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प्रगति गुप्ता के उपन्यास 'पूर्णविराम से पहले' की नवमीं कड़ी

प्रगति गुप्ता के उपन्यास 'पूर्णविराम से पहले' की नवमीं कड़ी

स्त्रियाँ जब अपने किसी प्रिय की बाट जोहती हैं तो कितना प्रेम स्वयं में सँजोकर विशाल क़द की हो जाती हैं। इस भाव को महसूस करने वाले का क़द भी तभी विशाल होता है, जब उसे किसी का किया हुआ महसूस हो। शिखा ने ज्यूँ ही समीर की आँखों में देखा, उसे समीर की अनकही समझ आ गई। प्रखर के अपनी बात पुनः शुरू करने से दोनों उसे सुनने लगे।

लखनऊ से लौटने के चार दिन बाद प्रणय भी कानपुर पहुँच गया। उसने मुझे स्टेशन लेने आने को मना कर दिया था। स्टेशन से उसने कैब ले ली थी। जैसे ही वह घर में दाखिल हुआ, उसने अपना सामान काका से कहकर अपने कमरे में रखवा दिया और वह सीधे हमारे कमरे में चला आया। कमरे के अंदर प्रविष्ट होते ही प्रणय का जी भर आया था। पहली बार उसे अपनी माँ बिस्तर पर लेटी हुई मिली। ऐसा कभी भी नहीं हुआ था कि वह कहीं बाहर से आया हो और माँ उसे कभी बिस्तर में लेटी हुई मिली हो। प्रणय को प्रीति हमेशा ही घर के दरवाज़े पर इंतज़ार करते हुए मिलती थी। प्रीति की यह आदत थी, जब प्रणय या मैं शहर के बाहर जाकर लौटते, वह दरवाज़े पर इंतज़ार करते हुए मिलती थी।

एकाएक समीर ने शिखा की ओर देखा। वह भी तो ऐसा ही करती थी। स्त्रियाँ जब अपने किसी प्रिय की बाट जोहती हैं तो कितना प्रेम स्वयं में सँजोकर विशाल क़द की हो जाती हैं। इस भाव को महसूस करने वाले का क़द भी तभी विशाल होता है, जब उसे किसी का किया हुआ महसूस हो। शिखा ने ज्यूँ ही समीर की आँखों में देखा, उसे समीर की अनकही समझ आ गई। प्रखर के अपनी बात पुनः शुरू करने से दोनों उसे सुनने लगे।

प्रणय को देखते ही प्रीति अपने बिस्तर से तेजी से उठ खड़ी हुई और हाथ फैलाकर उसने प्रणय को अपनी बाँहों में समा लिया। तब प्रणय ने प्रीति के पैर छूकर आशीर्वाद लिया। प्रणय ने अपनी माँ को बीच में ही प्यार से टोकते हुए कहा- "मैं आप ही के पास आ रहा था माँ। इतनी तेज़ी से मत उठिए। आपको डॉक्टर ने सावधानी बरतने को कहा है। आपको कहीं चोट लग गई तो बहुत तकलीफ़ होगी।"

उस रोज़ प्रीति ने प्रणय को बहुत देर तक अपनी दोनों बाँहों में समेटकर रखा था। इससे पहले जब भी प्रणय आता था, अपनी माँ को गले लगाकर हमेशा गोद में उठा लिया करता था। जब तक वह शोर न मचाती, वो उतारता ही नहीं था पर इस बार उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया। न जाने कितनी देर तक माँ और बेटे एक-दूसरे के गले लगकर रोते रहे। मैं उसी कमरे में था। समीर! पर मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि दोनों के बीच कुछ बोल सकूँ। उस समय अगर मैं भी कुछ बोलता तो अपने आँसुओं पर कंट्रोल खो बैठता। मैं ख़ुद को बहुत मज़बूत दिखाता था पर हर गुज़रता हुआ दिन मुझे खौफ़ देता था। प्रीति के साथ जो समय गुज़र रहा था, वो मुझे जीवन और मृत्यु दोनों का बहुत निकट से अनुभव करवा रहा था।

जिस दिन प्रणय आया था, मैंने ऑफिस से छुट्टी ले ली थी। दोनों को इस तरह से रोता हुआ देखकर मेरी आँखें भी नम हो गईं पर मैंने ख़ुद को मज़बूत करते हुए प्रीति और प्रणय से कहा- "सब ठीक हो जाएगा। हम सबको ईश्वर पर विश्वास रखना चाहिए।"
प्रणय ने आते ही अपनी माँ की सारी ज़िम्मेदारी उठा ली थी। मैं अगर प्रीति का कोई भी काम करने का सोचता, प्रणय मुझे रोक देता और कहता- "पापा जब तक मैं हूँ, मुझे माँ के सभी काम करने दें प्लीज। बीस दिन बाद मुझे एक बार तो वापस जाना ही पड़ेगा। तब आपको ही मम्मा के सभी काम करने हैं।"
उस ट्रिप के दौरान हमेशा मुझे बोलता- "पापा एक बात कहूँ! आज न जाने क्यूँ बार-बार महसूस हो रहा है कि मुझे यहीं हिंदुस्तान में काम करना चाहिए था। कम से कम जब भी मौक़ा मिलता, आप दोनों के पास शीघ्र ही पहुँच जाता।"

प्रखर की बात सुनकर अचानक समीर और शिखा को लगा कि प्रणय दूर रहने के बाद भी पास है। अपनी माँ के बीमार होने का सुनकर वह मात्र चार दिन में प्रोग्राम बनाकर पहुँच भी गया। एक उनका बेटा सार्थक है, जिसे फोन करने तक की फुर्सत नहीं। जब शिखा के मन में हफ्ते-दस दिन में उसका ख़याल प्रबल हो जाता, वही फोन लगाती। शुरू-शुरू में वह हर दूसरे या तीसरे दिन फोन लगाती थी पर सार्थक की प्रतिक्रिया देखकर उसने फोन करना कम कर दिया था।

एक-सी बात सोचते-सोचते जैसे ही शिखा की नज़र समीर की तरफ गई, वह भी उसी की तरफ देख रहा था। दोनों को एक-दूसरे के मन के भाव बहुत अच्छे-से समझ आ गए थे। तभी एक-सी पीड़ा महसूस कर दोनों की आँखों में नमी तैर गई। अचानक प्रखर की नज़र उन दोनों पर पड़ी तो उसने समीर और शिखा की तरफ देखकर कहा- "तुम दोनों बहुत ज़्यादा मत सोचो। एक सार्थक के कुछ भी न सोचने से सब रुक नहीं जाता। हम आपस में एक-दूसरे का ख़याल रखेंगे और हम सभी की शेष ज़िंदगी निकल जाएगी।" बोलकर उसने अपनी बात वापस जारी रखी।

जिस दिन प्रणय की वापसी थी, उसने भारी मन से हम दोनों से विदा ली और शीघ्र ही वापस लौटने का वादा करके उसने अपनी माँ के पैर छुए और मुझे गले लगाकर कहा- "पापा आप जब भी कहेंगे, मैं तुरंत वापस लौट आऊँगा। आप कभी भी अपने आपको अकेला मत महसूस करिएगा।"
समीर उस दिन मुझे अपने बेटे पर बहुत नाज़ हुआ क्योंकि हमें कभी भी उससे कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी। उसने हम दोनों के लिए वही सबकुछ किया, जो एक बेटे को अपने माँ-पापा के लिए करना चाहिए।

समय धीरे-धीरे गुज़र रहा था। शुरू के तीन-चार महीने प्रीति की बीमारी में हार्मोन ट्रीटमेंट का अच्छा असर दिखाई दे रहा था पर अचानक ही उसको साँस लेने में तकलीफ होने लगी। एक-दो क़दम चलते ही उसको बैठना पड़ता था। इस तरह की तकलीफ़ें बढ़ने से प्रीति को बाथरूम जाने और अपने ही काम करने में बहुत परेशानी होने लगी थी। पहले प्रीति अपने सभी काम ख़ुद ही किया करती थी पर जब ख़ुद काम नहीं कर पाती थी तो बहुत उदास हो जाती। उसे किसी से भी अपना काम करवाना बहुत आहत करता था।

प्रीति के लिए एक नर्सिंग स्टाफ़ रखना पड़ा क्योंकि मुझे ऑफिस भी जाना होता था। मेरे ऊपर कुछ बड़ी ज़िम्मेदारियाँ थीं, जिनकी वजह से मैं ऑफिस जाना भी नहीं छोड़ सकता था पर जब भी घर लौटकर आता तो अपना शेष सारा समय प्रीति के साथ गुज़ारने की कोशिश करता। ऑफिस में भी ख़ाली होते ही प्रीति की चिंता सताती कि कहीं किसी रोज़ घर से अप्रत्याशित फोन न आ जाए। कहीं प्रीति मेरी अनुपास्थिति में विदा न ले ले। एक डरे हुए इंसान की तरह जीवन गुज़र रहा था।

प्रीति ने कभी भी मुझसे कोई शिकायत नहीं की। उल्टा वही मुझसे कहा करती थी कि उसकी वजह से मेरा बहुत काम ख़राब हो रहा है। जबकि समीर मैंने हमेशा ही प्रीति को यह समझाने की कोशिश की कि पति-पत्नी के रिश्ते में अगर किसी को भी किसी की ज़रूरत हो तो समय ख़राब नहीं होता। अगर तुम्हारी जगह मैं होता तो तुम भी तो यही करती। मेरी बात को सुनकर प्रीति चुप रह जाती।

अक्सर रात को सोते-सोते जब प्रीति की नींद उचट जाती तो वह मेरे सीने से कसकर चिपक जाती। कई-कई बार सारी-सारी रात सिसकती रहती। अपनों को छोड़ने की पीड़ा बहुत बड़ी होती है। मैं उसे चुप करने की कोशिश करता पर सच तो यही है कि वह अपनी बेचैनी को मुझसे नहीं कहती तो किससे कहती! अपने पति, बच्चे और घर को छोड़कर जाना इतना आसान नहीं होता।

यही वज़ह थी कि रात के अँधियारे में प्रीति की बेचैनी उसको सोने नहीं देती थी। डॉक्टर ने उसे नींद की गोली दोनों वक़्त खाने के लिए दे रखी थी ताकि उसका अधिकतम समय सोते हुए निकले पर दवाईयों का असर कभी आता था तो कभी नहीं आता था। जब प्रीति को साँस लेने में बहुत दिक्कत होने लगी, हम डॉक्टर को दिखाने लखनऊ गए। उन्होंने जब वापस सभी टेस्ट करवाएँ तो पता लगा कि प्रीति के लंग्स में भी कुछ पैचिस बन गए थे, जिसकी वजह से उसे चलने-फिरने और साँस लेने में तक़लीफ़ होने लगी थी।

समीर, मैं तुम्हें अपने दिल की एक बात बताऊँ! प्रीति जब उठकर बैठती थी या चलती थी, जिस तरह से उसे साँस लेने में तकलीफ़ होती थी, उसी तरह की तकलीफ़ मुझे भी अपने भीतर ही भीतर महसूस होती थी। मैं उस समय अपने आपको बहुत लाचार महसूस करता था। समीर को एकाएक महसूस हुआ कि जिस इंसान के व्यक्तित्व में समर्पण की ख़ूबी होती है, वह रिश्ते हो या कार्यक्षेत्र से जुड़ी ज़िम्मेदारियाँ, उन्हें शिद्दत से निभाने की कोशिश करता है। कुछ ऐसा ही व्यक्तित्व उसका भी था तभी वह प्रखर को अपने बहुत क़रीब महसूस करता था। प्रखर ने अपनी बात जारी रखी।

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रचनाकार परिचय

प्रगति गुप्ता

ईमेल : pragatigupta.raj@gmail.com

निवास : जोधपुर (राजस्थान)

जन्मतिथि- 23 सितंबर, 1966
जन्मस्थान- आगरा (उत्तरप्रदेश)
शिक्षा- एम०ए० (समाजशास्त्र, गोल्ड मैडलिस्ट)
सम्प्रति- लेखन व सोशल-मेडिकल क्षेत्र में काउंसिलिंग
प्रकाशन- तुम कहते तो, शब्दों से परे एवं सहेजे हुए अहसास (काव्य-संग्रह), मिलना मुझसे (ई-काव्य संग्रह), सुलझे..अनसुलझे!!! (प्रेरक संस्मरणात्मक लेख), माँ! तुम्हारे लिए (ई-लघु काव्य संग्रह), पूर्ण-विराम से पहले (उपन्यास), भेद (लघु उपन्यास), स्टेप्लड पर्चियाँ, कुछ यूँ हुआ उस रात (कहानी संग्रह), इन्द्रधनुष (बाल कथा संग्रह)
हंस, आजकल, वर्तमान साहित्य, भवंस नवनीत, वागर्थ, छत्तीसगढ़ मित्र, गगनांचल, मधुमती, साहित्य भारती, राजभाषा विस्तारिका, नई धारा, पाखी, अक्षरा, कथाबिम्ब, लमही, कथा-क्रम, निकट, अणुव्रत, समावर्तन, साहित्य-परिक्रमा, किस्सा, सरस्वती सुमन, राग भोपाली, हिन्दुस्तानी ज़ुबान, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण, दैनिक ट्रिब्यून, नई दुनिया, दैनिक नवज्योति, पुरवाई, अभिनव इमरोज, हिन्दी जगत, पंकज, प्रेरणा, भारत दर्शन सहित देश-विदेश की लगभग 350 से अधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन और अनुवाद।
कविता अनवरत, कविता अभिराम, शब्दों का कारवां, समकालीन सृजन, सूर्य नगरी की रश्मियाँ, स्वप्नों की सेल्फ़ी, कथा दर्पण रत्न, छाया प्रतिछाया, सतरंगी बूंदें, संधि के पटल पर आदि साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
प्रसारण-
जयपुर दूरदर्शन से चर्चा व आकाशवाणी से सृजन का नियमित प्रसारण
सामाजिक और साहित्यिक क्षेत्र में कविता का स्थान विषय पर टी.वी. पर एकल साक्षात्कार
संपादन- अनुभूतियाँ प्रेम की (संपादित काव्य संकलन)
विशेष-
राजस्थान सिन्धी अकादमी द्वारा कहानी संग्रह 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' का अनुवाद।
कहानियों और कहानी संग्रह 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' पर शोध।
प्रतिष्ठित कथा प्रधान साहित्यिक पत्रिका 'कथाबिम्ब' के संपादक मण्डल में क्षेत्रवार संपादक
कहानियों व कविताओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद
हस्ताक्षर वेब पत्रिका के लिए दो वर्ष तक नियमित 'ज़रा सोचिए' स्तंभ
सम्मान/पुरस्कार-
हिंदी लेखिका संघ, मध्यप्रदेश (भोपाल) द्वारा 'तुम कहते तो' काव्य संग्रह पर 'श्री वासुदेव प्रसाद खरे स्मृति पुरस्कार' (2018)
'अदबी उड़ान काव्य साहित्य पुरस्कार' काव्य संग्रह तुम कहते तो और शब्दों से परे पुरस्कृत व सम्मानित (2018)
साहित्य समर्था द्वारा आयोजित अखिल भारतीय 'डॉ० कुमुद टिक्कू कहानी प्रतियोगिता' श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार (2019 और 2020)
विद्योत्तमा फाउंडेशन, नाशिक द्वारा 'स्टेपल्ड पर्चियाँ' कहानी संग्रह 'विद्योत्तमा साहित्य सम्राट सम्मान' से पुरस्कृत (2021)
श्री कमल चंद्र वर्मा स्मृति राष्ट्रीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता प्रथम पुरस्कार 2021
कथा समवेत पत्रिका द्वारा आयोजित 'माँ धनपति देवी स्मृति कथा साहित्य सम्मान' 2021, विशेष सम्मान व पुरस्कार
लघु उपन्यास भेद पुरस्कृत मातृभारती 2020
विश्व हिंदी साहित्य परिषद द्वारा 'साहित्य सारंग' से सम्मानित (2018)
अखिल भारतीय माथुर वैश्य महासभा के राष्ट्रीय सम्मेलन में 'समाज रत्न' से सम्मानित (2018)
डॉ० प्रतिमा अस्थाना साहित्य सम्मान, आगरा (2022)
कथा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थान द्वारा राज्य स्तरीय सम्मान 'रघुनंदन त्रिवेदी कथा सम्मान' स्टेपल्ड पर्चियांँ संग्रह को- 2023
पंडित जवाहरलाल नेहरु बाल साहित्य अकादमी, राजस्थान द्वारा 'इंद्रधनुष' बाल कथा संग्रह को 'बाल साहित्य सृजक' सम्मान 2023 
जयपुर साहित्य संगीति द्वारा 'कुछ यूँ हुआ उस रात' को विशिष्ट श्रेष्ठ कृति सम्मान 2023
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