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रवि प्रभाकर की लघुकथाएँ

रवि प्रभाकर की लघुकथाएँ

आँगन में स्कूटर खड़ा करते हुए सुरेश ने र्हर्न बजाया। थोड़ा हैरान हुआ कि सोना रोज़ाना की तरह डैडी आ गए... डैडी आ गए.... डैडी... चिज्जी... खुशी से चिल्लाते उसकी टाँगों से नहीं चिपटी स्कूटर की टोकरी से बेकरी के सामानवाला लिफ़ाफ़ा निकालकर सोना की "चल मेरे घोड़े.... टिकटिक...' की हर्षमिश्रित आवाज़ों का पीछा करते हुए वह ड्राइंगरूम में जा पहुँचा।

एक- कठघरे

लंका के उत्तरी द्वार के निकट समुद्र के किनारे जहाँ थोड़ी देर पहले रावण वध के हर्षोल्लास व लंका विजयोत्सव के गगनस्पर्शी जयघोष का गर्जन सुबेल पर्वत की ऊँची चोटियों को छू रहा था, वहाँ अब निस्तब्धता फैली हुई थी। उन्मुक्त झूमती उत्ताल तरंगें एकदम शांत हो गईं थी। सागर मानो शोकाकुल हो उठा था। श्रीराम व्योमच्युत नक्षत्र की भांति निरानन्द, एक चट्टान पर विराजमान थे और उनका धनुष बाण पास ही ज़मीन पर पड़ा था। हनुमान, सुग्रीव, विभीषण सहित लंकाविजय में उनके समस्त सहयोगी श्वांस खींचे निस्पंद खड़े थे। उनके बिल्कुल सामने जनकसुता हाथ जोड़े खड़ीं थीं, जिनके नेत्रों से उसके अंदर का ज्वालामुखी आँसुओं की अविरल धारा के रूप में प्रवाहित हो रहा था।

“भ्राता! आपकी आज्ञानुसार चिता तैयार कर दी है।” रुंधे कण्ठ से लक्ष्मण ने धीमे स्वर में कहा।

श्रीराम ने धीरे से गर्दन उठाकर एक दृष्टि चुनी हुई लकड़ियों के ढेर की ओर डाली। अग्निदेव का आह्वान किया गया। अनलदेव अविलम्ब प्रकट हो गए और करबद्ध होकर श्रीराम से उन्हें बुलाने का प्रयोजन पूछा।

“हे विभावसु! परवश हो कर जानकी ने दूसरे के गृह में वास किया है। पुनः ग्रहण करने से पहले उसके चरित्र की पवित्रता की परीक्षा के लिए आपको असमय कष्ट दिया है।” श्रीराम ने दृढ़ स्वर में अग्निदेव से कहा।

यह सुनकर अग्निदेव हतप्रभ रह गए परन्तु श्रीराम के मुखमंडल की दमकती आभा और तेज देखकर भयभीत स्वर में बोले, “राघव! यह क्या कह रहे हैं आप… अग्नि-परीक्षा…! ज्योतिर्मय पुण्यश्लोका जनकतनया की अग्नि-परीक्षा!”

अग्निदेव ने करूण दृष्टि से सीता की ओर देखा और दीर्घ श्वास भरते हुए बोले, “अभी और कितनी परीक्षाएँ शेष हैं भूमिजा की! जन्म से ही जिसने माता का मुख तक नहीं देखा, आपको कदाचित् उस पीड़ा का किंचित भी आभास नहीं है दरशथनन्दन! क्योंकि आप पर तीन स्नेहिल माताओं के स्नेह की अमृत वर्षा होती रही है। और जिस आयु में नवयौवनाएँ आशानुरूप वर की कल्पना के संसार में डूबकर आनंद अनुभव करती हैं, उस आयु में, अपने पिता की शिव धनुष का प्रत्यंचा चढ़ाने की, प्रतिज्ञा के कारण दुश्चिंतता की अग्नि में जली इस देवी की अग्नि-परीक्षा!”

अग्निदेव ने कातर दृष्टि से श्रीराम की ओर देखा जो निश्चल और निस्पंद भाव से सिर झुकाए पाषाणवत बैठे थे परन्तु उनके मस्तक पर समुद्र की लहरों ताईं कुछ लकीरें अवश्य उभर आईं थी।

अग्निदेव ने पुनः कहना आरंभ किया, “जिस देवी ने एक क्षण में ही राजमहल के सुखों को त्याग कर आपके साथ दण्डकारण्य के दुर्गमपथ का चुनाव किया। अरण्य के कंटीले पथ पर चलते हुए पैरों में काँटे गड़ जाने पर भी प्रसन्न रही। कानन-कानन घूमते, कंकड़ीली ज़मीन पर सोते हुए प्रसन्नतापूर्वक ब्रह्मचर्या का पालन किया…।” अग्निदेव ने दृष्टि घुमाकर देखा तो लक्ष्मण, हनुमान, सुग्रीव सहित सभी के नेत्र सजल थे।

अग्निदेव ने फिर कहना आरंभ किया, ‘जिस देवी ने दस माह तक अशोक वन में एक वस्त्रा व अलंकारविहीन रहते हुए कंद मूल खाकर जीवन निर्वहन किया। जो हर समय भयानक राक्षसियों में घिरी रही, जिसे कभी भय से और कभी सुख-सम्पदा का लालच दिखाकर लुभाने की हर क्षण चेष्टाएँ निरन्तर होती रहीं। जिसने अपनी तेजस्विता के प्रभाव से त्रैलोकविजयी रावण को भी सहमाकर अपने सतीत्व के दुरधर्ष सम्मान की रक्षा की… ऐसी देवी की अग्नि-परीक्षा…।’

‘अर्थात्…। ’ श्रीराम के कंठ से निकला स्वर मानो किसी गहन कुएँ से निकला हो।

‘हे रघुपति! आपको कदाचित् स्मरण नहीं, परन्तु शिव का धनुष भंग करने के पश्चात् आपने संकल्प करके देवी सीता का पाणिग्रहण करते समय सप्तपदी में मुझे साक्षी मानकर वचन दिया था कि आप सदैव इनके आत्मसम्मान की रक्षा करेंगे। आजीवन इन पर विश्वास बनाए रखेंगे। जिस जनकनन्दिनी के जन्म से ही यह संसार पवित्र हो गया और कल्पना में भी कोई कलंक जिसके निर्मल चरित्र को अपवित्र नहीं कर सकता, ऐसी देवी की परीक्षा लेने का साहस मुझमें तो कदापि नहीं है। मुझे क्षमा करें राघव।’ हाथ जोड़ते हुए अग्निदेव तत्क्षण अन्तर्ध्यान हो गए।

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दो- महँगी धूप

‘कम-से-कम अपने झुमके ही रख लेती’ सुनार की दुकान से बाहर निकलकर राकेश स्कूटर को किक मारते हुए शारदा से बोला

‘कोई बात नहीं जी। ऐसे वक़्त के लिए ही तो गहने बनवाए जाते हैं। वैसे भी कौन सी उम्र रही है गहने पहनने की, भगवान की दया से अब तो बच्चे बराबर के हो गए हैं। अपना घर बन जाए अब तो!‘ पर्स को कसकर पकड़ स्कूटर पर बैठती हुई शारदा ने कहा

अब तो हो ही जाएगा। पी.एफ., बेटियों की आरडी और अब ये गहने भी …! बेटियों की शादी कैसे करेंगे?‘ ठंडी साँस भरता राकेश धीरे-से बोला

‘आप चिंता मत करो जी! अभी उम्र ही क्या है बेटियों की! नीतू अगस्त में पंद्रहवें में लगेगी और मीतू दिसंबर में सत्रहवें में। उनकी शादी तक तो भगवान की कृपा से रोहन इंजीनियरिंग पूरी कर अच्छी नौकरी लग चुका होगा और आपकी रिटायरमेंट को तो अभी 11 साल बाक़ी हैं।’ शारदा अपना हाथ राकेश के कंधे पर रखते हुए आशा भरी आवाज़ में बोली

‘हाँ…। ख़ैर! अब तो घर में दम सा घुटने लगा है। तीन ही तो कमरे है और साथ में भाई साहिब की फैमिली। मैं तो किसी दफ्तर वाले को घर तक नहीं बुला सकता।’

‘सही कह रहे हो। दम तो वाक़ई घुटने लगा है। एक तो घर गली के आख़िरी कोने में है जहाँ न धूप न हवा। कभी छ पर चले ही जाओ तो जिठानी जी के माथे की त्यौरियां और उनके कमेंट्स…उफ़्फ़… बर्दाश्त के बाहर हो जाते हैं। मैं तो तरस गईं हूँ खुली धूप में बैठने को।’ राकेश ने मानो उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो।

‘आइए राकेश बाबू! आपका ही इंतज़ार था।’ निर्माणाधीन हाऊसिंग कॉलोनी के गेट पर मज़दूरों को काम समझाता हुआ मैनेजर राकेश को आता देख गर्मजोशी से उनकी ओर लपका। ‘स्कूटर उधर खड़ा कर दीजिए। बस कुछ ही दिनों की बात है पार्किंग भी तैयार हो जाएगी।’

‘ओए! ये सामान हटाओ यहाँ से’ मज़दूर को इशारा करते हुए मैनेजर बोला।

‘आइए ऑफ़िस में बैठकर फारमेलिटीज़ कंप्लीट कर लेते हैं… पेमैंट तो लाए हैं न…?’

‘हाँ हाँ पेमेंट तो लाया हूँ। एक नज़़र फ़्लैट तो दिखा दें इसीलिए तो आज श्रीमती जी को साथ लाया हूँ।’

‘क्यों नहीं… क्यों नहीं! आइए उधर से चलते हैं। भाभी जी! ज़रा ध्यान से चढ़िएगा! बस कुछ ही दिनों में रेलिंग भी लग जाएगी।’ सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मैनेजर बेफ़िक्री से बोला

‘फ़्लैट्स तो सारे बुक हो चुके हैं जी पर आपके जी.एम. साहिब के कहने पर यह फ़्लैट आपके लिए रिज़र्व रख दिया था। आप इत्मिनान से देखकर तसल्ली कर लें, मैं ठंडा मंगवाता हूँ।’ दो मंज़िल सीढ़ियाँ चढ़ कर आए राकेश और शारदा को हांफता देख मैनेजर बोला

‘राकेश! इधर देखें। ये किचन थोड़ा छोटा लग रहा है। ये बेडरूम… इसमें डबल बैड लगने के बाद जगह ही कहाँ बचेगी और ये आसपास की बिल्डिंगज़ तो लॉबी की सारी धूप और हवा रोक रही हैं।’ मैनेजर के जाते ही थकान भूल कर फ़्लैट का मुआयना करती हुई शारदा अधीरता से बोली

‘लीजिए ठंडा पीजिए!’ खाली फ़्लैट में मैनेजर की गूँजती आवाज़ से दोनों एकदम चौंक गए

‘भाई साहिब! टैरेस…।’ गिलास पकड़ते हुए शारदा ने पूछा

‘भाभी जी! टैरेस तो कॉमन है सभी फ़्लैट्स के लिए।’

‘सभी के लिए कॉमन! ये तो वही बात हो गई! राकेश धीरे-से शारदा के कान में फुसफुसाया

‘पार्क के पीछे वाली कॉलोनी भी हमारी ही कंपनी बना रही है। वहाँ कारपेट एरिया तो इससे अधिक है ही साथ ही एंटरी और टैरेस भी इंडीपैंडेंट है। आप वहाँ देख लीजिए।’ स्थिती भाँपते हुए मैनेजर ने तीर छोड़ा

‘उसका प्राइस?’ शारदा ने संकुचाते हुए पूछा

‘अजी प्राइस तो बहुत कम है जी। कंपनी तो आपकी सेवा के लिए ही है। बस इस फ़्लैट से सिर्फ़ आठ लाख ही अधिक देने होंगे।’ खीसें निपोरता मैनेजर बोला

‘मैनेजर सॉबऽऽ! गुप्ता जी आपको नीचे ऑफ़िस में बुला रहे हैं। ‘नीचे से कुछ सामान उठाकर आ रहे एक मज़दूर ने मैनेजर को कहा

‘मैं नीचे ऑफ़िस में ही हूँ, जो भी आपकी सलाह हो बता दीजिएगा।’ बाहर निकलते हुए मैनेजर बोला

‘आठ लाख! इतना तो हो ही नहीं पाएगा। तो अब क्या करें।’ राकेश की आवाज़ मानो बहुत गहरे कुएँ से आ रही थी

‘फ़्लैट बेशक छोटा है पर अपने घर से छोटा तो नहीं है न। छत पर जाने से किसी के साथ कोई चखचख भी नहीं। यहाँ तुम अपने किसी भी दफ्तर वाले को बड़े आराम से बुला सकते हो।’

‘पर तुम्हारी वो खुली धूप में बैठने की इच्छा…।’

‘अजी मेरा तो आधा दिन स्कूल में ही निकल जाता है। उसके बाद सेंटर पर ट्यूशन। नीतू, मीतू भी मेरे साथ चार बजे के बाद ही घर आती हैं और तुम शाम को छ: बजे के बाद। समय ही कहाँ मिलता है धूप में बैठने का।’

दोनों धीरे-धीरे सीढ़ियां उतर ऑफ़िस की तरफ़ बढ़ने लगे।

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तीन- प्रिज़्म

"सुरेश आज भी सोना के लिए क्रीमवाले बिस्किट और लेज़ ही ले जाओगे।" चाचाजी ने मुस्कुराते हुए कहा

"आप तो जानते ही हैं चाचाजी उसे क्रीमवाले बिस्किट बहुत पसंद हैं।"

"सूजी वाले बिस्किट और नानखताई भी डाल दूँ? सुधा और दामादजी को बहुत पसंद…”

"वो तो दिल्ली भी पहुँच गए होंगे अब तक तो... ग्यारह बजे की फ़्लाइट थी उनकी। स्कूल में आज इंस्पेक्शन थी, इसलिए मैं तो सुबह सात बजे ही विदा ले आया था उनसे । "

"चले भी गए... अभी परसों रात ही तो आए थे। मैं तो सोच रहा था कि शाम को मिलकर आऊँगा। अच्छा भई! पहले की बात तो समझ में आती है... मैजिस्ट्रेट थे, व्यस्त रहते थे। अब तो रिटायर हो गए हैं। बेटी की शादी कर चुके हैं और बेटा भी यूएसए में सैटल है। अब काहे जल्दबाजी करते हैं।"

"आप तो जानते ही हो, जीजाजी ने जो कह दिया सो कह दिया। अब तो खैर वाया प्लेन आते-जाते आते हैं। पहले जब ट्रेन से आते थे तो अठारह-बीस घंटे लगते थे वाराणसी पहुँचने में दो रोज़ बाद की वापसी की टिकट बुक होती थी। वो चार साल पहले मेरी शादी का याद नहीं... एक दिन पहले ही तो आए थे और शादी के अगले रोज़ ही निकल लिए थे। "

"भाई साहिब से तो पूरा खानदान डरता है। क्या वो कभी दामादजी को...।"

"समझ में नहीं आता बाऊजी भी इतना क्यों डरते हैं जीजाजी से छब्बीस साल हो गए हैं, शादी के बाद जीजी कभी दो रात से ज़्यादा रहीं रुकी। हालाँकि उनका मन होता है... पर बाऊजी कह देते हैं कि जैसा दामादजी कहते हैं वैसा ही करो। अच्छा बहुत थकावट हो रही चाचाजी... अब निकलता हूँ।"

आँगन में स्कूटर खड़ा करते हुए सुरेश ने र्हर्न बजाया। थोड़ा हैरान हुआ कि सोना रोज़ाना की तरह डैडी आ गए... डैडी आ गए.... डैडी... चिज्जी... खुशी से चिल्लाते उसकी टाँगों से नहीं चिपटी स्कूटर की टोकरी से बेकरी के सामानवाला लिफ़ाफ़ा निकालकर सोना की "चल मेरे घोड़े.... टिकटिक...' की हर्षमिश्रित आवाज़ों का पीछा करते हुए वह ड्राइंगरूम में जा पहुँचा। बनियान और पायजामा पहने जीजाजी घुटनों और बाजुओं के बल घोड़ा बने हुए थे। कधों से उनकी बनियान पकड़े पीठ पर सवार सोना की चहचहाहट से घर के सदस्य चहक रहे थे।

"डडडडडी" जैसे ही सोना की नज़र उसपर पड़ी तो वह छलाँग लगाकर पीठ से उतरी और उसकी की टाँगों से चिपट गई। एकदम उसे कुछ याद आया और वह पलटी और जीजाजी से मुख़ातिब होते हुए बोली, "घोड़े अब तुम आराम करो चिज्जी खाकर फिर घूमने जाएँगे। ठीक।”

जीजाजी ने हाँ में सिर हिलाया। "आ गए सुरेश बाबू!" उठते हुए सुरेश को मुस्कुराकर देखा और सोफ़े पर बैठ गए। सुरेश भी उनकी बगल में आकर बैठ गया। "हॉजी जीजाजी! जीजाजी वो... आपकी फ्लाइट... ग्यारह बजे... कैंसिल... सुरेश ने झिझकते हुए से पूछा।
"फ़्लाइट तो ऑन टाइम थी जब हम निकलने लगे तो सोना ने कहा कि कहीं नहीं जाना। बैग उधर रखो और मेरे साथ खेलो भई अब छब्बीस सालों में पहली बार इस घर में किसी ने हमसे अधिकारपूर्वक कहा कि नहीं जाना तो हम कैसे जा सकते थे।” भर्राए गले से जीजाजी बोले।

"लो घोड़े तुम भी चिज्जी खा लो।" सोना ने बिस्किट जीजाजी के मुँह में डालते हुए कहा। जीजाजी ने सोना को उठाकर अपनी बाँहों में भींच लिया।

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चार- नालायक

“शुक्र है भगवान का सारा कारज निर्विघ्न सम्पन्न हो गया और बिटिया अपने घर गई। हमारा तो गंगास्नान हो गया।” बैंक्वेट हॉल से डोली विदा करके घर वापसी के लिए कार में बैठी माँ ने आँचल के सिरे से पनीली आँखें पोंछते हुए रुँधे स्वर में कहा।

“भगवान का ही शुक्र है… वर्ना तुम्हारे लाड़ले ने तो कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी…। ये तो काकी थी जिसने बात सँभाल ली।” बाबूजी की आवाज़ में तलख़ी थी।

“अरे बेटा! ये सब तो प्रभु के बनाए संजोग हैं, वर्ना हमारी क्या बिसात।” बगल में बैठी बुर्जु़ग काकी दोनों हाथ जोड़कर ऊपर को देखते हुए बोली।

“आपको तो बस मौक़ा चाहिए सैंडी…”

‘सैंडी’ नाम सुनकर बाबूजी ने माथे पर बल पड़ गए और उन्होंने ग़ुस्से से आँखें तरेरकर माँ की तरफ़ देखा।

“मेरा मतलब सदाशिव की ग़लती निकालने को।”

“तो क्या उस नालायक़ के नाम की माला जपता फिरूँ। याद नहीं कैसी बदतमीज़ी की थी जब वो लोग ऋतु को देखने आए थे… उनके मुँह पर ही साफ़ मना कर दिया था उसने कि अभी उम्र ही क्या है… अभी तो पढ़ रही है… एक-दो साल बाद सोचेंगे। घर बैठै बिठाए ग्रीन कार्ड होल्डर का रिश्ता भला कितनों को नसीब होता है। जूतियाँ घिस जाती हैं अच्छा घरबार ढूँढ़ने में। यह तो भला हो काकी थी जिसने बात बिगड़ने नहीं दी।”

“वो तो बस ऋतु के पढ़ाई के शौक को देखकर…।”

“हुँअ…. पढ़ाई… ख़ुद तो बीच में ही… आख़िरी सिमेस्टर ही तो रह गया था। अच्छा भला इंजीनियर होता। नहीं जी…. साहिब को तो समाजसेवा करनी है… दूसरों पर अत्याचार देखा नहीं जाता। मैनेजमेंट से पंगा मोल लेकर उनका क्या बिगाड़ लिया। अपना ही कॅरियर तबाह किया न…।”

“अब मिट्टी डालो पुरानी बातों पर। यह भी तो देखो कि उन लोगों की शादी के बाद पढ़ने की सहमति मिलते ही कैसे शुक्र अस्त होने से पहले हफ़्ते भर में ही उसने हाथों-हाथ शादी की सारी तैयारियाँ करवा दीं। बैंक्वेट हॉल का ही देख लो… साल-साल पहले की बुकिंग होती है। उसकी और उसके दोस्तों की हिम्मत से ही चट मंगनी पट शादी हो पाई है। आपको कहीं भागने की ज़रूरत तक नहीं पड़ी!”

“हाँ…हाँ वो तो सब ठीक है। पर विदाई के मौक़े पर गधे के सींग जैसे कहाँ ग़ायब हो गया नालायक़ । देखा नहीं ऋतु की निगाहें कैसे बार-बार उसी को ढूँढ़ तलाश रही थीं। कल की ही फ़्लाइट है उनकी, अब साल-दो साल कहाँ आ पाएगी।” बाबूजी की आवाज़ से अंतस की टीस उभरी।

चर्र…चर्र…चर्र… गाड़ी की ब्रेक लगी, घर आ गया।

“आशीष तुम भी आ जाओ बेटा! चाय बनाती हूँ। सुबह से लगे हुए हो, थक गए होगे। मैं तो कहती हूँ यही सो जाओ। सुबह चले जाना।” माँ ने गाड़ी में छोड़ने आए आशीष से कहा।

“नहीं आंटी…. वो केटरिंग वालो से सामान का कुछ हिसाब करना है। सैंडी भाई ने….” सहसा उसकी नज़रें बाबूजी की तरफ़ गईं वह सकपका-सा गया और पुन: बोला, “सदाशिव भाई ने कहा था कि हिसाब निपटाकर ही घर जाना। अच्छा आंटी! मैं चलता हूँ… अच्छा बाबूजी….।” बाबूजी उसे बिना देखे ही अंदर चले गए।

“सब कुछ इतनी जल्दी में करना पड़ा कि रिश्ते-नातेदारों को बुला ही नहीं पाए। इतने शार्ट नोटिस पर भला कोई आता भी कैसे… वैसे भी शादियों का ज़ोर चल रहा है। और जो आए भी वह बैंक्वेट हॉल से ही चले गए।” माँ, काकी से बतियाते कमरे में दाख़िल हुई।

“देख लीं अपने लाड़ले की हरकतें। विदाई के मौक़े से ग़ायब हो गया और बाक़ी कामकाज अपने आवारा दोस्तों के ज़िम्मे लगा गया… नालायक़ …।” बाबूजी ने भुनभुनाते हुए कहा।

अचानक गिटार की उदास-सी धुन से सभी चौंक गए।

“ये आवाज़…?” बाबूजी ने सवालिया नज़रों से ऊपर देखा और सीढ़ियाँ चढ़ने लगे, माँ भी उनके पीछे हो ली। ऋतु के अधखुले कमरे से झीनी-झीनी रोशनी बाहर झाँक रही थी। बाबूजी ने हौले-से अंदर देखा तो ऋतु के साथ अपने बचपन की फ़ोटो के सामने ज़मीन पर बैठा सदाशिव, ऋतु के बचपन की गुड़िया को सीने से लगाए गिटार पर उसकी पसंदीदा धुन बजा रहा था।

“न…लायक़…” धीमे से बाबूजी के कंठ से भर्राया स्वर निकला। तभी पीछे से अपने कंधे पर माँ के हाथ का स्पर्श पाकर उनकी आँखें छलछला गईं।

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पाँच- काकबंध्या

साम, दाम, दंड और भेद के सहारे अंतत: वह कीर्ति और सफ़लता के शिख़र तक जा ही पहुँचा था। वहाँ तक पहुँचने के लिए उसने बहुत लंबा सफ़र तय किया था। उसने अपना यह उर्ध्वगामी सफ़र नीचे वालों पर पैर रखकर, साथ चलने वालों को धक्का देकर और अपने से ऊपरवालों को टाँग से खींचकर गिराते हुए पूरा किया था। हालाँकि वह बहुत थक गया था परंतु शीर्ष पर बह रही शीतल बयार से उसकी सारी थकान छू-मंतर हो गई थी। अब जब कभी उसका ध्यान नीचे की तरफ़ जाता, उसे सभी अपने क़दमों में झुके नज़र आते। उसकी गर्दन की कसावट और बढ़ जाती।

शीर्ष पर पहुँचे कुछ अर्सा बीता तो वहाँ की निर्जनता और निस्तब्धता से उसे घबराहट होने लगी। हवा के तीव्र प्रकंपनों की साय-साय उसे भयभीत करने लगी थी। किसी के आने की झूठी आस में जब भी वह सीढ़ी की ओर देखता, वहाँ केवल दो समांतर खड़े लंबे डंडे शून्य को ताकते नज़र आते। क्योंकि शीर्ष पर पहुँचने की लालसा के सफ़र में, सफलता का अगला सोपान चढ़ने के बाद वह पिछले सोपान को काट देता था। शिख़र पर गहन अँधकार में बैठे हुए नीचे असंख्य टिमटिमाते रंग-बिरंगे बल्ब देखकर उसकी उत्कंठा दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी। जब भी वह सिर झुकाकर नीचे की ओर देखता, उसे हर्षभरी आवाज़ों के साथ हँसते चेहरे दिखाई देते। किसी के भी पास उसकी ओर सिर उठाकर देखने का समय ही नहीं था।

शिख़र के कोने पर खड़े हुए आज उसके चेहरे पर भय नहीं बल्कि दृढ़ता के भाव थे। उसने हवा में छलांग लगा दी। उसकी आँखें फैली की फैली रह गईं... वह ऊपर से नीचे गिरा ही नहीं... वह तो पहले ही रसातल में था।

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रचनाकार परिचय

रवि प्रभाकर

ईमेल :

निवास : पटियाला (पंजाब)

नाम- स्मृति शेष रवि प्रभाकर
जन्मस्थान- पटियाला पंजाब

विधा- लघुकथाकार एवं समीक्षक
संपादन- गुसैंयां पंजाबी मासिक पत्रिका
संयोजन- लघुकथा कलश अर्धवार्षिक पत्रिका