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प्रगति गुप्ता के उपन्यास 'पूर्ण-विराम से पहले' की तीसरी कड़ी

प्रगति गुप्ता के उपन्यास 'पूर्ण-विराम से पहले' की तीसरी कड़ी

स्कूल, कॉलेज, प्रखर का मिलना, फिर समीर से विवाह और समीर के विदा लेने के बाद उसकी डायरियों का मिलना। रिश्तों से जुड़े समीकरण। कितनी बातें, कितनी यादें। अथाह समंदर के जैसी। जितना गहरे उतरते जाओ, न जाने कितनी रंग-बिरंगी सीपियाँ आसपास बिखरी हुई दिख रही थीं। कुछ बदरंग सीपियाँ भी जीवन के यथार्थ को सहेजे हुई थीं।

शिखा सोचने बैठी तो एक के बाद एक अतीत का पृष्ठ उलटता ही चला गया। स्कूल, कॉलेज, प्रखर का मिलना, फिर समीर से विवाह और समीर के विदा लेने के बाद उसकी डायरियों का मिलना। रिश्तों से जुड़े समीकरण। कितनी बातें, कितनी यादें। अथाह समंदर के जैसी। जितना गहरे उतरते जाओ, न जाने कितनी रंग-बिरंगी सीपियाँ आसपास बिखरी हुई दिख रही थीं। कुछ बदरंग सीपियाँ भी जीवन के यथार्थ को सहेजे हुई थीं।
माँ-बाऊजी के जाने के बाद घर के बड़े बेटे-बहू होने के नाते समीर और शिखा ने मिलकर पैतृक घर के सभी निर्णय लिए थे। यह घर आगरा में था, जिसकी वजह से दोनों ने रिटायर होने के बाद आगरा में ही बसने का निर्णय लिया था।

बारह कमरों वाली इस विरासत में बीचों-बीच खूब बड़ा आँगन था, जिसके चारों ओर आठ कमरे नीचे और चार कमरे ऊपर छत पर बने हुए थे। घर में एक बड़ी रसोई और काफ़ी खुली हुई जगह थी। एक छोटा-सा कमरा हैण्ड-पम्प का भी था, जहाँ पर सब स्नान किया करते थे। भरी सर्दियों में हैण्ड-पम्प से निकलने वाला पानी काफ़ी गुनगुना-सा होता था। तब घरों में गीज़र नहीं होते थे। ऐसे में हैण्ड-पम्प के पानी से नहाना प्रकृति का आनंद लेना ही था। घर में इतने लोग थे और नहाने की सिर्फ़ एक जगह मगर कभी कोई दिक्कत हुई हो, शिखा को याद नहीं आता। जब मन में बहुत गुंजाइशें हों, शायद सब बहुत शांति से गुज़रता है। शिखा को आज भी याद करने पर उसका सुसराल वाला पुराना घर आत्मीयता महसूस करवा रहा था।

विरासत में मिले इतने बड़े घर को कोई एक भाई नहीं रख सकता था। करोड़ो की प्रॉपर्टी थी। समीर और उसके दो भाइयों का उसमें हिस्सा था। तीन भाइयों का आपस में असीम स्नेह था। समीर के दोनों छोटे भाइयों के लिए आगरा आकर रहना मुश्किल था। दोनों की ही नौकरियों में अभी कई साल बाक़ी थे। रिटायर होने के बाद वो अपने-अपने बच्चों के साथ रहने की प्लानिंग कर चुके थे। सिर्फ़ एक समीर ही था, जो चिर-परिचित जगह पर अपना आख़िरी डेरा जमाने का सोच सकता था। समीर बड़ा होने के बाद भी अपना निर्णय किसी भी भाई पर थोपना नहीं चाहता था। वैसे भी थोपे हुए निर्णय मनमुटाव ही खड़े करते हैं। समीर को इस बात का भली-भांति अहसास था। तभी वह सभी निर्णय साझे लेना चाहता था।

पहले तीनों भाइयों ने सोचा जो आगरा में रहना चाहता है, वही सारी प्रॉपर्टी को ख़रीद ले। ताकि माँ-बाऊजी की यादगार भी बनी रहेगी। साल में एक-दो बार सब भाई वहीं आपस में मिल लेंगे या कभी तीज-त्योंहार पर सब इककट्टा हो जाएँगे। सभी भाइयों को यह सुझाव बहुत पसंद आया था पर यह सुझाव बहुत व्यवहारिक नहीं था।

समीर ने सभी भाइयों को एक साथ बैठा कर कहा था- "माँ-बाऊजी के बनाए हुए घर के साथ हम तीनों भाईयों का बाईस-पच्चीस साल पुराना बचपन का नाता है।..यह घर हम सभी के लिए सिर्फ़ ईंट, पत्थर और गारे का बना हुआ मकान नहीं है। इसमें हम सबका प्यार और स्नेह, स्मृतियों का रूप लेकर जीवंत दौड़ता-भागता हुआ महसूस होता है। जीवन का बहुमूल्य समय हम सभी ने यहाँ गुज़ारा है। इस घर की चिनाई में माँ-बाऊजी के संस्कार और मूल्य मज़बूती से जमे हुए हैं। तुम दोनों इस घर के लिए क्या सोचते हो, पहले अपनी-अपनी सलाह दो। फिर मैं अपनी बात रखूँगा।"

अपनी बात बोलकर समीर चुप हो गया था और अपने दोनों भाइयों के विचारों को सुनने का इंतज़ार करने लगा। माँ-बाऊजी के संतुलित व्यवहार और दिए संस्कारों की वजह से तीनों भाइयों में प्यार और समझदारी बहुत थी। पर किसी के पास इतना रुपया-पैसा नहीं था कि वो शेष दो भाइयों के हिस्से के बराबर रुपया दे दे और ख़ुद पूरे मकान को रख ले। इस बिन्दु पर निर्णय होना मुश्किल था। समीर के अलावा दोनों भाइयों ने एक मत होकर उससे कहा था-
"भैया! आप हम दोनों से बड़े हैं। आपको सबकी आर्थिक स्थितियाँ बहुत अच्छे से पता हैं। आप जो भी निर्णय लेंगे, हम दोनों उसका मान रखेंगे।"

शिखा को तीनों भाइयों का आपसी विश्वास भी बहुत स्पर्श करता था। तब समीर ने दोनों भाइयों को अपने पास बैठाकर बहुत प्यार से कहा था- "मुझे इस समय जो भी उचित लग रहा है, वह बता देता हूँ। अगर उससे भी बेहतर किसी को कुछ सूझे तो ज़रूर बताना। हम सब मिलकर वही करेंगे, जिससे सबका हित हो। एक विकल्प तो यह है कि इस घर को बेच दिया जाए। जो भी रुपया आए, उसके तीन हिस्से कर दिए जाएँ।" इतना बोलकर समीर ने अपने भाइयों की तरफ देखा था। दोनों भाइयों की आँखों में एकाएक उमड़ आई नमी को देखकर समीर ने आगे कहा था- "दूसरा विकल्प यह है कि तीन हिस्सों में से एक हिस्से को बचाकर बाक़ी को बेच दिया जाए। जो उस हिस्से में रहेगा, माँ-बाऊजी की कुछ यादों को सहेज पाएगा ताकि भविष्य में कभी भी कोई आना चाहेगा तो इस घर का द्वार हमेशा के लिए खुला रहेगा।"

सभी ने ख़ुशी-ख़ुशी इस बात पर सहमति जताई। फिर बात उठी कि कौन आगरा में रहना चाहता है। इस बात पर भी समीर के ऊपर ज़िम्मेदारी आ गई थी। सभी के साथ कोई न कोई मज़बूरी थी। उस दिन शिखा को समीर के विशाल क़द और भाइयों के प्रति असीम प्रेम का एहसास हुआ। शिखा को बखूबी पता था कि समीर अपनी ईमानदारी का सौदा कभी नहीं करते। वह अपने परिवार और घर को बहुत अहमियत देते हैं। इस घटना के बाद शिखा के दिलो-दिमाग़ में समीर की इज़्ज़त बहुत बढ़ गई थी। समीर के हर निर्णय और घर से जुड़ी चर्चा में शिखा उसके साथ थी।

मकान का के तिहाई हिस्से के बिकते ही दोनों भाइयों ने अपनी-अपनी मर्ज़ी के शहर में प्रोपेर्टी ख़रीद ली। समीर और शिखा दोनों ही केन्द्रीय विद्यालय में सीनियर टीचर के ओहदे से रिटायर हुए। आख़िर के तीन साल समीर ने तो प्रिन्सिपल के पद को बहुत गरिमा से निभाया। जगह-जगह ट्रांसफर होने से दोनों ने अंत में रिटायरमेंट के बाद पुश्तैनी घर में आने का सोच ही रखा था। इसलिए उन्होंने किसी और जगह कोई निवेश नहीं किया।

यह वही घर था, जहाँ समीर का बचपन गुज़रा था और शिखा बहू बनकर आई थी। हालांकि जब बहू बनकर आई थी तब के घर का आकार, आज के आकार से कहीं बड़ा था। पर स्मृतियों का क्या है! वो तो भले ही पूरे घर में बिखरी हों, जब सिमटती हैं तो ख़ुद के आसपास ही सिमटकर आकार ले लेती हैं।

घर की पहली और बड़ी बहू होने के नाते माँ-बाऊजी ने ख़ूब लाड़ किया। इस घर की दीवारों से उनकी आवाज़ें आज भी गूँजती थीं। माँ ने कभी भी शिखा का नाम नहीं लिया था। वह हमेशा उसे बहू कहकर ही पुकारती थी। रिटायर होने के बाद घर में घुसते हुए शिखा के चारों ओर पुरानी स्मृतियाँ ही घूम रही थीं। शादी के दो-तीन दिन बाद माँ ने उसे अपने पास बैठाकर कहा था- "बहू! घर की बड़ी बहू हो तुम। घर को बनाना और बिगाड़ देना एक औरत के कंधों पर होता है। बस वचन दो कि हम दोनों रहें न रहें, इस घर कि नींव बचाए रखना बेटा। समीर के बाऊजी ने इस घर में अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई लगाई है। उसको ज़ाया मत होने देना बेटा। तुमको अपने घर मैं तुम्हारी माँ और भाई सेमाँग कर लाई हूँ। तुमको यह बात तो पता ही होगी।"

माँ की बातें सुनकर शिखा ने उनकी हर बात पर सिर हिलाकर सहमति दी थी। माँ के दिए हुए प्यार व ज़िम्मेदारियों ने शिखा को वर्तमान को अच्छे से निभाने में मदद की। ज़िंदगी की एक रफ्तार, जो विवाह उपरांत शुरू हुई थी, वो रिटायरमेंट के बाद जाकर रुकी।

दोनों को घर बनाने की कोई चिंता नहीं थी। विरासत में माँ-बाऊजी का दिया उपहार उनके पास था ही। जो दो जनों के रहने के लिए बहुत काफ़ी था। बँटवारा होने के बाद समीर ने उसको आज की ज़रूरतों के हिसाब से करवा लिया था। हालांकि मूल ढांचा तो नहीं रहा पर कहने को समीर आज भी उसी ज़मीन पर खड़ा था, जहाँ तीनों भाइयों का बचपन गुज़रा था। माँ-बाऊजी की यादों के घर को, समीर जितना सँजो पाया, उसने सँजोया।

समीर और शिखा जिस रोज़ अपना सामान लेकर उस घर में उतरे न जाने कितनी यादें उनके साथ-साथ उतर पड़ीं। दोनों की ख़ुशियाँ आँखों से झलक रही थी। एक-एक कर दोनों भाइयों का फोन आया था- "भैया! अब आप घर पहुँच गए हैं तो बचपन की यादें ताज़ा करने हम भी जल्द ही पहुँचेंगे।"
भाइयों की बातें सुनकर समीर का कलेजा फूलकर दूना हो गया। उसने ईश्वर से प्रार्थना की कि हे भगवान! इस प्रेम को हमेशा बनाए रखना। हर रिश्ते को निभाने में शिखा ने समीर का भरपूर साथ दिया। शिखा के परिवार के प्रति समर्पण पर समीर ने कभी कुछ नहीं बोला। समीर का मानना था कि परिवार का होना सभी की ज़रूरत होती है तो उसके लिए किसी एक को मेडल नहीं दिया जा सकता। पर समीर के भाइयों ने अपनी भाभी पर ख़ूब प्यार लुटाया। उसे ख़ूब मान-सम्मान दिया। हमेशा दोनों देवर जब भी मिलते पैर छूकर कहते थे- "भाभी! माँ-बाऊजी के जाने के बाद आप दोनों ने हमारा ख़याल रखा है। कभी कोई आज्ञा देनी हो तो बग़ैर सोचे दे देना। आपने हमेशा हमारे मन का सा किया है। इस ऋण को आजीवन नहीं चुका पाएँगे।"

उस रोज़ शिखा और समीर पुरानी बातें याद कर-कर के भावविव्हल होते रहे थे। जैसे ही सुध लौटी, समीर शिखा से बोले थे- "कितने काम बाक़ी हैं शिखा। हम दोनों तो यहाँ आकर पुरानी स्मृतियों में खो ही गए।"
दोनों ने मिलकर सारा सामान जमाया। इस उम्र में घर में सामान जमाने का काम किसी एक के बस का काम नहीं था। दोनों को सामान जमाने में काफ़ी समय लगा। सामानों से भरे एक-एक कार्टन को दोनों मिलकर खोलते और उसका सामान करीने से जमाते। सवेरे से शाम कब हो जाती, दोनों को पता ही नहीं चलता। पूरा घर सेट करने में दोनों को दो महीने से ऊपर लग गया।

अभी तक दोनों को विद्यालय की तरफ से रहने की सुविधा मिलती रही थी। जितनी भी सुविधाएँ स्कूल वाले देते रहे, दोनों ने हमेशा बहुत संतुष्टि के साथ ही अपना जीवनयापन किया था। यह तो पहली बार था कि दोनों अपने घर में हमेशा के लिए रहने आए थे। शिखा ने भी अपने घर को ख़ूब दिल से सजाया। दोनों का लगभग रोज़ ही बाज़ार का चक्कर लगता। किसी न किसी सामान की रोज़ ही ज़रूरत पड़ जाती थी। पर दोनों का घर में बहुत ज़्यादा रुपया ख़र्च करने का मानस नहीं था क्योंकि उन्हें बहुत अच्छे से पता था कि उनका बेटा सार्थक कभी इस घर में रहने नहीं आएगा।

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रचनाकार परिचय

प्रगति गुप्ता

ईमेल : pragatigupta.raj@gmail.com

निवास : जोधपुर (राजस्थान)

जन्मतिथि- 23 सितंबर, 1966
जन्मस्थान- आगरा (उत्तरप्रदेश)
शिक्षा- एम०ए० (समाजशास्त्र, गोल्ड मैडलिस्ट)
सम्प्रति- लेखन व सोशल-मेडिकल क्षेत्र में काउंसिलिंग
प्रकाशन- तुम कहते तो, शब्दों से परे एवं सहेजे हुए अहसास (काव्य-संग्रह), मिलना मुझसे (ई-काव्य संग्रह), सुलझे..अनसुलझे!!! (प्रेरक संस्मरणात्मक लेख), माँ! तुम्हारे लिए (ई-लघु काव्य संग्रह), पूर्ण-विराम से पहले (उपन्यास), भेद (लघु उपन्यास), स्टेप्लड पर्चियाँ, कुछ यूँ हुआ उस रात (कहानी संग्रह), इन्द्रधनुष (बाल कथा संग्रह)
हंस, आजकल, वर्तमान साहित्य, भवंस नवनीत, वागर्थ, छत्तीसगढ़ मित्र, गगनांचल, मधुमती, साहित्य भारती, राजभाषा विस्तारिका, नई धारा, पाखी, अक्षरा, कथाबिम्ब, लमही, कथा-क्रम, निकट, अणुव्रत, समावर्तन, साहित्य-परिक्रमा, किस्सा, सरस्वती सुमन, राग भोपाली, हिन्दुस्तानी ज़ुबान, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण, दैनिक ट्रिब्यून, नई दुनिया, दैनिक नवज्योति, पुरवाई, अभिनव इमरोज, हिन्दी जगत, पंकज, प्रेरणा, भारत दर्शन सहित देश-विदेश की लगभग 350 से अधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन और अनुवाद।
कविता अनवरत, कविता अभिराम, शब्दों का कारवां, समकालीन सृजन, सूर्य नगरी की रश्मियाँ, स्वप्नों की सेल्फ़ी, कथा दर्पण रत्न, छाया प्रतिछाया, सतरंगी बूंदें, संधि के पटल पर आदि साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
प्रसारण-
जयपुर दूरदर्शन से चर्चा व आकाशवाणी से सृजन का नियमित प्रसारण
सामाजिक और साहित्यिक क्षेत्र में कविता का स्थान विषय पर टी.वी. पर एकल साक्षात्कार
संपादन- अनुभूतियाँ प्रेम की (संपादित काव्य संकलन)
विशेष-
राजस्थान सिन्धी अकादमी द्वारा कहानी संग्रह 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' का अनुवाद।
कहानियों और कहानी संग्रह 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' पर शोध।
प्रतिष्ठित कथा प्रधान साहित्यिक पत्रिका 'कथाबिम्ब' के संपादक मण्डल में क्षेत्रवार संपादक
कहानियों व कविताओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद
हस्ताक्षर वेब पत्रिका के लिए दो वर्ष तक नियमित 'ज़रा सोचिए' स्तंभ
सम्मान/पुरस्कार-
हिंदी लेखिका संघ, मध्यप्रदेश (भोपाल) द्वारा 'तुम कहते तो' काव्य संग्रह पर 'श्री वासुदेव प्रसाद खरे स्मृति पुरस्कार' (2018)
'अदबी उड़ान काव्य साहित्य पुरस्कार' काव्य संग्रह तुम कहते तो और शब्दों से परे पुरस्कृत व सम्मानित (2018)
साहित्य समर्था द्वारा आयोजित अखिल भारतीय 'डॉ० कुमुद टिक्कू कहानी प्रतियोगिता' श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार (2019 और 2020)
विद्योत्तमा फाउंडेशन, नाशिक द्वारा 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' कहानी संग्रह 'विद्योत्तमा साहित्य सम्राट सम्मान' से पुरस्कृत (2021)
श्री कमल चंद्र वर्मा स्मृति राष्ट्रीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता प्रथम पुरस्कार 2021
कथा समवेत पत्रिका द्वारा आयोजित 'माँ धनपति देवी स्मृति कथा साहित्य सम्मान' 2021, विशेष सम्मान व पुरस्कार
लघु उपन्यास भेद पुरस्कृत मातृभारती 2020
विश्व हिंदी साहित्य परिषद द्वारा 'साहित्य सारंग' से सम्मानित (2018)
अखिल भारतीय माथुर वैश्य महासभा के राष्ट्रीय सम्मेलन में 'समाज रत्न' से सम्मानित (2018)
डॉ० प्रतिमा अस्थाना साहित्य सम्मान, आगरा (2022)
कथा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थान द्वारा राज्य स्तरीय सम्मान 'रघुनंदन त्रिवेदी कथा सम्मान' स्टेपल्ड पर्चियांँ संग्रह को- 2023
पंडित जवाहरलाल नेहरु बाल साहित्य अकादमी, राजस्थान द्वारा 'इंद्रधनुष' बाल कथा संग्रह को 'बाल साहित्य सृजक' सम्मान 2023 
जयपुर साहित्य संगीति द्वारा 'कुछ यूँ हुआ उस रात' को विशिष्ट श्रेष्ठ कृति सम्मान 2023
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