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मानवीय संवेदना एवं जिजीविषा का आईना : मुस्तरी बेगम- डॉ० पंकज साहा

मानवीय संवेदना एवं जिजीविषा का आईना : मुस्तरी बेगम- डॉ० पंकज साहा

मुस्तरी बेगम शशि कांडपाल जी का पहला कहानी संग्रह है, जिसमें चौदह कहानियाँ हैं। इस संग्रह में लेखिका ने 'अपनी बात' कहने की परंपरा से स्वयं को मुक्त कर लिया है। शायद उन्हें लगता होगा कि अपनी बात तो उनकी कहानियों में ही है या 'बात बोलेगी मैं नहीं' के तर्ज पर उन्होंने सोचा होगा कि जब कहानियाँ बोल ही रही हैं तो अलग से मैं क्या बोलूँ?

शशि कांडपाल जी को मैं एक समीक्षक/आलोचक के रूप में जानता था। एक दिन आदरणीय रूपसिंह चंदेल जी ने बताया कि शशि काण्डपाल जी का कहानी संग्रह मुस्तरी बेगम हाल ही में प्रकाशित हुआ है, जिसकी भूमिका उन्होंने लिखी है। संग्रह पढ़ने की मेरी उत्सुकता बढ़ गयी। कहानीकार मैं भी हूँ। किसी कहानीकार द्वारा किसी कहानी की समीक्षा के ख़तरे भी हैं और फ़ायदे भी। ख़तरा यह होता है कि कहानीकार-समीक्षक कहानी की माप-तौल अपने तराजू-बटखरे से करता है, ऐसी स्थिति में उसका झुकाव अपनी मानसिकता की ओर अधिक होता है, लेखक की मानसिकता की ओर कम। फ़ायदा यह है कि कहानीकार-समीक्षक समीक्ष्य कहानी के प्रति अन्याय नहीं करता है।

'मुस्तरी बेगम' शशि कांडपाल जी का पहला कहानी संग्रह है, जिसमें चौदह कहानियाँ हैं। इस संग्रह में लेखिका ने 'अपनी बात' कहने की परंपरा से स्वयं को मुक्त कर लिया है। शायद उन्हें लगता होगा कि अपनी बात तो उनकी कहानियों में ही है या 'बात बोलेगी मैं नहीं' के तर्ज पर उन्होंने सोचा होगा कि जब कहानियाँ बोल ही रही हैं तो अलग से मैं क्या बोलूँ?

इस संग्रह की कहानियों के संदर्भ में एक वाक्य में कहूँ तो इसमें मासूमियत एवं मानवता का अनोखा मिश्रण है। संग्रह की पहली कहानी मन्नों दी अपूर्व कहानी है। यह एक संस्मरणात्मक कहानी है और कथ्य एवं भाषा-शिल्प के कारण कहानीकार महादेवी वर्मा के निकट पहुँँच जाती हैं। यह कहानी कभी महादेवी जी की 'भक्तिन' की याद दिलाती है तो कभी 'बिबिया' की। हालाँकि मन्नों दी का चरित्र दोनों से भिन्न है। समानता यह है कि कहानीकार ने मन्नों दी के चरित्र की कुछ ऐसी रेखाओं को घटनाओं के चित्रपट पर उभारा, जो उसे भक्तिन और बिबिया के समान लाखों में एक साबित करती है। बच्चों के प्रति मन्नों दी का सहज एवंं निश्छल प्रेम और बच्चों का मन्नों दी के प्रति लगाव विलक्षण है। नारी-मन के साथ-साथ इसमें बाल-मन की चेष्टाओं का सफल चित्रण हुआ है।

स्वभाव से ही मनुष्य मरना नहीं चाहता, वह सबके साथ जीना चाहता है। कविगुरु रवींद्रनाथ ने कहा है-
मोरिते चाहि ना आमि सुंदर भुवने।
मानवेर माँझे आमि बांचिबारे चाइ।

कलेक्टिव फाइटर्स मानवीय जिजीविषा का उद्घाटन करने वाली अनूठी कहानी है। कहानी में सोसायटी के बुजुर्ग अपने अस्तित्व को बचाये रखकर अपने व्यक्तित्व को निखारते हैं और दुख की घड़ी में भी ख़ुश रहने का प्रयास करते हैं। सोसायटी के बुजुर्ग ही फाइटर्स हैं, जो अपने जीवन के बचे-खुचे दिनों में दुखों, ग़मों, निराशाओं को पास न फटकने देने के लिए 'फाइट' करते रहते हैं। कहानी में एक बुजुर्ग की पत्नी की दो दिनों पूर्व मृत्यु हो जाती है परंतु कथावाचिका यह देखकर हैरान रह जाती हैं कि वे सूट-बूट में बिलकुल सामान्य लग रह थे और बाकी के बुजुर्ग भी यंत्रवत् अपने कामों में लगे हुए थे। उसके नेत्रों के आश्चर्य को पढ़कर वे बुजुर्ग व्यक्ति बोले, "ये ज़िंदगी एक ट्रेन है बेटा, सबको गंतव्य तक जाना है और जिसका स्टेशन आ जायेगा, उसकी यात्रा समाप्त।" इस दार्शनिकता को लेखिका ने अत्यंत कलात्मकता से इस कहानी में उद्घाटित किया है।

मानववाद और मानवतावाद में फर्क है। सिर्फ मानव के हित की चिंता करना मानववाद है, जबकि मानवतावाद में मानवेतर प्राणियों के अलावा पर्यावरण के हित की भावना भी निहित रहती है। शशि जी की बसेरा कहानी मानवतावादी भावना का उत्कृष्ट उदाहरण है। मिस्टर एवं मिसेज कांत अपने घर में बिन बुलाये चिड़ियों के रहने का इंतज़ाम एवं भोजन-पानी की व्यवस्था नि:स्वार्थ भाव से करते हैं। वे सदा इस बात से चिंतित एवं सचेत रहते हैं कि उन्हें किसी किस्म का कष्ट न होने पावे। माँ के बाज का शिकार बनने या किसी अन्य कारण से अनाथ हुए चूजे का सेरेलक आदि खिलाकर अति उत्साह से पालन-पोषण करते हैं। चिड़िया के बच्चे बड़े होने के बाद उड़ जाते, फिर वापस अपने घोसले में नहीं लौटते। नयी चिड़िया आती, अंडे देती, अंडों को सेती, चूजों को पालती और एक दिन चूजे बड़े होकर फुर्र हो जाते। कांत दंपत्ति उदास हो जाते। लेखिका के शब्दों में, "हर साल एक नयी कहानी बनते देख कांत दंपत्ति ख़ुश एवं संतुष्ट थे, लेकिन कहीं न कहीं बेहद उदास भी।"

शीर्षक कहानी मुस्तरी बेगम भारतीय नारी की परंपरागत उदात्तता एवं आदर्श मानसिकता को उजागर करने वाली चरित्र प्रधान कहानी है। मुस्तरी बेगम मुस्लिम महिला है। अपना घर-द्वार, भरा-पूरा परिवार होने के बावजूद वह दूसरों के घर छोटा-मोटा काम करने को विवश है। एक हिंदू डॉक्टर के घर बावर्चिन का काम करने पर उसका नाम तारा रख दिया जाता है। इससे वह आपत्ति नहीं करती क्योंकि उसके जीवन काल में उसका नाम अनेक बार बदला था। वह अत्यंत खुद्दार थी। चाय के साथ दो बिस्किट दिये जाने पर 'एक उठा लो बिटिया' कहती। परंतु अपने बेटे और बहू के आगे वह विवश हो जाती। छह बेटियों के बाद बहुत मन्नत के बाद बेटा नसीब हुआ था परंतु बेटा अपनी पत्नी के चंगुल में फँसकर अपनी माँ एवं बहनों को भूल गया था। लेखिका के शब्दों में "बुआ (मुस्तरी) का तीन कमरों का ठीक-ठाक घर था और विडंबना कि भरसक पाँच बार की नमाज़ी बूढ़ी एक टीन के टिब्बर के नीचे रहने को मजबूर थी।" इसके बावजूद उसके अंदर मानवीय औदात्य की कमी न थी। सहज मानवीय भावनाओं को आधार बनाकर लिखी गयी इस कहानी का अंत अत्यंत कारुणिक है।

करमजली भी अत्यंत कारुणिक कहानी है परंतु इसका मूल स्वर व्यंग्यात्मक है। व्यंग्य वर्ण व्यवस्था एवं सामाजिक मानसिकता पर है। वर्ण व्यवस्था के कारण समाज का शूद्र वर्ण सामाजिक कार्यों के लिए उपयोगी होने के बावजूद समाज के लिए अछूत होता है। न तो उसका छूआ पानी कोई पीता है और न वह उच्च वर्ण के बालक को बेटा कह सकता है। रेणु जी की 'रसप्रिया' कहानी का मिरदंगिया छोटी जात का होने के कारण ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कह देने पर मार खाते-खाते बचता है। 'करमजली' की मुन्नी जमादार हरीराम की पत्नी है। उसकी अपनी कोई संतान नहीं है इसलिए लोग और कभी-कभी उसका पति भी उसे करमजली कह देता है। इस बात का दुख तो उसे है ही परंतु इस बात का दुख अधिक है कि वात्सल्यवश ऊँची जात वाले बच्चे को वह न तो खाना खिला पाती है और न गोद में ले पाती है। एक ऊँची जातवाली कुसुम की बिटिया मुन्नी से घुलमिल जाती है। मुन्नी उसे सबकी नज़रें बचाकर रबड़ी खिलाती रहती है। एक दिन वह बच्ची किसी को बताये बिना मुन्नी के पीछे बहुत दूर तक चली जाती है। मुन्नी उस समय अपनी बहन के लिए अस्पताल भागी जा रही थी। बहन दूसरे बच्चे को जन्म देने वाली थी। पहला बच्चा छोटा था, जिसकी देखभाल के लिए उसके बहनोई ने मुन्नी को बुलाया था। कुसुम की बिटिया के अस्पताल के क़रीब तक आ जाने के कारण वह उसे गोद में उठा लेती है। उसे अस्पताल से लौटने में देर हो जाती है। कुसुम के घरवाले बिटिया के खोने की रपट थाने में लिखा देते हैं। मुन्नी जब उसकी बिटिया को लेकर आती है तो किसी को विश्वास नहीं होता कि उसकी बिटिया ख़ुद मुन्नी के पीछे-पीछे गयी होगी। सबने मान लिया कि मुन्नी उस बच्ची को चुराकर ले तो गयी थी परंतु पकड़े जाने के डर से वापस ले आयी है। कुसुम मुन्नी की गोद से अपनी बिटिया को छीन लेती है और उसके गाल पर ज़ोर का तमाचा जड़ देती है। उसका तर्क कोई सुनना नहीं चाहता। महिला पुलिस भी झन्नाटेदार तमाचा रसीद कर देती है।

आज की अधिकांश नारीवादी कवयित्रियाँ नारी मुक्ति के लिए छटपटा रही हैं। इनकी मुक्ति चेष्टा, देह मुक्ति और पितृसत्ता से मुक्ति के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। वे कभी नारी द्वारा नारी के शोषण, नारी द्वारा नारी पर हो रहे अत्याचार पर आवाज़ नहीं उठातीं। राजेंद्र यादव के 'सारा आकाश' उपन्यास का मूल कथ्य ही है कि 'नारी ही नारी के कष्टों का कारण बन जाती है।' काश्मीरी कवयित्री हब्बा खातून ने ससुराल में सास द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर अत्यंत मार्मिक शब्दों में अपनी पीड़ा व्यक्त की है-

ससुराल में सुखी नहीं, मुझे उबारो
मायके वालो, मेरा कष्ट निवारो।
चर्खा कातते आँख जो लगी मेरी
माल टूट गयी चर्खे की
सास ने तब बाल मेरे खींचे
मौत-सी पीड़ा हुई, मुझे बचा लो।

शुक्र है नारियों के गद्य लेखन में नारी द्वारा नारी के कष्टों के वर्णन एवं विरोध के स्वर उपस्थित हैं। गद्य लेखिकाओं ने अत्यंत समझदारी के साथ पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में नारी की व्यथा एवं संघर्ष की कथा कही है। उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, ममता कालिया, कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल, सुधा अरोड़ा, नासिरा शर्मा, अलका सरावगी जैसी लेखिकाओं के गद्य लेखन में यह देखा जा सकता है।

शशि जी की घूँघट कहानी की नायिका तुलसा भी सास के द्वारा दिये गये कष्टों एवं अपमान को झेलती रहती है परंतु कहानी के अंत में वह तन जाती है और विद्रोह करती हुई अपनी बहू के लिए अपनी सास से कहती है, "यह मेरी बहू है, मैं इससे पर्दा नहीं कराऊँगी। मैं नहीं चाहती कि वह बस रसोई और स्टोर में जाकर चैन की साँस ले, नहीं चाहती कि वो अपने ही घर में घुटन की ज़िंदगी जिये, अपने ही बच्चों की खिलखिलाहटों को चोरी छुपे देखे। जहाँ उसकी कोई राय न ली जाये। मैं उसे घर के ओने-कोने नहीं बल्कि पूरा घर देना चाहती हूँ। मैं उसे इस ज़िंदगी की छोटी-छोटी ख़ुशियों से दूर नहीं रहने दूँगी। मैं अपनी परंपरा निभाऊँगी, मेरी बहू नहीं अम्मा जी, उसे जीने दीजिए।"

प्रथम विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी गुलेरी जी की 'उसने कहा था' एक अमर प्रेम कहानी है। ठीक उसी प्रकार शशि जी की मी मांछा कहानी ईसाई मिशनरियों की सेवा प्रवृत्ति के बहाने, धर्म परिवर्तन की नीति की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी अद्भुत प्रेम कहानी है।

इस संग्रह की हर कहानी अलग धरातल पर लिखी गयी है, जहाँ व्यक्ति है, समाज है, बचपन है और नारी मन है। राजनीति को प्रवेश करने के लिए दरवाजा-खिड़की तो दूर एक छिद्र तक नहीं छोड़ा गया है। राजनीति ने लेखिका के मस्तिष्क का दरवाज़ा खटखटाया तो ज़रूर होगा, परंतु लेखिका ने उसके लिए 'नो एंट्री' का मन बना लिया होगा। आज के समय में राजनीति से अछूती रचना को शाकाहारी रचना कहा जा सकता है। इस संग्रह की सारी कहानियाँ सरल भाषा एवं किस्सागोई शैली के कारण पाठकों को बाँधकर रखने में सक्षम हैं। पूरे संग्रह के लिए संक्षेप में कहा जा सकता है कि इसकी कहानियाँ मानवीय संवेदना एवं जिजीविषा का आईना है।

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समीक्ष्य पुस्तक- मुस्तरी बेगम
रचनाकार- शशि काण्डपाल
प्रकाशक- इंडिया नेट बुक्स प्रा० लि०, नोएडा, गौतमबुद्ध नगर (उ०प्र०)
पृष्ठ- 112
मूल्य- 250/- (पेपरबैक)

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रचनाकार परिचय

डॉ० पंकज साहा

ईमेल : dr.pankajsaha@gmail.com

निवास : खड़गपुर (प० बंगाल)

सम्प्रति- एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
पता- हिंदी विभाग, खड़गपुर कॉलेज, खड़गपुर (प० बंगाल)-721305
मोबाइल- 9434894190