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राजेन्द्र राव की कहानी- थप्पड़

राजेन्द्र राव की कहानी- थप्पड़

विशाल ने भी आवेग में और क्षणिक त्वरा में उसे चूम तो लिया मगर दूसरे ही क्षण उसे इसमें भावना प्रधानता न होने की कमी खलने लगी। वह मनोगत होकर सोचने लगा कि चुंबन सरासर एक रासायनिक क्रिया है जिसमें दो अलग अलग तत्व एक दूसरे से प्रतिक्रियायित होते हैं। उस क्षण वह जैसे ज्वार की लहर पर सवार था मगर बस किनारे की रेत को भिगो कर लौट आया। उधर बस एक समशीतोष्ण रेस्पान्स था। रेस्पान्स था भी कि नहीं, उसे निश्चित रूप से पता नहीं था।

उन दिनों झील के किनारे राज परिवार द्वारा बनवाया गया बृज उद्यान बहुत ही मनोरम स्थल था। उसमें पुष्प वाटिकाएं,संगमरमर की छतरियां,कास्ट आयरन की डिजाइन बैंचें और ऐसी मखमली घास वाले लान थे कि विशाल और वर्षा जूते उतार कर नंगे पाँव देर तक टहला करते। एक दिन शाम को जब वे लान में टहल कर बैंच पर जाकर बैठे तो विशाल ने नीचे झुक कर बड़ी सावधानी से वर्षा के निहायत छोटे-छोटे पंजे हाथ में लेकर पगतलियों को सहलाया और कहा, "देख रहा हूँ कि फर्श-ए-मखमल पर कहीं छिल तो नहीं गईं !” वर्षा ने कहा, ”गुड जोक,मगर देखो कोई नहीं हँसा न !” वह धीरे से बोला,’कोई मन ही मन हँस रहा है और उसकी हँसी साफ सुनाई दे रही है।“ ऐसा नहीं कि वर्षा बहुत धीर-गंभीर लड़की रही हो मगर किसी अज्ञात कारण से वह विशाल के सामने नहीं हँसती थी। वह पूछता तो कहती कि हमें बात-बात पर दांत दिखाना अच्छा नहीं लगता। विशाल उसकी आँखों को खिलखिलाते देख कर ही संतुष्ट हो जाता।

पहले जब दोनों इंस्टीट्यूट में साथ थे तब बात और थी। क्लास, लाइब्रेरी, कैंटीन और यहाँ तक कि लंबे-लंबे गलियारे भी उन्हे साथ-साथ बनाए रखते थे। उन दिनों शहर कितना ही दक़ियानूसी रहा हो मगर इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज का खुला और उदार परिवेश प्रशिक्षार्थियों को किसी भी सर्जनात्मक साँचे में ढलने के लिए उत्प्रेरित करता रहता था। जैसे ही विशाल ने एम.एस.डब्ल्यू. किया उसे स्थानीय जे के ग्रुप की केमिकल यूनिट में असिस्टेंट लेबर आफ़ीसर की नौकरी मिल गई। वर्षा का इरादा सोशल साइंस में पीएच.डी. करने का था। अब उनके मिलने का स्थान झील के किनारे वाला बृज गार्डेन ही था।

उस दी न जैसे ही शाम गहराने को हुई सूर्यदेव अस्ताचल की ओर चलते-चलते एकदम विलुप्त हो गए। यकायक अँधेरा हो गया जिसके लिए वे तैयार नहीं थे। वे गार्डेन में ठीक शिव मंदिर के सामने वाली बेंच पर बैठे थे। विशाल को जब लगा की बातें बहुत हो चुकीं और कहने सुनने को कुछ खास नहीं रह गया तो उसने वर्षा को बाहों में भर कर चूम लिया।

बिना किसी पूर्वराग के हुई इस अनपेक्षित घटना से वर्षा को पहले तो समझ में ही नहीं आया की हुआ क्या है। फिर जैसे ही उसने शिकायत के लिए मुँह खोला उसे लगा जैसे अंदर एक खड़िया से बनी मीनार ध्वस्त हो गई हो और उसकी जगह कृष्ण चंदर के उपन्यास ‘उल्टा दरख्त’ की तरह एक अंतर्मुखी बिरवा फूटा और तेजी से बढ़ाने लगा।वह स्तब्ध रह गई। उसने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि ऐसा अनोखा पौधा जन्म ले लेगा, महज एक चुंबन से। क्योंकि यह कोई पहला चुंबन नहीं था। लेकिन इसको वनस्पतियों का जबर्दस्त समर्थन हासिल था जो कि उतरती बरसात में गार्डन में चारों तरफ छाई थी। जहाँ तक शहर के परिवेश और उसकी अनुमति का सवाल था उस दृष्टि से यह अनपेक्षित और धृष्टतापूर्ण हरकत थी क्योंकि अपने स्वरूप में अति औद्योगिक और विस्तृत होने के बावजूद वह अभी इतना स्मार्ट नहीं हुआ था। कौन जाने अब हो गया हो।

विशाल ने भी आवेग में और क्षणिक त्वरा में उसे चूम तो लिया मगर दूसरे ही क्षण उसे इसमें भावना प्रधानता न होने की कमी खलने लगी। वह मनोगत होकर सोचने लगा कि चुंबन सरासर एक रासायनिक क्रिया है जिसमें दो अलग अलग तत्व एक दूसरे से प्रतिक्रियायित होते हैं। उस क्षण वह जैसे ज्वार की लहर पर सवार था मगर बस किनारे की रेत को भिगो कर लौट आया। उधर बस एक समशीतोष्ण रेस्पान्स था। रेस्पान्स था भी कि नहीं,उसे निश्चित रूप से पता नहीं था। दरअसल उस चुंबन के आस्वाद को दोनों ने अलग-अलग तरह से अनुभव किया। विशाल को एक बहुत अनुकूल स्वाद की झलक सी मिली।– वर्षा क्या चाकलेट कुछ ज्यादा ही खाने लगी है और मिंट फ्लेवर के माउथ फ्रेशनर को बैग में रखती है। मालूम होता तो पहले ही एक मांग लेता। मगर कुल मिला कर यह संसर्ग पूरी तरह सैनिटाइज्ड था। ताज्जुब की बात तो यह लगी कि वर्षा के होंठ गरम थे मगर ठीक ऊपर नासिकाग्र एकदम ठंडा और उसने उस दौरान (भले ही न चाहते हुए भी) अपने को रोके रखा था। क्योंकि ऐसे किसी भी अदर्शनीय समझे जाने वाले ऐन्द्रिक आनंद की लिप्सा और अनुभूति उसे संभवत: सनसकरगत अपराध बोध कराती थी।जो भी हो वर्जित फल तो उसने चखा ही और हमेशा की तरह उसके सान्निध्य में आते ही उठने वाली विल्स फिल्टर सिगरेट की भीनी भीनी मादक खुशबू को शिद्दत से महसूस किया। उसे लगा कि बहुत देर से विशाल ने सिगरेट नहीं पी है। वह अपने ही ख़यालों में डूबे रहने का सुख ज्यादा नहीं उठा सकी, जैसे ही उसकी नजर सामने शंकर जी के मंदिर में मत्था टेकते एक भक्त पर पड़ी उसका मूड उखड़ गया। उसने शरारतन नाराज होने की मुद्रा ओढ़ कर कहा, ”विशाल, यह तुम्हारी क्या हरकत थी!देखते नहीं यह पब्लिक प्लेस है और हम मंदिर के सामने बैठे हैं। आई थिंक आई डिजर्व सम थिंग बैटर दैन दिस।“
“-आफ़कोर्स वर्षा, बात यू नो,मैं खुद नहीं समझ पा रहा हूँ कि यह कैसे हो गया।“
“- ठीक है पहले खुद समझ लो, उसके बाद बताओ !” सुन कर वह हँसा तो गुस्से में आकर बोली, ”देखो टालो मत!यह जानना जरूरी ही कि रेस्ट्रेन पर सहमति हो जाने के बावजूद तुम जान बूझ कर पब्लिक प्लेस पर लक्ष्मण रेखा को पार क्यों करते हो? आर यू ए हैबीचुअल आफेंडर ?”
-“येस आई एम। क्या तुम यह प्रामिज चाहती हो कि मैं यह गलती फिर कभी रिपीट नहीं करूं?” उसने पश्चाताप का अभिनय कराते हुए सिर झुका कर कहा। वर्षा ने बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकते हुए कहा, ”अब ऐसे मासूम न बनो !मुझे मालूम है तुम्हें इस तरह की खुराफ़ातों में बहुत मजा आता है।“
उसने फिर बालसुलभ भोलेपन का प्रदर्शन करते हुए कहा, ”मेरा क्या है !मुझे तो हर बात में हाँ में हाँ मिलानी ही है।इस बात में भी मिला लूंगा। ठीक है?”
-“ठीक है मेरा सिर! और खबरदार जो कोई उल्टा-सीधा प्रामिज किया तो। मैंने न तो कोई प्रामिज माँगा है न ही तुम्हारे किसी प्रामिज पर मुझे यकीन है। समझे !”
-“ हाँ जी,समझ गया।मैं खुद ही कहाँ चाहता था, वो तो तुम्हारी नाक पर उस वक्त गुस्सा सवार हो गया था।“
-“अच्छा चलो उठो! (घड़ी देख कर) हाय राम साढ़े सात बज गए हैं। घर पर लोग परेशान हो रहे होंगे।“ कहते हुए वह उठ खड़ी हुई और हाथ पकड़ कर विशाल को भी उठाना चाहा।मगर वह टस से मस नहीं हुआ उल्टे हाथ इतनी ज़ोर से खींचा कि वह धम्म से उसके पास बैठ गई और अपना घड़ी वाला हाथ ऊपर कर उसे दिखाया। उसने उस हथेली को अपने हाथ में लेकर सहलाया और कहा, ”मेरी समझ में नहीं आता कि जब भी मेरे साथ होती हो तुम्हें जाने क्यों घर लौटने की पड़ी रहती हो। चलो मान लिया कि थोड़ी देर हो गई है मगर क्या कोई कभी देर से घर नहीं लौटता?”
- समझ में आता अगर तुम्हारा भी घर यहाँ होता। किराए की टपरिया में रहते हो, वहाँ कौन पूछने वाला बैठा है?”
-“अरे पूछने वाली तो यहाँ बैठी है। काश यहाँ के बजाए वहाँ बैठी होती! सुनो आज तुम देर से ही जाना।“
-“क्यों कोई खास बात है क्या ?.... यहाँ अँधेरे में आखिर कब तक बैठे रहेंगे।“
-“आज जाने की जिद ना करो। यूँ ही पहलू में बैठे रहो।“
-“ बैठी ही तो हूँ।.....सुनो, मुझे कई बार लगता है कि तुम्हारा बचपना अभी भी गया नहीं है।“
-“शुक्र है कि कम से कम तुम्हारा तो चला गया।नहीं तो गुड्डा-गुड़िया खेल रहे होते हम यहाँ।“
-“अरे गुड्डा-गुड़िया ही तो खेल रहे हैं। (उसकी नाक पकड़ कर) तुम तो एकदम लाल नाक वाले गुड्डे हो।जानते हो लड़कियाँ ऐसे लड़कों से राजी-राजी अपनी गुड़िया ब्याह देती हैं।“
-“तो तुम भी अपनी वाली को ब्याह ही डालो। ऐसा गुड्डा फिर मिले न मिले।“
-“अरे गोबर गणेश,मैं तो खुद ही गुड़िया हूँ। मुझे ब्याहने वाले तो घर पर इंतजार कर कर कर के पागल हो रहे होंगे।“
-“ठीक है, जब गुड्डा-गुड़िया राजी तो क्या करेगा काजी। फिलहाल ब्याह न सही,एक दूसरे को प्यार तो कर सकते हैं। हैं ना ?”
- “करते हैं मगर पहले तुम एक सिगरेट पी लो।" कह कर उसने अपने बैग से एक मिंट निकाल कर मुँह में रख ली।
और दोनों सचमुच गुड्डे गुड़िया का एक अंतरंग खेल खेलने लगे। विशाल को पता ही नहीं चला कि नासिकाग्र ठंडा है या गरम क्योंकि वह बीच में था ही नहीं। इस बार जैसे कोई बंधा खुल गया हो, वे पानी की उमगती धार में बहते जा रहे थे, साथ-साथ।वर्षा को एक बार फिर घर लौटने की बात विस्मृत होकर रह गई।
सहसा उन्हें आभास हुआ जैसे बेंच के पीछे वाली पगडंडी से गुजरते हुए कोई खाँसा, शायद अपनी उपस्थिति दर्ज करने को। दोनों एक झटके से उठ खड़े हुए।वर्षा ने दोनों हाथ सिर के पीछे किए तो पाया कि उसका हेयर बैंड खिसक कर गिर गया है। उसने बैग खोल कर हेयर ब्रश निकाला और बाल अच्छी तरह काढ़ कर पीछे बाँध लिए। उसके बाद दोनों हाथ में हाथ डाले क्यारियों के बीच की पगडंडियों को पार कराते हुए नयापुरा बाजार की तरफ वाले गेट से बाहर निकले और सड़क पर करके माहेश्वरी होटल के सामने पहुँच गए। जैसे ही वर्षा का हाथ छोड़ कर वह मुड़ा,विश्वनाथ शर्मा ने उसका रास्ता रोक लिया। उसके चेहरे पर गुस्सा था और आँखों से जैसे चिंगारियाँ निकाल रही थीं। वर्षा जैसे ही बाय-बाय कहने को मुड़ी उसने यह दृश्य देखा तो जड़ होकर देखती ही रह गई।– विश्वनाथ इंस्टीट्यूट में मास्टर्स में उनका सहपाठी रहा था और अब वर्षा के साथ ही पी एच डी कर रहा था। वह धौलपुर का था जहां वर्षा के चाचा सरकारी डाक्टर थे।उनके रेफरेंस से और शायद स्वजातीय होने के कारण उसका उनके यहाँ बहुत आना-जाना था।
जैसे ही विशाल ने आगे बढ़ाने के लिए कदम बढ़ाया विश्वनाथ ने उसका कालर पकड़ कर अपनी ओर खींचा और जहर बुझे शब्दों में बोला, "सुनो अगर खैरियत चाहते हो तो अब इसका पीछा छोड़ दो। अब तुम इंस्टीट्यूट से बाहर हो और इसकी जिंदगी से भी। शर्म नहीं आती तुम लोगों को,वहाँ घर पर इसकी मम्मी का चिंता के मारे बुरा हाल है और तुम इसे पार्क में लिए बैठे हो। इश्कबाजी कर रहे हो!”
विशाल ने कालर से उसका हाथ झटकते हुए गुस्से में कहा, "क्यों बे, तुम कौन होते हो यह पूछने वाले? जबर्दस्ती इसका गार्जियन बनाने की कोशिश मत करो।हटो सामने से! तुम साले खुद नाकाम नामुराद आशिक हो!” बीच सड़क बढ़ती जा रही तकरार को रोकने के इरादे से वर्षा लपक कर दोनों के बीच में आ गई।उधर विश्वनाथ ने गालियाँ सुन कर आपा खो दिया और वर्षा को एक तरफ हटा कर विशाल के मुँह पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया।
इस अप्रत्याशित प्रहार से विशाल एक बार तो सन्न रह गया फिर उससे भिड़ने को क्रुद्ध साँड की तरह आगे बढ़ा हालाँकि डील-डौल में वह उसके पासंग भर नहीं था मगर अब चुप रहना संभव नहीं था। उसका रौद्र रूप देख कर एक बार को विश्वनाथ भी सकपका गया क्योंकि वर्षा सामने खड़ी थी, वह एकदम से पीछे हट गया। तभी शर्मा जी (वर्षा के पापा) कहीं पीछे से निकल कर सामने आ गए और विश्वनाथ को डाँटने की मुद्रा में बोले, ”तुम लोग भले घरों के लड़के हो, सड़क पर इस तरह हाथापाई करना क्या अच्छी बात है। अरे अकलमंद को तो इशारा काफी होता है। फिजिकल होने की कोई जरूरत नहीं थी। खैर विशाल बिसारिया,बेटा अब तुम भी घर जाओ।“
इस दौरान वहाँ खासा मजमा लग चुका था।तमाशबीनों की उपस्थिति का एहसास होते ही शर्मा जी ने विश्वनाथ की बाँह पकड़ कर कहा, ”आओ घर चलें!” और तीनों अबाउट टर्न होकर आफ़ीसर कालोनी की तरफ चल दिए। विशाल कुछ देर तक उन्हें जाते हुए देखता रहा। जाने क्यों उसे उम्मीद थी कि वर्षा एक बार मुड़ कर जरूर देखेगी लेकिन वह सिर उठाए उन दोनों के पीछे चलते चलते आँखों से ओझल हो गई। वह खाना खाने के लिए महेश्वरी होटल की तरफ चल दिया। डोर पुश करके अंदर जाता कि किसी ने ज़ोर से पुकारा, ”बिसारिया साहब, आपको आंकोदिया जी बुला रहे हैं।“
वह चौंका, सुशील आंकोदिया उनके प्लांट का फायर ब्रांड ट्रेड यूनियन लीडर था। उसकेएक इशारे पर चलता हुआ प्रोसेस प्लांट रुक जाता था और दोबारा चलाने तक लाखों का नुकसान हो चुकता था। यूँ तो उसके पिता थे तो एक स्थानीय विधायक ही परंतु शासक दल के अध्यक्ष के करीबी और विश्वस्त होने के कारण उनका दबदबा था। इसी के चलते सुशील आंकोदिया प्लांट मैनेजमेंट की आँखों का तारा था। लेकिन उस समय उसको होटल से बुलवाने का क्या मकसद हो सकता है? तभी बिजली की तरह एक आशंका उसके मस्तिष्क में कौंधी। कहीं इस कांड के सिलसिले में ही तो नहीं। यह बेहद तकालीफदेह हो सकता था।प्लांट भर में यह बात फैल जाएगी कि लेबर आफ़ीसर की सरेबाजार पिटाई हुई है। इश्कबाजी के चक्कर में। संभावित ज़लालत की कल्पना मात्र से उसके माथे पर पसीना छलछला आया और मुँह लाल हो गया। उसने चारों ओर नजर दौड़ाई तो देखा वे सब सड़क पर खड़े थे। आंकोदिया और चार-पाँच प्लांट के वर्कर्स शर्मा जी,विश्वनाथ और वर्षा को घेर कर खड़े थे। उसके पहुँचते ही आंकोदिया ने विश्वनाथ की गर्दन पीछे से पकड़ कर गरजते हुए कहा, ”बिसारिया साहब, इसी ने आप पर हाथ उठाया था ना? अब देखिये मैं इसकी क्या गत बनाता हूँ। हमारे अफसर पर हाथ उठाने की जुर्रत कैसे हुई इसकी ! (अपने साथियों से)चलो साले को पकड़ कर थाने ले चलो। इस पर गुंडा एक्ट के तहत कार्रवाई होनी चाहिए।“
शर्मा जी तो अपने स्वभाव के अनुसार चुपचाप पीछे हट गए मगर वर्षा ने आगे बढ़ कर कहा, ”सुशील जी, यह हमारे आपस का मामला है। यह ईंटेंशनल फाइट नहीं है, एक छोटी सी गलतफहमी की वजह से हीट आफ द मोमेंट में यह हो गया। प्लीज,आप चाहें तो विशाल जी से पूछ लीजिये। हम तीनों लोग आपस में फ्रेंड ही नहीं फैमिली जैसे हैं।“
-“अरे मैडम,आप क्यों परेशान हो रही हैं। हम इससे निपट लेंगे।इसने किसी ऐरे-गैरे पर हाथ नहीं उठाया है। हमारी कंपनी के एक बड़े अफसर की तौहीन की है।यह भी आपके पापा जैसे इज्जतदार आदमी हैं। इसे अपने किए का फल तो भुगतना ही पड़ेगा।आप अपने पापा के साथ आराम से घर जाइए। हम लोग अपने ढंग से इस मामले को निपटा लेंगे।“
यह टके सा जवाब सुन कर वर्षा हतप्रभ हो गई। उसने कुछ कहने के लिए होंठ खोले मगर आवाज नहीं निकली। विश्वनाथ अभी तक खामोश खड़ा सुन रहा था।उसके चेहरा एकदम भावशून्य था,न कोई घबराहट न गुस्सा,जैसे पथरा गया हो। वर्षा को नि:शब्द होते देख वह सहसा तैश में आकर बोला, ”देखो,अब बहुत हो गया,होगा तुम्हारा अफसर,किसी भले आदमी की इज्जत से खेलेगा तो यही होगा। और तुम यह धौंस किस बात की दे रहे हो! अभी तो हम जा रहे हैं,तुम से जो बन पड़े वो कर लेना,पुलिस-कचहरी या और कुछ,जो मन में आए। समझे! चलिये पापाजी, इनकी गीदड़भभकी में आने की जरूरत नहीं है।“
शर्मा जी मामले की नजाकत को समझ रहे थे क्योंकि वे आंकोदिया परिवार की महिमा अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने सुलह-सफाई की कोशिश कराते हुए सुशील से बड़ी नरमी से कहा, ”अरे छोड़िए आंकोदिया जी, यह बाहर से आए हैं, जानते कुछ हैं नहीं और बेवजह उलझ रहे हैं। ऐसा करते हैं हम विशाल को भी साथ ले जाता हूँ, साथ बैठ कर मामला सुलझा लेंगे।“
सुशील ने कहा, ”आपने अपने इस लाडले के तेवर देखे। छोड़िए, इसे समझाना आपके बस का नहीं है। फिर भी अगर यह बिसारिया साहब से हाथ जोड़ कर माफी माँग ले तो थुक्का-फजीहत से बच जाएगा।“
विश्वनाथ आपे से बाहर होकर बोला, ”किस बात की माफी मांगूं,इससे पूछो की इतनी रात गए यह पार्क में क्या कर रहा था।मैं इससे माफी नहीं मांगूंगा,तुमको जो करना हो कर लो। चलिये पापा जी!”
सुशील आंकोदिया ठहरा मँजा हुआ यूनियन लीडर हंस कर शर्मा जी से बोला, ”आप अभी तो इन कुँवर साहब को लेते जाइए, बाद की बाद में देखी जाएगी।“ जिस अंदाज से उसने यह बात कही उसका फौरी असर देखने को मिला और शर्मा जी वर्षा और विश्वनाथ को लेकर अपने बंगले को प्रस्थान कर गएजो वहां से नजदीक ही था। आंकोदिया ने विशाल से कहा, “सर अब आप आराम से जाकर खाना खाइये। और इस लफड़े को दिमाग से निकाल दीजिये। ऐसे दो कौड़ी के आदमी से निपटने के लिए हम हैं न !”

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विशाल सारी रात करवटें बदलता रहा। नींद नहीं आई तो नहीं ही आई। इस अप्रत्याशित हुए अपमान से उसके मन में कभी गुस्सा तो कभी क्षोभ और अंतत: ग्लानि आपस में म्यूजिकल चेयर खेलते रहे। यह उसके लिए एक असहनीय स्थिति थी। रह रह कर मन में गुस्सा उबलता कि इस बेहूदगी के लिए जिरह की जाए,सवाल पूछा जाए, लेकिन जिससे पूछना था वह सामने नहीं थी। उसे थप्पड़ खाने का इतना अफसोस नहीं था जितना वर्षा की चुप्पी को लेकर था। उसके जानते वह एक तेज-तर्रार लड़की थी। अपनी पसंद-नापसंद को लेकर हमेशा मुखर।वह पूरे प्रकरण में वह क्यों गूँगी गुड़िया बनी खड़ी रही, यह एक पहेली थी। और जले पर नमक यह कि जब बोली तो विश्वनाथ के पक्ष में बोली। उसका यह कहना कि हम तीनों(?) फैमिली की तरह हैं और यह(?) हमारा आपसी मामला है,शूल की तरह उसके दिल में चुभ गया था।

वैसे भी वह उमस भरी, तकलीफदेह रात थी। उसने घड़ी देखी,साढ़े ग्यारह बजे थे। बेचैनी के भँवर में फँसा उसका मन जब चक्कर काटते काटते ऊब गया तो वह उठ खड़ा हुआ। कपड़े पहन कर बाहर निकाल आया। वह मोबाइल फोन का जमाना होता कोई समस्या ही नहीं होती। वह छावनी चौराहे पर लालू टी स्टाल एंड पी.सी.ओ. पहुँचा जो हाइवे पर होने के कारण रात भर खुला रहता था।

उसे आया देख कर लालू ने चाय की केतली भट्टी पर रख दी। वहाँ रेडियो पर आकाशवाणी की विदेश सेवा पर संजीदा फिल्मी गीत बज रहे थे। उसने पी.सी.ओ. वाले केबिन में जाकर फोन उठाया और घने आंतरिक प्रतिरोध के बावजूद जिला जन संपर्क अधिकारी के आवास का नंबर मिलाया। अब उसकी किस्मत पर था कि फोन कौन आकर उठाए। बड़ी देर तक घंटी बजती रही। ऐसा अक्सर होता था क्योंकि फोन बैठक में था। वह कट कर दोबारा मिलने जा रहा था कि उधर से फोन उठा लिया गया। आवाज आई, "एलो!” और उसके दिल पर से एक बोझ उतर गया। वही थी। और कोई होता तो स्थिति बहुत असहज हो जाती मगर वह उसके लिए भी तैयार होकर आया था। वह चुप रहा। उधर से आवाज आई, ”मुझे मालूम था कि तुम फोन किए बिना मानोगे नहीं इसलिए किताब लेकर जाग रही थी।" उसे कोई जवाब नहीं सूझा। चुप रहा। कुछ समय यूँ ही बीत गया।
-“अब कुछ बोलो भी! नहीं रहने दो, ऐसे ही अच्छा है। बस सुनते जाओ। सुनो आज बहुत ज्यादा हो गया न? वह तो बिलकुल खर दिमाग है। लंठ कहीं का। तुम जानते हो कि मम्मी हाइपरटेंशन की मरीज हैं ऊपर से एंग्जाइटी सिंड्रोम।मुझे आने में देरी होते देख जाने क्या क्या कल्पना कर बैठीं,बस पापा और वो मुझे ढूँढने निकल पड़े। सुनो जब हम बेंच पर बैठे थे तो कोई खाँसता हुआ गुजारा था न? यही कमबख्त था। पक्का।“
-“ तुम नहीं बोलोगे ना! क्या बहुत ज्यादा नाराज हो? देखो, मुझे तुम्हारी नाराजगी का अभी तक तो कोई अनुभव हुआ नहीं, यह पहला मौका है। मुझे बिलकुल पता नहीं है कि तुम किस हद तक नाराज हो सकते हो। खैर,चलो अब रखते हैं, कोई जग गया तो इस नाटक का दूसरा अंक शुरू हो जाएगा। जाने क्यों मुझे लग रहा है कि घर में इस समय भी कोई न कोई जग रहा है और उसे पता है कि मैं उठ कर क्या करने आई हूँ। ओ के, बाय!”
लालू की अदरक वाली चाय पीकर जब लौट रहा था तो उसके शरीर का तापमान लगभग सामान्य हो चुका था, हालाँकि संशय की एक त्रासद रात अभी बाकी थी।

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अगला दिन रविवार था। वह देर से उठा, चाय बनाई,बाथरूम गया और लौट कर फिर सो गया। छुट्टी के दिन अक्सर ऐसा होता था। मानो जी भर कर सोना उसे पुनर्नवा कर देता हो। दोपहर को मकान मालिक के नौकर ने आकर उसे जगाया, ” भैया जी,आपके कोई मिलने वाले आए हैं। उनके साथ एक मेमसाहब भी हैं।बाहर जीप में बैठे हैं। मैंने पूछा मगर उनने अपना नाम नहीं बताया।“
-“ऐसा कर, उनको अंदर बुला ले, मैं जल्दी से मुँह धोकर आता हूँ। “और वह तौलिया उठा कर बाथरूम में घुस गया। उसने अनुमान लगाया कि उसके बॉस कालिया साहब आए होंगे। सपत्नीक। अक्सर वह कहते थे कि किसी संडे को आएँगे तुम्हारा बैचेलर्स डेन देखने। तत्काल ही उसे यह आशंका भी हुई कि आज ही क्यों आए हैं, वह भी दोपहर को। कहीं इनके पास भी रात वाली घटना की खबर तो नहीं पहुँच गई? वह बाथरूम का दरवाजा खोल कर जैसे ही कमरे में दाखिल हुआ उसका कलेजा धक्क से रह गया। सामने कुर्सी पर वर्षा बैठी थी। उसके साथ कौन आया है और बाहर जीप में ही क्यों बैठा है?
इससे पहले कि वह कुछ कहता, वर्षा उठ कर उसके पास आई और व्यग्र होकर बोली, ”विशाल जल्दी से तैयार हो जाओ, तुम्हें अभी हमारे साथ चलना पड़ेगा।पापा बाहर इंतजार कर रहे हैं।“
उसने वार्डरोब खोलकर एक धुली कमीज निकली और पहनते हुए पूछा,”कहाँ चलना है?”
-“पुलिस स्टेशन! वे विशू.....विश्वनाथ को पकड़ कर ले गए हैं। हम लोग वहाँ गए तो एस एच ओ ने बताया कि उसके खिलाफ तुम्हें पीटने की रिपोर्ट है। क्या तुमने वहाँ रिपोर्ट लिखाई है? या यह आंकोदिया जी का किया-धरा है?”
-“मैंने कोई रिपोर्ट नहीं लिखाई है। ना ही मुझे इसके बारे में कुछ पता है। हाँ, लेकिन यह तो तुम्हारे सामने की ही बात है कि उसने मुझे थप्पड़ मारा है।“
-“ विशाल प्लीज,हमारे साथ चल कर उसे छुड़वाओ।विश्वास करो वह अपनी गलती पर बहुत शर्मिंदा है। अगर पुलिस न ले जाती तो तुम्हारे यहाँ माफी माँगने आने वाला था।“
-“वर्षा,आइ एम सारी, क्या तुम्हें जरा भी एहसास नहीं है कि मुझे कितनी तकलीफ हुई होगी। सरे बाजार उसने मारा है मुझे और तुम यह चाहती हो कि मैं उसे पुलिस से छुड़वाने जाऊँ। अच्छा यह बताओ कि उस समय तुम चुप क्यों रहीं? क्या तुम्हें लग रहा था कि उसने जो किया ठीक किया?”
वर्षा चुपचाप आगे बढ़ी और उसके सीने पर सिर रख कर सिसकने लगी।कुछ क्षण जैसे सब कुछ ठहर गया फिर रुंधे गले से बोली,”विशाल मुझे और चाहे जो सजा दे लो मगर अविश्वास मत करो। यह थप्पड़ असल में मुझे पड़ा है। यह तुम्हें नहीं मुझे डराने के लिए मारा गया है। लेकिन मैं बहुत जिद्दी हूँ विशाल!मैं किसी तरह भी पीछे हटने वाली नहीं हूँ। और पापा यह जानते हैं,इसलिए उन्होंने इस मोहरे को आगे बढ़ाया है। अब मैं इसको काट कर अपने बादशाह को बचा ले जाना चाहती हूँ। यह सब तुम मुझ पर छोड़ दो और चल कर हमारे बीच संबंध की डोर को काटने के लिए निकले गए चाकू की धार को कुंद कर दो। “वर्षा की इस तजवीज को सुन कर वह यकायक विचलित हो उठा और सिर पकड़ कर अपने सिंगल बेड पर बैठ गया।
वह भी उसके पास एकदम सट कर बैठ गई और बहुत करुण स्वर में बोली, ”सुनो, इधर देखो मेरी तरफ, तुम क्यों परेशान हो रहे हो!लेट मी हैंडिल इट। “उसने सिर नहीं उठाया तो वर्षा ने अपनी बांह से घेर कर उसका सिर अपने कंधे पर टिका लिया और दूसरे हाथ से उसके बालों और पीठ को सहलाने लगी। इसका असर हुआ और विशाल फफक कर रोने लगा।वर्षा भी मोम की तरह पिघलने लगी और उसको अपनी बाहों में भर कर आर्तनाद किया, ”विशाल, मेरी जान,तुम क्यों खांमोखां अपना जी जला रहे हो। देख अब तू रो मत मेरे बच्चे!.....उठो,बाहर चलते हैं। अरे बाबा तुम्हें नहीं जाना तो मत जाओ।चलो पापा को बता देते हैं।वे कुछ और उपाय करेंगे। और सुनो,अगर तुम्हें मेरे पर विश्वास नहीं है तो बता दो, अगर ऐसा है तो बताए देती हूँ कि अब मैं यहां से वापिस नहीं जाने वाली, होता रहे जो होना है।“
सुन कर विशाल एक झटके से उठ खड़ा हुआ और बोला, ”चलो जहां चलना हो।“वह शर्ट के बाकी बटन बंद करने लगा तो वर्षा ने कहा, ”यह अब बदलनी पड़ेगी।लाओ वार्डरोब की चाबी दो,मैं निकाल कर लाती हूं।“चाबी लेकर उसने अलमारी खोली और अपनी पसंद से चुन कर शर्ट और पैंट निकाल लाई।

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वर्षा के पापा की विभागीय सरकारी जीप थाने के प्रांगण में जाकर रुकी और तीनों सीधे एस एच ओ के दफ्तर में चले गए। थानेदार बिहारी चौहान ने खड़े होकर शर्मा जी का स्वागत किया और तीनों को बिठाया।उसने बड़ी सदाशयता दिखते हुए कहा, ”अरे सर,आपने क्यों तकलीफ की। आपसे तो फोन पर बात हो ही गई थी, आप सिर्फ लेबर आफ़ीसर साहब को भेज देते। अब तो जो कुछ करना है सो इन्हीं को करना है। बात यह है कि शर्मा साहब, यूं तो आपका फोन करना ही काफी था मगर मामला विधायक जी तक पहुंच गया है और उनका बेटा तहरीर देकर गया है तो कानूनी खानापूरी तो करनी ही पड़ेगी।जानते हैं,इस वाकये के पाँच-पाँच तो विटनेस हैं। खैर,आपने तो इन्हें सब समझा ही दिया होगा।“
शर्मा जी ने सिर हिला कर सहमति जताई और हँस कर कहा,”अरे चौहान साहब,एक छोटी सी बात का बतंगड़ बन गया है। कुछ भी तो तंत नहीं है इस केस में। ये मेरे बेटी वर्षा है,विशाल जी और विश्वनाथ तीनों क्लासमेट रहे हैं। आपस में कुछ गलतफहमी हुई और दोनों जवानी के जोश में आपा खो बैठे। आंकोदिया जी समझे कि विशाल जी के साथ अदावत में मार-पीट हुई है, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं था। विश्वनाथ खुद बहुत दुखी हुआ और इनसे माफी माँगने ही जा रहा था कि उसे यहाँ बुला लिया गया।“
चौहान ने सीधे विशाल से पूछा, ”मिस्टर बिसारिया,डू यू वांट टु प्रेस दि चार्जेज?”
विशाल ने दबे स्वर में कहा,”नो सर,नाट एट आल।“
-“मीन्स यू आर इन मूड टु फोरगिव एंड फोरगेट। एम आई करेक्ट?”
-“यस सर।“
-“मैं समझता हूँ कि आपने इस विषय में सुशील आंकोदिया जी से बात कर लें। खैर अब आप दोनों लिख कर दे दीजिए कि आप लोगों में आपस में समझौता हो गया है। और बात यहीं खतम हो जाएगी। आप उधर दीवान जी के पास चले जाइए,आपका दोस्त भी वहीं बैठा है,वे आप लोगों से लिखा-पढ़ी करवा लेंगे।“
विशाल जाने लगा तो वर्षा भी उठ खड़ी हुई।
दीवान जी एक ऊँचे प्लेटफार्म पर बैठे थे और उनकी मेज रजिस्टरों से भरी थी। विशाल ने देखा विश्वनाथ नीचे फर्श पर, दीवार से सटा बैठा था।उसका चेहरा बहुत बुझा हुआ लग रहा था। दीवान जी ने उसे इशारे से बुलाया तो चुपचाप आकर खड़ा हो गया। दीवान जी ने किसी से भी बैठने नहीं कहा। एक हाशिये पर आधा मुड़ा कागज विशाल को पकड़ाया और कहा,”जैसा मैं बोल रहा हूं,वैसा ही लिखते जाइए।अपनी तरफ से मुझे बताए बिना कोई रद्दो-बदल नहीं करना है।समझे!”
सब कुछ हो गया तो वर्षा और विशाल थानेदार के आफिस में लौट आए।वहां बाकी की औपचारिकताएं पूरी हुईं और फिर विश्वनाथ को बुलाया गया। चौहान ने कहा,”देखिये,आप लोग पढे-लिखे आदमी हैं।इस तरह पब्लिक प्लेस पर मार-पीट करना आपको शोभा नहीं देता।आगे से ध्यान रखिएगा।ठीक है शर्मा सर,अब इनको अपने साथ लेते जाइए।“

विश्वनाथ ने जैसे राहत की साँस ली। उसके चेहरे की कालिमा कुछ कम हो गई।बाहर आते ही उसने शर्मा जी के पैर छुए और क्षण भर को वर्षा के गले लगा।विशाल की तरफ तो उसने देखा भी नहीं। वर्षा जीप में पीछे की सीट पर बैठी तो विश्वनाथ भी जाकर उसके पास बैठ गया। विशाल को अब इस नौटंकी से विरक्ति होने लगी थी। वह कुछ दूर ही खड़ा रहा।जीप में बैठने से पहले शर्मा जी ने कहा, ”विशाल जी आइये,आपको भी आपके कमरे तक छोड़ देते हैं। उसने रुखाई से कहा, ”जी नहीं,मैं यहां से आटो से चला जाऊँगा। “यह सुन कर शर्मा जी तो जीप में बैठ गए मगर वर्षा फुर्ती से जीप से उतरी और विशाल का हाथ पकड़ कर खींचते हुए जीप तक ले आई और बोली,”मैं कह रही हूँ बैठो,तुम्हें लेकर आए हैं तो छोड़ कर भी जाएंगे!”वह चुपचाप आगे ड्राइवर के पास बैठ गया।
चलती जीप में शर्मा जी ने विशाल से कहा,”विशाल जी,जरा आंकोदिया जी से भी बात कर लीजिएगा।उन्हें भी स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। वैसे भी ये पोलिटिकल लोग बड़े प्रैक्टिकल होते हैं।“

जीप छावनी चौराहे पर उसके मकान मालिक के घर के सामने जाकर रुकी तो उन्होंने बाहर निकल कर देखा। शर्मा जी को देखते ही उनकी जैसे बाँछें खिल गईं। तेजी से जीप तक आए और उनसे चाय के लिए आने का इसरार करने लगे।शर्मा जी ने विनम्रता से क्षमा माँगी तो दोनों वहीं सड़क पर खड़े होकर बातें करने लगे। विशाल शिष्टाचारवाश कुछ देर तो खड़ा रहा फिर उन लोगों से प्रतीकात्मक विदा लेकर जाने लगा तो वर्षा भी जीप से कूद गई और विश्वनाथ से बोली, ”मैं जरा विशाल को छोड़ कर आती हूँ।“
ताला खोल कर जैसे ही वह अंदर गया वर्षा ने पीछे से आकर उसे पीछे से जकड़ लिया। उसने अपने आप को छुडाने की बहुत कोशिश की मगर नाकाम रहा।कुछ देर तक दोनों यूंँ ही बाहुपाश में बंधे रहे फिर विशाल ने ही अबोला तोड़ा,”प्लीज,अब मुझे छोड़ दो।“
उसने और कस कर पकड़ते हुए कहा, ”वह,हाथ आए हुए को क्यों छोड़ दूँ? नहीं छोडूँगी,कर लो जो तुम्हें करना हो।“
तभी बाहर से विश्वनाथ की आवाज आई,”वर्षा चलो पापा बुला रहे हैं।“

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शशि श्रीवास्तव

11 July 2024

एक सशक्त स्त्री चरित्र के चित्रण वाली रोचक प्रेम कहानी

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रचनाकार परिचय

राजेन्द्र राव

ईमेल : rajendraraoknp@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि- 9 जुलाई, 1944
 
कोटा(राजस्थान) में जनमे राजेंद्र राव शिक्षा और व्यवसाय से भले ही मेकैनिकल इंजीनियर रहे हों, मगर उनका मन सदैव साहित्य और पत्रकारिता में रमता रहा है।
सातवें दशक में लघु उद्योगों से कॅरियर की शुरुआत करने के बाद कुछ अत्याधुनिक और विशिष्ट गैर-सरकारी और सरकारी संस्थानों में तकनीकी और प्रबंधन के प्रशिक्षण में कार्यरत रहते हुए उन्होंने कहानियाँ और रिपोर्ताज तो लिखे ही, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित कॉलम लेखन भी किया। फिर अकस्मात् साहित्यिक पत्रकारिता में आ गए।
पहली कहानी ‘शिफ्ट’ ‘कहानी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई। उसके बाद साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, सारिका, कहानी, रविवार आदि पत्रिकाओं में कहानियाँ, धारावाहिक उपन्यास, कथा-शृंखलाएँ, रिपोर्ताज और कॉलम लेखन का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ, जो अपनी खास मंथर गति से अब तक जारी है।
अभी तक राजेंद्र राव के बारह कथा संकलन, दो उपन्यास और कथेतर लेखन का एक संकलन प्रकाशित हुआ है।
संप्रति- दैनिक जागरण में साहित्य संपादक।
संपर्क- 374 ए-2, तिवारीपुर, जे.के. रेयान गेट नं. 2 के सामने, जाजमऊ, कानपुर-208010 (उ.प्र.)
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