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'सिलसिला मुनादी का' में सामाजिक सरोकार व समन्वय की भावना- के० पी० अनमोल

'सिलसिला मुनादी का' में सामाजिक सरोकार व समन्वय की भावना- के० पी० अनमोल

सिलसिला मुनादी का आशा सिंह का पहला ग़ज़ल संग्रह है, जिसमें इनकी कुल 90 ग़ज़लें संकलित हैं। इन ग़ज़लों से गुज़रते समय इस तरह के अनेक शेर आपके सामने से गुज़रेंगे। इनकी ग़ज़लें पढ़ते हुए आपको लगेगा कि ये कोई गीतकार है, जो ग़ज़ल लिख रहा है या कोई कथाकार। आशा जी कई अन्य विधाओं में भी लिखती हैं लेकिन ग़ज़ल उनकी मुख्य विधा ही है। कुल मिलाकर यह कि आज के हिंदी ग़ज़लकारों में इनकी अपनी एक अलग शैली दिखाई पड़ती है। और ऐसा केवल एक संग्रह और 90 ग़ज़लों में होना, एक बड़ी ताक़त कहा जा सकता है।

सिलसिला मुनादी का पुस्तक की ग़ज़लों को पढ़ते हुए एक बात लगातार ज़ेहन में बनी रही कि इस पुस्तक में न सिर्फ़ महिला रचनाकारों की ग़ज़लों से बल्कि आज के समस्त हिंदी ग़ज़ल लेखन से कुछ अलग है। क्या अलग! वह लहजा, वह व्याकुलता, जो 'साए में धूप' में झलकती है। ये कहकर मैं इस पुस्तक की रचनाकार को हिंदी ग़ज़ल के भीष्म पितामह दुष्यंत के आसपास रखने का दुस्साहस बिलकुल नहीं कर रहा और न ही किसी प्रकार की अतिशयोक्ति का कोई सवाल पैदा कर रहा हूँ। दरअसल अब तक हिंदी ग़ज़ल का जितना पाठ मेरे द्वारा किया गया है, उसके आधार पर यह बात रखने की जुर्रत कर रहा हूँ।
इस संग्रह के कुछ शेर देख लीजिए, फिर आगे बढ़ते हैं-

वे बादलों से बहारों की बात करते हैं
मैं परेशां हूँ झुलसती फ़सल दिखाने को
____________

हो थोड़ी देर मगर ख़लबली तो होगी ही
ख़ामोश झील में पत्थर कोई डाला जाए
____________

भूख से रोते बच्चे की आवाज़ पर
लोग लाकर बजाने लगे झुनझुने

और फिर ये-

सिलसिला यूँ ही सलामत रखो मुनादी का
किसी की नींद खुलेगी, कोई तो जागेगा

दुष्यंत के आसपास का यह लबो-लहजा, यह कहन उनके बाद के ग़ज़लकारों में न के बराबर देखने को मिलती है।

सिलसिला मुनादी का आशा सिंह का पहला ग़ज़ल संग्रह है, जिसमें इनकी कुल 90 ग़ज़लें संकलित हैं। इन ग़ज़लों से गुज़रते समय इस तरह के अनेक शेर आपके सामने से गुज़रेंगे। इनकी ग़ज़लें पढ़ते हुए आपको लगेगा कि ये कोई गीतकार है, जो ग़ज़ल लिख रहा है या कोई कथाकार। आशा जी कई अन्य विधाओं में भी लिखती हैं लेकिन ग़ज़ल उनकी मुख्य विधा ही है। कुल मिलाकर यह कि आज के हिंदी ग़ज़लकारों में इनकी अपनी एक अलग शैली दिखाई पड़ती है। और ऐसा केवल एक संग्रह और 90 ग़ज़लों में होना, एक बड़ी ताक़त कहा जा सकता है।

इनकी ग़ज़लों के कथ्य में पर्याप्त विविधता मिलती है। प्रेम, समाज और उससे जुड़े सरोकार, महिला विमर्श यहाँ तक कि दलित विमर्श भी लेकिन संग्रह की ग़ज़लों से गुज़रते हुए मेरा ध्यान दो विषयों ने अधिक खींचा। अपने समय के विविध सरोकार तथा सद्भाव व समरसता की भावना। इस संग्रह की ग़ज़लों में ये दो भाव बड़ी मज़बूती से उपस्थित होते हैं।

सरोकार संपन्नता से जुड़े कुछ शेर तो आप ऊपर देख ही चुके हैं, जहाँ हवाई ख़यालों में गुम व्यवस्था को ज़मीनी हक़ीक़त से रूबरू करवाने को बेताब आमजन की तड़प, सोये पड़े मन-मस्तिष्कों को झकझोरने के लिए लगातार प्रयासरत रहने के संदेश और मुद्दों की चाह रखने वाले सामान्य आदमी के आगे सत्ता और मीडिया द्वारा रखे जाने वाले 'बहलावों' का ज़िक्र है। इसके अतिरिक्त अनेक ऐसे शेर हैं, जो सामान्य जन की भाषा में उसी की ज़रूरतों व स्थितियों की बात करते हैं।

सरोकार संपन्न होना आशा जी के लेखन का स्वभाव ही जान पड़ता है। इनकी ग़ज़लों में नाज़ुक ख़यालों की शायरी या नज़ाकत-नफ़ासत से भरी परंपरागत ग़ज़लगोई के इतर सजग एवं सचेत रचनाकार की भांति मानव और मानवता से जुड़ी हर ज़रूरी चीज़ मिलती है। विमर्श मिलता है। इस विमर्श में सामान्य आदमी के जीवन की वे सब नकारात्मक एवं सकारात्मक बातें आती हैं, जिनसे देश और मनुष्य जाति का गहरा जुड़ाव है।

आज का समय प्रदर्शन एवं विरोध का समय है। विरोध के लिए आवाज़ उठाना एक अलग बात है लेकिन आवाज़ इतनी ऊँची हो जाए कि वह शोर में तब्दील हो जाए तो विरोध का मूल मंतव्य ही भटक बैठता है। ऐसा होता हुआ हम पिछले कई सालों से देखते भी आ रहे हैं। कभी आंदोलन के दौरान रेल की पटरियाँ उखाड़ बैठना, कभी निर्दोष लोगों की गाड़ियाँ फूँक देना और कभी किसी की जान तक ले लेना, ये सब हमारे यहाँ के प्रदर्शनों में आम बात है। इस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए ग़ज़लकार बहुत कम शब्दों में सटीक शेर कहती हैं-

उनका मक़सद समझ नहीं आया
शोर इतना था उनके नारों में

आरोप-प्रत्यारोप के दौर में बहुत कम लोग हैं, जो अपने काम में पूरी ईमानदारी और समर्पण के साथ लगे हुए हैं। मेहनत का कोई तोड़ नहीं है। आपका काम, आपकी मेहनत एक न एक दिन आपको वह मुकाम ज़रूर दिलवाएँगे, जिसके आप हक़दार हैं। महत्त्वपूर्ण है अपने आप पर विश्वास बनाए रखना और अपनी जगह पर बने रहना। सफलता का हमेशा एक प्रोसेस होता है। यह प्रोसेस कम या अधिक समय में आपकी मेहनत, आपके समय का रिटर्न आपको ज़रूर देता है। लेकिन इस दौर में होता इसका उल्टा है। यहाँ प्रलाप करने वाले अधिक पाये जाते हैं। तभी रचनाकार एक सधी हुई सलाह को शेर के माध्यम से रखती हैं-

मुख्य पन्नों पे लाएगी दुनिया तुम्हें
हाशिए पर मुकम्मल रहो तो सही

एक साहित्यकार अपने समय के सच का शब्द-चित्र खींच कर पाठकों के सामने रख देता है। कई दफ़ा वह सच सबको पता होता है, सबके सामने होता है बस उसे शब्द किसी रचनाकार के माध्यम से मिल पाते हैं। हमारे समय का एक सच यह भी है कि यहाँ कोई भी अच्छी बात, अच्छी सलाह नहीं सुनना चाहता। दिनभर हज़ारों नकारात्मक बातें हमारे आसपास घूमती मिलेंगी क्यूँकि हम ग़लत और नकारात्मक चीज़ों पर ही अधिक ठहरते हैं। उसी में रूचि रखते हैं। सोशल मीडिया के दौर में रील्स का ही उदाहरण देख लीजिए। एक अच्छी रील, जो कोई अच्छा तथ्य प्रस्तुत कर रही होगी या कोई अच्छी बात बता रही होगी, उसे बहुत कम व्यूज़ मिले दिखेंगे। वहीं कोई फ़ालतू की बेकार बात या उटपटांग हरकत की रील मिलियंस व्यूज़ बटोर रही होगी। यही स्थिति हम अपने आसपास भी तो अनुभव कर रहे हैं। आप किसी को अच्छी सलाह देकर देखिए, अच्छी बात बता कर देखिए।
आशा जी का यह शेर एक कड़वी सच्चाई ही तो है-

सुनने वालों में इक्के-दुक्के हैं
कोई अच्छी सलाह है शायद

पुस्तक में एक महिला रचनाकार के अपने जीवन और परिवेश पर कहे गये कुछ शेर भी मिलते हैं।

उम्र भर बदले कई पिंजरे हमारे
और हर बदलाव शर्तों पर मिला है
____________

है सही सम्बल तो मंज़िल भी सहज है दोस्तो
बेल पहुँची है शिखर तक डालियों पर झूल के

यहाँ पहला शेर एक स्त्री के उम्रभर बदलते ठिकानों यानी पिता का घर, पति का घर, बेटे का घर की ओर इंगित करते हुए यह भी सच सामने रखता है कि इन बदलते ठिकानों के साथ हर बार टर्म एण्ड कंडीशंस भी अलग होती हैं। पिता के घर एक बेटी से जो अपेक्षा होती है, पति के घर एक पत्नी से उससे बहुत अलग अपेक्षाएँ होती हैं और बेटे के घर में एक माँ, एक सास या दादी से बिलकुल अलग। लेकिन इन सबमें जो नदारद है, वो है एक महिला का अपना स्वामित्व, अपनी चाहतें तथा उसकी किसी के द्वारा की जाने वाली फ़िक्र।

इसके विपरीत दूसरा शेर एक अलग परिदृश्य हमारे सामने रखता है। यहाँ ग्राहस्थ जीवन में समर्पण और श्रद्धा के महत्त्व को उजागर किया गया है। एक महिला, जिसे समझने वाला, कद्र करने वाला और हर समय साथ खड़ा रहने वाला हमसफ़र मिला हो, वह एक 'बेल' की भांति 'अपने पेड़' को पूरी तरह समर्पित हो जाती है और हमसफ़र के दम पर उसके जीवन को सम्पूर्ण करने के साथ-साथ, अपने जीवन को भी सार्थक बना लेती है।
इस तरह के अनेक शेर, अनेक परिदृश्य इस पुस्तक में मिलते हैं।

ए०सी० में घुमते हैं, बनकर दलित मसीहा
महलों से झोंपड़ी की, काया बदल रहे हैं

पिछड़ों के उत्थान के लिए कार्यरत 'मसीहाओं' की कार्यविधि पर व्यंग्य करता यह शेर भी एक गहरा सरोकार अपने भीतर लिए हुए हैं। यही तो हम अपने आसपास देख रहे हैं। एक विशेष वर्ग के मसीहाओं की मानसिकता के साथ-साथ शेर हर उस क्षेत्र में दख़ल देता है, जहाँ के लीडर अपना उल्लू सीधा करने के लिए एक बड़े वर्ग को सब्ज़बाग़ दिखाए रहते हैं।

उपरोक्त विभिन्न सरोकारों को अपनी ग़ज़लों के माध्यम से अभिव्यक्ति देने के अलावा आशा सिंह जी आपसी सामंजस्य और समन्वय की भावना की प्रबल समर्थक जान पड़ती हैं। समन्वय की भावना हमारी भारतीय संस्कृति की सदियों से एक विशेषता रही है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने भी गोस्वामी तुलसीदास जी को हिंदी का विराट कवि होने के पीछे समन्वय की भावना का उल्लेख किया है और द्विवेदी जी ने कहा भी है कि भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय करने का अपार धैर्य लेकर आया हो।

आशा सिंह जी के ग़ज़लकार के पास जाति, धर्म, रंग जैसे संकुचित पैमानों के लिए कोई जगह नहीं है। वे मनुष्य को मनुष्यता के साथ देखना चाहती हैं और चाहती हैं कि ऐसी तमाम चीज़ें हमें हमारे भीतर से निकाल फेंकनी चाहिए, जो हमारे जीवन को, मानवता को, देश को नकारात्मकता की ओर धकेलती हों।

रंग भेद की निति यहाँ पर जाति-धर्म तक छायी है
एक धर्म बस मानवता का, उसको सदा निभाते रहना

हम हर समय अपने आसपास और देश के विभिन्न हिस्सों में कभी धर्म तो कभी जाति के नाम पर माहौल को ख़राब होता देखते हैं। यह कौन और क्यूँ करता है, इससे एक क़दम आगे बढ़कर सोचें कि इससे किसका और क्या नुकसान होता है तो पाएँगे कि नुकसान केवल हमारा होता है। हम यानी इंसानों का, जो एक शांत और सुकून के परिवेश में जीना चाहते हैं। आदमी से आदमी की इन टकराहटों से हमारे ही आसपास तनाव का माहौल पैदा होता है, जिसमें एक डर, एक घुटन बनी रहती है, जो हर घड़ी हमारे मन को भयभीत बनाए रखती है। तो इस तनाव को क्यूँ उपजने दिया जाए! इसीलिए तो रचनाकार आग्रह करता है कि-

क़त्ल इंसानियत का होता है
बंद करिए तनाव की बातें

इस समय जहाँ मुट्ठी भर लोगों के आपसी वैमनस्य के कारण बाक़ी की अधिकतर जनता का जीना मुहाल हुआ जाता है तो उस समय हमारा दायित्व और अधिक बढ़ जाता है। भय का माहौल रचने वाले इन लोगों के ख़िलाफ़ हमें ही क़दम उठाना होगा ताकि ख़राब होते माहौल को बदतर होने से बचाया जा सके। ऐसे में हमें आपसी मुहब्बत को और बढ़ाना होगा और एक-दूसरे का हाथ और मज़बूती से थामना होगा। बकौल आशा सिंह यही इस समय वक़्त का तकाज़ा है-

फ़िलहाल यही हमसे तकाज़ा है वक़्त का
ख़ुशबू की तरह साथ निभाने की बात हो

उनके अनुसार अगर हम अपने हिस्से की मुहब्बत को लुटाते रहेंगे तो कहीं न कहीं इस नफ़रत को कम करने का भी जतन होता रहेगा-

नफ़रतें जिनकी है फ़ितरत उन्हें मुबारक हो
अपने हिस्से की मुहब्बत तो लुटायी जाए

पुस्तक की रचनाकार आशा सिंह जी की अपने समय पर बहुत बारीकी से नज़र है। वे लगातार विघटनकारी शक्तियों का पर्दाफाश करती हैं और आह्वान करती हैं कि हमें, एक सामान्य इंसान को आज किस चीज़ की ज़रूरत है। वे जानती हैं कि नफ़रत केवल बिगाड़ करती है और यह बिगाड़ हमारा व्यक्तिगत भी होता है और देश व समाज का सामूहिक भी। आपसी वैमनस्य से, तनाव से, दंगों से किये जाने वाले ज़रूरी कामों की गति रूकती है, विकास अवरुद्ध होता है, ध्यान भटकता है। हम अपने इतिहास में झाँके तो भी बहुत कुछ समझ जाएँगे कि हमने ख़ुद अपना कितना नुकसान किया है। कम से कम इस शिक्षित समय में, तकनीकी युग में तो अब यह जान लेना चाहिए कि हमें, हमारे समाज, हमारे देश को नफ़रत की नहीं, एकजुटता की ज़रूरत है। रचनाकार कम शब्दों में बहुत ज़रूरी बात कहती हैं-

अपना मक़सद बनें, सद्भाव रहे दुनिया में
हम कहीं भी रहें, दुनिया का कोई देश रहे
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इक-दूसरे के ऐब गिनाना फ़िज़ूल है
बनकर मिसाल कोई दिखाओ ऐ दोस्तो
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यूँ जिएँ फूल के मानिंद उम्र हो जितनी
बाद जाने के सुगंधों का असर शेष रहे

संग्रह सिलसिला मुनादी का की पड़ताल करते हुए इसकी रचनाकार आशा सिंह जी के सरोकार व समन्वय की भावना की पक्षधरता प्रभावित करती है। इनकी 'सरोकार सम्पन्नता' और बेबाक कहन इन्हें अन्य ग़ज़लकारों से अलग खड़ा करती है। जबकि इस दौर की ज़रूरत 'आपसी सद्भाव' के प्रति इनकी चिंता तथा उसके प्रति समझाइश इन्हें एक साहित्यकार के दायित्व व प्रतिबद्धता के प्रति सजग सिद्ध करती है।

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रचनाकार परिचय

के० पी० अनमोल

ईमेल : kpanmol.rke15@gmail.com

निवास : रुड़की (उत्तराखण्ड)

जन्मतिथि- 19 सितम्बर
जन्मस्थान- साँचोर (राजस्थान)
शिक्षा- एम० ए० एवं यू०जी०सी० नेट (हिन्दी), डिप्लोमा इन वेब डिजाइनिंग
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, दोहा, गीत, कविता, समीक्षा एवं आलेख।
प्रकाशन- ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल' (2013), 'कुछ निशान काग़ज़ पर' (2019), 'जी भर बतियाने के बाद' (2022) एवं 'जैसे बहुत क़रीब' (2023) प्रकाशित।
ज्ञानप्रकाश विवेक (हिन्दी ग़ज़ल की नई चेतना), अनिरुद्ध सिन्हा (हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे), हरेराम समीप (हिन्दी ग़ज़लकार: एक अध्ययन (भाग-3), हिन्दी ग़ज़ल की पहचान एवं हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा), डॉ० भावना (कसौटियों पर कृतियाँ), डॉ० नितिन सेठी एवं राकेश कुमार आदि द्वारा ग़ज़ल-लेखन पर आलोचनात्मक लेख। अनेक शोध आलेखों में शेर उद्धृत।
ग़ज़ल पंच शतक, ग़ज़ल त्रयोदश, यह समय कुछ खल रहा है, इक्कीसवीं सदी की ग़ज़लें, 21वीं सदी के 21वें साल की बेह्तरीन ग़ज़लें, हिन्दी ग़ज़ल के इम्कान, 2020 की प्रतिनिधि ग़ज़लें, ग़ज़ल के फ़लक पर, नूर-ए-ग़ज़ल, दोहे के सौ रंग, ओ पिता, प्रेम तुम रहना, पश्चिमी राजस्थान की काव्यधारा आदि महत्वपूर्ण समवेत संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
कविता कोश, अनहद कोलकाता, समकालीन परिदृश्य, अनुभूति, आँच, हस्ताक्षर आदि ऑनलाइन साहित्यिक उपक्रमों पर रचनाएँ प्रकाशित।
चाँद अब हरा हो गया है (प्रेम कविता संग्रह) तथा इक उम्र मुकम्मल (ग़ज़ल संग्रह) एंड्राइड एप के रूप में गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध।
संपादन-
1. ‘हस्ताक्षर’ वेब पत्रिका के मार्च 2015 से फरवरी 2021 तक 68 अंकों का संपादन।
2. 'साहित्य रागिनी' वेब पत्रिका के 17 अंकों का संपादन।
3. त्रैमासिक पत्रिका ‘शब्द-सरिता’ (अलीगढ, उ.प्र.) के 3 अंकों का संपादन।
4. 'शैलसूत्र' त्रैमासिक पत्रिका के ग़ज़ल विशेषांक का संपादन।
5. ‘101 महिला ग़ज़लकार’, ‘समकालीन ग़ज़लकारों की बेह्तरीन ग़ज़लें’, 'ज़हीर क़ुरैशी की उर्दू ग़ज़लें', 'मीठी-सी तल्ख़ियाँ' (भाग-2 व 3), 'ख़्वाबों के रंग’ आदि पुस्तकों का संपादन।
6. 'समकालीन हिंदुस्तानी ग़ज़ल' एवं 'दोहों का दीवान' एंड्राइड एप का संपादन।
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