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बोल जमूरे! बोल के बहाने अपने समय की पड़ताल- डॉ० लवलेश दत्त

बोल जमूरे! बोल के बहाने अपने समय की पड़ताल- डॉ० लवलेश दत्त

पुस्तक में जनक छंद में निबद्ध छोटी-छोटी कविताएँ, जो कहीं कटाक्ष करती हैं, कहीं हमारी व्यवस्था पर प्रहार करती हैं, कहीं गुदगुदाती हैं तो कहीं आँखों को नम भी कर देती हैं।

उमेश महादोषी की पहचान एक गंभीर और संवेदनशील साहित्यकार के रूप में है। कई वर्ष पहले महादोषी जी से मेरा परिचय एक लघुकथाकार और संपादक के रूप में हुआ था। हम दोनों ही लघुकथाएँ लिखने के साथ-साथ लघु पत्रिकाओं का संपादन भी करते रहे हैं। शहर में आयोजित लघुकथा गोष्ठियों में अक्सर हमारी भेंट होती थी। उनकी पत्रिका 'अविराम साहित्यिकी' और मेरी पत्रिका 'अनुगुंजन' का आदान-प्रदान भी होता था। कई बार हम व्यक्तिगत रूप से भी मिले हैं। हर बार मैंने उनके अंदर एक व्याकुलता देखी है। एक उत्कृष्ट और विशद अध्ययन वाले साहित्यकार में गंभीरता होना स्वाभाविक है किन्तु व्याकुलता!! मैं उस समय उनकी व्याकुलता का कारण नहीं जान पाया। उनकी इस बेचैनी का कारण तब जान सका, जब उनकी पुस्तक बोल जमूरे! बोल... मेरे हाथों में आयी। पुस्तक में जनक छंद में निबद्ध छोटी-छोटी कविताएँ हैं, जो कहीं कटाक्ष करती हैं, कहीं हमारी व्यवस्था पर प्रहार करती हैं, कहीं गुदगुदाती हैं तो कहीं आँखों को नम भी कर देती हैं। सच तो यह है कि जनक छंद से मेरा परिचय महादोषी जी की पुस्तक से ही हुआ। इससे पहले मैं जनक छंद के बारे में नहीं जानता था। अब भी जनक छंद के शास्त्रीय पक्ष से मैं अनजान ही हूँ, अत: उस पर बात न करके, महादोषी जी की कविता में निहित विकलता को ही बताना चाहता हूँ, जिनसे महादोषी जी की जनपक्षधरता का परिचय मिलता है।

सच्ची कविता का स्वर जनधर्मी होता है। उसमें जनता की पीड़ा, त्रासद जीवन की विभीषिका, रोज़मर्रा की समस्याएँ, व्यवस्था पर चोट जैसे तमाम सत्य उभरकर आते हैं। ये वही सत्य हैं, जिनसे सच्चे कवि का मन सदैव बेचैन रहता है। एक कवि इसलिए भी बेचैन रहता है क्योंकि उसका संवेदी मन उसे अपने आसपास का सतत् निरीक्षण-परीक्षण करने को उकसाता रहता है। इसी कारण महादोषी जी की कविता अपने आसपास से निकलकर सामने आती है। वे स्वयं कहते हैं कि उनका मन जग की चिंता में डूबा हुआ है-

अपने चिन्तन में मना!
तिनका-तिनका भाव भर
जग की चिंता में सना।

परिस्थितियों के कारण यह जीवन नीरस प्रतीत होने लगा है। वे नीरस जीवन में रस घोलने की बात कहते हैं-

बोल जमूरे! बोल ना!
दिखला कोई खेल तू
जीवन में रस घोल ना!

जीवन के साथ समस्याएँ निरंतर खड़ी रहती हैं, उनसे जितना लड़ो, वे उतनी ही मुखर हो उठती हैं लेकिन ऐसे में हिम्मत न हारने वाले ही उन समस्याओं का सामना करते हैं। महादोषी जी समस्याओं को दुर्योधन सरीखा मान कर कहते हैं-

छल-धन-बल सब काम ले।
रे दुर्योधन! युद्ध कर
मैं फिर तेरे सामने।

वर्तमान में परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि लोग एक-दूसरे से तभी मिलते हैं जब उन्हें कोई काम होता है वरना लोग एक-दूसरे का हाल भी नहीं पूछते। सब अपने मनमौजी बने हुए हैं। इस पर व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं-

जब मैं हरि का ना हुआ।
तेरा कैसे हो सकूँ
मैं अपने मन का सुआ।

महादोषी जी ने अपने कई छंदों में सीख भी दी है। उन्होंने अहंकार को त्यागकर सादा जीवन जीने की बात कही है क्योंकि हम सबके सामने मृत्यु अपना जाल बिछाये बैठी है, पता नहीं कब कौन फँस जाए-

समझ रहा तू डाल पर।
बैठा है अभिमान से
नजर डाल तू जाल पर।

महादोषी जी ने अपने छंदों में बताया है कि सीमा पर दुश्मन से लड़ने के लिए तो सैनिक हैं लेकिन भीतरघातियों से तो हमें स्वयं ही लड़ना होगा-

सीमा पर सैनिक लड़ें।
घर में जो ग़द्दार हैं
उनसे तो हम ही लड़ें।

पूरी पुस्तक में कई ऐसी कविताएँ हैं, जो हमें आज के परिवेश से अवगत कराती हैं। अपनों के द्वारा किए जाने वाले छल, धोखे, संवादहीनता, अनैतिकता, दूसरे की सहायता न करने का भाव, स्वार्थसिद्धि की इच्छा, कुटिल नीति, राजनीतिक चालें, व्यवस्था विरोध आदि-आदि को नाना रूपों में महादोषी जी ने अपने इन छंदों में अभिव्यक्त किया है। महादोषी जी एक सजग, संवेदनशील और गंभीर साहित्यकार ही नहीं बल्कि सरलमन के व्यक्ति भी हैं। सादगीपूर्ण जीवनशैली आपकी पहचान है। इसीलिए आप दूसरों को दुख या परेशानी देने वालों को सचेत करते हुए कहते हैं-

सामाजिक संताप का।
जो तू कुछ कारण बने
भागी हो हरि-ताप का।

निर्दोषों की जान ले।
घूम रहा तू माफ़िया
राम निकट हैं, मान ले।

आज चमक-दमक वाले समय में महादोषी जैसे साहित्यकार बहुत कम दिखते हैं। वर्तमान समय में जबकि भाई, भाई का नहीं है, महादोषी जैसे कवि जग की चिंता करते हैं। उसकी पीड़ा को महसूस करते हैं और अपनी कविताओं में ढालते हैं। इसीलिए उनकी कविता पढ़ने में मन लगता है। वे हमें हमारे ही परिवेश से परिचित ही नहीं करवाते बल्कि हमें विचार/विमर्श करने का अवसर भी प्रदान करते हैं। महादोषी जी को उनके जनक छंद (कविता संग्रह) 'बोल जमूरे! बोल...' के लिए अनगिन शुभकामनाएँ। वे यूँ ही सतत् सृजन करते रहें।

 

 

समीक्ष्य पुस्तक: बोल जमूरे! बोल...
विधा: कविता (जनक छंद)
रचनाकार: उमेश महादोषी
प्रकाशक: लक्ष्मी पेपरबैक्स, दिल्ली
पृष्ठ: 60
मूल्य: 60/-

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रचनाकार परिचय

लवलेश दत्त

ईमेल : lovelesh.dutt@gmail.com

निवास : बरेली (उत्तरप्रदेश)

जन्मतिथि- 24 सितंबर, 1976
जन्मस्थान- बरेली (उत्तरप्रदेश)
संप्रति- सीबीएसई से सम्बद्ध एक सीनियर सेकेंडरी विद्यालय में प्रधानाचार्य, अनुकृति प्रकाशन के व्यवस्थापक एवं 'अनुगुंजन त्रैमासिक' पत्रिका के संपादक
लेखन विधाएँ- कहानी, ग़ज़ल, गीत, हाइकु, समीक्षा आदि
प्रकाशन/प्रसारण- भावत्रयी, तम्मन्ना (काव्य संग्रह), सपना, श्यामा, स्पर्श और हिस्से का सूरज (कहानी संग्रह), दर्द न जाने कोई (उपन्यास) एवं वर्णों का अनुनाद (हाइकु संग्रह)
आकाशवाणी बरेली-रामपुर तथा दूरदर्शन बरेली से साहित्यिक कार्यक्रम प्रसारित
संपादन- कहानी प्रसंग, समकालीन ग़ज़ल और विनय मिश्र तथा डॉ० मिथिलेश दीक्षित के साहित्य में मूल्य बोध
संपर्क- शिवछाँह, 165 ब, बुखारपुरा, पुराना शहर, बरेली (उ०प्र०)- 243005
मोबाइल- 9412345679