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प्रेरणा गुप्ता की लघुकथाएँ

प्रेरणा गुप्ता की लघुकथाएँ

“फूल-पत्ते, हवा, बादल और नदियाँ वगैरह तो प्रकृति के नियमों से बँधकर बिना किसी शर्त के हर किसी से प्रेम करने को बाध्य हैं; लेकिन इंसान, बौद्धिक स्तर ऊँचा होते हुए भी वह इच्छाओं के वशीभूत, प्रेम का व्यापार करने में लग पड़ा है।” विक्रम ने कहा।

एक- सेम टू यू

“राम राम बहूजी! किधर जा रही हो?"
“राम राम! बस यहीं मंदिर तक। लेकिन ये आज तूने घूँघट क्यों काढ़ रखा है सुमन?”
“आहिस्ता बोलिए बहूजी, सामने जो अम्माजी चली आ रहीं हैं न छड़ी लिए, मैं उनका मुँह भी न देखना चाहूँ।”
“अरे! ऐसा क्या कर दिया उन्होंने?”
"आज सुबह जब मैं सड़क पर झाड़ू दे रही थी, तब वह मेरे पास आकर बड़े दुलार से बोलीं, “अरी ओ सुमन! किसी सीवर वाले को तो बुला ला। मेरे घर की सीवर लाइन चोक हो गयी है। मैंने जब मना कर दिया कि भला आपकी गारंटी कौन ले सके है? उस दिन आपने मुझसे तीन बोरी मिटटी उठवाई, लेकिन एक टका भी न धरा मेरे हाथ में। बस फिर क्या, छूटते ही मुझे गाली दे डाली उन्होंने।”
“गाली! लेकिन तूने सुन कैसे ली? उसी वक़्त पलट कर तुझे भी तो जवाब देना चाहिए था उन्हें।”
“क्या गाली? हाय राम भजो! एक तो बड़ी-बुजुर्ग, दूसरे मैं कोई अपने करम थोड़े न बिगाड़ती।“
“हाँ, बात तो तू सही कहती है, मगर जुबान एक बार खुल जाए तो समझो खुल ही जाती है।"
“फिर आप ही बताओ, मैं क्या करूँ?”
“देख, जैसे ही वे तेरे निकट आवें, तू भी मीठे-मीठे दो बोल, बोल दियो।"
"वो क्या?"
"यही कि 'अम्मा जी, सुबह आपने जो कुछ भी कहा था ना मुझे, वो सेम टू यू।"
"हाय दैया! अंग्रेज़ी में, लेकिन इसका मतलब भी तो मालूम हो?”
“मतलब-वतलब छोड़, वो आ चुकी हैं तेरे करीब। चल, जल्दी से रट तो सही, ”सेम टू यू। सेम टू यू।”
"सेम ... टू ... यू।”
"शाब्बाश!”
अम्माजी के पास आते ही, घूँघट हटाते हुए सुमन बोली, “अम्माजी राम राम!”
अम्माजी एक पल के लिए ठिठकीं, फिर बोल पड़ीं, “राम राम, सुमन! आज तो तुम बहुत सुन्दर लग रही, इस लाल-पीले फूलों वाली साड़ी में।”
“हाय दैइया, सच्ची में! सेम टू यू अम्माजी।”
मैं भौंचक्क-सी उसके मासूम चेहरे को गुलाबी होता देखती रही ; अनायास ही आसमान की ओर देखकर बुदबुदा उठी, “थैंक गॉड! आज तो तुमने सुमन के साथ मेरे भी करम बिगड़ने से बचा लिए।”

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दो- वीरान साँझों में

कल-कल करती लहरों के संग मछलियों की अठखेलियाँ भी बीच-बीच में सुनाई दे रही थीं। मैं अपने विचारों में डूबने-उतराने लगा …।
वो शाम भी तो कुछ ऐसी ही थी, जब मैं अपनी जीवनसंगिनी का दाह संस्कार करने के बाद उसकी अस्थियों को विसर्जित करने यहाँ आया था।
अस्थियाँ प्रवाहित होते ही लहरों में छुपी मछलियाँ तेजी से लपक पड़ी थीं और मैं घंटों किनारे पर बैठा रहा था।
एकाएक मछलियों की हलचल तेज हो गयी। फिर कोई आया था किनारे पर, किसी अपने की अस्थियाँ विसर्जित करने।
यादों का सैलाब तेजी से उमड़ पड़ा। पत्नी की आवाज कानों में जीवंत हो टकराने लगी, जब मैं न रहूँगी, तब समझ में आएगा। ये रतजगा करने वाले दोस्त भी आखिर कब तक साथ देंगे तुम्हारा …?
दिल डूबने लगा। उखड़ती साँसों को सम्हालता मैं बुदबुदा पड़ा, तुम ठीक ही कहती थीं।
बेटे-बहू ने भी कह दिया कि अब माँ तो रही नहीं, जो देर रात तक बैठी आपकी राह निहारा करती थीं। हम दोनों को सुबह जल्दी उठकर ऑफिस के लिए भी निकलना होता है। अच्छा होगा कि घर की एक चाभी अब आप अपने पास रखा करें। खाना टेबल पर रखा मिल जाएगा।
मैं धक्क से रह गया था … ! गरमा-गरम उरोटी बनाकर खिलाने वाली पत्नी की छवि आँखों में तैर आई।
शांत लहरों में चाँद का प्रतिबिम्ब अब झिलमिलाता नजर आ रहा था।
तभी कानों में आवाज सुनाई दी, "रात बहुत हो गई बाबू, लौट जाओ। जाने वाला तो चला गया …।”

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तीन- बेताल के आँसू

विक्रम भी कुछ कम नहीं था। पीछा करते हुए फिर से पेड़ के नीचे जा पहुँचा और पेड़ पर चढ़, शव को कंधे पर लादकर नीचे उतर आया तथा तान्त्रिक के यज्ञ-स्थल की ओर चलने लगा।
उफ्फ!
विक्रम अभी कुछ ही कदम चला था कि कंधे पर लदा बेताल उसकी थकान महसूस कर फिर चालू हो गया।
“हाँ, तो सुनो राजन! आज एक नयी कहानी :
एक आदमी था, जंगल-जंगल हरियाली के बीच घूमा करता था। कभी नदी के तट पर बैठा दिखाई पड़ता तो कभी पहाड़ों पर चढ़कर सूरज-चाँद-सितारों को निहारता। यही नहीं, सरसराती हवाओं से न जाने क्या गुफ्तगू किया करता था?
लोग उसे ‘बावला’ कहने लगे थे।
एक दिन कुछ लोगों ने कौतूहलवश उसे रोककर पूछा, “क्यों भाई! तुम इन पेड़-पौधों, बादलों वगैरह में क्या देखा करते हो?”
उसने मुस्कुराकर कहा, “प्रेम।”
“प्रेम?” सभी ठठाकर हँस पड़े, “लगता है तुम्हें किसी से प्रेम नहीं हुआ या फिर किसी ने तुमसे प्रेम किया ही नहीं। माता-पिता ने तो किया होगा …?”
उसने निर्विकार भाव से जवाब दिया, “उनके लिए तो मैं मात्र खिलौना था।”
“मित्रों ने?”
“उनके लिए, समय व्यतीत का साधन।”
“फिर, पत्नी ने तो जरूर ही किया होगा।”
“नहीं, वो प्रेम नहीं वासना थी।”
“अरे भई, किसी से तो हुआ ही होगा, भाई-बहन या फिर बच्चों से ...।”
“ना-ना, भाई-बहन के बीच लालसा थी और बच्चों के संग स्वार्थ।”
“ओह! बेचारा।”
इस सहानुभूति का उसने कोई जवाब नहीं दिया, निर्विकार भाव से आगे बढ़ चला।
“अच्छा, तो अब यह बताओ राजन, जैसा कि हम सभी जानते हैं कि इस सृष्टि की उत्पत्ति प्रेम से हुई है, फिर उस आदमी को किसी भी इंसान से प्रेम क्यों न हुआ?”
उसने गूढ़ निगाहों से बेताल की आँखों में झाँका।
“अरे! तुम तो बड़े वीर-पराक्रमी, अपने घर के राजा हो। जानते-बूझते जवाब नहीं दोगे तो, तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े …।”
“फूल-पत्ते, हवा, बादल और नदियाँ वगैरह तो प्रकृति के नियमों से बँधकर बिना किसी शर्त के हर किसी से प्रेम करने को बाध्य हैं; लेकिन इंसान, बौद्धिक स्तर ऊँचा होते हुए भी वह इच्छाओं के वशीभूत, प्रेम का व्यापार करने में लग पड़ा है।” विक्रम ने कहा।
बेताल हतप्रभ हो उसे देखता रह गया। एकाएक उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े। वह उदास आवाज में बोला, “ठीक कहा राजन! प्रेम व्यापार न बना होता और विश्वास हत्यारों के हत्थे न लगता तो बेमौत मारा जाकर मैं बेताल न बनता और तुम भी… ! बहरहाल, तुम्हारा मौन टूट गया, मैं चला।” और हवा में छूमंतर हो गया।

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चार- लिपस्टिक

ऑटो से उतरते ही, मैं ग्रॉसरी स्टोर की ओर बढ़ चली कि अचानक सामने काॅस्मेटिक शाॅप पर लगे लिपस्टिक के विज्ञापन को निहारती लेडी को देखकर मैं ठिठक गयी। पीठ तो उसकी मेरी तरफ थी मगर आकृति, बेहद जानी पहचानी …। धीरे-धीरे कदम बढ़ाती, मैं उसके करीब पहुँच गयी … "हाय नम्रता! तेरा लिपस्टिक का शौक़ अभी तक बरकरार है!”
“कौन …? वृंदा! ओ माय गॉड! तूने तो मुझे डरा ही दिया।”
बरसों बिछड़ी सहेलियाँ आपस में गले मिलती, काॅफ़ी हाउस में आ बैठीं। बातों का सिलसिला जो शुरु हुआ कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
बातें तो चली ही रही थीं, मगर बार-बार मेरी नजर उसके होठों पर जाकर ठहर जाती।
अचानक मैं पूछ बैठी, “एक बात बता नम्रता, तू तो प्रिंसिपल थी ना स्कूल में। सुना था कि तेरे ससुराल वाले, इतना पढ़ी-लिखी होने के बाद भी तुझे तंग करते थे। फिर भी तू बनी रही वहाँ! आखिर क्यों?”
वह खिलखिला पड़ी, “अरे! तो क्या करती? छोड़ देती?”
मैं हड़बड़ा-सी गयी, “अरे नहीं-नहीं, ये मतलब नहीं था मेरा। मतलब तेरे पापा-मम्मी चाहते तो तेरी दूसरी शादी …।”
“वृंदा, ज़रूरी तो नहीं कि दूसरी शादी में भी सब कुछ ठीक ही मिलता।"
“हाँ, तू कह तो सही रही है।"
“माँ को जब पता चला तो बोली, 'देख, अपनी लड़ाई तो तुझे ख़ुद ही लड़नी होगी। जहाँ भी जाएगी, शोषण करने वाली ये प्रजाति हर क्षेत्र में मिलेगी। तू प्रिंसिपल है ना, स्कूल में। जा, अब घर में भी बन जा प्रिंसिपल, सिद्धान्तों के साथ।”
उसकी बातें सुनकर, मेरी आँखें फैल गयीं। “और पापा ...?"
"उन्होंने तो ऐसी बात ही कह दी कि ... 'कार चलाना जानती है ना बेटी, ज़िंदगी की गाड़ी चलाना भी सीख ले अबI' बस तब से टेढ़े-मेढे़ रास्तों पर ड्राइवरी करती चली आ रही हूँ, कुशल चालक की तरह।" कहते हुए उसका चेहरा दमक उठा। “लेकिन एक बात बता, तू मेरे चेहरे में क्या देखे जा रही है जब से?"
"वही, तेरे होठों पर लगी लिपस्टिक, जिसे देखकर याद आया कि एक बार तूने कहा था, लिपस्टिक ख़रीदना ही काफ़ी नहीं, उसे लगाने का सलीका भी ज़रूर आना चाहिए।”
उसने धीरे से मेरा हाथ थाम लिया। “तो चल आज एक लिपस्टिक तू भी ले ले, मेरी मनपसन्द शेड की।”
मैंने भी उसका हाथ थाम लिया और मुस्कुराते हुए उठ खड़ी हुई, एक लम्बी साँस लेने और उससे भी लम्बी छोड़ने के साथ।
आज तो लिपस्टिक की परिभाषा ही बदल दी थी सहेली ने मेरे लिए, मैं दुःख छुपाने के लिए लगाती थी और वह आत्मविश्वास बनाए रखने के लिए।


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रचनाकार परिचय

प्रेरणा गुप्ता

ईमेल : prernaomm@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि- 5 फरवरी 1961
जन्मस्थान- ब्यावर (राजस्थान) भारत
लेखन विधा- लघुकथा, कहानी, कविता एवं संस्मरण
शिक्षा- स्नातक संगीत
सम्प्रति- स्वतंत्र 
प्रकाशन- लघुकथा-संग्रह 'सूरज डूबने से पहले'
सम्मान- गायन मंच पर
प्रसारण- विभिन्न लघुकथा संकलन, पत्र-पत्रिकाओं, ई पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं विभिन्न संगोष्ठियों में प्रसारित।
संपर्क- फ्लैट नम्बर : 102,आनन्द पैलेस, 10/499, खलासी लाइन(शीलिंग हाउस सीनियर विंग स्कूल के बगल में), कानपुर-(उत्तर प्रदेश)- 208001
मोबाइल- 8299872841