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प्रगति गुप्ता के उपन्यास 'पूर्ण-विराम से पहले' की पहली कड़ी

प्रगति गुप्ता के उपन्यास 'पूर्ण-विराम से पहले' की पहली कड़ी

तुम्हारे दूर जाने के बाद मैं बहुत दिनों तक कोशिशें करती रही समीर से जुड़ने की। प्रखर तुम समझ सकते हो जुड़ने की कोशिश करने में हम कितनी लड़ाई ख़ुद से करते हैं और जब समीर के साथ काफ़ी समय गुज़ारने के बाद जुड़ी तो फिर उसके बिना कुछ भी नहीं सोच पाई। यह प्रेम बहुत अजीब होता है प्रखर! इसके मायने उम्र के साथ-साथ बदलते रहते हैं। और हम अपनी ज़रूरतों के हिसाब से प्रेम को परिभाषित करते चलते हैं।

"सुभोर प्रखर! कल रात तुमने मेरे व्हाट्सप्प मैसेज को देख लिया था पर कोई जवाब लिखकर नहीं भेजा? तुम मेरे किसी भी मैसेज को बग़ैर पढ़े और जवाब दिए सो जाओगे, मैं यह सोच भी नहीं सकती। काफ़ी देर तक मोबाईल के स्क्रीन को देखते हुए तुम्हारे जवाब का इंतज़ार करती रही। जब तुम चुप्पी साध लेते हो, बहुत जी घबराता है मेरा। और एक तुम हो, सबकुछ जानते-बूझते हुए भी जवाब नहीं देते हो। फिर सोचा तुमसे फोन करके वजह ही पूछ लूँ।"

सवेरे-सवेरे शिखा की फ़ोन पर आवाज़ सुनकर प्रखर के चेहरे पर आई मुस्कुराहट उसके चाय के स्वाद को और बढ़ा देती थी। शिखा जब भी व्हाट्सप्प पर 'सुभोर प्रखर' लिखती या फ़ोन करके कुछ भी बोलती, प्रखर का दिन बन जाता। शिखा के साथ होने के एहसास उसमें जान फूँक देता था। अब प्रखर की भोर की प्रथम किरण शिखा के साथ ही फूटती थी।

अब तो हर रोज़ का यही नियम हो चला था। दोनों का उठने और चाय पीने का समय लगभग निश्चित था। उम्र के इस पड़ाव पर दोनों में से कोई भी फ़ोन कर लेता और दोनों सारे दिन की आत्मीयता बटोर लेते। यह क्रम दिन में कई-कई बार चलता। अगर करने के लिए कोई ख़ास बात नहीं होती तो भी फ़ोन लगाकर सिर्फ़ आवाज़ सुन लेना दोनों की आदत में शुमार हो चुका था। आवाज़ में छिपे हुए असंख्य ज़िन्दा-से एहसास दोनों को बहुत जीए-सी अनुभूतियों से भर देते। फिर दोनों उस कल्पना लोक में विचरण करते, जो उनके अंत: का सालों-साल से हिस्सा था।

काका ने कुछ देर पहले ही सवेरे की चाय बनाकर बेड की साइड टेबल पर रखी थी। प्रखर बस शिखा को फ़ोन करने का सोच ही रहा था कि शिखा का फ़ोन आ गया। आज शिखा के फ़ोन के साथ उसकी गूँजती हुई आवाज़ जैसे ही प्रखर के कानों में पहुँची, वह उसमें कुछ देर को खो-सा ही गया था। शायद कुछ असर शिखा के रात लिखे हुए मैसेज का भी था। फ़ोन के दूसरी तरफ से शिखा के वापस पुकारने पर प्रखर बोला-
"सुभोर शिखा! एक बात कहूँ। मैं समझ ही नहीं पाता कि तुम कैसे अपनी आवाज़ के साथ-साथ मेरे अंदर प्रविष्ट होती जाती हो। हर दिन कुछ विशिष्ट से भाव महसूस करवाती हो। मुझे लगता है फिर से जीने लगा हूँ मैं। कभी लगता ही नहीं कि तुम मुझसे दूर हो। तुम्हारा एक-एक शब्द मेरी ज़िंदगी है। तुमको मेरी वो कविता याद है शिखा, जो मैं तुम्हें अक्सर सुनाया करता था।

जब-जब तुझमें डूबकर
खोता जाता हूँ मैं
तब-तब तुम्हारे और क़रीब पहुँच
तुम्हें और अधिक
महसूस कर पाता हूँ मैं
वहीं पर मिलते हैं
हमारे भाव कुछ इस तरह गले
कि कुछ अनकहे-से एहसास लिए
तुम्हारे न होने पर भी
तुम्हें साथ लिए-लिए घूमता हूँ मैं"

प्रखर ने कविता सुनाकर अपने शब्दों को विराम दिया मगर शिखा अपनी बात भूलकर उसकी कविता में खो गई। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद प्रखर ने शिखा से कहा- "शिखा, कल रात सोने से पहले तुम्हारे लिए कुछ लिखा है। पहले वो सुनोगी या तुम्हारे मैसेज की बात करें?"
प्रखर हमेशा से ही वही करना चाहता था, जिससे शिखा के मन को अच्छा लगे। तभी अपनी बात रखने से पहले वह शिखा की सहमति ज़रूर लेता। शिखा को भी बहुत अच्छे से पता था कि प्रखर की हर बात में सिर्फ़ उसके लिए ही भाव बिखरे होंगे। प्रखर के बोले हुए सभी शब्द उसको छूते थे। शिखा ने प्रखर की बात सुनकर कहा- "पहले तुमने जो लिखा है, वही सुनाओ। तुम्हें बहुत अच्छे-से जानती हूँ प्रखर!"
तो सुनो बोलकर प्रखर ने रात में लिखी हुई अपनी कविता ‘जीने की आस’ सुनाना शुरू किया-

"तुमसे मिलकर ये जो जीने की
एक आस-सी जगी है
पहले कहीं ख़ामोश-सी बैठी थी
मेरे भीतर ही भीतर
अब मानो उठकर
संग-संग चलने लगी है
जीवन्त हो उठा है
मेरा उठना-बैठना और चलना भी
मानो एक लय और ताल
मुझे उकसा, जीने को
एक अनंत-से सुख में
डूबोने लगी है

बैठ जाना चाहता हूँ
अब स्वयं को खोकर
इनकी नैसर्गिक-सी स्नेह भरी
अनुभूतियों की छाँव तले
क्योंकि विदा लेने से पहले
यह सब उस परम का कोई
अनुपम उपहार-सा मुझे लगता है
जीवन के रहते जीवंत-से
उस परम सुख का
यूँ अचानक मिलना
मेरे किसी सत्कर्म का हिस्सा लगता है
यूँ तो झुकाता हूँ
हर रोज़ ही उसके आगे अपना शीश
पर अब तो उसमें पूर्णत:
खो जाने को मेरा जी करता है"

अभी शिखा पहली कविता के भावों से बाहर निकली नहीं थी कि प्रखर की दूसरी कविता के भाव भी उसके अंत: में गहरे उतरते चले गए। भावों के साथ-साथ आँखों से अश्रुओं की अविरल धार भी उतर पड़ी। समीर के अचानक ही चले जाने की पीड़ा ने उसके मन को कच्चा कर दिया था। प्रखर के साथ होने से उसका घाव थोड़ा जल्दी भर गया था मगर उसकी आँखें प्रखर के बरसाए हर भाव पर बरसकर उनका आलिंगन करने लगी थी। जब काफ़ी देर तक प्रखर को उसकी आवाज़ नहीं सुनाई दी और उसे महसूस हुआ कि शिखा सुबक रही है। प्रखर ने कहा-
"शिखा तुम रो रही हो! बहुत अच्छे से तुम्हें समझता हूँ। कल कविता लिखते समय मैं भी बहुत भावुक हो उठा था। कविता की अंतिम पंक्ति को लिखते समय मेरी धुँधलाई आँखों ने भी पन्नों पर उतरे शब्दों को देखना बंद कर दिया था। तुम शब्दों में छिपकर कैसे बैठ जाती हो शिखा कि मुझे सब जगह महसूस होती हो?"

अपनी बात बोलते-बोलते प्रखर फिर से भावुक हो उठा था और उन दोनों के बीच एक ख़ामोशी-सी पसर गई थी। उस ख़ामोशी में भी दोनों एक-दूसरे के साथ थे। शिखा के बात शुरू करने पर वह ख़ामोशी टूटी- "तुम्हें क्या बोलूँ प्रखर! तुम्हारी भावनाओं के आगे मैं तुम ही हो जाती हूँ। मुझे होश ही नहीं रहता। समझ ही नहीं आता कि शिखा कहाँ खो गई! जानते हो प्रखर, सालों-साल पहले खोई हुई शिखा का स्वयं से परिचय तुम्हारे पुन: मिलने के बाद हुआ है?"

"जानता हूँ शिखा, कुछ भी मत कहो। मैं और तुम अलग ही कहाँ हैं। अब तुम्हारी बात पर आते हैं। सॉरी! कल जल्दी ही सो गया था। जब तुम्हारे मैसेज का नोटिफिकेशन आया तो नींद में ही मैंने उसे देखा और पढ़ा। स्वप्न में ही उसका जवाब लिख दिया और निश्चिंत होकर सो गया। अक्सर नींद में ऐसा ही होता है। मेरे से ज़्यादा तो तुम जानती हो। मनोविज्ञान तुम्हारा पसंदीदा विषय रहा है।"

अपनी बात बोलकर प्रखर ज़ोर से हँस पड़ा। खिलखिलाकर हँसता हुआ प्रखर शिखा को बहुत प्यारा लगता था। उसकी हँसी के आगे शिखा सब भूल जाती थी। पर वह भी अपनी आदतों से मज़बूर थी। जो भी लिखती, उसको लगता जल्द से ज़ल्द प्रखर लिखे हुए को पढ़ ले। एकाएक प्रखर के पुन: बोलने से शिखा के विचारों की श्रृंखला टूटी- "अब मैं पहले तुम्हारे लिखे हुए मैसेज़ पर आता हूँ। आज सवेरे नींद खुलते ही सबसे पहले तुम्हारे व्हाट्सप्प मेसेज़ को पढ़ा तो लगा कि मैं नहीं पढ़ पाया तुमको तुम्हारे लिखे हुए से। तुम जो कहना चाहती हो, मैं तुम्हारे लिखे हुए शब्दों में नहीं खोज पाया क्योंकि कुछ भी स्पष्ट नहीं था। शब्द कुछ और बोल रहे थे और तुम कुछ और कहना चाहती थी। मुझसे फ़ोन पर बात करते हुए जो शब्द तुम्हारे दिल से निकलकर मेरे दिल को छू जाते हैं, तुम कभी भी वह पेन डाउन नहीं कर पाती हो शिखा।"

"बहुत सुंदर लिखते हो प्रखर। बोलते जाओ मैं तुम्हारी हर बात सुन रही हूँ।"
शिखा अभी भी कविताओं में डूबी हुई उसकी बातों को सुनने की चेष्ठा कर रही थी।
"तुम्हारा स्त्री होना, तुम्हारे शब्दों के चारों ओर काँटों वाली बाड़ खड़ी कर देता है। तुम्हारे संस्कार हो या मेरे, हम दोनों को कभी खुलकर लिखने नहीं देंगे क्योंकि दोनों ने ही अपनी-अपनी ज़िंदगियाँ पूरी ईमानदारी के साथ निभाई हैं। सामाजिक मर्यादाएँ तुम्हारे पेन पर मुझसे कहीं अधिक आकर बैठ जाती हैं और तुम उसके बोझ तले अपने उद्गारों की काँट-छाँट कर पन्नों पर ख़ुद को उतारती हो।"

गिने-चुने शब्दों में भी कितना स्पष्ट और सही बोल जाता था प्रखर। फ़ोन के दूसरी तरफ से शिखा का 'हम्म' सुनकर प्रखर ने अपनी बात जारी रखी-
"ऐसा मेरे साथ भी होता है। मैं पुरुष हूँ शायद इसलिए कुछ ज़्यादा ही बेबाकी से लिख पाता हूँ। पर मुझे तुमसे कभी कोई शिकायत नहीं है और न कभी होगी क्योंकि अब उम्र ही कितनी शेष है। प्राय: घटती उम्र की शिकायतें सारे अच्छे भावों को मृत कर देती हैं और तुम्हारा साथ मुझे जीवंतता देता है। मैं जीना चाहता हूँ हमारे इस साथ को शिखा। स्वार्थी हूँ न!" बोलकर प्रखर ज़ोर से हँस पड़ा।
जैसे ही शिखा को लगा कि लगातार बोलते-बोलते प्रखर का गला सूख रहा है, वह बोली-
"प्रखर! साँस तो ले लो, हाँफ जाओगे। थोड़ा पानी भी पी लो।" पर उसकी बात पर पुन: ज़ोर से हँसकर प्रखर ने अपनी बात जारी रखी-

"तुम्हारी कुछ ऐसी ही बातें मुझे आज भी बहुत जीए-सा महसूस करवाती हैं शिखा। मेरी जान हो तुम। सच कहूँ तो तुम्हारे लिखे हुए शब्दों के अर्थ मेरे बहुत अपने और परिचित थे। मुझे तुम्हारी बातें बग़ैर कहे आज से नहीं बहुत पहले से समझ आती हैं। पर शिखा अब तुम क्यों नहीं स्वीकार लेती कि मेरे बिना नहीं रह सकती। आज एक बार बोल ही दो। मेरे बग़ैर अब तुम नहीं रह पाओगी। तब सारे बनावटी शब्दों की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी।"
"सच कहते हो प्रखर! मेरा भी बहुत बार बहुत कुछ कहने को जी चाहता है। जाने कितनी भूमिकाएँ बनाती हूँ फिर ख़ुद से ही हार जाती हूँ। कभी अतीत आड़े आ जाता है तो कभी ख़त्म होती उम्र।"

"दरअसल शिखा तुम डरती हो मुझे स्वीकारने से क्योंकि स्वीकाते ही तुम ख़ुद को छिपाकर नहीं रख पाओगी। तुम्हारा अतीत तुम्हें कुछ भी स्वीकारने नहीं देता जबकि आज की स्थितियाँ बिलकुल अलग हैं। तुम हमेशा से बहुत समर्पित थी और अब आगे भी रहोगी। हमारी मूल प्रवृत्ति कभी नहीं बदलती। कुछ भी ग़लत सोचना तुम्हारी प्रकृति नहीं है। तुमसे ज़्यादा मैं तुमको पहचानता हूँ शिखा।" बोलकर प्रखर चुप हो गया।
"ग़लत बोलना, करना और सोचना तुम्हारी भी तो प्रकृति नहीं प्रखर! बस कहीं न कहीं बहुत कुछ ऐसा है, जो मेरी अभिव्यक्ति में बाधक बनता है। एक स्त्री के अलग रहने और पुरुष के अलग रह जाने में भी फ़र्क होता है न। बहुत अच्छे से जानते हो तुम।"
"तो फिर विचार करो उन सब बातों पर जो समीर और मैं सोचते थे। तुम्हें उन सभी बातों पर गौर करना चाहिए, जिन बातों पर हम तीनों एकमत हो जाते थे।"
"समीर के साथ जुड़ी स्मृतियाँ मुझे किसी दूसरी बात पर मुहर नहीं लगाने देतीं प्रखर। कुछ भी सोचती-बोलती हूँ तुम्हारे लिए तो आकर खड़े हो जाते हैं। न जाने कितने करवाचौथ, गणगौर और तीज के व्रत, जो समीर के लिए रखे थे। समीर मेरी ज़िंदगी का अभिन्न हिस्सा रहा है। उसने बहुत दिया है मुझे। जीवन को हर हाल में ख़ुशी-ख़ुशी जी लेने की सोच उसी की दी हुई है।"

"शिखा! तुम मानती थीं इन सब व्रत-तीज त्योहारों को! मैंने कभी भी यह सब प्रीति को नहीं करने दिया। शुरू-शुरू में वह करने के लिए बहुत ज़िद करती थी क्योंकि उसकी माँ किया करती थीं। जब मैंने उसको कहा कि तुम्हारे साथ-साथ मैं भी व्रत रखूँगा तो उसे मेरी ज़िद के आगे झुकना पड़ा। मैं सिर्फ़ यही चाहता था कि वह न करे, तभी ज़िद की। मेरा कोई विश्वास नहीं था इन सब पौगा-पंडिताई में।" प्रखर की बात सुनकर शिखा बोली-
"विश्वास तो समीर और मेरा भी नहीं था पर माँ ने करवाया तो ताउम्र करती रही। जिसकी वजह से कहीं न कहीं मन से कमज़ोर भी हुई कि अगर व्रत नहीं रखा तो कुछ अहित न हो जाए। समीर हमेशा मना किया करते थे। बस मेरी ही आदत बन गई थी। अब तुम्हारी बात सुनकर लग रहा है कि अगर समीर ने भी तुम्हारे जैसे कहा होता तो शायद यह आदत बनती ही नहीं। बहुत ज़्यादा सोचे बग़ैर घर की परंपराओं का अनुसरण करती रही। व्रत-उपवास की पालना अगर स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर करें तो रिश्तों में अनुशासन आता है पर अगर किसी एक पर थोप दिए जाए तो भार बन जाते हैं।"
दोनों को एक-दूसरे की बात में सत्यता नज़र आई तभी दोनों ने एक साथ हुंकारा भरकर चुप्पी साध ली।

अक्सर शिखा अपनी बातों को बोलते-बोलते अतीत में लौट जाती थी पर प्रखर का साथ उससे कभी भी नहीं छूटता था। प्रखर भी तो हमेशा शिखा के बोलने का इंतज़ार करता। तभी शिखा को अपने मन की बातें साझा करने में कोई दुविधा नहीं होती थी।
"तुम्हारे दूर जाने के बाद मैं बहुत दिनों तक कोशिशें करती रही समीर से जुड़ने की। प्रखर तुम समझ सकते हो जुड़ने की कोशिश करने में हम कितनी लड़ाई ख़ुद से करते हैं और जब समीर के साथ काफ़ी समय गुज़ारने के बाद जुड़ी तो फिर उसके बिना कुछ भी नहीं सोच पाई। यह प्रेम बहुत अजीब होता है प्रखर! इसके मायने उम्र के साथ-साथ बदलते रहते हैं। और हम अपनी ज़रूरतों के हिसाब से प्रेम को परिभाषित करते चलते हैं।"

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रचनाकार परिचय

प्रगति गुप्ता

ईमेल : pragatigupta.raj@gmail.com

निवास : जोधपुर (राजस्थान)

जन्मतिथि- 23 सितंबर, 1966
जन्मस्थान- आगरा (उत्तरप्रदेश)
शिक्षा- एम०ए० (समाजशास्त्र, गोल्ड मैडलिस्ट)
सम्प्रति- लेखन व सोशल-मेडिकल क्षेत्र में काउंसिलिंग
प्रकाशन- तुम कहते तो, शब्दों से परे एवं सहेजे हुए अहसास (काव्य-संग्रह), मिलना मुझसे (ई-काव्य संग्रह), सुलझे..अनसुलझे!!! (प्रेरक संस्मरणात्मक लेख), माँ! तुम्हारे लिए (ई-लघु काव्य संग्रह), पूर्ण-विराम से पहले (उपन्यास), भेद (लघु उपन्यास), स्टेप्लड पर्चियाँ, कुछ यूँ हुआ उस रात (कहानी संग्रह), इन्द्रधनुष (बाल कथा संग्रह)
हंस, आजकल, वर्तमान साहित्य, भवंस नवनीत, वागर्थ, छत्तीसगढ़ मित्र, गगनांचल, मधुमती, साहित्य भारती, राजभाषा विस्तारिका, नई धारा, पाखी, अक्षरा, कथाबिम्ब, लमही, कथा-क्रम, निकट, अणुव्रत, समावर्तन, साहित्य-परिक्रमा, किस्सा, सरस्वती सुमन, राग भोपाली, हिन्दुस्तानी ज़ुबान, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण, दैनिक ट्रिब्यून, नई दुनिया, दैनिक नवज्योति, पुरवाई, अभिनव इमरोज, हिन्दी जगत, पंकज, प्रेरणा, भारत दर्शन सहित देश-विदेश की लगभग 350 से अधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन और अनुवाद।
कविता अनवरत, कविता अभिराम, शब्दों का कारवां, समकालीन सृजन, सूर्य नगरी की रश्मियाँ, स्वप्नों की सेल्फ़ी, कथा दर्पण रत्न, छाया प्रतिछाया, सतरंगी बूंदें, संधि के पटल पर आदि साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
प्रसारण-
जयपुर दूरदर्शन से चर्चा व आकाशवाणी से सृजन का नियमित प्रसारण
सामाजिक और साहित्यिक क्षेत्र में कविता का स्थान विषय पर टी.वी. पर एकल साक्षात्कार
संपादन- अनुभूतियाँ प्रेम की (संपादित काव्य संकलन)
विशेष-
राजस्थान सिन्धी अकादमी द्वारा कहानी संग्रह 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' का अनुवाद।
कहानियों और कहानी संग्रह 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' पर शोध।
प्रतिष्ठित कथा प्रधान साहित्यिक पत्रिका 'कथाबिम्ब' के संपादक मण्डल में क्षेत्रवार संपादक
कहानियों व कविताओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद
हस्ताक्षर वेब पत्रिका के लिए दो वर्ष तक नियमित 'ज़रा सोचिए' स्तंभ
सम्मान/पुरस्कार-
हिंदी लेखिका संघ, मध्यप्रदेश (भोपाल) द्वारा 'तुम कहते तो' काव्य संग्रह पर 'श्री वासुदेव प्रसाद खरे स्मृति पुरस्कार' (2018)
'अदबी उड़ान काव्य साहित्य पुरस्कार' काव्य संग्रह तुम कहते तो और शब्दों से परे पुरस्कृत व सम्मानित (2018)
साहित्य समर्था द्वारा आयोजित अखिल भारतीय 'डॉ० कुमुद टिक्कू कहानी प्रतियोगिता' श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार (2019 और 2020)
विद्योत्तमा फाउंडेशन, नाशिक द्वारा 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' कहानी संग्रह 'विद्योत्तमा साहित्य सम्राट सम्मान' से पुरस्कृत (2021)
श्री कमल चंद्र वर्मा स्मृति राष्ट्रीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता प्रथम पुरस्कार 2021
कथा समवेत पत्रिका द्वारा आयोजित 'माँ धनपति देवी स्मृति कथा साहित्य सम्मान' 2021, विशेष सम्मान व पुरस्कार
लघु उपन्यास भेद पुरस्कृत मातृभारती 2020
विश्व हिंदी साहित्य परिषद द्वारा 'साहित्य सारंग' से सम्मानित (2018)
अखिल भारतीय माथुर वैश्य महासभा के राष्ट्रीय सम्मेलन में 'समाज रत्न' से सम्मानित (2018)
डॉ० प्रतिमा अस्थाना साहित्य सम्मान, आगरा (2022)
कथा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थान द्वारा राज्य स्तरीय सम्मान 'रघुनंदन त्रिवेदी कथा सम्मान' स्टेपल्ड पर्चियांँ संग्रह को- 2023
पंडित जवाहरलाल नेहरु बाल साहित्य अकादमी, राजस्थान द्वारा 'इंद्रधनुष' बाल कथा संग्रह को 'बाल साहित्य सृजक' सम्मान 2023 
जयपुर साहित्य संगीति द्वारा 'कुछ यूँ हुआ उस रात' को विशिष्ट श्रेष्ठ कृति सम्मान 2023
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