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प्रगति गुप्ता के उपन्यास 'पूर्णविराम से पहले' की आठवीं कड़ी

प्रगति गुप्ता के उपन्यास 'पूर्णविराम से पहले' की आठवीं कड़ी

सच कहूँ शिखा! जब से प्रीति की बीमारी का मुझे पता चला था, मैं बहुत डर गया था। लखनऊ में गुज़रे हुए पूरे सात-आठ दिन में मैंने प्रीति से जुड़े निर्वात को बहुत क़रीब से महसूस कर लिया था। प्रीति को कभी भी खो देने का डर मेरे अंदर ठहर गया था। मेरी बातों को सुनकर प्रीति की आँखों में नमी तैर गई थी, जो मुझे भी बहुत अच्छे से नज़र आ गई थी। उसके चेहरे को देखकर महसूस हो रहा था कि कहीं न कहीं वह भी मेरी तरह ख़ुद को कमज़ोर महसूस कर रही थी। इतने वर्ष लंबे समर्पण के बाद हम एक-दूसरे को जीने लगते हैं। हैं न समीर, समीर ने भी सहमति में सिर हिलाया।

न जाने कितनी देर तक मैं प्रीति के कमरे के बाहर खड़ा रहा। उस समय डॉक्टर द्वारा बताया हुआ मृत्यु का अनिश्चित समय मुझे भीतर ही भीतर कंपन दे रहा था। जीवन के किसी भी पल में हम अपने प्रिय को खो सकते हैं, यह डर कितना भयावह हो सकता है, मैंने उस क्षण अनुभव किया। साथ ही किसी बहुत अपने की आवाज़ का हमेशा के लिए निर्वात में गुम होना...कितनी पीड़ा दे सकता था, उस रोज़ मुझे महसूस हुआ। जब मेरे अर्दली ने मुझे कमरे में आकर बैठने को कहा तब मैं कमरे में अंदर घुसा। अर्दली ने मुझे पानी पिलाया और थोड़ा आराम करने को कहा।

कमरे में पहुँचकर जैसे ही मैंने प्रीति पर अपनी दृष्टि डाली उसकी निगाहों में मुझे एक नहीं, कई प्रश्न नज़र आए शिखा! अपने पूरे कार्यकाल में किसी भी बड़े से बड़े राजनीतिज्ञ या अफसर के प्रश्नों के आगे मैं हमेशा अटल रहा पर प्रीति की निगाहों ने मुझे चुपके-से बरसने पर मज़बूर कर दिया। जिन्हें हम प्यार करते हैं, उनकी पीड़ा बहुत तोड़ती है शिखा। कमरे में पहुँच कर मैं सीधे वॉशरूम में गया। ख़ुद को थोड़ा संयत करके जब बाहर निकला तो प्रीति से कहा- "कल हमें अस्पताल से डिस्चार्ज लेकर कानपुर के लिए निकलना है। अगर तुम ठीक महसूस करोगी तभी हम निकलेंगे। नहीं तो एक-दो दिन यहीं लखनऊ में किसी होटल में रुक कर, अगले दिन कानपुर के लिए निकल पड़ेंगें।" प्रीति ने फिर से मेरी तरफ देखकर पूछा- "क्या बताया डॉक्टर ने, पहले मुझे वह बताओ।"

समीर! जब हम स्वयं यथार्थ को स्वीकारने की प्रक्रिया में होते हैं, अपने प्रिय को ढाढ़स बंधाना उतना ही मुश्किल होता है। भीतर ही भीतर बिखरी हुई टूटन कितनी परीक्षाओं से गुज़रवाती है, आज भी जब सोचता हूँ तो ख़ुद को सँभाल नहीं पाता मगर प्रीति के सवालों का जवाब देना भी ज़रूरी था। "डॉक्टर ने सभी रिपोर्ट्स को देखकर तुम्हारी मेडिसिन लिखी हैं ताकि तुम उन्हें कंटिन्यू कर सको। पहले डॉक्टर्स उन दवाइयों के इफेक्ट देखना चाहते हैं ताकि अगर कुछ दवाइयों को बदलना भी पड़े तो वह बदल सकें।"

तब प्रीति ने मुझसे पूछा था- "मेरे ट्रीटमेंट में कीमोथेरेपी या रेडियोथैरेपी नहीं चलेगी क्या?" प्रीति बहुत पढ़ी-लिखी, समझदार थी। उससे कुछ भी छिपाना संभव नहीं था। मैंने उसे जवाब दिया- "तुम्हारा कैंसर काफ़ी एडवांस स्टेज में पहुँच चुका है। अब उसमें रेडियोथैरेपी या कीमोथेरेपी का कोई असर नहीं आएगा। वह सिर्फ़ हारमोंस देकर तुम्हारे कैंसर को मैनेज करने की कोशिश करेंगे।" प्रीति को अपने हर प्रश्न के जवाब चाहिए थे। मेरा इतना बोलने पर प्रीति ने मुझसे वापस वही प्रश्न फिर से किया, जो कि मुझे बहुत तोड़ रहा था।

"कितना समय है मेरे पास प्रखर! तुमने मुझे यह नहीं बताया।" शिखा जीवन में मैंने कभी भी प्रीति से झूठ नहीं बोला था पर उस दिन मेरे मुँह से पहला और आख़िरी झूठ निकला। मैंने प्रीति से कहा- "डॉक्टर्स बोल रहे हैं हार्मोन का अच्छा असर आएगा और तुम काफ़ी ठीक हो जाओगी। डॉक्टर से कितना समय है तुम्हारे पास, जैसी कोई बात नहीं हुई।"

न जाने क्यों उस दिन मुझे ऐसा महसूस हुआ कि प्रीति ने मेरा झूठ पकड़ लिया है। वह मेरी तरफ एकटक ही देखती रही। मैं उससे असल सच बोलूँ। तभी मैंने बात को बदलते हुए उससे कहा- "मैं अभी थोड़ी देर में वापस आता हूँ। कुछ दवाइयाँ यहीं की मेडिकल पर मिलेंगी। पहले उन्हें ख़रीद लेता हूँ ताकि तुम्हारे साथ आराम से बैठ कर चाय पी सकूँ। अपनी बात को बोलकर मैं कमरे से बाहर चला गया और उसके पास अपने एक अर्दली को बैठने को बोल गया।

जब तक प्रीति अस्पताल में रही, मेरे दो अर्दली हमेशा साथ ही रहते थे। जब भी मैं डॉक्टर से मिलने या दवाइयाँ लेने के लिए निकलता, मेरा अर्दली उसके पास बैठकर उसका ख़याल रखता। मेरे माँ-बाप इस दुनिया में नहीं थे। इसी शहर में बहुत सारे रिश्तेदार मदद के लिये थे। पर मैंने प्रीति की बीमारी के बारे में किसी को भी नहीं बताया था क्योंकि रिश्तेदारी निभाने से मरीज उपेक्षित होता है और मैं किसी भी कीमत में प्रीति की उपेक्षा नहीं करना चाहता था। उसकी हर ज़रूरत में साथ रहना चाहता था। प्रीति की सब दवाइयाँ चल ही रही थीं।
अगले ही दिन अस्पताल से हमने डिस्चार्ज ले लिया और मैंने प्रीति से पूछा- "वह कानपुर के लिए आज निकलने में समर्थ है या नहीं।" उस दिन मैंने सोचा हुआ था, अगर प्रीति को ज़रा भी तकलीफ़ में होगी तो हम एक-दो दिन के बाद ही लखनऊ से निकलेंगे।

प्रीति ने बहुत शांत मन से कहा था कि उसके दर्द में काफ़ी आराम है तो आज ही निकल सकते हैं। वैसे भी अस्पताल में इतने दिन रुकने के बाद वो होमसिक महसूस करने लगी थी। उसने मुझे कहा भी कि अब जल्दी घर पहुँच जाएँ तो अच्छा है। उस समय प्रीति ने ही मुझे याद दिलाया था कि मैं प्रणय को फोन ज़रूर कर दूँ। वह सीधे कानपुर ही पहुँचे। कहीं ऐसा न हो कि वो ट्रेन या कार से लखनऊ आने के लिए बुकिंग करवा ले। यहाँ पहुँचकर वो नाहक ही परेशान होगा।

जानते हो समीर, उस समय प्रीति ने मुझे इस बात को याद दिलाकर बहुत अच्छा किया था क्योंकि मुझे प्रीति से जुड़ी चिंताएँ कुछ और सोचने ही नहीं दे रही थीं। कभी-कभी तो लगता था दिमाग़ में कुछ आ-जा ही नहीं रहा। मैंने उसी समय प्रणय को फोन किया और उसको सीधे कानपुर ही आने को बोल दिया। उस समय भी प्रणय ने मुझसे पूछा था- “पापा! क्या माँ के सभी टेस्ट हो गए और ट्रीटमेंट शुरू हो गया है? अब वापस लखनऊ आने की ज़रूरत कब होगी?"
तब मैंने उसको कहा- "मैं और तुम्हारी माँ लखनऊ से कानपुर के लिए वापस लौट रहे हैं बेटा क्योंकि तुम्हारी माँ के सभी टेस्ट हो चुके हैं और डॉक्टर ने ट्रीटमेंट भी शुरू कर दिया है। प्रीति मेरे साथ ही है। जब तुम घर आओगे तब तुमको सभी डीटेल बताऊँगा। समीर! प्रणय बहुत अच्छे से समझ गया था कि मैं प्रीति के सामने ज़्यादा बात नहीं करना चाह रहा हूँ। तब प्रणय ने बीच में ही मुझे पुकार कर कहा- "पापा! क्या मैं मम्मा से बात कर सकता हूँ? अगर वह जग रहीं हो तो बात करवा दीजिए।" मैंने हाँ बोलकर अपने हाथ से फोन प्रीति को पकड़ा दिया और प्रीति से कहा- "प्रणय तुमसे बात करना चाहता है प्रीति!"

प्रणय का फोन हाथ में लेते ही प्रीति ने ज्यों ही हेलो कहा, उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस रोज़ प्रीति की अपने बेटे से कई दिन बाद बात हुई थी। प्रणय ने कभी भी अपनी माँ को इस तरह कमज़ोर होते नहीं देखा था। माँ को रोते हुए देख, वह ख़ुद पर कंट्रोल नहीं कर पाया और रोने लगा। अपने बच्चे को इस तरह फूट-फूट कर रोते हुए सुनकर प्रीति ने ख़ुद को मज़बूत करते हुए प्रणय से कहा था- "चुप हो जाओ बेटा! परेशान मत हो। अब मैं ठीक हूँ। जब घर आओगे, हम ढेर सारी बातें करेंगे। अगर तुम इस तरह से परेशान होगे तो तुम्हारे पापा का कौन ख़याल रखेगा। आगे भविष्य में सबकुछ मिलकर ही करना है। अपना ख़याल रखो। मैं तुम्हारे आने का इंतज़ार कर रही हूँ बेटा! अब मैं फोन तुम्हारे पापा को देती हूँ। ख़ूब अच्छे से घर पहुँचो और हाँ, अपने खाने का भी बता देना कि तुम क्या खाओगे? मैं काका से कहकर बनवा दूँगी।"

प्रीति ने प्रणय से अपनी बात बोलकर मुझे फोन पकड़ा दिया था। मैं गाड़ी में आगे बैठा हुआ दोनों की बातें सुन रहा था। इतना बीमार होने पर भी उसे बेटे की पसंद का खाना बनवाने की चिंता थी। मैं अच्छे से जानता था कि वह मन ही मन परेशान होगी पर जानती हो शिखा मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं पलटकर प्रीति को साँत्वना दूँ। मैं प्रीति को वापस रुलाना नहीं चाहता था। तब मैंने भी प्रणय से सिर्फ़ यह बोलकर फोन काट दिया कि तुम अच्छे से घर पहुँचो बेटा, फिर बात करेंगे। प्रीति ने कार की पिछली सीट पर लेटे-लेटे ही यात्रा की। मैंने ड्राइवर को गाड़ी तेज चलाने के लिए मना कर दिया था ताकि प्रीति को कम से कम झटके लगे। उस रोज़ जो सफ़र ढाई से तीन घंटे में पूरा होना था, वह पाँच घंटे में पूरा हुआ। मेरा मन परेशान था तो दूरी भी कुछ ज़्यादा ही महसूस हो रही थी।

जब हम वापस कानपुर पहुँचे तो काका ने हमारे आने के सभी इंतजाम कर रखे थे। मैंने काका को फोन पर ही सारी स्थितियाँ बता दी थी। घर पहुँचकर मैंने कार का गेट खोलकर प्रीति को सहारा देकर गाड़ी से नीचे उतारा और उसे घर के अंदर लेकर गया। प्रीति को हमारे कमरे में पहुँचाकर मैंने उसे पानी पिलाया और बिस्तर पर लिटाकर आराम करने को कहा। मैं भी इस यात्रा से काफ़ी थक गया था। प्रीति के साथ सुखद लगने वाली यात्राएँ पहली बार मुझे बहुत थका गई थीं। मैंने प्रीति से कहा- "मैं स्नान करके आता हूँ, फिर तुम्हारे साथ बैठकर बातें करूँगा। साथ में चाय भी पिएँगे।" मैंने काका को दस मिनट बाद चाय बनाने को बोल दिया था।

प्रीति ने सहमति से अपना सिर हिलाकर मुझे जाने को कहा। साथ ही बोली- "स्नान करने के बाद प्रखर, तुम आराम कर लेना। तुम्हारा भी इन दिनों में काफ़ी एक्सर्शन हो गया है। काफ़ी थक गए होंगे। अगर तुमको ऑफिस जाना हो तो चले जाओ। कोई भी काम होगा तो काका या काकी को बुला लूँगी।" प्रीति की बात को सुनकर मैं स्नान को जाते-जाते उसके पास ही रुक गया था और प्रीति से बोला- "आज मैं ऑफिस नहीं जाऊँगा। तुम्हारे साथ ही समय गुज़ारना चाहूँगा ताकि तुम भी अस्पताल की थकान निकाल सको। मुझे भी अच्छा लगेगा।"

सच कहूँ शिखा! जब से प्रीति की बीमारी का मुझे पता चला था, मैं बहुत डर गया था। लखनऊ में गुज़रे हुए पूरे सात-आठ दिन में मैंने प्रीति से जुड़े निर्वात को बहुत क़रीब से महसूस कर लिया था। प्रीति को कभी भी खो देने का डर मेरे अंदर ठहर गया था। मेरी बातों को सुनकर प्रीति की आँखों में नमी तैर गई थी, जो मुझे भी बहुत अच्छे से नज़र आ गई थी। उसके चेहरे को देखकर महसूस हो रहा था कि कहीं न कहीं वह भी मेरी तरह ख़ुद को कमज़ोर महसूस कर रही थी। इतने वर्ष लंबे समर्पण के बाद हम एक-दूसरे को जीने लगते हैं। हैं न समीर, समीर ने भी सहमति में सिर हिलाया।

प्रखर का बात-बात में समीर या शिखा का नाम लेकर बातें बताना बहुत अपनापन महसूस करवा रहा था। समीर और शिखा उसकी बातों में इतना खो गए थे कि तीनों में से किसी को भूख ने नहीं सताया। प्रखर का जुड़ाव इतना गहरा था कि प्रीति हो या बेटा प्रणय उससे जुड़ी हर बात उसे क्रमबद्ध याद थी। समीर और शिखा को लग रहा था कि किसी भी तरह आज प्रखर अपने अतीत को साझा कर हल्का हो जाए।

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रचनाकार परिचय

प्रगति गुप्ता

ईमेल : pragatigupta.raj@gmail.com

निवास : जोधपुर (राजस्थान)

जन्मतिथि- 23 सितंबर, 1966
जन्मस्थान- आगरा (उत्तरप्रदेश)
शिक्षा- एम०ए० (समाजशास्त्र, गोल्ड मैडलिस्ट)
सम्प्रति- लेखन व सोशल-मेडिकल क्षेत्र में काउंसिलिंग
प्रकाशन- तुम कहते तो, शब्दों से परे एवं सहेजे हुए अहसास (काव्य-संग्रह), मिलना मुझसे (ई-काव्य संग्रह), सुलझे..अनसुलझे!!! (प्रेरक संस्मरणात्मक लेख), माँ! तुम्हारे लिए (ई-लघु काव्य संग्रह), पूर्ण-विराम से पहले (उपन्यास), भेद (लघु उपन्यास), स्टेप्लड पर्चियाँ, कुछ यूँ हुआ उस रात (कहानी संग्रह), इन्द्रधनुष (बाल कथा संग्रह)
हंस, आजकल, वर्तमान साहित्य, भवंस नवनीत, वागर्थ, छत्तीसगढ़ मित्र, गगनांचल, मधुमती, साहित्य भारती, राजभाषा विस्तारिका, नई धारा, पाखी, अक्षरा, कथाबिम्ब, लमही, कथा-क्रम, निकट, अणुव्रत, समावर्तन, साहित्य-परिक्रमा, किस्सा, सरस्वती सुमन, राग भोपाली, हिन्दुस्तानी ज़ुबान, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण, दैनिक ट्रिब्यून, नई दुनिया, दैनिक नवज्योति, पुरवाई, अभिनव इमरोज, हिन्दी जगत, पंकज, प्रेरणा, भारत दर्शन सहित देश-विदेश की लगभग 350 से अधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन और अनुवाद।
कविता अनवरत, कविता अभिराम, शब्दों का कारवां, समकालीन सृजन, सूर्य नगरी की रश्मियाँ, स्वप्नों की सेल्फ़ी, कथा दर्पण रत्न, छाया प्रतिछाया, सतरंगी बूंदें, संधि के पटल पर आदि साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
प्रसारण-
जयपुर दूरदर्शन से चर्चा व आकाशवाणी से सृजन का नियमित प्रसारण
सामाजिक और साहित्यिक क्षेत्र में कविता का स्थान विषय पर टी.वी. पर एकल साक्षात्कार
संपादन- अनुभूतियाँ प्रेम की (संपादित काव्य संकलन)
विशेष-
राजस्थान सिन्धी अकादमी द्वारा कहानी संग्रह 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' का अनुवाद।
कहानियों और कहानी संग्रह 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' पर शोध।
प्रतिष्ठित कथा प्रधान साहित्यिक पत्रिका 'कथाबिम्ब' के संपादक मण्डल में क्षेत्रवार संपादक
कहानियों व कविताओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद
हस्ताक्षर वेब पत्रिका के लिए दो वर्ष तक नियमित 'ज़रा सोचिए' स्तंभ
सम्मान/पुरस्कार-
हिंदी लेखिका संघ, मध्यप्रदेश (भोपाल) द्वारा 'तुम कहते तो' काव्य संग्रह पर 'श्री वासुदेव प्रसाद खरे स्मृति पुरस्कार' (2018)
'अदबी उड़ान काव्य साहित्य पुरस्कार' काव्य संग्रह तुम कहते तो और शब्दों से परे पुरस्कृत व सम्मानित (2018)
साहित्य समर्था द्वारा आयोजित अखिल भारतीय 'डॉ० कुमुद टिक्कू कहानी प्रतियोगिता' श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार (2019 और 2020)
विद्योत्तमा फाउंडेशन, नाशिक द्वारा 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' कहानी संग्रह 'विद्योत्तमा साहित्य सम्राट सम्मान' से पुरस्कृत (2021)
श्री कमल चंद्र वर्मा स्मृति राष्ट्रीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता प्रथम पुरस्कार 2021
कथा समवेत पत्रिका द्वारा आयोजित 'माँ धनपति देवी स्मृति कथा साहित्य सम्मान' 2021, विशेष सम्मान व पुरस्कार
लघु उपन्यास भेद पुरस्कृत मातृभारती 2020
विश्व हिंदी साहित्य परिषद द्वारा 'साहित्य सारंग' से सम्मानित (2018)
अखिल भारतीय माथुर वैश्य महासभा के राष्ट्रीय सम्मेलन में 'समाज रत्न' से सम्मानित (2018)
डॉ० प्रतिमा अस्थाना साहित्य सम्मान, आगरा (2022)
कथा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थान द्वारा राज्य स्तरीय सम्मान 'रघुनंदन त्रिवेदी कथा सम्मान' स्टेपल्ड पर्चियांँ संग्रह को- 2023
पंडित जवाहरलाल नेहरु बाल साहित्य अकादमी, राजस्थान द्वारा 'इंद्रधनुष' बाल कथा संग्रह को 'बाल साहित्य सृजक' सम्मान 2023 
जयपुर साहित्य संगीति द्वारा 'कुछ यूँ हुआ उस रात' को विशिष्ट श्रेष्ठ कृति सम्मान 2023
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