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रूप सिंह चंदेल की कहानी- हुण्डी

रूप सिंह चंदेल  की कहानी- हुण्डी

उस दिन पति से झगड़ने के बाद उसने पिता को फोन किया। सुनकर अमर बहादुर सिंह बोले, “चिन्ता न कर नन्दिनी। तू तुषार को लेकर दस मिनट के लिए फ्लैट से बाहर जा और मुझे बता कि तू बाहर आ गयी है। फिर देख मैं क्या तमाशा खड़ा करूँगा। तेरे सास-ससुर को नचा न दिया तो मेरा नाम....” नन्दिनी ने उनके सुझाव के अनुसार पार्क में जाकर उन्हें फोन किया और पाँ। मिनट बाद फ्लैट में वापस लौट गयी। उन्होंने उसके ससुर को फोन करके कहा, “कितने शर्म की बात है कि आपने मेरी बेटी को घर से निकाल दिया है। वह बेटे के साथ सड़क पर बैठी हुई है।”

वह सुबह साढ़े चार बजे घर से निकले। बाहर ठंडी हवा चल रही थी. सुबह देर से सोकर उठने के कारण उतनी सुबह बाहर ठंड का उन्हें अहसास नहीं था. दिन में गर्मी रहती और गर्मी का प्रभाव रात में भी घर के अंदर बना रहता। उन्होंने पैंट पर कमीज पहना हुआ था, जबकि ठंड पूरी बाँह का स्वेटर पहनने की मांग कर रही थी। सड़क पर रुककर उन्होंने एक मिनट सोचा. ’मुझे सूर्योदय से पहले सरसैया घाट पहुँचना है। गंगा स्नान का पुण्य सूर्योदय से पहले स्नान कर लेने से होता है। ट्रंक में बंद स्वेटर निकालने में समय नष्ट करना सही नहीं। उजाला होते ही ठंड कम हो जाएगी. अभी इतना भी बूढ़ा नहीं हुआ- नौकरी से अवकाश ग्रहण किए छः साल ही हुए हैं।’ उन्होंने टैंपो स्टैण्ड की ओर क़दम बढा दिए।  

उनके ब्लॉक के बाद एक और ब्लॉक है, उसके बाद मुख्य सड़क जो बाईपास की ओर से रेलवे स्टेशन की ओर जाती है. उनके ब्लॉक के बगल के ब्लॉक और बाई पास की ओर से आ रही सड़क के बीच कुछ फल और सब्ज़ीवाले दोपहर के बाद अपनी दुकानें लगाते. उस समय वहाँ कुछ खाली रेहड़ियाँ खड़ी थीं और दुकानों की जगह पर कुछ कुत्ते टाँगें सिकोड़े सो रहे थे. पास ही कूड़े का ढेर था, जिसमें दो कुत्ते और एक सुअर मुँह मार रहे थे। बाई पास की ओर से आ रही सड़क पर कुछ लोग तेजी से टैम्पो स्टैण्ड की ओर जाते दिखाई दिए, जिनमें महिलाएँ और छोटे बच्चे भी थे। स्टैंड पर दो टेम्पो में सवारियाँ आलू की बोरियों की तरह ठुँसी हुई दिखीं।

’सभी को सरसैया घाट पहुँचने की जल्दी है।’ सड़क पार करते हुए उन्होंने सोचा। तभी हवा का तेज़ झोंका आया और उन्हें लगा कि हवा कमीज़ के भीतर घुसकर बनियाइन के नीचे उनकी छाती सहला गयी है। वह सिहर उठे। ’बेटी नन्दिनी ने कल कहा था कि वह स्वेटर निकालकर धूप में डाल देती है, लेकिन उन्होंने ही मना कर दिया था।’

“नन्दिनी, इतनी सर्दी नहीं है अभी। हाँ, तुम तुषार के गर्म कपड़े अवश्य निकाल लो।”

“पापा, जब दिल्ली से यहाँ आयी तुषार आठ महीने का था। अब वह डेढ़ साल का होने वाला है. उसके पहले के गर्म कपड़े छोटे हो गए हैं। मैंने उसके लिए नए खरीद लिए हैं।”

जब वह स्टैण्ड पर पहुंचे एक साथ तीन टेम्पो वहां आकर रुके। एक बाई पास की ओर से आया, जिसमें पाँच सवारियाँ थीं, जबकि दो स्टेशन की ओर से आए। वे खाली थे। वहाँ खड़ी सभी सवारियाँ तीनों में ठुँस गयीं। वह भी किसी प्रकार जगह बनाकर एक टैम्पो में किनारे की सीट पर बैठने में सफल रहे। स्टेशन की ओर दौड़ते टेम्पो में उस सीट में उन्हें सीधे हवा का सामना करना पड़ रहा था। बार-बार उनका हाथ शर्ट की ऊपर की बटन पर जा टिकता. वह बंद थी। केवल कॉलर की बटन खुली हुई थी। उन्होंने उसे बंद करने का प्रयास किया, लेकिन उसका काज इतना सख़्त था और टेम्पो की रफ़्तार इतनी तेज़ कि ऊबड़-खाबड़ सड़क पर उसके उछलने के कारण कॉलर की बटन बंद करने के उनके प्रयास असफल होते रहे। जूट मिल चौराहे के पास उन्होंने घड़ी देखा। पाँच बजे थे। ‘आध घण्टा और लगेगा’ उन्होंने सोचा। ‘अधिक से अधिक पैंतालीस मिनट।’

लेकिन घण्टाघर में लोगों का हुजूम था. गाँवों से आए लोगों का हुजूम। ’गंगा स्नान के लिए शहर के साथ पूरा देहात ही उमड़ आया है।’ वह चिन्ता में डूब गए, ’अब?’

’पैदल लगभग चार किलोमीटर है। टेम्पो केवल बड़ा चौराहा तक ले जाएगा, वहाँ से दूसरी सवारी लेना होगा। वैसे भी इस भीड़ में सवारी ले पाना संभव नहीं।’ उनका दिमाग़ तेजी से चल रहा था। ’जितनी देर सवारियों के बारे में सोचूँगा उतनी देर में पैदल पहुँच जाऊँगा। पैसे भी बचेंगे और पैदल चलने से शरीर को गर्माहट भी मिलेगी।’ वह तेजी से मूलगंज चौराहा की ओर बढ़ने लगे। ’उम्मीद है कि मूलगंज चौराहे पर कोई सवारी मिल जाएगी।’

मूलगंज में उन्हें एक खाली रिक्शा दिखा. सरसैया घाट तक के उसने जितने पैसे माँगे वह  देने को तैयार नहीं थे।  

“बाबूजी, मैं बड़ा चौराहा तक जाता हूँ। आपने कहा तो घाट तक जाने के लिए तैयार हो गया। पैसे तो इतने ही लगेंगे।

“बड़ा चौराहा तक के कितने लेते हो?” उन्होंने हुज्जत की।

“पूरा रिक्शा बीस रुपए। वहाँ से घाट दूर है साहब। मैंने चालीस रुपए ग़लत नहीं माँगे”

“पचीस ले लो और सीधे चल दो।” एक प्रकार से आदेशात्मक स्वर में वह बोले। उन्होंने घड़ी देखा। ’यदि बीस मिनट में नहीं पहुँचा तब देर हो जाएगी। गंगा स्नान का पुण्य नहीं मिलेगा।’

“बाबू जी, न होई. आप दूसरी सवारी लै लें।” गद्दी पर बैठा चलने को तैयार रिक्शावाला नीचे उतरकर खड़ा हो गया।

’कैसा आदमी है! पचीस दे रहा हूँ और यह नखरे पाद रहा है। आज कार्तिक पूर्णिमा है इसलिए यह इतना भाव खा रहा है।’ वह सोचते रहे, ’इसे मालूम नहीं कि किस व्यक्ति को बैठाया हुआ है। बनिया भी अमर बहादुर सिंह के मोलभाव से पानी भरने लगते हैं और खिसियाकर कह देते हैं कि बाबूजी सामान ऎसे ही ले जाइए। लेकिन मैं ऎसे ही नहीं लाता, उतने पैसे देकर लाता हूँ जो मैं उन्हें देना चाहता हूँ। लेकिन यह समय हुज्जत का समय नहीं है।’

“आप कहें तो एक और सवारी बैठा लूँ।” रिक्शावाले की आवाज़ से उनकी सोच टूटी।

“बैठा लो. लेकिन जल्दी करो।”

“सवारी मिलने पर ही न बैठाऊँगा और ज़रूरी नहीं कि वह घाट तक की ही मिले। बड़ा चौराह तक की आसानी से मिल सकती है। वहाँ से घाट की मिल जाएगी।”

अमर बहादुर सिंह ने एक क्षण सोचा, घड़ी देखा, घड़ी पाँच मिनट आगे खिसक चुकी थी।

“भाई, तुम तीस ले लेना, अब चलो भी।”

तीस सुनते ही रिक्शावाला उछलकर गद्दी पर बैठा और तेजी से पैडल मारने लगा।

रिक्शा से उतरकर दौड़ते हुए वह गंगा तट पर पहुँचे। स्नान करने के बाद पहनने के लिए पायजामा-कुर्ता एक थैले में लाए थे। थैला कहाँ रखें एक क्षण के लिए सोचा, ’मैंने नन्दिनी की अम्मा को इसीलिए कहा था कि साथ चलें, लेकिन उन्हें घर के काम से फ़ुरसत नहीं। रात बारह बजे तक काम करती रहती हैं। मेरे घर से निकलने से पहले जाग गयी थीं और मेरे लिए चाय बनाने के लिए किचन में थीं। लेकिन चाय पीने का समय नहीं था। वह आ जाती तो गंगा स्नान का पुण्य उन्हें भी मिलता और ताजी हवा का आनन्द भी।’ थैला और जूते वह किसी पण्डॆ के पास नहीं रखना चाहते थे। ’पण्डॆ के पास रखने का मतलब उसे कम से दस-बीस रुपए देना, लेकिन यूँ ही रखकर गंगा में डुबकी लगाने जाना भी सही नहीं। डुबकी लगाते ही कोई सामान पार कर देगा तब!’ वह खड़े यह सोच ही रहे थे कि एक पण्डे ने उन्हें सामान रखने के लिए बुलाया। उसके पास जाकर पूछा, “कितने लोगे?”

“जजमान आपसे क्या मोलभाव, जो मर्जी हो दे देना। आप हमारे पुराने जजमान हैं आपके पिताजी भी मेरे यहां ही सामान रखा करते थे।” प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठा बूढ़ा पण्डा बोला. पण्डे के झूठ पर वह मन ही मन हंसे, ’मैंने कभी इसके पास कुछ भी नहीं रखा, और मेरे पिताजी-वह गाँव में पैदा हुए, गाँव में ही मरे-’ क्षणभर के लिए उन्होंने सोचा, ’मर्ज़ी से देने के लिए कह रहा है।’ उन्होंने पूरब की ओर देखा, ’लाली फूट चुकी है। पाँच मिनट से भी कम समय में सूरज की किरणें गंगा में मेरी जगह डुबकी लगाने लगेंगी।’ उन्होंने थैला और जूते पण्डे के नीचे बिछे टाट पर रखा और ’पाँच रुपए दे दूँगा. उससे अधिक नहीं।’ उन्हें पैसों की चिन्ता हुई, जो थैले में उन्होंने कपड़ों के नीचे दबाकर रख दिए थे। ’पण्डे सामान की हेराफेरी नहीं करते. एक बार बदनाम हुए कि उनका धंधा चौपट हो जाएगा।’ तेजी से घाट की सीढियाँ  उतरकर पहने हुए कपड़ों में ही वह गंगा में उतर गए। पानी छाती तक था—बहुत ठंडा. शरीर पहले ही टेम्पो और रिक्शा में आते हुए ठंड से अकड़ा हुआ था, लेकिन गंगा स्नान का पुण्य उन्हें डुबकी लगाने और हाथ से पानी उलीचकर स्नान करने के लिए उत्साहित करता रहा।

स्नान करते समय वह लगातार वह श्लोक बुदबुदाते रहे जिसे उन्होंने दसवीं की परीक्षा के समय याद किया था-

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं,
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्.
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्,
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्.

हर दिन सुबह स्नान के समय वह इस श्लोक को बोलते हुए स्नान करते हैं। उसके बाद घर के मन्दिर के सामने चटाई पर बैठकर कुछ देर पूजा करते हैं। नौकरी में थे तब दस मिनट में पूजा समाप्त हो जाती थी, लेकिन अवकाश ग्रहण करने के बाद सुबह आध घण्टा और शाम पन्द्रह मिनट घर के मन्दिर के सामने आँख मूँदकर पूजा-संध्या करते हैं।

सामान वापस लेते समय उन्हें पण्डे से खासी झिकझिक करनी पड़ी। यह अच्छा था कि पण्डा बूढ़ा था और उनका सामान टाट पर एक कोने पर रखा हुआ था। जब वह थैले से कपड़े निकाल रहे थे बूढ़े पण्डॆ ने कहा, “जजमान, जजमानी देकर सामन लीजिएगा।”

“भाग नहीं रहा.” दाँत कटकटाते हुए वह बोले। ठंड से वह लगातार काँप रहे थे। जब तक पण्डा उत्तर देता उन्होंने लपककर थैला उठाया, उससे पर्स निकालकर पाँच रुपए पण्डे की ओर उछाले और तेजी से आगे बढ़ गये। बूढ़ा पण्डा चीखता रहा, “जजमान, पचास रुपए—” लेकिन अमर बहादुर सिंह आगे बढ़ गये।

“जजमान, बीस ही दे जा।” बूढ़ा पण्डा कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और चीखा, लेकिन अमर बहादुर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। स्नानार्थी दोनों की ओर देख रहे थे। अमर बहादुर सिंह किसी चोर की भाँति तेजी से पण्डे की नज़रों से ओझल हो जाना चाहते थे। कुछ दूर जाकर एक पेड़ की ओट में उन्होंने कपड़े बदले, लेकिन कच्छा गीला ही रहने दिया।

गंगाघाट से निकलते ही गंगा स्नान के पुण्य की बात भूलकर वह बेटी नन्दिनी और तुषार के बारे में सोचने लगे।  

नन्दिनी ससुराल से झगड़कर मायके आयी थी। शादी के बाद से ही वह चाहती थी कि पति अपने माँ-पिता से अलग दिल्ली या नोएडा में किराए का मकान लेकर रहे। पति विशाल अपने बुजुर्ग मां-पिता को छोड़ना नहीं चाहता। झगड़े का यही कारण था। नन्दिनी नोएडा में रहने वाली अपनी चचेरी बहनों की तरह उन्मुक्त जीवन जीना चाहती, जो गृहणियाँ थीं लेकिन उनके यहाँ साफ़-सफ़ाई से लेकर खाना बनाने के लिए मेड लगी हुई थीं। वे जहाँ चाहतीं पति को बिना बताए घूमने जातीं, जबकि सास-ससुर के साथ रहने के कारण नन्दिनी वैसा नहीं कर पा रही थी। अमर बहादुर सिंह और नन्दिनी की माँ ने भी उसे सास-ससुर से अलग रहने की सीख दी थ।  

उस दिन पति से झगड़ने के बाद उसने पिता को फोन किया। सुनकर अमर बहादुर सिंह बोले, “चिन्ता न कर नन्दिनी। तू तुषार को लेकर दस मिनट के लिए फ्लैट से बाहर जा और मुझे बता कि तू बाहर आ गयी है। फिर देख मैं क्या तमाशा खड़ा करूँगा। तेरे सास-ससुर को नचा न दिया तो मेरा नाम....” नन्दिनी ने उनके सुझाव के अनुसार पार्क में जाकर उन्हें फोन किया और पाँ। मिनट बाद फ्लैट में वापस लौट गयी. उन्होंने उसके ससुर को फोन करके कहा, “कितने शर्म की बात है कि आपने मेरी बेटी को घर से निकाल दिया है। वह बेटे के साथ सड़क पर बैठी हुई है।”

“वह तो घर में है।” नन्दिनी के ससुर ने कहा।

“आप लोगों ने नन्दिनी को सता रखा है. मैं कल ही उसे बुला लूँगा।” अमर बहादुर सिंह ने कहा और अगले दिन सुबह नोएडा में रहने वाला नन्दिनी की चचेरी बहन का पति उसे कानपुर ले जाने के लिए उसकी ससुराल पहुँच गया। नन्दिनी के उनके यहां पहुँचने के बाद उसके ससुर को भद्दी-सी गाली देते हुए उन्होंने कहा था, “नन्दिनी, विशाल नाक रगड़ता हुआ दौड़ा आएगा और तू अपनी शर्तों पर जाएगी। नहीं आता तब भी तुझे चिन्ता नहीं करना---तुषार हमारे लिए हुण्डी है।”

’खेल तो अब शुरू हुआ है।’ घण्टाघर से किदवईनगर के टेम्पो में बैठते ही वह फिर सोचने लगे. ’विशाल को तुषार के लिए आना ही होगा। यदि अधिक ही श्रवण कुमार बनेगा तब भुगतेगा। तलाक में इतनी मोटी रकम वसूलूँगा कि उसके बूड्ढे बाप का मकान बिक जाएगा. उस रकम से शहर के किसी पॉश इलाके में मकान खरीदूँगा और----अपना बुढ़ापा भी ठीक बीतेगा।’

बाकरगंज चौराहा के पास टेम्पो एक गड्ढे में इतनी तेजी से उछला कि वह बगल की सवारी पर गिरते बचे। विचार शृंखला टूट गयी। उन्हें लगा कि उन्हें तेज बुखार है। टेम्पो स्टैण्ड से घर की दस मिनट की दूरी तय करना कठिन हो गया। घर पहुँचते ही वह औंधे मुँह बिस्तर पर ढह गये. ज्वर तेज़ था। शाम तक हालत  और खराब हो गयी. नन्दिनी उन्हें रिजेन्सी अस्पताल ले गयी। सरसाम की स्थिति में रास्ते भर वह ’मेरी हुण्डी’, ’मेरी हुण्डी’ बुदबुदाते रहे थे।

वह सुबह साढ़े चार बजे घर से निकले। बाहर ठंडी हवा चल रही थी. सुबह देर से सोकर उठने के कारण उतनी सुबह बाहर ठंड का उन्हें अहसास नहीं था. दिन में गर्मी रहती और गर्मी का प्रभाव रात में भी घर के अंदर बना रहता। उन्होंने पैंट पर कमीज पहना हुआ था, जबकि ठंड पूरी बाँह का स्वेटर पहनने की मांग कर रही थी। सड़क पर रुककर उन्होंने एक मिनट सोचा. ’मुझे सूर्योदय से पहले सरसैया घाट पहुँचना है। गंगा स्नान का पुण्य सूर्योदय से पहले स्नान कर लेने से होता है। ट्रंक में बंद स्वेटर निकालने में समय नष्ट करना सही नहीं। उजाला होते ही ठंड कम हो जाएगी. अभी इतना भी बूढ़ा नहीं हुआ- नौकरी से अवकाश ग्रहण किए छः साल ही हुए हैं।’ उन्होंने टैंपो स्टैण्ड की ओर क़दम बढा दिए।  

उनके ब्लॉक के बाद एक और ब्लॉक है, उसके बाद मुख्य सड़क जो बाईपास की ओर से रेलवे स्टेशन की ओर जाती है. उनके ब्लॉक के बगल के ब्लॉक और बाई पास की ओर से आ रही सड़क के बीच कुछ फल और सब्ज़ीवाले दोपहर के बाद अपनी दुकानें लगाते. उस समय वहाँ कुछ खाली रेहड़ियाँ खड़ी थीं और दुकानों की जगह पर कुछ कुत्ते टाँगें सिकोड़े सो रहे थे. पास ही कूड़े का ढेर था, जिसमें दो कुत्ते और एक सुअर मुँह मार रहे थे। बाई पास की ओर से आ रही सड़क पर कुछ लोग तेजी से टैम्पो स्टैण्ड की ओर जाते दिखाई दिए, जिनमें महिलाएँ और छोटे बच्चे भी थे। स्टैंड पर दो टेम्पो में सवारियाँ आलू की बोरियों की तरह ठुँसी हुई दिखीं।

’सभी को सरसैया घाट पहुँचने की जल्दी है।’ सड़क पार करते हुए उन्होंने सोचा। तभी हवा का तेज़ झोंका आया और उन्हें लगा कि हवा कमीज़ के भीतर घुसकर बनियाइन के नीचे उनकी छाती सहला गयी है। वह सिहर उठे। ’बेटी नन्दिनी ने कल कहा था कि वह स्वेटर निकालकर धूप में डाल देती है, लेकिन उन्होंने ही मना कर दिया था।’

“नन्दिनी, इतनी सर्दी नहीं है अभी। हाँ, तुम तुषार के गर्म कपड़े अवश्य निकाल लो।”

“पापा, जब दिल्ली से यहाँ आयी तुषार आठ महीने का था। अब वह डेढ़ साल का होने वाला है. उसके पहले के गर्म कपड़े छोटे हो गए हैं। मैंने उसके लिए नए खरीद लिए हैं।”

जब वह स्टैण्ड पर पहुंचे एक साथ तीन टेम्पो वहां आकर रुके। एक बाई पास की ओर से आया, जिसमें पाँच सवारियाँ थीं, जबकि दो स्टेशन की ओर से आए। वे खाली थे। वहाँ खड़ी सभी सवारियाँ तीनों में ठुँस गयीं। वह भी किसी प्रकार जगह बनाकर एक टैम्पो में किनारे की सीट पर बैठने में सफल रहे। स्टेशन की ओर दौड़ते टेम्पो में उस सीट में उन्हें सीधे हवा का सामना करना पड़ रहा था। बार-बार उनका हाथ शर्ट की ऊपर की बटन पर जा टिकता. वह बंद थी। केवल कॉलर की बटन खुली हुई थी। उन्होंने उसे बंद करने का प्रयास किया, लेकिन उसका काज इतना सख़्त था और टेम्पो की रफ़्तार इतनी तेज़ कि ऊबड़-खाबड़ सड़क पर उसके उछलने के कारण कॉलर की बटन बंद करने के उनके प्रयास असफल होते रहे। जूट मिल चौराहे के पास उन्होंने घड़ी देखा। पाँच बजे थे। ‘आध घण्टा और लगेगा’ उन्होंने सोचा। ‘अधिक से अधिक पैंतालीस मिनट।’

लेकिन घण्टाघर में लोगों का हुजूम था. गाँवों से आए लोगों का हुजूम। ’गंगा स्नान के लिए शहर के साथ पूरा देहात ही उमड़ आया है।’ वह चिन्ता में डूब गए, ’अब?’

’पैदल लगभग चार किलोमीटर है। टेम्पो केवल बड़ा चौराहा तक ले जाएगा, वहाँ से दूसरी सवारी लेना होगा। वैसे भी इस भीड़ में सवारी ले पाना संभव नहीं।’ उनका दिमाग़ तेजी से चल रहा था। ’जितनी देर सवारियों के बारे में सोचूँगा उतनी देर में पैदल पहुँच जाऊँगा। पैसे भी बचेंगे और पैदल चलने से शरीर को गर्माहट भी मिलेगी।’ वह तेजी से मूलगंज चौराहा की ओर बढ़ने लगे। ’उम्मीद है कि मूलगंज चौराहे पर कोई सवारी मिल जाएगी।’

मूलगंज में उन्हें एक खाली रिक्शा दिखा. सरसैया घाट तक के उसने जितने पैसे माँगे वह  देने को तैयार नहीं थे।  

“बाबूजी, मैं बड़ा चौराहा तक जाता हूँ। आपने कहा तो घाट तक जाने के लिए तैयार हो गया। पैसे तो इतने ही लगेंगे।

“बड़ा चौराहा तक के कितने लेते हो?” उन्होंने हुज्जत की।

“पूरा रिक्शा बीस रुपए। वहाँ से घाट दूर है साहब। मैंने चालीस रुपए ग़लत नहीं माँगे”

“पचीस ले लो और सीधे चल दो।” एक प्रकार से आदेशात्मक स्वर में वह बोले। उन्होंने घड़ी देखा। ’यदि बीस मिनट में नहीं पहुँचा तब देर हो जाएगी। गंगा स्नान का पुण्य नहीं मिलेगा।’

“बाबू जी, न होई. आप दूसरी सवारी लै लें।” गद्दी पर बैठा चलने को तैयार रिक्शावाला नीचे उतरकर खड़ा हो गया।

’कैसा आदमी है! पचीस दे रहा हूँ और यह नखरे पाद रहा है। आज कार्तिक पूर्णिमा है इसलिए यह इतना भाव खा रहा है।’ वह सोचते रहे, ’इसे मालूम नहीं कि किस व्यक्ति को बैठाया हुआ है। बनिया भी अमर बहादुर सिंह के मोलभाव से पानी भरने लगते हैं और खिसियाकर कह देते हैं कि बाबूजी सामान ऎसे ही ले जाइए। लेकिन मैं ऎसे ही नहीं लाता, उतने पैसे देकर लाता हूँ जो मैं उन्हें देना चाहता हूँ। लेकिन यह समय हुज्जत का समय नहीं है।’

“आप कहें तो एक और सवारी बैठा लूँ।” रिक्शावाले की आवाज़ से उनकी सोच टूटी।

“बैठा लो. लेकिन जल्दी करो।”

“सवारी मिलने पर ही न बैठाऊँगा और ज़रूरी नहीं कि वह घाट तक की ही मिले। बड़ा चौराह तक की आसानी से मिल सकती है। वहाँ से घाट की मिल जाएगी।”

अमर बहादुर सिंह ने एक क्षण सोचा, घड़ी देखा, घड़ी पाँच मिनट आगे खिसक चुकी थी।

“भाई, तुम तीस ले लेना, अब चलो भी।”

तीस सुनते ही रिक्शावाला उछलकर गद्दी पर बैठा और तेजी से पैडल मारने लगा।

रिक्शा से उतरकर दौड़ते हुए वह गंगा तट पर पहुँचे। स्नान करने के बाद पहनने के लिए पायजामा-कुर्ता एक थैले में लाए थे। थैला कहाँ रखें एक क्षण के लिए सोचा, ’मैंने नन्दिनी की अम्मा को इसीलिए कहा था कि साथ चलें, लेकिन उन्हें घर के काम से फ़ुरसत नहीं। रात बारह बजे तक काम करती रहती हैं। मेरे घर से निकलने से पहले जाग गयी थीं और मेरे लिए चाय बनाने के लिए किचन में थीं। लेकिन चाय पीने का समय नहीं था। वह आ जाती तो गंगा स्नान का पुण्य उन्हें भी मिलता और ताजी हवा का आनन्द भी।’ थैला और जूते वह किसी पण्डॆ के पास नहीं रखना चाहते थे। ’पण्डॆ के पास रखने का मतलब उसे कम से दस-बीस रुपए देना, लेकिन यूँ ही रखकर गंगा में डुबकी लगाने जाना भी सही नहीं। डुबकी लगाते ही कोई सामान पार कर देगा तब!’ वह खड़े यह सोच ही रहे थे कि एक पण्डे ने उन्हें सामान रखने के लिए बुलाया। उसके पास जाकर पूछा, “कितने लोगे?”

“जजमान आपसे क्या मोलभाव, जो मर्जी हो दे देना। आप हमारे पुराने जजमान हैं आपके पिताजी भी मेरे यहां ही सामान रखा करते थे।” प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठा बूढ़ा पण्डा बोला. पण्डे के झूठ पर वह मन ही मन हंसे, ’मैंने कभी इसके पास कुछ भी नहीं रखा, और मेरे पिताजी-वह गाँव में पैदा हुए, गाँव में ही मरे-’ क्षणभर के लिए उन्होंने सोचा, ’मर्ज़ी से देने के लिए कह रहा है।’ उन्होंने पूरब की ओर देखा, ’लाली फूट चुकी है। पाँच मिनट से भी कम समय में सूरज की किरणें गंगा में मेरी जगह डुबकी लगाने लगेंगी।’ उन्होंने थैला और जूते पण्डे के नीचे बिछे टाट पर रखा और ’पाँच रुपए दे दूँगा. उससे अधिक नहीं।’ उन्हें पैसों की चिन्ता हुई, जो थैले में उन्होंने कपड़ों के नीचे दबाकर रख दिए थे। ’पण्डे सामान की हेराफेरी नहीं करते. एक बार बदनाम हुए कि उनका धंधा चौपट हो जाएगा।’ तेजी से घाट की सीढियाँ  उतरकर पहने हुए कपड़ों में ही वह गंगा में उतर गए। पानी छाती तक था—बहुत ठंडा. शरीर पहले ही टेम्पो और रिक्शा में आते हुए ठंड से अकड़ा हुआ था, लेकिन गंगा स्नान का पुण्य उन्हें डुबकी लगाने और हाथ से पानी उलीचकर स्नान करने के लिए उत्साहित करता रहा।

स्नान करते समय वह लगातार वह श्लोक बुदबुदाते रहे जिसे उन्होंने दसवीं की परीक्षा के समय याद किया था-

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं,
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्.
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्,
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्.

हर दिन सुबह स्नान के समय वह इस श्लोक को बोलते हुए स्नान करते हैं। उसके बाद घर के मन्दिर के सामने चटाई पर बैठकर कुछ देर पूजा करते हैं। नौकरी में थे तब दस मिनट में पूजा समाप्त हो जाती थी, लेकिन अवकाश ग्रहण करने के बाद सुबह आध घण्टा और शाम पन्द्रह मिनट घर के मन्दिर के सामने आँख मूँदकर पूजा-संध्या करते हैं।

सामान वापस लेते समय उन्हें पण्डे से खासी झिकझिक करनी पड़ी। यह अच्छा था कि पण्डा बूढ़ा था और उनका सामान टाट पर एक कोने पर रखा हुआ था। जब वह थैले से कपड़े निकाल रहे थे बूढ़े पण्डॆ ने कहा, “जजमान, जजमानी देकर सामन लीजिएगा।”

“भाग नहीं रहा.” दाँत कटकटाते हुए वह बोले। ठंड से वह लगातार काँप रहे थे। जब तक पण्डा उत्तर देता उन्होंने लपककर थैला उठाया, उससे पर्स निकालकर पाँच रुपए पण्डे की ओर उछाले और तेजी से आगे बढ़ गये। बूढ़ा पण्डा चीखता रहा, “जजमान, पचास रुपए—” लेकिन अमर बहादुर सिंह आगे बढ़ गये।

“जजमान, बीस ही दे जा।” बूढ़ा पण्डा कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और चीखा, लेकिन अमर बहादुर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। स्नानार्थी दोनों की ओर देख रहे थे। अमर बहादुर सिंह किसी चोर की भाँति तेजी से पण्डे की नज़रों से ओझल हो जाना चाहते थे। कुछ दूर जाकर एक पेड़ की ओट में उन्होंने कपड़े बदले, लेकिन कच्छा गीला ही रहने दिया।

गंगाघाट से निकलते ही गंगा स्नान के पुण्य की बात भूलकर वह बेटी नन्दिनी और तुषार के बारे में सोचने लगे।  

नन्दिनी ससुराल से झगड़कर मायके आयी थी। शादी के बाद से ही वह चाहती थी कि पति अपने माँ-पिता से अलग दिल्ली या नोएडा में किराए का मकान लेकर रहे। पति विशाल अपने बुजुर्ग मां-पिता को छोड़ना नहीं चाहता। झगड़े का यही कारण था। नन्दिनी नोएडा में रहने वाली अपनी चचेरी बहनों की तरह उन्मुक्त जीवन जीना चाहती, जो गृहणियाँ थीं लेकिन उनके यहाँ साफ़-सफ़ाई से लेकर खाना बनाने के लिए मेड लगी हुई थीं। वे जहाँ चाहतीं पति को बिना बताए घूमने जातीं, जबकि सास-ससुर के साथ रहने के कारण नन्दिनी वैसा नहीं कर पा रही थी। अमर बहादुर सिंह और नन्दिनी की माँ ने भी उसे सास-ससुर से अलग रहने की सीख दी थी।  

उस दिन पति से झगड़ने के बाद उसने पिता को फोन किया। सुनकर अमर बहादुर सिंह बोले, “चिन्ता न कर नन्दिनी। तू तुषार को लेकर दस मिनट के लिए फ्लैट से बाहर जा और मुझे बता कि तू बाहर आ गयी है। फिर देख मैं क्या तमाशा खड़ा करूँगा। तेरे सास-ससुर को नचा न दिया तो मेरा नाम....” नन्दिनी ने उनके सुझाव के अनुसार पार्क में जाकर उन्हें फोन किया और पाँ। मिनट बाद फ्लैट में वापस लौट गयी। उन्होंने उसके ससुर को फोन करके कहा, “कितने शर्म की बात है कि आपने मेरी बेटी को घर से निकाल दिया है। वह बेटे के साथ सड़क पर बैठी हुई है।”

"वह तो घर में है।” नन्दिनी के ससुर ने कहा।

“आप लोगों ने नन्दिनी को सता रखा है. मैं कल ही उसे बुला लूँगा।” अमर बहादुर सिंह ने कहा और अगले दिन सुबह नोएडा में रहने वाला नन्दिनी की चचेरी बहन का पति उसे कानपुर ले जाने के लिए उसकी ससुराल पहुँच गया। नन्दिनी के उनके यहां पहुँचने के बाद उसके ससुर को भद्दी-सी गाली देते हुए उन्होंने कहा था, “नन्दिनी, विशाल नाक रगड़ता हुआ दौड़ा आएगा और तू अपनी शर्तों पर जाएगी। नहीं आता तब भी तुझे चिन्ता नहीं करना---तुषार हमारे लिए हुण्डी है।”

’खेल तो अब शुरू हुआ है।’ घण्टाघर से किदवईनगर के टेम्पो में बैठते ही वह फिर सोचने लगे. ’विशाल को तुषार के लिए आना ही होगा। यदि अधिक ही श्रवण कुमार बनेगा तब भुगतेगा। तलाक में इतनी मोटी रकम वसूलूँगा कि उसके बूड्ढे बाप का मकान बिक जाएगा. उस रकम से शहर के किसी पॉश इलाके में मकान खरीदूँगा और----अपना बुढ़ापा भी ठीक बीतेगा।’

बाकरगंज चौराहा के पास टेम्पो एक गड्ढे में इतनी तेजी से उछला कि वह बगल की सवारी पर गिरते बचे। विचार शृंखला टूट गयी। उन्हें लगा कि उन्हें तेज बुखार है। टेम्पो स्टैण्ड से घर की दस मिनट की दूरी तय करना कठिन हो गया। घर पहुँचते ही वह औंधे मुँह बिस्तर पर ढह गये. ज्वर तेज़ था। शाम तक हालत  और खराब हो गयी. नन्दिनी उन्हें रिजेन्सी अस्पताल ले गयी। सरसाम की स्थिति में रास्ते भर वह ’मेरी हुण्डी’, ’मेरी हुण्डी’ बुदबुदाते रहे थे।

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शशि श्रीवास्तव

12 July 2024

धार्मिक पाखड व इंसानियत के विरोधाभास को दर्शाती एक सशक्त कहानी

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रचनाकार परिचय

रूप सिंह चंदेल

ईमेल : rupchandel@gmail.com

निवास : धारूहेड़ा (हरियाणा)

जन्म- 12 मार्च,1951
जन्मस्थान- कानपुर, उत्तर प्रदेश के गांव नौगवां (गौतम) में।
शिक्षा- कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में पी-एच.डी.।
प्रकाशित पुस्तकें- अब तक 78 पुस्तकें प्रकाशित—जिनमें 19 उपन्यास, 19 कहानी संग्रह, 4 संस्मरण
पुस्तकें, 3 किशोर उपन्यास, 10 बाल कहानी संग्रह, 3 आलोचना पुस्तकें, 3 साहित्यिक आलेखों की  पुस्तकें, 2 यात्रा-संस्मरण, 2 लघुकथा संग्रह, लेखकों के साक्षात्कार, डायरी, पत्रों की पुस्तक (समय की लकीरें), 5 सम्दापित पुस्तकों के अतिरिक्त - दॉस्तोएव्की की शोधपूर्ण जीवनी-’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’, तथा 3 अनूदित पुस्तकें -- लियो तोलस्तोय के अंतिम उपन्यास –हाजी मुराद’, तोल्स्तोय पर उनके परिजनों, मित्रों, लेखकों, रंगकर्मियों आदि के 30 संस्मरणों का अनुवाद- तोलस्तोय का अंतरंग संसार और हेनरी त्रोयत लिखित तोलस्तोय की जीवनी तोलस्तोय’(656 पृष्ठ) का अनुवाद।

प्रकाश्य–1.’सफ़र अधूरा’ (आत्मकथा-दो भाग), 2. पांसा (उपन्यास), 3. ’वफ़ा साहब’ (कहानी संग्रह). 4. पुरुष विमर्श की कहानियां (कहानी संग्रह)  

विशेष- 

  1. ’रूपसिंह चन्देल का साहित्यिक मूल्यांकन’ – सम्पा. डॉ. माधव सक्सेनाअरविन्द
  2. ’कथाकार रूपसिंह चन्देल:व्यक्तित्व,विचार और कृतित्व’ : सम्पा. माधव नागदा।
  3. ‘रूपसिंह चन्देल के उपन्यास : एक दृष्टि’ – सम्पा. शशि काण्डपाल
  4. रूपसिंह चन्देल की कहानियों में जनचेतना और मानवीय संवेदना- सम्पा. डॉ.पंकज साहा
  5. रूपसिंह चन्देल के उपन्यासों में संवेदना और यथार्थ – सम्पा. डॉ. राहुल
  6. 25 छात्रों द्वारा पी-एच.डी./एम.फिल.
  7. ’रूपसिंह चन्देल का साहित्यिक मूल्यांकन’ – सम्पा. डॉ. माधव सक्सेनाअरविन्द
  8. ’कथाकार रूपसिंह चन्देल:व्यक्तित्व,विचार और कृतित्व’ : सम्पा. माधव नागदा।
  9. ‘रूपसिंह चन्देल के उपन्यास : एक दृष्टि’ – सम्पा. शशि काण्डपाल
  10. रूपसिंह चन्देल की कहानियों में जनचेतना और मानवीय संवेदना- सम्पा. डॉ.पंकज साहा
  11. रूपसिंह चन्देल के उपन्यासों में संवेदना और यथार्थ – सम्पा. डॉ. राहुल
  12. 25 छात्रों द्वारा पी-एच.डी./एम.फिल.

रचनाओं के अनुवाद :10 उपन्यासों के मराठी भाषा में अनुवाद; ’कानपुर टु कालापानी’, और ’खुदीराम बोस’ के कन्नड़ भाषा में अनुवाद; ‘क्रान्तिदूत अजीमुल्ला खां’ (किशोर उपन्यास) का पंजाबी अनुवाद। कहानियों के अनुवाद : पंजाबी,गुजराती,मराठी, कन्नड़ और अंग्रेजी भाषाऒ में प्रकाशित।

पुरस्कार/सम्मान- 1. साहित्य भूषण पुरस्कार (2021) उ.प्र.हिन्दी संस्थान; 2. ‘वी.एम.तेरेखोव स्मृति सम्मान-2022 और 2023 (रूस); 3. आचार्य निरंजननाथ सम्मान,राजस्थान (2013); 4. साहित्य भूषण सम्मान-2023 (बीपीए फाउण्डेशन एवं इंडिया नेटबुक्स)  5.. हिन्दी अकादमी दिल्ली के साहित्यिक कृति पुरस्कार (कहानी संग्रहों के लिए 1990 एवं. 2000 तथा बाल कहानी संग्रह के लिए– 1990);   और 6. साहित्यिक कृति पुरस्कार (क्रान्तिदूत अजीमुल्ला खां), उ.प्र.हिन्दी संस्थान (1994).

प्रकाशित पुस्तकें- अब तक 78 पुस्तकें प्रकाशित—जिनमें 19 उपन्यास, 19 कहानी संग्रह, 4 संस्मरण

पुस्तकें, 3 किशोर उपन्यास, 10 बाल कहानी संग्रह, 3 आलोचना पुस्तकें, 3 साहित्यिक आलेखों की  पुस्तकें, 2 यात्रा-संस्मरण, 2 लघुकथा संग्रह, लेखकों के साक्षात्कार, डायरी, पत्रों की पुस्तक (समय की लकीरें), 5 सम्दापित पुस्तकों के अतिरिक्त - दॉस्तोएव्की की शोधपूर्ण जीवनी-’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’, तथा 3 अनूदित पुस्तकें -- लियो तोलस्तोय के अंतिम उपन्यास –हाजी मुराद’, तोल्स्तोय पर उनके परिजनों, मित्रों, लेखकों, रंगकर्मियों आदि के 30 संस्मरणों का अनुवाद- तोलस्तोय का अंतरंग संसार और हेनरी त्रोयत लिखित तोलस्तोय की जीवनी तोलस्तोय’(656 पृष्ठ) का अनुवाद।

प्रकाश्य–1.’सफ़र अधूरा’ (आत्मकथा-दो भाग), 2. पांसा (उपन्यास), 3. ’वफ़ा साहब’ (कहानी संग्रह).              

  1. पुरुष विमर्श की कहानियां (कहानी संग्रह)  

विशेष- 1. ’रूपसिंह चन्देल का साहित्यिक मूल्यांकन’ – सम्पा. डॉ. माधव सक्सेनाअरविन्द

  1. ’कथाकार रूपसिंह चन्देल:व्यक्तित्व,विचार और कृतित्व’ : सम्पा. माधव नागदा।
  2. ‘रूपसिंह चन्देल के उपन्यास : एक दृष्टि’ – सम्पा. शशि काण्डपाल
  3. रूपसिंह चन्देल की कहानियों में जनचेतना और मानवीय संवेदना- सम्पा. डॉ.पंकज साहा
  4. रूपसिंह चन्देल के उपन्यासों में संवेदना और यथार्थ – सम्पा. डॉ. राहुल
  5. 25 छात्रों द्वारा पी-एच.डी./एम.फिल.

रचनाओं के अनुवाद- 10 उपन्यासों के मराठी भाषा में अनुवाद; ’कानपुर टु कालापानी’, और ’खुदीराम बोस’ के कन्नड़ भाषा में अनुवाद; ‘क्रान्तिदूत अजीमुल्ला खां’ (किशोर उपन्यास) का पंजाबी अनुवाद। कहानियों के अनुवाद : पंजाबी,गुजराती,मराठी, कन्नड़ और अंग्रेजी भाषाऒ में प्रकाशित।
पुरस्कार/सम्मान-  1. साहित्य भूषण पुरस्कार (2021) उ.प्र.हिन्दी संस्थान; 2. ‘वी.एम.तेरेखोव स्मृति सम्मान-2022 और 2023 (रूस); 3. आचार्य निरंजननाथ सम्मान,राजस्थान (2013); 4. साहित्य भूषण सम्मान-2023 (बीपीए फाउण्डेशन एवं इंडिया नेटबुक्स)  5.. हिन्दी अकादमी दिल्ली के साहित्यिक कृति पुरस्कार (कहानी संग्रहों के लिए 1990 एवं. 2000 तथा बाल कहानी संग्रह के लिए– 1990);   और 6. साहित्यिक कृति पुरस्कार (क्रान्तिदूत अजीमुल्ला खां), उ.प्र.हिन्दी संस्थान (1994).
सम्पर्क- फ्लैट नं. 705, टॉवर-8, विपुल गार्डेन्स, धारूहेड़ा-123106 (हरियाणा)।
मोबाइल- 8059948233