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माँ ने कहा था- श्यामल बिहारी महतो

माँ ने कहा था- श्यामल बिहारी महतो

स्कूल के हिंदी शिक्षक और हेडमास्टर शिवदत्त शर्मा के हाथ में पहली बार देखा था निर्मला को। वह कई दिनों से उसे लेकर क्लास में आ रहे थे और और मैं बड़ी ललचाई नज़रों से उसे देखा करता था। पढ़ाते वक़्त एक दिन हेड सर ने मेरी चोरी पकड़ ली। तब मेरा ध्यान पढ़ाई की जगह 'निर्मला' पर था। वह अनुशासन के बहुत पक्के थे। उन्होंने हाथ से खड़े होने का इशारा किये। बोले- "क्लास के बाद ऑफिस में आकर मिलो!" मेरी तो सिटी-पिटी गुम।

अगर मैं सर्विस में न होता तो लेखक न होता और लेखक न होता तो एक बड़ा ठेकेदार होता और हज़ारों नहीं बल्कि लाखों में कमाता और हर दिन एक झुण्ड में चल रहा होता...! किसान का बेटा किसान ही होता है, ऐसा कहा सुना जाता था। आज भी गाँव के चौक-चौराहों पर इस तरह की चर्चाएँ यदा-कदा सुनने को मिल जाती हैं लेकिन एक मलकटा का बेटा लेखक बनेगा, यह न कहीं पढ़ने को मिला और न कहीं कानों सुना था और मेरे घर में तो साहित्यिक माहौल का दूर-दूर तक कोई अता-पता भी नहीं था। हाँ, शराब की महक मेरे घर के कोने-कोने में रची-बसी हुई ज़रूर थी। बाप के जीवन में शराब हमेशा भरा हुआ मिला। वह गाँव में झाड़-फूँक का काम करता था। डॉक्टर इलाज के पैसे लिया करता था, मेरा बाप झाड़-फूँक का दारू लिया करता था और माँ एक खदान में मज़दूर थीं मतलब मलकटा।

कोयला खान में कठोर परिश्रम करने वाली माँ। वह मेहनत की कमाई घर लाया करती थी। कहानी के बारे में मैंने सबसे पहले अपनी माँ से ही जाना था। जब वह शाम को काम से लौटती तो अपने साथ ढेर सारी कहानियाँ लेते आती थी। छिन-झपट! लपड़पपड़! महिला मलकटों के साथ ठेकेदार के लंपट मुंशियों की कारगुज़ारियों के कारनामे बाप को सुनाती थी। तब मैं तेरह-चौदह साल का रहा हूँगा और नेहरू उच्च विद्यालय, तेलो में कक्षा आठ में पढ़ता था। यहाँ मुझे एक शिक्षक से दोस्ती हो गई थी। बाज़ारू उपन्यासों को वह ख़ूब पढ़ा करता था। बाद में यह बुरी लत मुझे भी लग गई। फिर तो प्रेम बाजपेयी, गुलशन नंदा, मनोज जैसे बाज़ारू उपन्यासकारों की दर्जनों किताबें मैंने पढ़ डालीं लेकिन तभी एक दिन प्रेमचंद की निर्मला हाथ लग गई। मेरे जीवन में न भूलने वाली घटना। स्कूल के हिंदी शिक्षक और हेडमास्टर शिवदत्त शर्मा के हाथ में पहली बार देखा था 'निर्मला' को। वह कई दिनों से उसे लेकर क्लास में आ रहे थे और और मैं बड़ी ललचाई नज़रों से उसे देखा करता था। पढ़ाते वक़्त एक दिन हेड सर ने मेरी चोरी पकड़ ली। तब मेरा ध्यान पढ़ाई की जगह 'निर्मला' पर था। वह अनुशासन के बहुत पक्के थे। उन्होंने हाथ से खड़े होने का इशारा किये। बोले- "क्लास के बाद ऑफिस में आकर मिलो!" मेरी तो सिटी-पिटी गुम। बाहर साथियों ने और भी डरा दिया, "उपन्यास पढ़ने का तुम्हारा भूत आज उतार देंगे हेड सर...!"

दोपहर को डरते-डरते ऑफिस में क़दम रखा। हेड सर अकेले बैठे हुए थे और सामने टेबल पर 'निर्मला' रखी हुई थी। मैं कभी 'निर्मला' को देखता तो कभी हेड सर को। तभी..."सुना है क्लास की किताबों से कहीं ज़्यादा दिलचस्पी तुम्हारी बाज़ारू उपन्यासों में रहता है...!" हेड सर ने कहना शुरू किया, "पर तुम्हारी मार्कशीट रिपोर्ट देखी मैंने, सब में सेवंटी-एट्टी! कब पढ़ते हो क्लास की किताबें?"
मेरा तो मुँह बंद! काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो आई थी!
"बोलो, चुप काहे हो?"
"क्या बोलूँ सर, सच बोला नहीं जा रहा और झूठ मैं बोल नहीं सकता हूँ! सुबह चार बजे भोर से छः बजे तक क्लास की किताबें पढ़ता हूँ और रात आठ बजे से दस बजे तक प्रश्नोत्तर लिखता हूँ!" बड़ी मुश्किल से बोल पाया था।
"ट्यूशन कब पढ़ते हो?"
"कभी नहीं। ट्यूशन पढ़ने को बाप पैसे नहीं देते और फोकट में कोई ट्यूशन पढ़ाते नहीं हैं!" धीरे-धीरे मुझमें साहस लौट रहा था।
"इधर आओ, सामने!" मैं हेड सर के क़रीब पहुँच गया।
"आज मुझे ख़ुशी हो रही है, तुम्हारा एडमिशन लेकर हमने कोई ग़लती नहीं की थी। तुम जैसा विधार्थी मिलना हमारे स्कूल के लिए गर्व की बात है। लो ले जाओ, पढ़कर ऑफिस में जमा कर देना। दूसरी और किताबें मिल जाएँगी!" हेड सर ने 'निर्मला' मेरे हाथ में देते हुए पीठ थपथपा दी थी। झट से मैं उनके चरण स्पर्श कर बाहर निकल गया था।

बाहर दोस्तों ने घेर लिया। मैंने उन्हें 'निर्मला' दिखा दी। उन सबका मुँह बगुले की तरह हो गया था। फिर तो स्कूल लाइब्रेरी मेरी दोस्त बन गयी। बाज़ारू उपन्यासों से पिण्ड छूटा और साहित्यिक उपन्यासों से दोस्ती शुरू हो गई। बाद में मुझे यहीं से गोदान, ग़बन और सेवा सदन पढ़ने को मिलीं। लेकिन उस दिन मैं भाव-विभोर हो उठा, जब कहीं से लाकर हेड सर ने मुझे मक्सिम गोर्की की 'माँ' पढ़ने को दी और बोले, "इसे पढ़ो, मूरत पूजने की जगह माँ की पूजा-आराधना करने लगोगे!" मैं स्कूल लाइब्रेरी में गोर्की की 'माँ' को पढ़ता और घर आने पर विषम परिस्थितियों से जूझते, लड़ते हुए काम करने वाली अपनी माँ को देखता। कितनी समानता थी गोर्की और मेरी माँ के कर्मों में। धीरे-धीरे मैंने गोर्की की 'माँ' में अपनी माँ को दूंढना शुरू कर दिया था।

दो साल का समय किस तरह बीत गया, पता नहीं चला। हाँ, मैं कितना पढ़ाकू हूँ, यह पूरे स्कूल को पता चल गया था। मैट्रिक इम्तिहान सर पर सवार था। दूसरे साथी किताब छोड़ गैस पेपर पढ़-पढ़ कर आँखें फोड़ रहे थे और मैं दिन-रात किताबों में डूबा रहता था। मैंने भी कम कीमत वाली एक गैस पेपर ख़रीदी थी पर उससे कहीं ज़्यादा मुझे ख़ुद पर भरोसा था। टेस्ट-परीक्षा में हिंदी में पिचानवे नंबर देखकर हेड सर ने कहा था, "ऐसा लग रहा है स्कूल के पिछले सारे रिकॉर्ड टूटने जा रहे हैं!"

पढ़ने का जुनून मेरा कभी कम नहीं हुआ। न क्लास की किताबों को अपने से अलग कर सका और न उपन्यासों से दूर रह सका। वार्षिक परीक्षा समाप्त हो चुकी थी। भरखर आषाढ़ में परिणाम निकला। तब मैं धन रोपने के कार्य में लगा हुआ था और उस घड़ी कुदाल से मेड़ बांधने का काम कर रहा था। तभी मेरा एक पड़ोसी, जिन्हें मुझे उपन्यासों को पढ़ते देखना फूटी आँखों नहीं सुहाता और हमेशा मेरा मज़ाक उड़ाया करता था, "देखना यह मुटरा, बुरी तरह फेल करेगा...!" एक कोलियरी में वह सरकारी डम्फर चालक था। उस दिन वही रिज़ल्ट वाला हिन्दुस्तान अख़बार लिए सीधे मेरे खेत में पहुँच गया था। उसे सामने से आता देख चौंका था मैं। "इस वक़्त यह यहाँ क्यों आ रहा है? क्या मैं सचमुच फेल कर गया और यह उसी का ताना मारने चले आ रहा। ऐसा कैसे हो सकता है!" मैं सोच ही रहा था कि..."बहुत-बहुत बधाई हो मुटरा, तुमने अपनी नुनाबखरी का नाम ऊंचा कर दिया।.पूरे गाँव में फस्ट आया है तू...!" इसी के साथ उसने मेरी कीचड़ से लथपथ देह को उठा लिया था और मुझे कबीर और उनकी वाणी याद आने लगी थी- "निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय...!"

वक़्त के साथ आदतें बदलीं परंतु किताबों को पढ़ने की भूख कभी कम नहीं हुई। लेकिन कॉलेज जाना मेरे जीवन को रास नहीं आया। पहले बाप को रास नहीं आया। आगे पढ़ने से मना करता रहा ताकि घर के सारे काम मैं करूँ और उसका झाड़-फूँक का धंधा मंदा न पड़े। यहाँ मेरे पक्ष में माँ तनकर खड़ी हो गई- "यह कॉलेज जायेगा, ख़ूब पढाई-लिखाई करेगा, खदान में पढे-लिखे लोग किस तरह ठाठ से रहते हैं, घर में बैठे-बैठे तुम क्या जानो..?" कह माँ ने बाप से मोर्चा ले लिया था लेकिन बहुत दिन नहीं बीते जीवन के मोर्चे में कि वह ख़ुद हार गयी। कॉलेज में अभी मेरा पहला साल गुज़र रहा था कि एक फेटल एक्सीडेंट में माँ चल बसी। सर में गहरी चोट के कारण उसे ब्रेन हैमरेज हो गया था। छतीस घंटे मौत से लड़ते-लड़ते वह हार गयी। मरने से एक माह पूर्व माँ ने पड़ोस की चाची से झगड़ा मोल ले लिया था। उस दिन सुबह-सुबह चाची अपनी इकलौती पुतोहू को घर से धकियाते हुए निकाल रही थी- "पता नहीं कौन जनम में पाप की थी जो ऐसन कुलछनी पुतोह मिली, जो दनदना के बेटी निकाल रही है! पोता का मुँह देखे वास्ते आँखें तरह गई मेरी!" और चाची ने पुतोहू को घर से बाहर निकाल दिया। "जाओ, बाप घर में बेटी निकालते रहो। हम अपने बेटे का दूसरा बिहा कर देंगे!" और गुस्से में आँगन का दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया था। यह मेरी माँ से देखा नहीं गया और माँ टपक पड़ी थी, "अगर यही सबकुछ तुम्हारी राधा बेटी के साथ उसके ससुराल के लोग करेगें तो तुमको कैसा लगेगा? परक बेटी को लात और आपन बेटी को भात?"
"तुमको कौन बुलाया था, जो टाँग पसारने चली आई?" हुड़की खोल, चाची बमक कर बाहर निकल आई थी।

इसी पर मैंने एक कहानी लिखी- 'नारी तेरे रूप कितने' लेकिन जिस माँ की प्रेरणा से मैंने यह कहानी लिखी, उसे सुनाने से पहले माँ ने इस दुनिया से विदा ले ली। उसकी जगह मुझे काम मिल गया। इस दौरान खदान को मैंने बहुत नज़दीक से देखा-जाना। मज़दूरों की जीवन-दशा और उनकी गाढ़ी कमाई पर गिद्ध नज़र गडाये भेड़ियों को देखा। मज़दूरों और उनकी स्त्रियों के नंगे बदन पर लिखी लूट-खसोट की इबारतों को पढ़ा। जब भी मैं किसी व्यथित मज़दूर से मिलता, मेरे भीतर एक कहानी का जन्म हो चुका होता। सच को सच और ग़लत को ग़लत कहने का साहस हमने माँ में देखा था। आज मैं अपने गाँव का इकलौता कथा लेखक हूँ तो इसके पीछे 'माँ' ही प्रेरणा स्रोत है और उनकी प्रेरणा ही मेरे जीवन का मूल आधार है।


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2 Total Review
M

Minakshi

10 September 2024

बहुत सुंदर संस्मरण अभिव्यक्ति कोशल भी बहुत अच्छा है

सुजाता

16 August 2024

श्यामल बिहारी जी का संस्मरण बेहद मार्मिक और प्रेरणास्पद

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रचनाकार परिचय

श्यामल बिहारी महतो

ईमेल : shyamalwriter@gmail.com

निवास : बोकारो (झारखण्ड)

जन्मतिथि- 15 फरवरी 1969
जन्मस्थान- ग्राम मुंगो (झारखण्ड)
शिक्षा- स्नातक
संप्रति- तारमी कोलियरी सीसीएल कार्मिक विभाग में वरीय लिपिक स्पेशल ग्रेड पद पर कार्यरत और मजदूर यूनियन में सक्रिय
प्रकाशन- 'उबटन', 'बिजनेस', 'लतखोर' एवं 'बहेलियों के बीच' (कहानी संग्रह) 'कोयला का फूल' (उपन्यास)
संपर्क- पो०- तुरीयो, ज़िला- बोकारो (झारखंड)- 829132
मोबाइल- 6204131994