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प्रगति गुप्ता के उपन्यास 'पूर्णविराम से पहले' की दसवीं कड़ी

प्रगति गुप्ता के उपन्यास 'पूर्णविराम से पहले' की दसवीं कड़ी

फिर अचानक धीरे-धीरे प्रीति को दर्द में आराम आना शुरू हुआ और उसकी साँसे धीरे-धीरे करके ठंडी पड़ती गई। जाने से पहले प्रीति ने मेरा एक हाथ कसकर पकड़ लिया था। जैसे ही प्रीति ने विदा ली, उसका हाथ मेरे हाथ से छूटकर बिस्तर पर गिर पड़ा। हम दोनों चुपचाप लाचार खड़े हुए उसको जाता हुआ देखते रहे।

प्रणय का अक्सर ही फोन आता रहता था। जब उसे पता लगा कि माँ को साँस लेने और चलने-फिरने में दिक्कत होने लगी है, उसने वापस बीस दिन का प्रोग्राम बनाया। जिस कंपनी में वह काम करता था, जब उन्होंने छुट्टियाँ देने के लिए मना कर दिया, प्रणय ने अपनी नौकरी छोड़कर हिंदुस्तान आने का फैसला कर लिया।

प्रीति की तबीयत दिनों-दिन ख़राब हो रही थी। यह तो बहुत अच्छा हुआ कि प्रणय भी उस समय कानपुर में ही था, जब प्रीति ने हमसे विदा ली। उस काली रात को मैं कभी भी नहीं भूल पाता हूँ। हम दोनों रात भर बारी-बारी से अपनी ड्यूटी प्रीति के पास लगाते थे ताकि कभी ऐसा न हो कि हम सो जाएँ। सोते-सोते प्रीति को कोई ज़रूरत पड़े, और हममें से कोई साथ न हो।

जिस दिन प्रीति ने प्रणय और मेरा साथ छोड़ा, मैं प्रीति के पास सोया हुआ था। जैसे ही प्रीति ने बहुत तेज़ साँसें लेना शुरू किया, और उसे बोलने में तकलीफ़ होने लगी, मैंने दौड़कर प्रणय को जगाया ताकि वह आकर मेरी कुछ मदद कर सके। हमने प्रीति की ऑक्सीजन का लेवल भी बढ़ाया पर प्रीति को साँस लेने में बेहद कठिनाई महसूस हो रही थी। प्रणय बराबर उसकी पीठ को सहला रहा था और मैं उसकी छाती को, पर उसकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी।

फिर अचानक धीरे-धीरे प्रीति को दर्द में आराम आना शुरू हुआ और उसकी साँसे धीरे-धीरे करके ठंडी पड़ती गई। जाने से पहले प्रीति ने मेरा एक हाथ कसकर पकड़ लिया था। जैसे ही प्रीति ने विदा ली, उसका हाथ मेरे हाथ से छूटकर बिस्तर पर गिर पड़ा। हम दोनों चुपचाप लाचार खड़े हुए उसको जाता हुआ देखते रहे। प्रीति की निगाहें जाने से पहले हम दोनों की तरफ ही टिकी हुई थी, मानो वो हम दोनों से ही कह रही हो- "तुम दोनों अपना ख़याल रखना।"

समीर, जानते हो जाते-जाते उसकी आँखों से आँसुओं की बूँदें जैसे ही लुढ़ककर हम दोनों के हाथों पर गिरी, उसकी टूटती साँसों के साथ हम दोनों की बहुत सारी धड़कनें रुक गयीं। प्रीति के जाते ही प्रणय पहली बार मेरे गले से लगकर बहुत ज़ोर से रोया था। हम दोनों बाप-बेटे न जाने कितनी देर तक एक-दूसरे के गले लगे रोते रहे। इस बीच प्रणय ने हमारे फैमिली डॉक्टर को फोन करके बुला लिया था। वह तुरंत ही घर आ गए और उन्होंने प्रीति को मृत घोषित कर दिया।

प्रीति के जाने के तेरह दिन बाद तक प्रणय मेरे साथ रहा। उसने न सिर्फ़ मुझे सँभाला बल्कि घर की हर ज़रूरत में या अपनी माँ के अंतिम संस्कारों में वह मेरे साथ खड़ा रहा। बाद में प्रणय के लिए अमेरिका से उसी कंपनी से वापस फोन आया कि वह उस कंपनी को वापस ज्वाइन करें क्योंकि वह लोग प्रणय के काम से बेहद ख़ुश थे। प्रणय मुझे छोड़कर जाने के लिए कतई तैयार नहीं था पर मैंने उसे समझाया कि फिलहाल जाकर अपनी नौकरी ज्वाइन करें। बाद में कभी हिंदुस्तान में अगर उसको अच्छी नौकरी का ऑफर मिले तब ही वह यहाँ आकर ज्वॉइन करे। जानते हो समीर, प्रणय ने मुझसे क्या कहा?
"पापा, एक शर्त पर मैं वापस जा रहा हूँ, आप मेरे साथ वहाँ रहने चलेंगे।"
मैंने उससे कहा- "प्रणय, अभी मैं इसी घर में रहना चाहता हूँ। यहाँ तुम्हारी माँ के साथ मैंने काफ़ी समय गुज़ारा है। मैं उसकी यादों के बीच उसको महसूस करना चाहता हूँ।"

मेरी बात को सुनकर प्रणय मुझसे ज़िद नहीं कर पाया और उसने मुझसे कहा, "जब भी आपको ठीक लगे, आप मेरे पास चले आइएगा। मैं आपका इंतज़ार करूँगा पापा।" धीरे-धीरे करके और समय बीतता गया। जैसे ही प्रीति के मृत्यु को एक साल हुआ, मैंने प्रणय को शादी कर लेने के लिए राज़ी किया। प्रणय फिलहाल शादी नहीं करना चाहता था पर मेरी ज़िद के आगे उसे झुकना पड़ा।

बाक़ी काफ़ी सारी बातें मैं तुम दोनों को सुना चुका हूँ। अब जैसे-जैसे मुझे प्रीति या प्रणय से जुड़ी कोई बात याद आएगी, तुम दोनों के साथ ज़रूर साझा करूँगा, यह मेरा वादा है। आज पहली बार किसी के साथ इतना कुछ साझा किया है। बहुत समय से बार-बार यही सब घूम रहा था। अब शायद मन हल्का हो चला है। प्रखर अपनी स्मृतियाँ साझा कर, जब एकटक समीर और शिखा को देखने लगा, समीर ने उठकर प्रखर को अपने गले लगाया और कहा-
"तुम बहुत भाग्यशाली हो कि तुम्हें प्रीति जैसी पत्नी और प्रणय जैसा बेटा मिला। किसी भी रिश्ते को अच्छे-बुरे समय में साथ-साथ जीना बहुत बड़ा हुनर होता है प्रखर। तुम बहुत भाग्यशाली थे कि प्रीति जैसी पत्नी और प्रणय जैसा बेटा मिला। मैं भी बहुत भाग्यशाली हूँ कि मुझे शिखा जैसी पत्नी मिली। अब हम ईश्वर से यही प्रार्थना करेंगे कि हमारे घरों में हमेशा खुशियाँ रहे ताकि एक-दूसरे के साथ अपनी खुशियों को मिल-बाँट सकें।"

समीर की बात सुनकर प्रखर ने सहमति में सिर हिलाया। प्रखर की बात सुनते हुए अब रात काफ़ी हो चुकी थी। जब प्रखर ने अपने घर जाने को कहा तो शिखा ने दोनों को टेबल पर आकर साथ में खाना खाने के लिए आग्रह किया- "प्रखर काफ़ी रात हो गई है। हम तीनों में से किसी ने भी अभी तक खाना नहीं खाया है।टेबल पर आ जाओ, खाना बिल्कुल तैयार है। हम साथ-साथ खाना खाते हैं।"

शिखा ने किचन में जाकर खाना गरम कर टेबल पर लगाया। तब तक समीर और प्रखर टेबल पर आकर बैठ गये। फिर शिखा ने उन दोनों को गरमा-गरम रोटियाँ सेक कर खिलायीं। फिर अपनी भी रोटी सेंककर, उसने अपना भी खाना लगा लिया। तीनों ने बहुत प्रेम से खाना खाया। जाने से पहले प्रखर ने शिखा को कहा- "मैं आज तुम दोनों के साथ किए हुए डिनर को कभी नहीं भूल पाऊँगा। प्रीति और मेरी आज शादी की वर्षगांठ थी। मैं वैसे भी बहुत अकेलापन महसूस कर रहा था पर तुम दोनों के साथ, मेरा अकेलापन बँट गया। जितना भी तुम दोनों को मैं थैंक्स बोलना चाहूँ, कम रहेगा। मैं अब चलूंगा समीर। अब हम कल मिलते हैं।" बोलकर प्रखर गेट की ओर बढ़ गया। समीर और शिखा उसे गेट तक छोड़ने गये और गुड नाईट बोलकर दोनों अंदर आ गए। वह अपने घर चला गया।

समीर ने अपने घर में प्रविष्ट होते हुए शिखा से कहा- "प्रखर बहुत सहनशील और संतुलित इंसान है। रिश्तों को दिल से महसूस करता है। तभी हर क्षण में घटित हुआ उसके लिए बहुत मायने रखता है। मुझे तो लगता है, प्रखर के संपर्क में आकर मैं बहुत कुछ सीख रहा हूँ। दिल की बातें कह देने से इंसान हल्का हो जाता है। शिखा, एक बात कहूँ- तुम्हारा मित्र मुझे बहुत पसंद आया।" समीर की बात को सुनकर शिखा ने सहमति से अपना सिर हिलाया और मुस्कुराकर समीर को गले लगाकर कहा- "तुम भी बहुत अच्छे हो, हमेशा ध्यान रखना।"

शिखा की बात सुनकर समीर मुस्कुराया और सोने चला गया पर शिखा उन दिनों के ख़यालों में पहुँच गई जब तीनों रिटायरमेन्ट के बाद पहली बार मिले ही थे। तब से उन तीनों का मिलना-मिलाना बराबर चल रहा था। एक दिन जब शिखा और समीर, प्रखर के यहाँ बैठे थे तब समीर ने प्रखर से पूछा- "मैं बहुत दिनों से एक बात पूछना चाहता था प्रखर। हर बार सोचता मगर फिर भूल जाता। अभी याद आ गया है तो पहले यह बताओ, तुम्हारा होम-टाउन कौनसा है? हम दोनों की तो पैदाइश ही यहीं की है इसलिए हम दोनों ने फाइनली अपना आखिरी डेरा आगरा ही लगाने का मानस बनाया। पर तुम भी आगरा के ही हो क्या?"

समीर के बहुत स्वाभाविक से प्रश्न का उत्तर प्रखर ने मुसकुराते हुए दिया- "समीर, मैं भी आगरा में ही पैदा हुआ और मेरा काफ़ी समय इस शहर में गुज़रा है। मेरे बाऊजी आर्मी में थे। मैं उनका इकलौता बेटा था। उनकी काफ़ी साल आगरा में ही पोस्टिंग रही। मेरी स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई-लिखाई का काफ़ी समय इसी शहर में गुज़रा। इस शहर से मेरा बहुत गहरा नाता है समीर। वो कहते हैं न 'जहाँ बार-बार मन्नत के धागे बाँधे हो, वह शहर बाँधे हुए धागों को खोलने के लिए बार-बार पुकारता है'। यह वाक्य बोलकर प्रखर ने शिखा की ओर चुपके से देखा फिर अपनी बात आगे बढ़ाई- "तभी तो मेरी आखिरी पोस्टिंग भी इसी शहर में हुई। इस शहर को मैंने कभी मर्जी से नहीं छोड़ना चाहा समीर। मेरा बस चलता तो इस शहर को कभी छोड़ता ही नहीं, इस शहर में मेरी रूह बसती थी।"

आज भी शिखा को प्रखर की कही हुई बातें हरारत दे रही थी। आज फिर से शिखा को उसकी कविता रूह याद आई, जो अक्सर प्रखर उसे कॉलेज में सुनाया करता था-

दिल का एक हिस्सा
मन्नत के धागों से बँधा
रूहों का होता है
सुनते हैं वहाँ कोई
बहुत दिल से जुड़ा रहता है
दिखता नहीं वो कोना
न ही वो रूह नज़र आती है
तभी तो ऐसे रिश्तों को समझ पाना
आसान कहाँ होता है
खामोश रूहें वहीं सकूँ से गले मिला करती हैं
कहने को तो कुछ नहीं
पर महसूस करने को बहुत कुछ हुआ करता है
दिल के उसी कोने में
रूहों का आरामगाह हुआ करता है।

प्रखर इसकी आखिरी लाइन को न जाने कितनी बार दोहराता था और शिखा से कहता- "शिखा तुम उसी आरामगाह में रहती हो मेरे साथ हर पल, हर क्षण, कभी छोड़ कर जाना नहीं मुझे।" और न जाने कब तक प्रखर उसकी आँखों में ख़ुद को खोजता रहता।

कई-कई बार अपने लिखे को प्रखर इतनी तन्मयता से सुनाता कि उसके साथ-साथ शिखा के भी आँसू निकल आते थे। इस कविता को सुनाने के लिए प्रखर ने कॉलेज में कितना ख़ूबसूरत माहौल बनाया था। आज प्रखर के बोलने पर वही अतीत शिखा के सामने सचित्र खड़ा हो गया।

"शिखा तुम आज कॉलेज के बाद लाइब्रेरी में रुक रही हो न! मुझे तुम्हें कुछ सुनाना है। कल रात सिर्फ़ तुम्हारे लिए कुछ लिखा है, उस शिखा के लिए जिसमें मेरी जान बसती है। रुकोगी न!"
"आज घर जल्दी जाना था प्रखर, कोई रिश्तेदार आने वाले हैं।"
"तुम्हारे रिश्ते के लिए तो नहीं आ रहे? बस ऐसी ख़बर कभी भी मत देना। मैं मर जाऊँगा क़सम से शिखा!"
"यह कसम-वसम तुमने कब से खाना शुरू कर दिया प्रखर!"
"जबसे तुम मेरे क़रीब आई हो। हर वो चीज़ करता हूँ, जो हमेशा तुम्हारे साथ रहने की गारंटी महसूस करवाए।"
"सच्ची में बहुत पागल हो तुम प्रखर।"
"पागल हूँ बस तुम्हारे लिए। आज से नहीं सदियों से। मुझे ऐसा महसूस होता है।"

उस दिन जब दोनों लाइब्रेरी में मिले, वहाँ बहुत शांत माहौल था। वहाँ काफ़ी स्टूडेंट्स पढ़ रहे थे। लाइब्रेरी में खामोशी इतनी थी कि पन्नों के पलटने की आवाज़ें भी गौर से सुनने पर सुनाई दे रही थीं। दोनों ने अपने नाम की रजिस्टर में एंट्री की और लाइब्रेरियन की ओर देखा। वह दोनों को अच्छी तरह जानता था कि पढ़ने-लिखने वाले छात्र हैं। उसने इशारे से पीछे की एकांत वाली जगह पर जाने का इशारा कर दिया। दोनों वहाँ जाकर बैठ गये।

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रचनाकार परिचय

प्रगति गुप्ता

ईमेल : pragatigupta.raj@gmail.com

निवास : जोधपुर (राजस्थान)

जन्मतिथि- 23 सितंबर, 1966
जन्मस्थान- आगरा (उत्तरप्रदेश)
शिक्षा- एम०ए० (समाजशास्त्र, गोल्ड मैडलिस्ट)
सम्प्रति- लेखन व सोशल-मेडिकल क्षेत्र में काउंसिलिंग
प्रकाशन- तुम कहते तो, शब्दों से परे एवं सहेजे हुए अहसास (काव्य-संग्रह), मिलना मुझसे (ई-काव्य संग्रह), सुलझे..अनसुलझे!!! (प्रेरक संस्मरणात्मक लेख), माँ! तुम्हारे लिए (ई-लघु काव्य संग्रह), पूर्ण-विराम से पहले (उपन्यास), भेद (लघु उपन्यास), स्टेप्लड पर्चियाँ, कुछ यूँ हुआ उस रात (कहानी संग्रह), इन्द्रधनुष (बाल कथा संग्रह)
हंस, आजकल, वर्तमान साहित्य, भवंस नवनीत, वागर्थ, छत्तीसगढ़ मित्र, गगनांचल, मधुमती, साहित्य भारती, राजभाषा विस्तारिका, नई धारा, पाखी, अक्षरा, कथाबिम्ब, लमही, कथा-क्रम, निकट, अणुव्रत, समावर्तन, साहित्य-परिक्रमा, किस्सा, सरस्वती सुमन, राग भोपाली, हिन्दुस्तानी ज़ुबान, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण, दैनिक ट्रिब्यून, नई दुनिया, दैनिक नवज्योति, पुरवाई, अभिनव इमरोज, हिन्दी जगत, पंकज, प्रेरणा, भारत दर्शन सहित देश-विदेश की लगभग 350 से अधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन और अनुवाद।
कविता अनवरत, कविता अभिराम, शब्दों का कारवां, समकालीन सृजन, सूर्य नगरी की रश्मियाँ, स्वप्नों की सेल्फ़ी, कथा दर्पण रत्न, छाया प्रतिछाया, सतरंगी बूंदें, संधि के पटल पर आदि साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
प्रसारण-
जयपुर दूरदर्शन से चर्चा व आकाशवाणी से सृजन का नियमित प्रसारण
सामाजिक और साहित्यिक क्षेत्र में कविता का स्थान विषय पर टी.वी. पर एकल साक्षात्कार
संपादन- अनुभूतियाँ प्रेम की (संपादित काव्य संकलन)
विशेष-
राजस्थान सिन्धी अकादमी द्वारा कहानी संग्रह 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' का अनुवाद।
कहानियों और कहानी संग्रह 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' पर शोध।
प्रतिष्ठित कथा प्रधान साहित्यिक पत्रिका 'कथाबिम्ब' के संपादक मण्डल में क्षेत्रवार संपादक
कहानियों व कविताओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद
हस्ताक्षर वेब पत्रिका के लिए दो वर्ष तक नियमित 'ज़रा सोचिए' स्तंभ
सम्मान/पुरस्कार-
हिंदी लेखिका संघ, मध्यप्रदेश (भोपाल) द्वारा 'तुम कहते तो' काव्य संग्रह पर 'श्री वासुदेव प्रसाद खरे स्मृति पुरस्कार' (2018)
'अदबी उड़ान काव्य साहित्य पुरस्कार' काव्य संग्रह तुम कहते तो और शब्दों से परे पुरस्कृत व सम्मानित (2018)
साहित्य समर्था द्वारा आयोजित अखिल भारतीय 'डॉ० कुमुद टिक्कू कहानी प्रतियोगिता' श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार (2019 और 2020)
विद्योत्तमा फाउंडेशन, नाशिक द्वारा 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' कहानी संग्रह 'विद्योत्तमा साहित्य सम्राट सम्मान' से पुरस्कृत (2021)
श्री कमल चंद्र वर्मा स्मृति राष्ट्रीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता प्रथम पुरस्कार 2021
कथा समवेत पत्रिका द्वारा आयोजित 'माँ धनपति देवी स्मृति कथा साहित्य सम्मान' 2021, विशेष सम्मान व पुरस्कार
लघु उपन्यास भेद पुरस्कृत मातृभारती 2020
विश्व हिंदी साहित्य परिषद द्वारा 'साहित्य सारंग' से सम्मानित (2018)
अखिल भारतीय माथुर वैश्य महासभा के राष्ट्रीय सम्मेलन में 'समाज रत्न' से सम्मानित (2018)
डॉ० प्रतिमा अस्थाना साहित्य सम्मान, आगरा (2022)
कथा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थान द्वारा राज्य स्तरीय सम्मान 'रघुनंदन त्रिवेदी कथा सम्मान' स्टेपल्ड पर्चियांँ संग्रह को- 2023
पंडित जवाहरलाल नेहरु बाल साहित्य अकादमी, राजस्थान द्वारा 'इंद्रधनुष' बाल कथा संग्रह को 'बाल साहित्य सृजक' सम्मान 2023 
जयपुर साहित्य संगीति द्वारा 'कुछ यूँ हुआ उस रात' को विशिष्ट श्रेष्ठ कृति सम्मान 2023
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