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बिछड़े सभी बारी-बारी- अनिता रश्मि

बिछड़े सभी बारी-बारी- अनिता रश्मि

पतले-दुबले, लंबे, धीर-गंभीर, गौरवर्णी भारत भाई ने उसी समय अपना नाम यायावर रख छोड़ा था। जिंस के ऊपर लंबा कुर्ता और कांँधे पर कपड़े का बड़ा-सा थैला। थैले में अनगिन साहित्यिक किताबें, साहित्यिक सामग्री कोर्स की पुस्तकों के अलावा अर्थात उन दिनों के कवियों, साहित्यकारों, यायावरों की मुकम्मल तस्वीर। मोटे चश्मे के भीतर से झाँकतीं दो बुद्धिदीप्त आँखें! अत्यधिक विनम्र, निश्छल भी।

22 अक्टूबर, 2021 को एक ख़बर मिली। नहीं रहे सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारत यायावर। कितनी त्रासद सूचना। बेचैनी की लहर उठी और स्मृति शेष भारत भाई स्मृतियों के पट खोल गये। यह संस्मरण पहले ही लिखा जा चुका था। अब?

वह 1977-79 का समय था। मुझसे चार वर्ष बड़े भारत यायावर भाई राँची विश्वविद्यालय से एम०ए० कर रहे थे। उसी समय से उनकी यायावरी दिखलाई पड़ने लगी थी। पाँव कहीं टिकते न थे। मन भी शायद। कविता, निबंध, आलोचना में आवाजाही बारंबार और बाद में संपादन भी। बहुत-बहुत बाद में उन्होंने जो वृहद, अद्भुत, श्रमसाध्य कार्य रेणु जी, द्विवेदी जी, नामवर जी, राधाकृष्ण जी पर किया है, वह सबको पता है। लेकिन पूत के पाँव उसी समय पालने से झाँकने लगे थे।

पतले-दुबले, लंबे, धीर-गंभीर, गौरवर्णी भारत भाई ने उसी समय अपना नाम यायावर रख छोड़ा था। जिंस के ऊपर लंबा कुर्ता और कांँधे पर कपड़े का बड़ा-सा थैला। थैले में अनगिन साहित्यिक किताबें, साहित्यिक सामग्री कोर्स की पुस्तकों के अलावा अर्थात उन दिनों के कवियों, साहित्यकारों, यायावरों की मुकम्मल तस्वीर। मोटे चश्मे के भीतर से झाँकतीं दो बुद्धिदीप्त आँखें! अत्यधिक विनम्र, निश्छल भी।

अब यह काया पतली-दुबली तो नहीं है पर आँखें अब भी वही...बुद्धिदीप्त, चश्मे से आर-पार झाँकती हुईं। वे प्रायः सुबह की चाय मेरे घर पर बाबूजी और मेरे साथ पीते थे। प्रायः मेरी आँखें उनके आगमन के बाद खुलतीं। फिर आनन-फानन में चाय की केतली चढ़ा देती। कभी भरी दोपहर में भी आ जाते। सदा पाँव पैदल ही राँची की गलियों को आबाद करते थे यायावार। राँची के सभी प्रमुख साहित्यकारों के घर जाते।

हम दोनों भाई-बहन बहुत दिनों तक मिलते रहे, साहित्य गढ़ते रहे। साहित्य ने कितना गढ़ा उन्हें, यह बताने की बात नहीं। सब जानते हैं। पढ़ाई के बाद वे अपने गृहनगर हज़ारीबाग चले गये। मेरा वहाँ आना-जाना था। स्नातक की परीक्षा से निवृत्त होकर गई तो हज़ारीबाग के मेन रोड में 'नवलेखन प्रकाशन' के बोर्ड ने आकर्षित कर लिया। महत्वपूर्ण लघु पत्रिका 'नवतारा' का दफ्तर। लघु पत्रिका आंदोलन, लघुकथा आंदोलन अपने चरम पर। ऐसे में नवतारा का जन्म।
मैं अपनी दो-तीन हस्तलिखित काव्य के साथ वहाँ दूसरे दिन ही जा पहुँची। आश्चर्य! वहाँ बैठे थे, धूप सेंकते संपादक भारत भाई और रामनारायण बेचैन भाई। अपनी रचनाएँ दीं। उन्होंने उलट-पुलटकर देखीं। बाद में निर्णय से अवगत कराने का आश्वासन। अगला अंक चर्च रोड, राँची के पते पर आया तो उसमें अपनी रचना थी-

तनहा मैं ज़िंदगी के सवालात भी तनहा हैं
शरीर तो भीड़ में है, जज़्बात तनहा हैं

ख़ुशी, प्रथम प्रकाशन 'नवतारा' में। भारत भाई ने रदीफ, काफ़िया, शेर, मात्राएँ सबकुछ सिखाने की कोशिश पुनः राँची आने पर की। संभव नहीं हो पाया तो तौबा ही कर ली। उनका प्रयास व्यर्थ चला गया। लेकिन उनकी विविध विधाओं में आवाजाही बनी रही। उन्हीं दिनों उनके काव्य संग्रह छपे। अन्य साझा संकलनों का भी संपादन किया उन्होंने। अभी के कई बड़े नाम उनमें प्रकाशित हुए। भारत भाई की कर्मठता, प्रतिबद्धता 'नवतारा' को बहुत ऊँचाई पर ले गयी। लघु पत्रिकाओं के बीच इस पत्रिका की ऐसी धाक, हर छोटा-बड़ा साहित्यकार उसमें छपने के लिए लालायित!

'नवतारा' के संपादकीय और रचनाओं की उत्कृष्टता ने कमलेश्वर जी, राजेन्द्र यादव जी से लेकर संजीव जी, अभी के अनेक नामचीन लेखकों का ध्यान खींचा था। उन दिनों लघु पत्रिकाओं की बाढ़ आई थी। कम संसाधनों के बावजूद अपने बलबूते या विज्ञापनों के भरोसे लोग लघु पत्रिकाएँ निकालते थे। सभी एक-दूसरे के नामों का उल्लेख अपनी पत्रिकाओं में करते, सारी लघु पत्रिकाएँ प्रचार पा जातीं। आर्थिक स्थिति संतोषजनक नहीं रहने के बावजूद उनके ट्यूशन के पैसों से पोषित 'नवतारा' ने भी काफी पत्रिकाओं की लिस्ट छापकर नए-पुराने लेखकों का भला किया था। अधिकांश लेखकों की पहली रचना 'नवतारा' में ही छपी थी।

यह तो एकदम नहीं, उन्होंने गढ़ा मुझे। हाँ, यह ज़रूर कि विभिन्न राह दिखाई, सुझाई। मैं भी उसी में छपी लिस्ट के आधार पर पटना से निकलनेवाली कृतसंकल्प (सं० वाल्टर भेंगरा तरूण ) तारिका (अब शुभ तारिका) कमलेश्वर जी की सारिका, योजना सहित कई राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में छपने लगी। 'नवतारा' में छपनेवाली मेरी रचनाओं ने ही शायद कमलेश्वर जी से उनकी नई पत्रिका 'गंगा' मुझ तक भिजवाई और रचना का आमंत्रण भी। इस तरह वे कई नवोदितों का भला कर रहे थे। बाकी कमी भारत भाई का पोस्ट कार्ड पूरी कर देता। मिलना कम, पत्र के माध्यम से वे विविध पत्रिकाओं का पता भेजते। रचना भेजने के लिए प्रेरित करते।

एक बार हज़ारीबाग के कदमा गाँव में फुआ के घर जाते हुए नजर आए। नया मकान बनवा रहे थे। बाद में कितने दिन उस घर में रहे, नहीं पता। पैतृक गाँव कदमा, हज़ारीबाग उन्होंने कब छोड़ दिया, यह भी नहीं पता। नासा में काम करनेवाले मेरे फुफेरे भैया साहित्यकार अशोक सिन्हा अक्सर उनका नाम लेते नहीं थकते थे। उनकी यात्रा कहीं, कभी नहीं रूकी, अनवरत चलती रही। आगे भी उन्होंने कई पत्रिकाओं का संपादन किया। बाद में अनियतकालीन 'विपक्ष' के प्रकाशन की सूचना। बड़े-बड़े नाम जुड़े। काफी सालों तक चास में अध्यापन के साथ उन्होंने 'विपक्ष' को जिलाए रखा। पत्राचार कम हो गए थे। मैं व्यस्त, अति व्यस्त! वे भी।

उस समय फोन था नहीं। भूले-भटके एक दिन पोस्ट कार्ड आया, परिचित अक्षर। पता चला, आजकल 150 से लेकर 400 पृष्ठीय 'विपक्ष' निकाल रहे हैं।
मैंने पत्र से ही रचना भेजने की अनुमति चाही, तो बरजा- "हाँ, भेजो। लेकिन लघुकथा एकदम नहीं।"
उन्होंने 'नवतारा' का बड़ा शानदार विशेषांक लघुकथांक निकाला था। उसमें आज के लगभग सारे बड़े लघुकथाकार या तो रचना के साथ या आलेख के साथ मौजूद। फिर यह मुँह फेरने की बात? क्यों भला? आज का समय होता, झट व्हाट्स एप करती और जवाब भी तत्काल मिलता। लेकिन उस समय न रचना भेजी, न लघुकथा से उनकी इस बेरुखी का कारण पूछ सकी। नवतारा ने लघुकथा आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। झंडा उठाकर चली थी। बहस मुबाहिसों का पूरा बाज़ार सजा दिया था कि लघुकथा का स्वरूप क्या हो? हर अंक में लघुकथाओं को स्थान देते थे संपादक भारत भाई। और आज?
वही लघुकथांक व प्रतिक्रियावाला अंक शीघ्र पुस्तक रूप में आएगा।

बहुत पहले वे सुभाष शर्मा के आमंत्रण पर काव्य पाठ करने चतरा गए थे। प्रोग्राम बहुत बढ़िया हुआ था, मैंने सुना था। दूसरे दिन थोड़ी देर के लिए वे घर आए। कुछ साहित्यिक चर्चा। कुछ कार्यक्रम की सफलता की। चतरा अब भी उस कार्यक्रम को शिद्दत से याद करता है।
उनके वृहद कार्यों के बारे में जानती, समझती रही, चतरा, संथाल परगना, राँची में रहने के दौरान। बस मुलाकात, बात नहीं। चकित भी होती। हालाँकि आश्चर्य के लायक था क्या, जब आप पहले से किसी की प्रतिबद्धता, टेनासिटी, लगन, मेहनत के बारे में अच्छी तरह जान रहे हों। वे विनोबा भावे विश्वविद्यालय में आ गये। पर उनसे भेंट नहीं हो पाई कभी फिर। जीवन की दुश्वारियों ने कई रिश्तों की तरह इस पर भी बहुत दिनों तक ब्रेक लगा दिया।

अब हम काफी सालों बाद फेसबुक पर मिले। बस चश्मा और दो आँखें पुरानी। भूगोल तो सारा बदल गया। वक्त की धूल उड़ी, उड़कर चारों ओर छा गई थी। उसने जो धुंध बिखेरी थी, अब वह मिट गई थी। उन्होंने एक पोस्ट देखकर वह दूरियोंवाला 'आप' संबोधित कर कुछ प्रतिक्रिया दी थी।
मैं तो अब भी वही छोटी-सी, पूछ बैठी, "मैं आपके लिए आप कबसे हो गई भारत भाई?"
तब से फिर वही।

कुछ दिनों पश्चात 12 दिसंबर 2019 को पहली बार मोबाइल के रिंगटोन के साथ भारत भाई का नाम फ्लैश हुआ। उनसे फोन पर बात हुई...लंबी...सार्थक! राम खेलावन पाण्डेय जी, सिद्धनाथ कुमार जी, श्रवण कुमार गोस्वामी जी, अशोक प्रियदर्शी जी, विद्याभूषण जी, शैलप्रिया दी, अशोक पागल जी आदि की याद को जीते रहे।

आज के प्रसिद्ध साहित्यकार सुभाष शर्मा जी तब चतरा में एस०डी०ओ० थे। उनकी संस्था 'परिवर्तन' ने भारत भाई को 1988 के जून में चतरा में नागार्जुन पुरस्कार से नवाज़ा था। उसी वर्ष मार्च में 'परिवर्तन' के कवि सम्मेलन में उन्होंने रतन वर्मा जी, सांसद, साहित्यकार शंकर दयाल सिंह संग वहीं शिरकत की ही थी। तब हमारे घर पर उनसे मिलना सुखद रहा था। वही अंतिम मुलाकात।

उस मुलाकात के साथ एक मजेदार याद जुड़ी है-
भारत भाई ने चतरा में मुझसे मिलने की इच्छा जताई तो खोजकर पति ओम प्रकाश जी को ख़बर भेजी गई। उससे पूर्व इस घनघोर गृहिणी और नई-नवेली बहू को ढूँढने के लिए हल्ला मच गया। शाम को बैंक से लौटते ही पति ओम जी ने बताया, "कल भारत यायावर घर आएँगे।"
साथ में छौंक, "पूरे चतरा में शोर है कि अनिता रश्मि कौन हैं?...कौन हैं?...कहाँ रहती हैं? उनके पति कौन हैं?"
उस वक्त चतरा में बहू के नाम से कौन परिचित होता। खुलकर बाहर निकलना भी नहीं होता था। वैसे भी बहुएँ फलाँ की चाची, दादी, नानी, भाभी, पत्नी थीं। नाम से पुकारे जाने की उदारता कत्तई नहीं।

दूसरे दिन वे और कथाकार रतन वर्मा जी आए। साहित्यिक बातों का पिटारा खुला। फोन पर उन्होंने उस भेंट की भी चर्चा करते हुए बताया कि मेरे घर उन्होंने भोजन किया था। दोनों छोटी बेटियों से भी मिले थे।...अरे! मैं तो भूल ही गई थी, उन्हें कैसे याद रह गया।
आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने फोन से ही बताया आगे, वे मेरी रचनाओं को पढ़ते रहे हैं। कुछ दिनों पूर्व जो शोधार्थी मुझसे कथा पुस्तकें ले गई हैं, उसे उन्होंने ही भेजा था। शोध कार्य लगभग तैयार है।
इसमें किसी परिचय, संबंध का हाथ नहीं। उनकी फितरत ही नहीं थी कि गुणवत्ता के बजाय संबंध को तरजीह देते। इस बीच तो इतने वर्षों की दूरी से भरी लंबाई सब कुछ भुलाने के लिए काफी थी।

हम इतने दिन केवल एक-दूसरे की रचनाओं से ही तो जुड़े रहे हैं। बरसों पहले एक बार अपना लघु उपन्यास 'गुलमोहर के नीचे' उन्हें चास, बोकारो भेजा था। किसी पाठिका ने उसके धारावाहिक प्रकाशन की सूचना भेजी थी। तीस-इक्कतीस साल बाद की फेसबुकिया भेंट...फोन पर बातचीत। बहुत सारी बातों का पिटारा खुला। उन्होंने शोध में शामिल करने के लिए मेरी पुस्तकें माँगीं। भेजने पर उत्साह से कहा, "झारखंड के उपन्यास, कविता, कहानी सभी शोध ग्रंथ में अनिता रश्मि की किताबें रहेंगीं। अलग से भी शोध होगा।"
इधर बीच-बीच में अक्सर मोबाइल का रिंगटोन बज उठता था। मैंने रेणु जी की कहानी 'ठेस' पर लिखी पाठकीयता उन्हें भेजी थी। कुछ दिनों बाद सृजन सरोकार पत्रिका के रेणु विशेषांक के लिए पूछा था, "यह समीक्षा सृजन सरोकार को दे दूँ कि आप ले रहे हैं?"
"दे दो।"
कुछेक दिन बाद ही फोन, "अनिता, मैं 'ठेस' की समीक्षा ले रहा हूँ। एक पत्रिका के विशेषांक का संपादन कर रहा हूँ।"
कुछ अंतराल के बाद स्वतः, "देखो, कुछ नहीं होता। ऐसी चीजें दो-तीन पत्रिकाओं में एक साथ छप सकती हैं।"
मैं निर्द्वद अब।
वह 'भाषा विमर्श' पत्रिका में प्रकाशित हुई तो फिर फोन। साथ में बताया, "रेणु जी की जीवनी कम्पलीट हो गई है। सेतु प्रकाशन से आ रही है न। उसका एक अंश फेसबुक पर है, बताना कैसा है।"
"मैं?"- मैं अपदस्थ!
बेहद, रोचक, भाषाई करिश्मा से युक्त शानदार अंश था। रेणु जी के नेपाल गमन का ग़ज़ब संस्मरण। भारत भाई ने ढूँढकर सीप से मोती निकाला था। कहते, "मैं पहले भी रेणु जी के लिए सामग्री जुटाते हुए खूब घूमा। बीमार पड़ गया था न। फिर अभी बीमार हूँ। लेकिन पुस्तकें पूरी हो गईं हैं, संतोष है। अभी और काम कर रहा हूँ।"
"आराम भी ज़रूरी है भाई! स्वास्थ्य का ध्यान रखें पहले।"
कह सकते हैं, राम के हनुमान वाली स्थिति थी। अब वे ठहरे हिंदी के विभागाध्यक्ष। लेकिन फणीश्वर नाथ रेणु को अब भी दिल की अतल गहराई में रखा।

मात्र यही कामना भारत भाई के लिए की थी, 'स्वस्थ, विद्वान यायावर की यायावरी कभी ख़त्म न हो। देश-विदेश, समाज उनके साहित्य से पहले की तरह, हमेशा की तरह ऊर्जा ग्रहण करता रहे।'
एक अवसर मिला था 2020 के जून-जुलाई में। महामारी ने दहशत फैला रखी थी। अभी-अभी थोड़ी छूट मिली थी कि हमारा हज़ारीबाग जाना आवश्यक। बाज़ार, सड़कों पर लोगों की आवाजाही शुरु हो गई थी। मैं भी परिजन संग प्रसिद्ध हज़ारीबाग झील पर सुबह-सुबह गई। झील के पार्श्व में स्थित हज़ारीबाग केन्द्रीय कारागार देखने की इच्छा बलवती, जहाँ से जयप्रकाश नारायण दीवार फाँदकर भागे थे। वहाँ अचानक ध्यान गया, क्यों न यहाँ ही उनसे मिला जाए? या फिर अपने परिजन के आवास पर? हाँ कहेंगे तो कल की वापसी स्थगित।

उन्होंने बताया, "नहीं अनिता, अभी छोड़ दो। कोरोना काल है न। वैसे भी मैं बीमार हूँ न, किसी से भेंट नहीं कर पा रहा हूँ। अगली बार मिलेंगे न।"
समझ सकती थी। लेकिन समझ न पाई, इतनी जल्दी सब शेष हो जाएगा और हम नहीं ही मिलेंगे। सच, ऊपरवाले की उँगली के इशारे के आगे आपका कुछ नहीं चलता। आज सब अपेक्षाओं पर अचानक ब्रेक। भारत भाई स्मृति शेष!...विश्वास कहाँ हो रहा है, अब फोन पर कभी उनका नाम फ्लैश नहीं होगा। अब भी 2021 में मृत्यु से कुछेक माह पूर्व कहा गया उनका कथन गूँज रहा है, "राँची जल्द आऊँगा तो तुमसे ज़रूर मिलूँगा। मेरे द्वारा संपादित रेणु विषयक 2020 की पुस्तक में 'एक आदिम रात्रि की महक' पर तुम्हारी लिखी समीक्षा शामिल है। मैं किताब ख़ुद आकर दूँगा। तुम्हारी लेखनी और प्रखर हो।"
यह उनकी सच्ची भावना थी। सबके लिए रहती थी। कुछ दिनों पूर्व रेणु जी संबंधित किताबें सेतु प्रकाशन से आ गईं हैं।- सूचना उन्होंने दी थी।

एक बात और याद आ रही हैं, विनोबा भावे विश्वविद्यालय में कार्यरत साहित्यकार सुबोध कुमार सिंह जी ने फोन किया था कि आज भारत भाई (पूरी ज़िंदगी मात्र भारत यायावर लिख-बोल ही नहीं पाई हूँ, अब कैसे बोलूँ) रिटायर कर रहे हैं। उनका फेयरवेल है। मैं आपको उनसे बात कराता हूँ।
"नही! नहीं! मैं ख़ुद बात करती रहती हूँ। कर लूँगी। आज वे व्यस्त होंगे, दूसरे दिन।"
वे ज़िद करते रहे और ऐसा संयोग, कुछ दिनों पूर्व ही अवकाशप्राप्त हुए भारत भाई से बात नहीं की कि आराम करें। इतने व्यस्त व्यक्ति को अनावश्यक तंग क्यों करूँ!

अंतिम रात्रि का वाकया-
दो-तीन बजे रात में लगा, कितने दिन बीते, सर्वसुलभ फोन का सहारा भी नहीं लिया। बस तीन दिन से सोच ही रही हूँ। नींद टूट-टूट जा रही है। मैं भी न अटक जाती हूँ एक ही बात पर। जब नींद खुले, वही ध्यान। ठान तो लिया कि कल सुबह-सुबह पहला काम यही। फिर?
उठकर सामने रखे काग़ज़ पर नोट कर लिया, कल एकदम नहीं भूलना है।
सुबह की धूप खिली तो सोचा, अभी खाली नहीं होंगे, ग्यारह बजे के बाद। दोपहर तक स्थिर होकर मोबाइल उठाया ही था कि शायद एफ०बी० पर सूचना...अरे! असंभव। तत्काल कितने नं० लगाए, याद भी नहीं। राकेश रेणु जी से सही पता लगेगा। लगाया और पूछती ही रह गई, "आप राकेश रेणु जी हैं?"
"हाँ, कहिए...हाँ, कहिए।"
तब तक उन्हें भी शायद पता न था।
पूछ ही नहीं सकी, जो मन मान नहीं रहा था। फोन कट गया तो सुबोध कुमार सिंह जी याद आए।
वे भारत भाई के घर यशवंत नगर ही जा रहे थे। एक बाइक पर वे, रतन जी तथा विवेक प्रियदर्शी जी।
कथाकार रतन वर्मा जी ने बताया, "हाँ, सच है। दस बजे आज ही बात हुई थी। उन्होंने कहा था, अब पहले से ठीक हूँ। और अचानक थोड़ी देर में स्तब्धकारी सूचना। हम तीनों वहीं जा रहे हैं।"
इतने बीमार कब हो गये, एहसास ही नहीं हुआ। इधर तो ठीक थे?- शब्दातीत था।

बाद में पता लगा, रात के दो बजे दिल का दौरा। कहीं उस रात की बारंबार की बेचैनी इंट्यूशन तो नहीं? कुछ दवाओं के असर से वे सुबह स्वस्थ महसूस कर रहे थे। और अचानक बेहद अविश्वसनीय ख़बर। बेहतर इलाज के लिए हज़ारीबाग से राँची लाते वक्त चरही पहुँचने के पहले ही देहावसान। समय ही नहीं दिया।
फिर भी ऐसे कर्मठ, चिरयुवा साधक साहित्य के अनन्य भक्त जाकर भी कहाँ जाते हैं, भारत भाई भी नहीं जा पाएँगे।
मन की जमीन पर पल्लवित है पक्का विश्वास

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रचनाकार परिचय

अनिता रश्मि

ईमेल : rashmianita25@gmail.com

निवास : राँची (झारखण्ड)

प्रकाशन- छः कथा संग्रह, दो काव्य संग्रह सहित चौदह पुस्तकें प्रकाशित।
हंस दलित विशेषांक, जनसत्ता दीपावली विशेषांक, ज्ञानोदय झारखंड विशेषांक, लोकमत उत्सव विशेषांक (चार बार), विश्व गाथा कहानी कथा विशेषांक, लेखनी.नेट कहानी विशेषांक सहित प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर विविधवर्णी रचनाएँ प्रकाशित।
विशेष- शोध प्रबन्धों में रचनाएँ शामिल। अंग्रेजी, बंगला, मलयालम, तेलुगू में रचनाएँ अनुदित। एक लघु फिल्म में अभिनय।
सम्मान/पुरस्कार- अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार-सम्मान। 
संपर्क- 1 सी, डी ब्लाॅक, सत्यभामा ग्रैंड, कुसई, डोरंडा, राँची (झारखण्ड)- 834002
मोबाइल- 9431701893