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रश्मि शर्मा 'सबा' की ग़ज़लें

रश्मि शर्मा 'सबा' की ग़ज़लें

दर्द बेताब है अल्फ़ाज़ में ढलने  के   लिए
रास्ता चाहिए सब को ही निकलने के लिए

ग़ज़ल-एक 

लफ़्ज़ हो पाई नहीं फिर भी मआनी में हूँ मैं
यानी किरदार नहीं और  कहानी  में  हूँ  मैं

मेरी पहचान हवालों   ही  से  दी  जाती है
कोई इक नाम नहीं होता है, यानी में हूँ मैं

मौज दरिया की तुम्हें साथ लिये चलती  है
और इधर झील के ठहरे हुए पानी में हूँ मैं

मंज़िलें गुम हैं, क़दम ठहरे हुए हैं फिर भी
ज़िन्दगी को ये गुमां है कि रवानी में  हूँ  मैं

वो है जंगल  तो  मुझे  ढूँढो  परिन्दों  में  सबा
वो है दरिया तो समझ जाओ कि पानी में हूँ मैं

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ग़ज़ल-दो 

ज़माने वालों के चेहरों पे  कितने  डर  निकले
फ़लक की चाह में जब भी ज़मीं के पर निकले

भटकना चाहूँ भी तो दुनिया मुख़्तसर निकले
जिधर बढ़ाऊँ  क़दम  तेरी  रहगुज़र  निकले

यशोधरा की तरह नींद में छली  गई तो
मैं चाहती हूँ मेरे ख़्वाब से ये डर निकले

कभी ख़याल  में  सोचो  वो  रात  का  चेहरा
कि जिस घड़ी वो दुआ करती है सहर निकले

कि जिस पे चलते हुए ख़ुद से मिल सकूँ मैं सबा
कहीं   से  काश  कोई   ऐसी  रहगुज़र  निकले

पड़ाव   होती    हुई   मन्जिलें  न   थीं  मंज़ूर
सो हार थक के सबा हम भी अपने घर निकले

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ग़ज़ल- तीन 

रौशनी  मेरी   हुआ  चाहती  है
बस वो दरवाज़ा खुला चाहती है

क़त्ल होने से बचा चाहती है
मेरी तन्हाई दुआ  चाहती  है

बेल ज़िद्दी  है  जुनूं  की  मेरी
वो लिपटने को हवा चाहती है

घर का दरवाज़ा कभी खुलता नहीं
फिर भी दहलीज़ दिया  चाहती  है

मेरी तख़लीक़ ख़फ़ा है मुझसे
मेरी पहचान जुदा  चाहती  है

दिल ये चाहे कि मैं रूठूँ उससे
रूह क्यूं ज़ब्ते-अना चाहती  है

काश गुलशन ने ये पूछा होता
कौन सा फूल सबा  चाहती है

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ग़ज़ल- चार

दर्द बेताब है अल्फ़ाज़ में ढलने  के  लिए
रास्ता चाहिए सब को ही निकलने के लिए

ख़त्म हो जाता है सब कुछ कभी इक लम्हे में
और इक लम्हा ही काफ़ी है संभलने के  लिए

ऐसी बारिश की  ज़मीं  ग़र्क़  हुई  जाती  है
अब्र कुछ वक़्त तो दे देता सम्भलने के लिए

मैं दिया हूँ मेरी फ़ितरत है उजाला  करना
वो समझते हैं कि मजबूर हूँ जलने के लिए

रात के साथ जला करती हूँ लम्हा  लम्हा
चाँद का नूर सबा चेहरे पे मलने के लिए

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ग़ज़ल- पाँच 

मुसाफ़िर का तो रस्ता मुन्तज़िर है
मगर ये चाँद किसका मुन्तज़िर  है

हमारा ज़िक्र मत करना तुम उससे
अगर पूछे तो  कहना  मुन्तज़िर  है

पता चल जाता है आंखों से उसकी
अगर कोई किसी  का  मुन्तज़िर है

सभी हैं मुन्तज़िर इक दूसरे के
अंधेरे का उजाला  मुन्तज़िर है

कई दिन से अजब चुप्पी लगी है
यहाँ तक की इशारा मुन्तज़िर है

कहीं पर मुंतज़िर है रात  उसकी
कहीं शब का सितारा मुन्तज़िर है

सबा घर लौट सकती हो अभी भी
अभी भी इक  बहाना  मुन्तज़िर है

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रचनाकार परिचय

रश्मि शर्मा 'सबा'

ईमेल : saba.rashmi@gmail.com

निवास : ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

जन्मतिथि- 24 अगस्त
जन्मस्थान- भोपाल
लेखन विधा- ग़ज़ल ,नज़्म,कहानी
शिक्षा- स्नातकोत्तर (एम. ए.) - अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, बी.एड 
सम्प्रति- शासकीय विद्यालय में अंग्रेजी विषय का अध्यापन ।
प्रकाशन- ग़ज़ल संग्रह - 'रात ने कहा मुझसे'
सम्मान- मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी से 2017 में 'शिफ़ा ग्वालियरी सम्मान' ।
प्रसारण-आकाशवाणी भोपाल ,ग्वालियर ।
दूरदर्शन भोपाल ,ग्वालियर से निरंतर प्रसारण ।
इसके अलावा प्राइवेट चैनल से प्रसारण ।
विशेष- 1. कूनो राष्ट्रीय उद्यान श्योपुर एवं माधव राष्ट्रीय उद्यान पर बनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म के लिए स्क्रिप्ट लेखन ।
संपर्क- डी-704-705 , पाम रेज़िडेन्सी 
न्यू रजिस्ट्रार ऑफिस के पास ,
न्यू कॉलेकटरेट  के पीछे- सिटी सेंटर, ग्वालियर(मध्य प्रदेश)
मोबाइल- 9425776305