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राँची की प्रमुख धरोहर- डॉ० हरेन्द्र सिन्हा

राँची की प्रमुख धरोहर- डॉ० हरेन्द्र सिन्हा

डॉ० हरेन्द्र सिन्हा पुरातत्व विभाग से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं जो सतत साँसकरतिक धरोहरों के संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं । आप पुरातात्विक महत्व की पत्रिका के संपादक भी हैं। 

झारखंड प्रदेश की राजधानी राँची के प्राचीन इतिहास पर हम जब नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि अपनी विशेष भौगोलिक संरचना के कारण यह क्षेत्र हमेशा से यहाँ बसने वालों का बहुत ही प्रिय क्षेत्र रहा है। तभी अत्यंत प्राचीन काल से ही यहाँ मानव ने अपने निवास के साथ-साथ कई ऐसे अद्भुत निर्माण भी किये, जो आज भी सहज ही हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं।
प्राचीन काल के इन धरोहरों के अध्ययन से राँची के इतिहास पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। यदि हम प्रागैतिहासिक काल या नव-पाषाण कल के धरोहरों की बातें करें तो राँची में आज से लगभग 100 साल पहले अंग्रेज अन्वेषण कर्ताओं द्वारा अनेक मानव निर्मित प्रस्तर उपकरण पाये गए तथा नव-पाषाण युग के अनेक प्रस्तर हस्त-कुठार भी यहाँ बड़ी संख्या में पाए गए। इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि राँची की भौगोलिक संरचना को देखते हुए अत्यंत प्राचीन काल से मनुष्य यहाँ बसने लगे थे, क्योंकि यहाँ पहाड़ों में गुफाएँ मिल जाती थी वहाँ झरने और पानी के अन्य स्रोत आसानी से मिल जाते थे। इन्हीं कारणों से प्रागैतिहासिक कालीन मनुष्य इस क्षेत्र में बसता रहा और अपनी अपनी निशानियाँ छोड़ गया, जो आज हमारे लिए महत्वपूर्ण धरोहरों के रूप में उपलब्ध हैं और विभिन्न संग्रहालय में प्रदर्शित की गई हैं।
लेकिन इस आलेख में हम मुख्य रूप से विभिन्न कालों में राँची क्षेत्र में मनुष्य के द्वारा निर्मित किए गए शवागारों, मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघर अथवा प्रासादों के अवशेषों की ही चर्चा करेंगे।
इस क्रम में, इतिहास के दृष्टिकोण से, राँची का जो सबसे महत्वपूर्ण धरोहर है वो रातू रोड के समीप यमुनानगर का महाश्मिय शवागार यानी मेगालिथिक बेरियल्स हैं। यह मेगालिथिक बेरियल्स लगभग 2000 साल पुराने प्रतीत होते हैं और जिन लोगों द्वारा इसका निर्माण किया गया होगा, संभवतः वो मुंडा जनजाति के पूर्वज रहे होंगे, ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि मुंडा जनजाति में आज भी शव संस्कार के लिए यही शैली अपनाई जाती है । इस बिंदु पर शोध का कार्य चल रहा है। यह उन लोगों की परंपरा थी कि जब समाज से किसी व्यक्ति की मृत्यु हो तो जब उसे या उसके अवशेषों को दफनाया जाए तो वहां निशानी के रूप में एक बहुत बड़ा पत्थर भी रख दिया जाता था। इसी पत्थर को मेगालिथ यानी बड़ा पत्थर कहते हैं। यह परंपरा, पूरी दुनिया में, विशेष कर पश्चिमी देशों में, लगभग 6000 वर्ष ई०पू० से ही चली आ रही है और इन मेगालिथ्स के विभिन्न आकार प्रकार हैं। भारत के विभिन्न राज्यों में भी ऐसे शवागार पाए जाते हैं। यमुनानगर में लगभग 360 मेगालिथिक बेरियल्स पाए गए हैं, जिनमें से एक पर, एक पंक्ति का, कोई अभिलेख ऐसी लिपि में खुदा हुआ है, जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। भारतीय इतिहास के दृष्टिकोण से राँची का यह मेगालिथिक बेरियल कॉम्प्लेक्स अत्यंत महत्वपूर्ण माना जा सकता है।
इसके बाद राँची के अंतर्गत अनेक प्राचीन मंदिर, गिरजाघर मस्जिद, क़िले आदि हैं, जिनमें से कुछ की ही चर्चा यहाँ की जा सकती है।
पिठोरिया गाँव राँची-कांके मार्ग पर रांची से लगभग 16 किलोमीटर उत्तर दिशा में अवस्थित है। यहाँ का पिठोरिया चौक अत्यंत महत्वपूर्ण चौक माना जाता है, क्योंकि यहाँ पर कई प्राचीन अवशेष हैं, जिनमें से एक दो की चर्चा अभी की जा सकेगी। कहा जाता है की 1534 ईस्वी में शेरशाह ने सूरजगढ़ में महमूद शाह को पराजित कर बंगाल के एक बहुत बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था और इस विजय के उपरांत जब इसी रास्ते से वो दिल्ली की ओर वापस जा रहा था, तो इसी पिठौरिया चौक के समीप उसकी इबादत के लिए एक ईदगाह का निर्माण किया गया, जो अभी बिल्कुल ही जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। स्थानीय लोग इसकी देखभाल कर रहे हैं। सरकार ने प्रयास किया कि उसका संरक्षण किया जाए, लेकिन उसमें कई अड़ंगे लगा दिए गए। तो अब वो अपने अंतिम दिन गिन रहा है। इसी गाँव में प्रस्तरों से निर्मित एक राम मंदिर भी है जो लगभग 200 साल पुराना प्रतीत होता है। एशलर मैसोनरी से इस मंदिर का निर्माण हुआ है जो ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित है। इसी गाँव में एक शिव मंदिर भी है, जिसके शिखर के सामने वाले भाग पर रावण की मूर्ति उकेरी गई है। यह भी 17वीं 18वीं शताब्दी का मंदिर प्रतीत होता है। मुड़हर पहाड़ के पार्श्व में एक स्थान पर सूर्य, गणेश, शिव आदि की कुछ भग्न मूर्तियाँ एकत्रित करके रखी गई हैं और उसे सूर्य मंदिर का नाम दिया गया है। लेकिन मूर्तियां 12वीं 13वीं शताब्दी से पहले की नहीं हैं। इसी गांव में अंग्रेजों के पिट्ठू जगतपाल सिंह का क़िला भी उपेक्षित रूप में पड़ा हुआ अब ध्वस्त होने की स्थिति में है।
राँची के अन्य महत्वपूर्ण धरोहरों में से एक प्रसिद्ध जी.ई.एल. चर्च, राँची के मेन रोड में अवस्थित है जहां पार्श्व में जी.ई.एल चर्च कॉम्प्लेक्स नामक मार्केट भी है। इसका निर्माण 1851 से 1855 के बीच किया गया था। जर्मनी के पादरियों ने स्वयं अपनी देखरेख में इस गिरजाघर का निर्माण पश्चिम की गोथिक शैली में कराया था। यह भव्य गिरजाघर झारखण्ड के प्राचीनतम गिरजाघरों में से एक है। इसी के पास में बहु बाज़ार के निकट सेंट कैथेड्रल गिरजाघर भी अवस्थित है, जिसका निर्माण 1870 से 1873 के बीच जनरल रॉलेट की देखरेख में किया गया था। इस भवन का शिखर, स्तंभ, मेहराब आदि अत्यधिक आकर्षक और भव्य हैं। यह भी गोथिक शैली में ही बनाई गई है और यह भी राज्य के प्राचीनतम गिरजाघरों में से एक है।
जहाँ तक हिंदू मंदिरों का सवाल है, रांची में अपनी भव्यता के लिए मशहूर जगन्नाथ मंदिर सर्वश्रेष्ठ है। इस जगन्नाथ मंदिर का निर्माण 1691 में, दक्षिण राँची के धुर्वा में, स्थानीय शासक ठाकुर एनी नाथ शाह देव के द्वारा, उड़ीसा के पुरी जगन्नाथ मंदिर की तर्ज़ पर,रेखा देवल शैली में, कराया गया था। लगभग 100 फीट ऊंचाई का यह मंदिर धुर्वा में एक छोटी सी पहाड़ी पर निर्मित है। इससे लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर मौसी बड़ी का भी निर्माण कराया गया है। ये दोनों संरचनाएं उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी मंदिर की अनुकृति के रूप में बनाई गई हैं। गर्भगृह के अंदर भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र की लकड़ी की मूर्तियां स्थापित हैं। हर वर्ष सावन में यहां एक प्रसिद्ध मेला लगता है, जब मुख्य मंदिर से लेकर मौसी बड़ी तक देवताओं की रथ यात्रा निकलती है। कहा जाता है कि वर्ष 1691 में मुगल बादशाह औरंगजेब के समय में यह मंदिर क्षतिग्रस्त हुआ । आगे चलकर 6 अगस्त 1990 को प्राकृतिक रूप से उसके पुन: क्षतिग्रस्त होने के बाद 8 फरवरी 1992 को इसका पुनर्निर्माण कर दिया गया और अब यह अभी पूर्णतया सुरक्षित है और शानदार ढंग से सर उठाए खड़ा है।
राँची के प्रसिद्ध प्राचीन धरोहरों में से एक बोड़ेया स्थित मदन मोहन मंदिर भी है, जिसकी स्थापना 1665 में स्थानीय जमींदार स्व० लक्ष्मी नारायण तिवारी द्वारा कराई गई थी। यह मध्यकालीन भारत में प्रचलित वास्तु का बेजोड़ नमूना है और संभवत इसके मिस्त्री और मजदूर आदि मुसलमान रहे होंगे, क्योंकि जिस शैली में उन्होंने इसका निर्माण किया है, उसमें मुगल स्थापत्य की झलक भी स्पष्ट दिखती है। ग्रेनाइट पत्थर से इस मंदिर का निर्माण किया गया है। लगभग 350 साल बीत जाने के बाद भी इसकी ख़ूबसूरती में कोई परिवर्तन नहीं आया है। पानी निकासी और संरक्षण की यहां श्रेष्ठ व्यवस्था की गई थी। बरसात में छत से बहकर आने वाले पानी को एक पन-सोखा तक पहुंचाने की आश्चर्यजनक व्यवस्था आज से 350 सौ साल पहले उन लोगों ने की थी। 1140 वर्ग फीट के चबूतरे पर 12 स्तंभों की सहायता से इस मंदिर का निर्माण किया गया है । इन स्तंभों की लंबाई भी 12 फीट है। कैथी भाषा में एक शिला पट्ट पर खुदे शिलालेख के अनुसार 1401 रुपए की लागत से इस मंदिर का निर्माण हुआ। उस समय 45-45 किलोग्राम की अष्टधातु की दो मूर्तियाँ यहाँ स्थापित की गई थीं, पर 5 सितम्बर 1953 को उनमें से एक, भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति, चोरी हो गई। बाद में भगवान श्री कृष्ण की पीतल की मूर्ति बनवाकर वहां लगवाई गई। मंदिर में दुबारा भी चोरी हुई और तब अष्टधातु की राधा की मूर्ति भी चोर ले गए। इसके बाद फिर पीतल की मूर्ति से इसकी भरपाई की गई।
इसके अलावा, राँची के चुटिया क्षेत्र में राजा प्रताप राय ने 1727 ईस्वी में दो तल्ले मंदिर का निर्माण कराया था, जिसे राम मंदिर कहते हैं। ऊपर वाले तल्ले के गर्भ-गृह में राम तथा नीचे वाले गर्भ-गृह में कृष्ण की प्रतिमाएँ स्थापित की गई थीं, जिनकी पूजा होती थी। आज भी यह जीवित मंदिर है। इसी स्थान पर पूर्व निर्मित नागवंशी राजा रघुनाथ शाहदेव के महल में पूर्व में चैतन्य महाप्रभु के आकर ठहरने की भी चर्चा होती है। मंदिर के चारों कोनों पर चार कमरे या गुफाएँ निर्मित थी जहाँ पहरेदार रहा करते थे। राजा को कहीं भी जाना होता था तो इन्हीं कुआँ-नुमा गुफाओं के माध्यम से निकलते थे। रानी एवं महल की अन्य महिलाओं के स्नान के लिए यहाँ एक राधा कुंड भी था। राजा रघुनाथ शाह देव ने पत्थर से इस मंदिर का निर्माण कराया और रख-रखाव के लिए एक भी गाँव दान में दे दिया।

डॉ० हरेन्द्र सिन्हा, पुरातत्ववेत्ता

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रचनाकार परिचय

हरेन्द्र सिन्हा

ईमेल : harendra.sinha@rediffmail.com

निवास : राँची (झारखण्ड)

नाम- डॉ० हरेन्द्र सिन्हा 
जन्मतिथि- 29 जुलाई 1950
जन्मस्थान- पटना
लेखन विधा- कविता, इतिहास/पुरातत्व 
शिक्षा- पी एच. डी.
सम्प्रति- विजिटिंग प्रोफेसर, राची विश्व०
प्रकाशन- कला संस्कृति इतिहास पुरातत्व आदि विषयों पर लगभग 17 प्रकाशन।
सम्मान- 'झारखण्ड रत्न : 2011','हिंदी रत्न सम्मान : 2024'  आदि।
प्रसारण- आकाशवाणी, दूरदर्शन में 50 से अधिक वार्ता, साक्षात्कार, नाटक, फिल्म, सीरियल्स आदि में भागीदारी आदि।
विशेष- अनवरत पुरातात्विक अन्वेषण में संलग्न।
संपर्क- सी-103, हरिहर एस्टेट, कुसुम विहार, रोड नं० 4, मोराबादी, रांची : 834008.
मोबाइल- 9204246549