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प्रवासियों की समस्याओं को उजागर करता व्यंग्य संग्रह: डॉलर का नोट

प्रवासियों की समस्याओं को उजागर करता व्यंग्य संग्रह: डॉलर का नोट

डॉलर का नोट धर्मपाल महेंद्र जैन का हालिया प्रकाशित व्यंग्य संग्रह है। इससे पहले मैंने इनके दो व्यंग्य संग्रह ‘भीड़ और भेड़िए’ तथा ‘दिमाग़ वालो सावधान’ पढ़े हैं। डॉलर का नोट व्यंग्य संग्रह का विषय अन्य दो व्यंग्य संग्रहों के विषयों से अलग है। इस व्यंग्य संग्रह में प्रवासी भारतियों को विदेश में रहकर किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, का ज़िक्र किया गया है। इस संग्रह के सभी व्यंग्य निबंधात्मक व्यंग्य की शैली में हैं।

हर व्यक्ति कभी न कभी यह सोचता है या सपना देखता है कि उसे विदेश जाना है। वहाँ जाकर वो यह देखना चाहता है कि विदेशी लोग कैसे रहते है? क्या वो भी भारतियों की तरह अपना जीवन-यापन करते हैं या अलग? कुछ लोग विदेश घूमने जाना पसंद करते हैं, कुछ काम-काज के सिलसिले से में तो कुछ प्रवासी भारतीय बनकर वहाँ रहना पसंद करते हैं। ऐसा नही है कि विदेशों में रहने वाले लोगों के पास समस्याएँ नहीं हैं। उनके पास वहाँ के अनुसार समस्याएँ हैं। उन्हें भी जीवन की तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। प्रवासी भारतियों के जीवन में बहुत-सी समस्याएँ होती हैं, जिसकी तरफ ध्यान खींचता हुआ व्यंग्य संग्रह है 'डॉलर का नोट'।

डॉलर का नोट धर्मपाल महेंद्र जैन का हालिया प्रकाशित व्यंग्य संग्रह है। इससे पहले मैंने इनके दो व्यंग्य संग्रह ‘भीड़ और भेड़िए’ तथा ‘दिमाग़ वालो सावधान’ पढ़े हैं। डॉलर का नोट व्यंग्य संग्रह का विषय अन्य दो व्यंग्य संग्रहों के विषयों से अलग है। इस व्यंग्य संग्रह में प्रवासी भारतियों को विदेश में रहकर किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, का ज़िक्र किया गया है। इस संग्रह के सभी व्यंग्य निबंधात्मक व्यंग्य की शैली में हैं।

डॉलर का नोट व्यंग्य संग्रह में कुल 36 व्यंग्य लेख हैं। हर एक लेख में प्रवासी भारतियों की अलग-अलग समस्याओं को इंगित किया गया है। ऐसा नहीं है कि ये समस्याएँ हर जगह एक समान होंगी, थोड़ी बहुत भिन्नता ज़रूर हो सकती है। इस संग्रह के पहले व्यंग्य का नाम है ‘डॉलर का नोट’। इस लेख में एक प्रवासी भारतीय पर व्यंग्य किया गया है, जो विदेश से स्वदेश एक शादी समारोह में शामिल होने आया है। लोग उसकी और उसके परिवार की बहुत क़द्र करते हैं। प्रवासी भी ख़ुद को भाग्यशाली समझते हैं कि लोग उनका इतना आदर कर रहे हैं। प्रवासी भी अपना ठाठ-बाठ दिखाने से पीछे नहीं रहते। वे वक़्त-बेवक़्त अपने डॉलर का प्रदर्शन करते रहते हैं। लोग डॉलर को देखने, छूने के लिए लालायित रहते हैं। डॉलर को लोग फ़्रेम करवाकर रखना चाहते हैं ताकि वो अन्य लोगों को दिखा सके। इनके डॉलर की क़द्र एक ग़रीब बच्चा नहीं करता वह कहता है कि "मेरे चमचमाते जूते हाथ में लिए मैले-कुचेले कपड़ों में पोलिश वाला लड़का खड़ा था। मैंने डॉलर उसे थमाते हुए कहा, जाओ ऐश करो। उसने डॉलर वापस लौटा दिया पर बोला सर, डॉलर मेरे किस काम का। मेहनत के बीस रुपये मिलेंगे तो काम आएँगे। मेरा सारा डॉलर का नशा फुर हो चुका था। मैं अब वास्तविकता के धरातल पर धड़ाम से गिरा और रुपये ने मेरी आँखें खोल दीं।" डॉलर उनके लिए मायने रखता है, जिनके पास पैसे हैं। रोज़ कमाने खाने वालों को तो अपने पैसे से ही मतलब है। यह व्यंग्य उन लोगों की आँखें खोलने के लिए है, जो प्रवासी लोग अपने देश में आकर अपने प्रवासी होने पर इतराते हैं।

‘महानता का वायरस’ इस संग्रह का एक अन्य व्यंग्य लेख है। इस लेख में एक बीमारी का वर्णन है ‘ग्रेटेटाइटिस’। इस बीमारी का मतलब चिकित्सा विज्ञान के अनुसार देखें तो जब कोई व्यक्ति ख़ुद को महान समझने लगे तो इसे ग्रेटेटाइटिस कहते हैं। वैसे देखे तो लगभग सभी लोग इस बीमारी से ग्रसित हैं। सबको अपने क्षेत्र में महानता की उपाधि चाहिए, उनके जैसा और कोई नहीं हैं, हर व्यक्ति यही सुनना पसंद करता है। यह बीमारी छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब किसी को भी हो सकती है। इस बीमारी से ग्रसित लोग चाहते हैं कि डाक्टर उन्हें इस बीमारी का प्रमाण पत्र दे दे ताकि वो लीव लेकर अपना महिमा मंडन औरों तक कर सकें। इस बीमारी से ग्रसित साहित्यकारों पर भी लेख में प्रकाश डाला गया है, इस बीमारी से ग्रसित साहित्यकार अपना सुनाने पर ज़ोर देते हैं, औरों की सुनना उन्हें गवारा नहीं होता। यह बीमारी या यूँ कहें कि यह महानता की लत प्रवासी-अप्रवासी सभी में होती है, हर जगह के लोग ख़ुद को सर्वश्रेष्ट बताने की बीमारी से ग्रसित होते हैं। इस बीमारी के दाता को पहचान पाना मुश्किल होता है। यह बीमारी कब, कैसे उत्पन्न हो जाएगी, कोई नहीं जानता। इसका गंभीर रूप एक्युट ग्रेटेटाइटिस सिंड्रोम का लक्षण उन बीमारों में पाया जाता है, जो 24 घंटे ख़ुद को महान समझते हैं। इस व्यंग्य में व्यंग्यकार उन महान लोगों को कहते हैं कि हे महान लोगो, सुधार जाओ। ऐसे महान बनने की बीमारी से बचो और ख़ुद कुछ कर दिखाओ, नहीं तो ऐसी ही किसी बीमारी से तमाम उम्र ग्रस्त रहोगे और हाथ कुछ भी नहीं आएगा। यह बीमारी प्रवासियों को भी लगी हुई है। इसमें साहित्यकार हो या व्यापारी या आमजन इस बीमारी से ग्रसित हो सकता है इसलिए संभल कर रहिये।

इस पुस्तक के सभी लेख बहुत अच्छे हैं और एक से बढ़कर एक हैं पर सबको यहाँ शामिल कर पाना संभव नहीं है इसलिए कुछ ही व्यंग्य पर बात करेंगें।

‘साहित्य की सही रेसिपी’ इस व्यंग्य में व्यंग्यकार थोक में छप रहे साहित्य को अपना निशाना बनाते हैं। व्यंग्यकार कहते हैं कि साहित्य में रस का सृजन ऐसे ही होना चाहिए कि पाठक साहित्य देखे तो उसके मुँह में रस भर जाए। ऐसी रस पूर्णता ही पाठक को साहित्य का आसक्त बनाती है। मगर बाज़ारवाद के इस समय में रुपये के आगे सभी रस नीरस हो गये हैं। रस कम-ज़्यादा जो भी हो, पुस्तक का रूप लेकर आ जाती है, पाठक वर्ग से उसे क्या करना, जिसको पढ़ना है, पढ़े नहीं तो रहने दे। आलोचक कहते हैं साहित्य को लुगदी साहित्य नहीं होना चाहिए पर इस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। साहित्यकार कुछ तो स्वाद के लिए मिलाये, जिससे साहित्य स्वादिष्ट लगे। मंचों पर साहित्य पाठ छोड़कर चुटकुलों से लोगों का मनोरंजन किया जा रहा है। कुछ मठाधीश बन बैठे हैं, जो अपने अनुसार साहित्य को परिभाषित करते रहते हैं और कुछ नई रचनाओं का अविष्कार करते रहते हैं ऐसे ही साहित्य के और भी बहुत से रूप बताए गये हैं जैसे विलायती साहित्य आदि। अब साहित्य में तू मुझे मदद कर, मैं तुझे, की प्रथा चल रही है।

'हाइवे इज़ माय वे' यह व्यंग्य लेख सड़क पर दौड़ती गाड़ियों और उनके ड्राईवरों के मन की स्थिति को दर्शाता है। हाइवे और शहर के अंदर की सड़कों की दशा की दुर्दशा इसमें आप देख सकते हैं।

प्रवासी परिवेश की सभी व्यंग्य रचनाओं से बहुत कुछ जाना, समझा जा सकता है। लेखक स्वयं कनाडा निवासी भारतीय हैं, जिसके कारण इस संग्रह के सभी व्यंग्य वास्तविक और सार्थक जान पड़ते हैं। यदि आप व्यंग्य की रचनाएँ पढ़ना पसंद करते हैं तो आपको यह पुस्तक अवश्य पसंद आएगी। पुस्तक का नाम और कवर की फोटो दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। पुस्तक का नाम 'डॉलर का नोट' इसके अंदर की समस्त कहानी को व्यक्त कर देता है, जो सार्थक है। इसकी छपाई बहुत अच्छी है, इसके लिए केन्द्रीय हिंदी संस्थान को बधाई। इस पुस्तक के लिए लेखक को भी बहुत-बहुत बधाई।

 

 


समीक्ष्य पुस्तक- डॉलर का नोट
रचनाकार- धर्मपाल महेंद्र जैन
विधा- व्यंग्य
प्रकाशक- केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
संस्करण- प्रथम, 2023
पृष्ठ- 114
मूल्य- 250 रुपये

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रचनाकार परिचय

सोनिया वर्मा

ईमेल : vermasonia783@gmail.com

निवास : रायपुर (छत्तीसगढ़)

जन्मतिथि- 20 अक्टूबर
शिक्षा- एम० एस० सी० (गणित), बी० एड
सम्प्रति- राजकीय सेवा (प्रवक्ता गणित)
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, दोहा, छन्द, अतुकांत, गीत, समीक्षा, आलेख आदि
प्रकाशन- 101 महिला ग़ज़लकार, कहाँ तुम चले गये, 2020 की नुमाइंदा ग़ज़लें, ग़ज़ल त्रयोदश (खंड- 4), इस दौर की ग़ज़लें, इक्कीसवें साल की इक्कीसवीं सदी की बेहतरीन ग़ज़लें, आधी आबादी के दोहे, यत्र नार्यस्तु पूज्यते आदि ग़ज़ल एवं दोहा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित
शैलसूत्र, गीत गागर, दि अंडरलाइन आदि पत्रिकाओं के ग़ज़ल विशेषांक में रचनाएँ प्रकाशित
दि अंडरलाइन पत्रिका, संवदिया, सरस्वती सुमन आदि पत्रिकाओं के दोहा विशेषांकों में रचनाएँ प्रकाशित
देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
प्रसारण- रायपुर दूरदर्शन में ग़ज़़ल पाठ का प्रसारण
पता- एम० आई० जी० 1180, वीर सावरकर नगर, हीरापुर, रायपुर (छ०ग०)- 492099