Ira
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। दिसंबर 2024 के अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

झरने की तरह फूटते संवेदना के गीत: जलता रहे दीया- रीता त्रिवेदी

झरने की तरह फूटते संवेदना के गीत: जलता रहे दीया- रीता त्रिवेदी

जीवन-जगत और परिवेश के अनेक रंगों में रँगे हुए इस संग्रह में कविता, गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, हास्य-व्यंग्य और बालगीत समाहित हैं। कवि की अनुभूतियों का संसार विस्तृत है, जिसमें एक ओर वैयक्तिक राग-अनुराग के स्वर हैं तो दूसरी ओर सामाजिक, सांस्कृतिक अनुषंग भी है। उनके गीतों में प्रकृति के लोक-रंग हैं तो ऋतु, पर्व, उत्सव और लोकजीवन के विविध क्षेत्रों का रसमय जीवन भी चित्रित हुआ है। संग्रह की कोई भी कविता सायास प्रतीत नहीं होती, वे तो झरने की तरह चट्टान तोड़कर निकली हुई प्रतीत होती हैं।

कविता मनुष्य की स्वाभाविक एवं सहज वृत्ति है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक यह मानव जन-जीवन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रही है। इसी सहज या स्वाभाविक वृत्ति को कवि राकेश शुक्ल ने अपने कविता संग्रह जलता रहे दीया में व्यक्त किया है। उनकी कविताएँ सहजात हैं, जो हमारे हृदय को आलोड़ित करने के साथ संवेदनशील बनाती हैं।

जीवन-जगत और परिवेश के अनेक रंगों में रँगे हुए इस संग्रह में कविता, गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, हास्य-व्यंग्य और बालगीत समाहित हैं। कवि की अनुभूतियों का संसार विस्तृत है, जिसमें एक ओर वैयक्तिक राग-अनुराग के स्वर हैं तो दूसरी ओर सामाजिक, सांस्कृतिक अनुषंग भी है। उनके गीतों में प्रकृति के लोक-रंग हैं तो ऋतु, पर्व, उत्सव और लोकजीवन के विविध क्षेत्रों का रसमय जीवन भी चित्रित हुआ है। संग्रह की कोई भी कविता सायास प्रतीत नहीं होती, वे तो झरने की तरह चट्टान तोड़कर निकली हुई प्रतीत होती हैं।

रचनाकार की अंतर्दृष्टि में मानवीय मूल्यों, जीवनानुभवों के साथ जो सामाजिक दायित्व का बोध है, वह उनकी कविता को संदेशप्रद बनाता है। संग्रह की पहली कविता 'जीवन मूल्य' में हमारे जीवन की अर्थवत्ता को कुछ इस प्रकार रेखांकित किया गया है-

जीवन
कागज का एक टुकड़ा है
जिस पर छपी है कोई आकृति
पड़े हैं कुछ नंबर
और लिखा है कोई मूल्य,
लिखी है कोई यह इबारत
"मैं धारक को इतने रुपये अदा करने का वचन देता हूँ।"
(यह धारक शायद आत्मा है)

कवि का आशय है कि जैविक दृष्टि से सृष्टि के सभी मनुष्य एक समान हैं। बावजूद उनके बीच घोर असमानता है। किसी का जीवन पाँच रुपये के नोट तो किसी का पाँच सौ के बराबर है तो किसी का जीवन सिर्फ़ एक रद्दी काग़ज़ का टुकड़ा।

मूल्यों से गुज़रते हुए कवि अपने समय से भी संवाद करना चाहता है। 'सार्थक समय' कविता में समय की सार्थकता पर विचार करते हुए कवि अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि इस भागदौड़, उपभोग और चकाचौंध की कृत्रिम दुनिया में बच्चों और प्रकृति के सान्निध्य के पल कदाचित अधिक सार्थक हैं।

समय सार्थक लगता है
छोटे बच्चों के साथ
खेलने में, खाने में
गाने-गुनगुनाने में

सुबह-सुबह ताज़े खिले
फूलों को देखने में
तितलियों को छेड़ने में
गेरुए बादलों के छौनों को आसमान पर
दूर तक दौड़ते देखने में।

कवि ने प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण पर अनेक कविताएँ लिखी हैं। उनका मानना है कि विश्व की किसी भी संस्कृति का विकास प्रकृति के सान्निध्य में ही हुआ है और मनुष्य-जीवन का अस्तित्व अकेले नहीं, समस्त प्राणि-जगत के साथ है। ये कविताएँ एक बड़ा प्रश्न छोड़ती हैं कि विकास का रास्ता प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्येतर जीव-जगत के विनाश की ओर क्यों जाता है? क्या यह नहीं हो सकता कि विकास भी हो और इन सबका संरक्षण भी। 'विकास', 'देवनदी' और 'अन्न' आदि ऐसी ही कविताएँ हैं। 'विकास' सीमित शब्दों में आबद्ध मंत्र शैली की कविता है, जिसका प्रभाव व्यापक है।

सारे पहाड़
बिछ गए सड़कों पर
सारी नदियाँ
पेय जल
सारे जंगल
फ़र्नीचर
सारी हवा
चिमनी का धुँआ
सारी पृथ्वी
बारूद का ढेर
सारा अंतरिक्ष
युद्ध का मैदान
और
सारे आदमी
रोबोट

राकेश शुक्ल की छोटी कविताओं में जितना अभिव्यक्त है, उससे अधिक अनभिव्यक्त रह जाता है, जिसे हम लक्ष्य कर लेते हैं। उनके चिंतन की भूमि ऊँची एवं विस्तृत है। 'तलाश', 'सत्य', 'माँ की रोटियाँ', 'पेटेंट' और 'गृह उद्योग' आदि ऐसी ही कविताएँ हैं। 'माँ की रोटियाँ' में आधुनिक बोध और लोक संसिक्त का द्वंद्व है और यह चिंता भी कि कैसे हम अपने जातीय संस्कारों, लोकोत्सवों और आचार-विचारों से विरत होते जा रहे हैं। लोक संस्कृति से कटते जा रहे हैं।

नहीं भूल पाया हूँ
राग
उन गीतों का
जो कजरी में, आल्हा में
बिरहा में, चैता में
मेरे प्राणों को स्पंदित करता रहा
जिन्हें गाते रहे मेरे गाँव के लोग
और बजती रही खंजड़ी, सारंगी और नगाड़ा।

'अन्न', 'मेरा बेटा' और 'भूमंडलीकरण' दीर्घ वितान की कविताएँ हैं, जिनमें कवि की अनुभव समृद्धि, संवेदनशीलता और सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता के दर्शन होते हैं। 'अन्न' में 'जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन' की व्यंजना है। 'मेरा बेटा' में असहाय बुजुर्गों के एकाकी जीवन और बच्चों के सपनो की ऊँची उड़ान की विडम्बना को व्यक्त किया गया है तो 'भूमंडलीकरण' का व्यंग्य बहुत सार्थक है, जब कवि कहता है कि आज 'वसुधैव कुटुम्बकम' का स्थान 'भूमंडलीकरण', ने ले लिया है। इन दो शब्दों के भावों में कितना फ़र्क है।

संग्रह के गीतों पर विमर्श करें तो प्रेम, करुणा और सौंदर्य इनका मूल तत्त्व है पर रचनाकार ने अपने युग-सन्दर्भ और सामाजिकता की उपेक्षा नहीं की है, जिसके कारण इन गीतों में मूल्यवान संदेश भी है। दीपक कवि का प्रिय उपादान है, इसलिए उनके गीतों में दीपक अनेक रूपों में आया है। 'ज्ञान ज्योति का दीप', 'आओ मिलकर दीपावली मनाएँ', 'ज्योति दीप', 'जलता रहे दीया', 'जीवन-ज्योति', 'हर निशा पर रोशनी का राज हो' तथा 'पुष्प जैसे' आदि अनेक गीत या मुक्तक हैं, जिनमें दीप या ज्योति के माध्यम से मनुष्य-जीवन की सार्थकता को रेखांकित किया गया है। कवि का कहना है कि दीप और पुष्प; ये दो ऐसे प्रतीक हैं, जो नश्वरता में शाश्वतता का संदेश देते हैं। जिस प्रकार दीपक का जीवन थोड़े समय का होता है पर वह अपनी ज्योति से विस्तृत परिसर को उजाले से भर देता है। एक पुष्प अपने छोटे-से जीवन में विस्तृत परिसर को सौरभ से भर देता है, कुछ ऐसी भी भूमिका हमारे जीवन की भी होनी चाहिए। कवि के शब्दों में-

पुष्प जैसे मुस्कराते जाइए
सृष्टि को अपना बनाते जाइए
घिर रहा बेशक दिशाओं में अँधेरा
दीप जैसे जगमगाते जाइए।

'जीवन-ज्योति' गीत में कवि का विचार दर्शन कितना उदात्त है!

और किसी दिन हलके झोंके से
झप से चुप बुझ जाऊँगा
माटी का मैं दीप पुनः (बस)
माटी में ही मिल जाऊँगा

किन्तु रहूँगा जब तक, जिस
कोने में जगमग जला करूँगा
नश्वरता में भी जीवन की
शाश्वतता का पाठ पढूँगा।

राकेश जी के अनेक गीतों में प्रकृति के मनोरम चित्र हैं तो नीति, दर्शन और अध्यात्म के साथ ही कवि के अंर्तमन का सौंदर्य देखते ही बनता है।

'मधुमास', 'मनाली', 'वर्षा' और 'यात्रा' आदि गीतों में प्रकृति के सुंदर दृश्यालोक हैं और आंचलिक वैभव भी। प्रकृति के लोक रंगों में 'केसरी उबटन लगी फुलवारियाँ' हैं, 'कपासी पेड़-पौधे' हैं तो 'केश फैलाए श्यामल मेघ' हैं। मनाली के सौंदर्य पर अनेक गीत लिखे गए हैं पर इतना सुंदर गीत मुझे अन्यत्र नहीं दिखा। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

रात हिमपात में ढल गई
प्रात ओढ़े दुशाला खड़ी

रास्ते बर्फ़ की सिल्लियाँ
ये हवा चुभ रही कंकड़ी

पेड़-पौधे कपासी हुए
झील-झरने हुए दर्पणी।

कवि के गीतों में प्रेमाभिव्यक्ति के विविध आयाम हैं। अपने प्रणय को कवि ने छायावादी रहस्य-अवगुंठन और आध्यात्मिकता की अपेक्षा मानवीय धरातल प्रदान किया है, बावजूद कहीं-कहीं ये प्रेम सूफ़ियाना लगता है। कई गीतों में कवि की आत्मपरकता परमात्मपरकता की ओर उन्मुख है। प्रेम के स्पर्श से आत्मा का उच्च और उदात्त होना स्वाभाविक है। प्रेम जीवन को सौंदर्य से परिपूर्ण कर देता है। कवि के लिए प्रेम एक सरस संगीत है।

प्रेम सरस संगीत हृदय का
डूबा जिसकी मधुमय धुन
वे ख़ुद एक साहित्य-ग्रन्थ
जिसका करता अध्ययन, चिंतन
मधुर-मधुर कुछ उलझा-सुलझा
उनका यह जीवन-दर्शन
मैं उनका करता वंदन।

शीर्षक गीत 'जलता रहे दीया' में कवि का प्रेम कितना निर्मल, उज्ज्वल, उत्कर्षक और पवित्र है! वेदना या दुःख कवि के लिए जीवन-सत्य है और आँसू गंगा जल के समान-

अगर तुम्हारे अश्रु हमारे दुःख को सहलाएँ
तो मैं समझूँगा पावन गंगा स्नान किया

अगर तुम्हारा दर्द मुझे जीने को मिल जाए
तो मैं समझूँगा कि मैंने जीवन सही जिया

अगर तुम्हारा रूप हृदय में रच-बस जाए तो
भीड़ भरी दुनिया से मुझको लेना-देना क्या

ओट तुम्हारे आँचल की यदि मिल जाएगी तो
झंझावातों में भी मेरा जलता रहे दीया।

अनेक गीतों में सामाजिक, सांस्कृतिक सरोकारों के साथ मानवीय रागात्मक सम्बन्धों का निदर्शन भी हुआ है। बेटी पर लिखा गीत 'नन्ही परी' बहुत ही मार्मिक है। कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी के अनुसार, "इस गीत में बड़ी होती बेटी के प्रति एक पिता के मन मे ख़ुशी और करुणा- दोनों की झलक है। ख़ुशी इसलिए कि बेटी सयानी अर्थात समझदार होती जा रही है और करुणा इसलिए कि वह धीरे-धीरे पिता से कहीं न कहीं दूर भी होती जा रही है।

नन्हीं परी सयानी हो गई
मेरी बोली-बानी हो गई

पल-पल, क्षण-क्षण बढ़ते देखा
अक्षर-अक्षर पढ़ते देखा
हँसते देखा, रोते देखा
खिलते और मचलते देखा
गुड्डे- गुड़ियों वाली 'गुड़िया' ज्ञानी हो गई।

कवि, शाइर नहीं है, उसने बहुत कम ग़ज़लें कही हैं पर ये अच्छी बन पड़ी हैं। इश्क़ के साथ फ़लसफ़ानिगारी (दार्शनिकता) इनकी विशेषता है। 'आधा गिलास' के एक-दो शेर इस प्रकार हैं-

हरेक चाह पे कोइ न कोई बाधा है
सबके जीवन की ख़ुशी का गिलास आधा है

ख़ुदा ने भेजा है मेरे लिए यह भ्रम था
मैं क्या जानूं मुझे तरसाने का इरादा है

'मेरे शहर की सभ्यता' में कवि ने तथाकथित सभ्यता के सर्वव्यापी संकट को व्यक्त किया है। वह सभ्यता, जिसने मनुष्यता को ग्रस लिया है।

सभ्यता मेरे शहर में ऐसी आई है
अब पिता ने पुत्र को व्हिस्की पिलाई है

उनको मेरी झोपड़ी जलती दिखी जब तो
जेब से सिगरेट निकाली और जलाई है

संग्रह के मुक्तक 'गागर में सागर ' भरते हैं, जिसमें प्रणय अपनी पूरी गरिमा के साथ है।

दिल से निकल पड़ा
यूँ ही तुम पर एक छन्द
अन्यथा मत समझना
मेरे-तुम्हारे बीच
यह है प्यार का अनुबंध।

कवि ने अनेक बाल गीत भी लिखे हैं, जिनके माध्यम से वह बालकों और किशोरों में राष्ट्रीयता की भावना पैदा करना चाहता है।

कवि ने सामाजिक असंगतियों पर प्रहार की कविताएँ भी लिखी हैं। ऐसी अनेक व्यंग्य रचनाएँ पाठकों को जगाने का कार्य करती हैं। इन कविताओं में भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और ढोंगी राजनीतिज्ञों पर कटाक्ष किया गया है। 'होली' आदि कतिपय कविताएँ सहज हास की सुंदर कविताएँ हैं।

भाषा, लयात्मकता, छन्द विधान, नाद सौंदर्य और बिम्बधर्मिता आदि शैल्पिक उपकरणों की दृष्टि से भी ये कविताएँ/गीत उत्कृष्ट हैं। कहीं-कहीं शिल्प के नए प्रयोग हैं, तो बिम्बात्मक भाषा द्रष्टव्य है।

तुम!
शरद की धूप
कोमल दूब
कमल की पंखुरी

जलती दोपहर में
बूँद जल की
या कि बरगद की
सघन छाया।

कुछ गीतों में प्रकृति के सुरम्य चित्र मनोहारी हैं। 'मधुमास' की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

दूर तक छिटके छबीले घाम में
मद भरा उन्माद देखो शाम में
दूर गिरि, सरिता, कछारों, घाटियों में
उदधि, अम्बर में, धरा की माटियों में
जहाँ देखो मदन का साम्राज्य छाया
वाह, क्या मधुमास आया!

समग्रतः यह कृति समकालीन काव्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

 

 


समीक्ष्य कृति- जलता रहे दीया तथा अन्य कविताएँ
रचनाकार- राकेश शुक्ल
प्रकाशक- अमन प्रकाशन, कानपुर
मूल्य- रुपये 225/ मात्र

0 Total Review

Leave Your Review Here

रचनाकार परिचय

रीता त्रिवेदी

ईमेल : reetatrivedi1987@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तरप्रदेश)

जन्मतिथि- 15 अप्रैल, 1987
जन्मस्थान- कानपुर देहात (उत्तरप्रदेश)
लेखन विधा- समीक्षा
शिक्षा- एम०ए० (हिंदी), नेट (जे०आर०एफ०), पीएच. डी. (शोधरत)
सम्प्रति- राजकीय इंटर कॉलेज में अध्यापिका
प्रकाशन- अनेक आलेख, शोधपत्र प्रकाशित।
पता- एल०आई०जी०- 2046, आवास विकास नं०-3, कल्याणपुर, कानपुर (उत्तरप्रदेश)
मोबाइल- 8887738883