयी। 'गिरधारी स्वीट्स' बैनर के चारों तरफ रंगीन लाइटें चमचमा रही थीं पर उस समय दूकान पर नौकरों के अलावा उसे कोई नज़र नहीं आया तो वह आगे बढ़ गया। तभी उसकी नज़र 'न्यू गिरधारी स्वीट्स' नाम से एक और दूकान पर पड़ी। आश्चर्य से उसने अपने दोस्त की तरफ देखा, जो उससे आँख बचाते हुए नज़र आये।

"तेरे नाम से ये दूसरी दुकान किसकी है?" किशन कुछ और पूछते या गिरधारी कुछ जवाब देते तभी दूकान की तरफ से एक आवाज़ आयी।
"किशन अंकल! आप कब आये?" गिरधारी का बड़ा बेटा किशन को देखते ही बोला और अंदर आने का इशारा किया।
"कल ही आया हूँ बेटा! कहते हुए किशन दूकान के अंदर चले गए।" गिरधारी बाहर ही खड़े रहे।
"ओए गिरधारी! बाहर क्या कर रहे हो, अपनी दुकान के अंदर आने में भी क्या न्यौता लोगे!"
गिरधारी बड़े ही असमंजस में खड़े थे। उनके दोनों बेटे अपनी-अपनी दुकान की गद्दी सम्भाले बैठे थे। जाने क्यों अपनी ही दुकान में पैर रखते ही उनके क़दम लड़खड़ा गए। किशन की बातों को अनसुना कर वे आगे बढ़ गए। उनके बेटों ने भी न कहा कि पापा दूकान पर आईए नहीं तो शायद वे चले भी जाते। उन सब को दूकान चलाने के लिए पिता का नाम तो चाहिए था लेकिन पिता की मौजूदगी नहीं!

उधर से गुज़रते हुए गिरधारी की आँखे भर आईं। जिस दुकान को बनाने में उसने पूरा जीवन लगा दिया, अपनी ख्वाहिशें कुर्बान कर दीं। आज वही दुकान उसके नाम के साथ चमक तो रही थी लेकिन उसकी दूकान में उसकी नामौजूदगी उसे चिढ़ा रही थी। किशन कुछ देर बाद ही दूकान से लौट आये। तब तक गिरधारी अपने घर की तरफ़ आ चुके थे।

"ओए गिरधारी! कहाँ भागे जा रहे हो! अभी तो चल भी नहीं पा रहे थे, अब बूढ़ी टांगों में जान कैसे आ गयी?" किशन ने तेज़ क़दमों से उसकी ओर बढ़ते हुए मज़ाक में कह तो दिया लेकिन उसे अपने दोस्त के दर्द का अहसास भी था क्योंकि उसने देखा था कि गिरधारी की मेहनत को किस तरह उसने अपने शुद्धता और व्यवहार की बदौलत अपनी दूकान को आस-पास के गाँव-क़स्बों तक पहुँचाया था। इस तरह अपनी मेहनत और अपनी जमा पूंजी को छोड़ते हुए किसी भी इंसान का टूट जाना स्वाभाविक है।

घर में क़दम रखते ही गिरधारी ने अपनी पत्नी से कहा, "सारी तैयारी शुरू करो, हम अभी ही खोया बनाएँगे।"
"इस वक़्त?" कुसुम ने रात के घिरते हुए अंधेरे को देखते हुए कहा।
"हाँ, इस वक़्त। जितनी जल्दी ये काम पूरा होगा तभी तो दूसरा काम मिलेगा।"
"तुम पतीले में सारा दूध पलट दो, बाक़ी मैं देख लेता हूँ।" कहकर गिरधारी तेज़ी से अपना काम करने लगे। तभी एक मुहल्ले का एक लड़का दरवाज़े पर आते हुए बोला, "दादाजी, ये माँ ने पैसे भेजे हैं। कल शाम को उन्हें चालीस समोसे चाहिए।"
"ठीक है, शाम तक मिल जाएँगे।" गिरधारी ने रूपए लेते हुए कहा और वो लड़का लौट गया।
दोस्त को मेहनत करता देख किशन गंभीर होकर बोले, "जब लोग तुमसे सामान लेना पसंद करते हैं, तो तुम कोई दूकान क्यों नहीं खोल लेते?"
"दूकान...! अब इस बुढ़ापे में दूकान कौन संभालेगा! घर बैठे खाने भर का कमा लेते हैं, इससे ज़्यादा की अब इच्छा नहीं बची।" गिरधारी ने दुखी मन से कहा।
"क्या बात कर रहे हो गिरधारी! पूरी ज़िंदगी मैंने तुम्हें ज़िम्मेदारियों में खटते हुए देखा है, ये जो 'गिरधारी स्वीट्स' दूकान है न, वो ऐसे ही इतनी फेमस नहीं है। उसे तेरी मेहनत ने चारों तरफ फेमस किया है। और आज उसी का मालिक गुमनामी की ज़िंदगी जी रहा है और दूसरे तेरी मेहनत का मज़ा चख रहे हैं!"
"कौन दूसरे किशन! औलाद ही है अपनी। जब नालायक निकल गयी तब कोसने से क्या फायदा? मैंने तो नहीं सोचा था या कोई भी बाप नहीं सोचता है कि बुढ़ापे में भी उसे बच्चों का सहारा न मिले। सबकुछ उन्हीं का तो था। आज नहीं तो कल ये सब उनका ही होता।" गिरधारी की आवाज़ में मायूसी झलक रही थी।

तभी कुसुम ने उन दोनों का खाना लगा दिया। किशन ने फिर इस बारे में कोई चर्चा नहीं की। खा-पीकर किशन अपने भाई के घर चले गए। अगले दिन किशन गिरधारी से मुलाक़ात कर शहर वापिस लौट गए और जल्द आने का वादा भी कर गए। इधर गिरधारी और उनकी पत्नी ऑर्डर मिलने पर मिठाई व नमकीन बनाते तो दूसरी तरफ किशन ने भी गाँव में ही जल्द से जल्द अपना काम शुरू करने का मन बना लिया। अपने भतीजों की मदद से उसने गिरधारी स्वीट्स के पास ही एक दुकान किराए पर ले ली और वहाँ का जरूरत का फर्नीचर बनवाने लगे।

क़रीब एक महीना पूरा भी नहीं हो पाया था कि किशन एक दिन गिरधारी के घर आये।
"कल दूकान खोल रहा हूँ, गिरधारी! भाभी को लेकर वक़्त पर आ जाना।" किशन ने बैठते ही कहा।
"किस चीज़ की दूकान है किशन भैया?" कुसुम ने उत्सुकतावश पूछ लिया।
"खाने-पीने की।" किशन ने दोनों पर नज़रें जमाते हुए कहा।
"खाने-पीने की!" दोनों के ही मुँह से आश्चर्य में निकला क्योंकि किशन ने गिरधारी को भी अपनी दूकान के बारे में कुछ नहीं बताया था।
"हाँ भई, अब आगे कुछ न पूछना। अब जब कल आना तो ख़ुद ही देख लेना। अच्छा भाभी, अब चलते हैं। बहुत काम बाक़ी है। कल आईयेगा ज़रूर!" कहकर किशन चले गए।

गिरधारी-कुसुम सुबह से ही किशन की नई दूकान जाने के लिए तैयार बैठे थे लेकिन वे किशन के आने का इंतज़ार कर रहे थे क्योंकि उसने कहा था कि वो उन्हें लेने आएगा। कुछ ही देर बाद किशन उन्हें कार से लेने पहुँचे और थोड़ी ही देर में वे सब नई दूकान के सामने खड़े थे, जिसके बोर्ड पर लिखा था, 'गिरधारीलाल की असली दुकान, नक्कालों से सावधान"
पढ़ते ही गिरधारी को हँसी आ गयी फिर वो आसपास देखते हुए पूछ बैठे, "ये सब क्या है किशन! गिरधारी की असली दुकान!"
"हाँ भई, भले ही ये दुकान मैंने खोली है लेकिन इसे चलाओगे तुम और तुम्हारे हाथों का स्वाद।"
"लेकिन मैं कैसे? ये दूकान तुमने अपनी जमा पूंजी से बनाई है।" गिरधारीलाल संकोच से बोले।
"तो मैं कब कह रहा हूँ कि ये दूकान तुमने दी है, पूंजी मेरी है बस काम तुम्हें सम्भालना है और इन कारीगरों को तौर-तरीके सिखाने हैं। अब तुम ज़्यादा सोचो मत। क्या इस बुढ़ापे में अभी भी भाभी जी से मेहनत करवाते रहोगे?" कहते हुए किशन ने माहौल को हल्का किया और अपने दोस्त को गले से लगा लिया।

किशन ने गिरधारी के दोनों बेटों को भी बुलाया था। हैरानी उनके चेहरों पर साफ-साफ झलक रही थी। उनके पिता के नाम से पूरी दूकान ही खुल गयी। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि हाथ छोड़ने से ज़्यादा थामने वाला अपना होता है। किशन ने गिरधारी का हाथ पकड़कर अपनी दूकान का उद्घाटन किया और सबके साथ उसके बेटों का भी मुँह मीठा कराया।

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रचनाकार परिचय

शिवानी शान्तिनिकेतन

ईमेल : shivanishantiniketan@gmail.com

निवास : बोलपुर (पश्चिम बंगाल)