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सीमा सिंह की कहानी- वो अजनबी

सीमा सिंह की कहानी- वो अजनबी

तैयार होने के बाद ज़रूरत का सामान बैग में रखकर एक नज़र घड़ी पर डाली तो आठ बजने में दस मिनट अभी भी बाक़ी थे। कस कर जूड़े में बाँधे हुए बालों को खोल कर ब्रश से सँवारा और यूँ ही मुक्त छोड़ दिया अपने कंधों पर लहराने के लिए। मुकुल ने डोरबैल बजाने के लिए हाथ रखा ही था कि हल्के धक्के से दरवाज़ा खुल गया।वत्सला शीशे के सामने खड़े होकर कभी बाएँ कभी दाएँ गरदन घुमा कर खुद को निहार रही थी ठीक तभी मुकुल ने कमरे में प्रवेश किया।

"आईना देखकर कहते हैं सँवरने वाले,
आज बेमौत मरेंगे मेरे मरने वाले।"

वत्सला मन बार बार समेटकर घर में लाती और मन था कि जैसे वही रह गया। कभी कोई बात कौंध जाती तो होंठ स्वतः ही मुस्कुरा उठते। कभी इधर करवट कभी उधर,पर न मन शांत हो रहा था, न नींद आ रही थी। वत्सला हौले से उठी दरवाजा खोल कमरे से बाहर निकल आई । पलट कर देखा तो उसकी मनःस्थिति से अनजान महेश गहरी नींद में डूबा था।

बाहर लॉबी में आकर अपने मोबाइल में टाइम देखा तो रात के बारह बज कर चालीस मिनट हो रहे थे।

“बाप रे! एक बजने को आया आज नींद को हुआ क्या है! सुबह ऑफिस में रिपोर्ट भी देनी हैं मीटिंग की।” बुदबुदाते हुए वत्सला ने स्टडी का रुख किया। एक हाथ में पानी की बॉटल दूसरे हाथ में मोबाइल, चश्मा और अपने ऑफिस की फाइल थामें कंप्यूटर टेबल पर जम गई।

पीसी ऑन किया ही था कि मोबाइल पर मेल चमका। पढ़ते हुए चेहरे पर मुस्कान बिखर गई।
“आप परेशान मत होइए मिसेज माथुर आपके ऑफिस पहुँचने से पहले ही पूरी डिटेल्स आपके पास होंगी, आप दस मिनट में रिपोर्ट रेडी कर लेंगी।”
चलते वक्त जितने आश्वस्तकारी स्वर में कहा था उतनी ही जिम्मेदारी से निभा भी दिया।
“शुक्रिया शब्द छोटा है वत्सला ! फिर भी इसी से काम चलाइये फिलहाल।”
तुरन्त रिप्लाई भी कर दिया उसने।
“आप अब तक जाग रही हैं?"
“आप भी तो।”
“अजी ! हमने तो किसी से वादा किया था।”
“जगने का ! ”
“जी नहीं, न जगने का और न ही जगाने का। सो जाइए शुभरात्रि।”
वत्सला के स्वभाव में इतनी वाचालता तो न थी फिर आज ये ईमेल चैट!

अपने भीतर के बदलाव से स्वयं भी अचंभित वत्सला भीतर कमरे में जा कर लेट तो गई थी पर नींद अभी भी आँखों से कोसों दूर थी। किसी फिल्म के दृश्य की भाँति बीते हुए दो दिन आंखों में घूम रहे थे।

रात के दस बज कर ठीक बीस मिनट पर नई दिल्ली जैसे व्यस्त स्टेशन पर एक पल भी समय का अहसास नहीं हुआ। ऑफिस की गाड़ी लेने आने वाली थी। वही स्टेशन पर मुकुल से वत्सला की मुलाकात हुई।

“नमस्कार, मैं मुकुल तिवारी आकाशवाणी दिल्ली से ! आपका स्वागत है...” धीर गम्भीर मधुर स्वर में जैसे कोई उद्धोषणा हो गई हो, अब आगे कहना हो कि अब अगला कार्यक्रम है...
वत्सला आवाज़ की गहराई में खो सी गई थी।
“आप वत्सला माथुर हैं ना?” उसे चुप देख सामने से प्रश्न आया।
"जी" कह कर वत्सला ने अभिवादन मुद्रा में अपने दोनों हाथ जोड़ दिए।
“आप मुझे लेने आएं हैं?”
“जीहाँ।”

गाड़ी में बातों का जो दौर शुरू हुआ वत्सला को लगा ही नहीं कि वह मुकुल से पहली बार मिल रही है। हल्के फ़ुल्के माहौल ने सफ़र की सारी बोझिलता उतार दी थी। कुछ मुकुल के स्वभाव और कुछ दिल्ली के ट्रैफिक की बदौलत, होटल पहुँचने तक वत्सला, अगले दिन के कार्यक्रम से लेकर मुकुल के स्टॉफ, गाँव,ऑफिस के नुक्कड़ पर मिलने वाली चाय, उसके गमलें में खिले ताज़े फूल, उसके ससुर जी के गुस्से, माँ के हाथ के बने बेसन के लड्डू, पकिस्तान को लेकर भारत की नीतिगत ख़ामियाँ, चेतन भगत की लेखनी की कमियाँ, गुलज़ार की शायरी की विशेषताएं, सूती कपड़े पहनने से होने वाले लाभ, कौन सा पौधा किस मौसम में लगाएं, जागना हो तो क्या पढ़ें और नींद लानी है तो कौन सी किताब पढ़ें! वगैरह वगैरह अनगिनत जानकारी से युक्त हो चुकी थी।

होटल के कमरे में छोड़ सुबह आठ बजे मिलने के वादे के साथ मुकुल निकला, तो कुछ लम्हों के लिए वत्सला उसकी बातों में ठहर सी गई थी। मुकुल की बताई बातें याद कर वह मुस्कुराती ही रहती, अगर फोन न बजता। मोबाइल की घंटी उसको वापस होटल के कमरे में ले आई थी। सामान्य बातचीत में महेश ने पत्योचित चिंता जताई थी। उसका अपना मन मुकुल की बातों में ऐसा उलझा था कि होटल पहुँच कर भी उसने पति को पहुंच जाने की सूचना तक ना दी थी। पति और बच्चों को वो पल भर के लिए भूल भी सकती है, वत्सला को खुद पर यकीन ना आया। देर बहुत हो चुकी थी सुबह जल्दी भी निकलना था तो उसने डिनर कमरे में ही मँगवा लिया था। सुबह मीटिंग में जाने के लिए वत्सला ने साड़ी पहनी थी। बाहर पीली पीली धूप चमक रही थी हल्के फिरोज़ी रंग की शिफ़ान की साडी के साथ दूधिया सफेद मोतियों का सेट पहन वत्सला मीटिंग में जाने को तैयार थी।

घड़ी में साढे सात बजते ही घंटी बजी वत्सला ने दरवाज़ा खोला सामने प्रतीक्षित अतिथि था,मुकुल। वह वत्सला को देख एक पल ठिठका,गर्दन एक ओर झुका कर उसकी तरफ़ देखा और मुस्कुरा कर पूछा,“चलें?”
वत्सला ने सिर हिला कर हामी भरी और अपना सफ़ेद रंग का बड़ा सा बैग उठाकर कमरा लॉक कर पीछे पीछे चल पड़ी। होटल के शांत कॉरीडोर में सैंडिल की हील की खट-खट गूंज उठी।

बीस मिनट का सफ़र दिल्ली जैसे महानगर के ट्रैफिक ने बढ़ा कर पैतालीस मिनट का कर दिया। सुबह की धूप अपने चटक रंग बिखेरने लगी थी। गाड़ी से बाहर आस-पास साथ-साथ रेंगती गाड़ियों की लम्बी कतार ऐसी लग रही थीं जैसे किसी परांदे के नीचे लटकने वाली रेशम में गुँथी हुई सुनहरी लश्कारें मार रही हो। मुकुल के स्वर से देर तक गर्दन टेढ़ी करके खिड़की के कांच से पार झाँकती हुई वत्सला का ध्यान भंग हुआ,
“आप चुपचाप आँखों से ही पी जाती हैं सब!”

चौंककर वत्सला ने ड्राइव करते हुए बीच सड़क पर दोनों हाथ स्टेरिंग पर टिकाए उसकी आँखों में झाँकते हुए मुकुल की ओर पलट कर देखा, मुकुल की निगाह की तेज़ी उसे भीतर तक कँपा गई। स्वयं को सम्भालने के उपक्रम में उसने अपने हाथों को मसला, उसकी उँगलियाँ पलभर में ही एयर कंडीशंड गाड़ी में भी चिपचिपा गईं थीं।

अपनी कमज़ोरी छुपाने के लिए हौले से मुस्कुराना चाह रही थी पर जैसे चेहरे की मसल्स ने साथ ही नहीं दिया, तो हल्के गला साफ़ करते हुए अपनी सफाई बोली, “मैं बात कम करती हूँ, मुकुल जी।”
“पता नहीं यार! लोग चुप कैसे रह पाते हैं,यकीन मानिये मेरे तो शब्द कूद कूद कर बाहर निकलने को बेताब रहते हैं।” कहते-कहते मुकुल खिलखिला उठा।

वत्सला भी मुस्कुरा रही थी उसकी भी मुस्कान हमेशा से बड़ी थी। लगता था कानों को अब छुआ अब छुआ पर शायद मुस्कान को हंसी की चौखट लांघने की आदत न थी तो बस कोर खुलते खुलते रह गए। ट्रैफिक चली, गाड़ी खिसकने लगी।

वत्सला ने कनखियों से मुकुल को निहारा। घनघोर घुंघराले बाल, नुकीली नाक, छोटे-छोटे सफ़ेद मोतियों जैसे दाँत, जो बात-बे-बात अपनी झलक दिखला वत्सला को विस्मित कर देते। बच्चों की सी मासूम मुस्कुराहट, कनपटी के पास बालों से झांकती चांदी की चमक और स्निग्ध ताम्बई रंगत लिए चेहरे की चमकीली त्वचा, शरारत भरी चमक लिए गहरी काली आँखें, सब मिलकर बना मुकुल का करिश्माई व्यक्तित्व, जिसके तिलिस्म में वत्सला खोती चली जा रही थी।
अचानक मुकुल ने पलट कर देखा तो एकटक उसी को ताकती वत्सला की जैसे चोरी पकड़ी गई। मुकुल के होंठों के किनारे खुले फिर चमक बिखरी और सिमट गई। 

“आपकी साड़ी का कलर बहुत अच्छा है मुझे बहुत पसंद है।” वत्सला की तरफ इशारा कर मुकुल ने कहा तो वत्सला झुककर अपनी साड़ी देखने लगी।
“शुक्रिया ये मेरे हसबैंड की पसंद है, उन्होंने गिफ्ट की है।
“अच्छा! बहुत बढ़िया पंसद है उनकी।”
पता नहीं उसने वत्सला को देखकर अर्थपूर्ण ढंग से कहा था या सिर्फ वत्सला को ही लगा पर मुकुल आदतन मुस्कुरा रहा था।

“अभी तक जान नहीं पाया हूँ माथुर साहब करते क्या हैं!”

“ओह वो, गवर्नमेंट जॉब में हीं है। बिजली विभाग में इंजीनियर हैं। दो बेटे हैं बड़ा इसी साल मेडिकल में सिलेक्ट हुआ है और छोटा नाइंथ क्लास में है।”
“कमाल है आपको देख कर लगता नहीं आपके बच्चे इतने बड़े होंगे।”
“जी, बच्चे बड़े हुए हैं तब तो वापस अपने काम से जुड़ रही हूँ।”
“चलिए अपनी मंजिल आ गई।” एक बड़े होटल के पोर्टिको में गाड़ी रोकते हुए मुकुल ने कहा।

अपना बैग और फाइल समेटती हुई वत्सला गाड़ी से उतर गेट की ओर बढ़ गई। अंदर हॉल में सबसे औपचारिक परिचय के साथ ही मीटिंग शुरू हो गई वाचाल और चंचल मुकुल अब एक नई भूमिका में दिखाई दे रहा था। बड़ी सजगता से पेपर सहेजते गम्भीर मुख मुद्रा वाले मुकुल का नया रूप देख कर वत्सला और भी प्रभावित हो उठी।

मीटिंग उम्मीद से जल्दी ही समाप्त हो गई। वैसे भी ऐसी मीटिंग्स औपचारिक ही रहती हैं। मीटिंग खत्म होते ही,सब निकल पड़े मुकुल ने घड़ी में समय देखा और वत्सला से पूछा,
”कोल्ड कॉफी कैसे लगती है आपको?”
अचानक आए सवाल के लिए वत्सला तैयार नहीं थी। चौंक कर पूछा,
"क्यों?"
“अरे अभी चार भी नहीं बजा है, आप हमारे शहर में हैं, मौसम थोड़ा सा गर्म है! इसलिए पूछ लिया। नहीं पसंद है तो कोई बात नहीं। और भी कई ड्रिंक मिलते हैं हमारे यहाँ! नींबू पानी से लेकर बियर तक जो पसंद हो!"

बात खत्म करते-करते मुस्कान हल्की हँसी में बदल गई वह हँसी जो अब वत्सला के दिल दिमाग पर छाती चली जा रही थी। ऐसा बदलाव जो उसने कभी अपने भीतर ना देखा था, मन में हलचल मचाए जा रहा था। मुकुल का साथ जैसे वत्सला को किशोरावस्था की दहलीज पर ले आया था। गाड़ी पार्क कर पैदल ही सारा कनॉट प्लेस घूम डाला था दोनों ने।

“आप पहले भी दिल्ली आई हैं?” वत्सला को चुपचाप आइसक्रीम खाते देख मुकुल ने पूछा।
“जी दो चार बार आना तो हुआ है पर, एक बार मीटिंग में, बाकी दो बार नई दिल्ली स्टेशन तक बल्कि दो बार तो सिर्फ़ प्लेटफार्म पर गाड़ी बदलने भर को।”
“तो आपने हमारा शहर देखा ही नहीं है!” मुकुल ने कंधे उचकाकर अचंभित स्वर में पूछा में पूछा।
“सच कहूं तो मैं यहां की भीड़ भाड़ और भागमभाग से घबरा जाती हूँ। बहुत बार मन किया मॉन्यूमेंट्स देखूं पर कभी मौका ही नहीं बना।”
“वापसी कब की है आपकी?”
मुकुल ने उत्साहित स्वर में पूछा।
“कल रात की गाड़ी है नौ बजे नई दिल्ली स्टेशन से पकड़नी है।” वत्सला ने प्रोग्राम बताया।
“फिर क्या बात है कल का पूरा दिन फ्री है आपका!”
मुकुल के स्वर में बच्चों की सी किलक थी।
"दरसल यहां मेरे पति की बुआ रहती हैं। उनसे मिलना है। नोएडा जाना है,कल।"

वत्सला ने अपने रात की गाड़ी से जाने की असल वजह का खुलासा किया।
अचानक मुस्कुराहट का जगमगाता दीप झप से बुझ गया। मुकुल के चेहरे के भाव छुपाते छुपाते भी वत्सला ने पढ़ लिए थे।

अगले ही पल को खुद को थाम फिर से मुस्कुराने लगा था मुकुल। शायद वत्सला का साथ उसे भी अच्छा लग रहा था। दिनभर की थकान वत्सला के चेहरे पर उतर आई थी। मुकुल के पूछते ही उसने भी होटल चलने की हामी भर दी।

वत्सला को होटल छोड़ते समय मुकुल थोड़ा गम्भीर हो चला था और वत्सला भी। दिनभर साथ रहने के बाद भी नम्बरों का आदान प्रदान नहीं हो पाया था।वापस रुककर मुकुल ने वत्सला से उसका नम्बर मांगा," आपको कल स्टेशन मिलने तो आ सकता हूँ?"
"अरे, क्यों तकलीफ़ करेंगे आप!" वत्सला ने बात का सिरा ही सी दिया था जैसे अपने शब्दों से।
"मेरा नम्बर सेव कर लीजिए अगर कोई भी ज़रूरत हो तो बेहिचक कॉल कर लीजिएगा। कल तक तो हैं ही आप!"

नमस्कार के साथ ही मुकुल अपनी गाड़ी लेकर निकल गया और वत्सला खुद में खोई सी होटल के कमरे में आकर बेड पर पसर गई देर तक धूप में घूमकर जमी धूल और पसीने की परत नहा कर उतारी। अपनी फेवरिट इलायची वाली चाय मंगवा कर पीने के बाद वत्सला बहुत तरोताज़ा महसूस कर रही थी।

अपने मोबाइल से पति को फोन मिलाकर बेटे के और घर की व्यवस्थाओं के हाल चाल लिए।बेटे से बात की और सामान्य निर्देश देकर फोन काट दिया।

तुरन्त ही पति का नम्बर मोबाइल पर दुबारा चमका, वत्सला चौंक उठी,"अरे क्या हुआ? सब ठीक तो है न? आपने दुबारा कॉल की!"
सशंकित स्वर में वत्सला ने पति से पूछा।
"अरे, बताना भूल गया! तुम कल बुआ जी के घर जाने वाली हो न!"
"हाँजी बस अभी उनको ही फोन करने वाली थी तब तक आपका फोन आ गया।"
"अरे मत करना अब। वो बड़े भैया की ससुराल में किसी की डैथ हो गई है सारे लोग वहीं गए हैं। अभी बुआ जी का फोन आया था।"
"ओह!"
"अब तुम क्या करोगी कल दिनभर, ट्रेन तो रात की है!"
पति ने चिंता जताते हुए कहा तो वत्सला हँसते हुए बोली,"आराम करुँगी या फिर दिल्ली दर्शन को निकल जाऊँगी आप परेशान न हों मैं मैनेज कर लूँगी।"
पति को तो समझा दिया पर स्वयं उधेड़बुन में लग गई कि कैसे बिताएगी पूरा दिन अकेले।
"क्या करूँ! मुकुल को बता दूँ?" बस ये विचार मन आते ही, ना जाने कब उंगलियाँ स्वतः ही मोबाइल पर दौड़ गई।
दो घंटी मुश्किल से बज सकी होगी कि दूसरी ओर से मुकुल का मधुर स्वर बिखरा,"जी वत्सला जी कहिए!"
"जी वो मेरे पति का फोन आया था! वो जहाँ कल मुझे जाना था न, जो मेरे पति की बुआ जी रहती हैं न।"वत्सला ने अटकते स्वर में कहा।
मुकुल आधे अधूरे वाक्यों में उलझा, "जी जी, हाँजी हाँ हाँ" कहता बात समझने का प्रयास कर रहा था।
"मैं शायद आपको समझा नहीं पा रही हूँ।" कहते हुए वत्सला 'फिस्स' की आवाज़ के साथ हँस पड़ी
"मेरे कहने का मतलब है कि मैं कल दिनभर यही दिल्ली में ही हूँ तो कुतुब मीनार देखना चाहती हूं।" वत्सला ने एक साँस में अपनी बात कह डाली।
मुकुल की ओर से कोई प्रत्युत्तर न पाकर उसने झट से आगे जोड़ा,"अगर आप कहीं व्यस्त न हो तो!"
"अरे नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं है मैं पहुँच जाऊँगा। आप सुबह आठ बजे रेडी रहिएगा।" मुकुल ने वत्सला के स्वर की हिचकिचाहट पहचान कर तुरन्त कहा।
"जी ठीक है।सुबह मिलते हैं।"
"ओके शुभरात्रि।"
थकी-माँदी वत्सला जल्दी ही नींद की वादियों में गुम हो गई।

सुबह जल्दी जागकर वत्सला नहा धोकर फ्रेश हो गई।फुर्सत से तैयार होने के मौके कम ही हाथ लगते थे। अपनी मोरपंखी हरी साड़ी की मैचिंग की बिंदी के साथ नन्ही सी सफेद बिंदी भी सजा ली थी माथे पर।अर्से बाद अपने होठों की रंगत बदली थी। आँखों के किनारे बारीक़ सी कजरारी लकीरों के बंद बाँध कर पलकें झपकाकर स्वयं को मुग्ध भाव से निहारा।

तैयार होने के बाद ज़रूरत का सामान बैग में रखकर एक नज़र घड़ी पर डाली तो आठ बजने में दस मिनट अभी भी बाक़ी थे। कस कर जूड़े में बाँधे हुए बालों को खोल कर ब्रश से सँवारा और यूँ ही मुक्त छोड़ दिया अपने कंधों पर लहराने के लिए।

मुकुल ने डोरबैल बजाने के लिए हाथ रखा ही था कि हल्के धक्के से दरवाज़ा खुल गया।वत्सला शीशे के सामने खड़े होकर कभी बाएँ कभी दाएँ गरदन घुमा कर खुद को निहार रही थी ठीक तभी मुकुल ने कमरे में प्रवेश किया।

"आईना देखकर कहते हैं सँवरने वाले,
आज बेमौत मरेंगे मेरे मरने वाले।"

मुकुल की आवाज़ सुन वत्सला के गालों पर उतरी लाज की सुर्खी कानों तक फैलती चली गई। अपनी बेपरवाही पर खुद ही शर्माती वत्सला के मुँह से एक शब्द न निकला। कितनी बड़ी लापरवाह है वह, चाय देकर बॉय के जाने के बाद उसने डोर लॉक ही नहीं किया था। मुकुल अपनी मुस्कान समेटते हुए सामने वाले सोफे पर टिक पास पड़ी पत्रिका के पेज़ ऐसे पलटने लगा जैसे उसका अपने ही कहे शब्दों से कोई वास्ता ही न हो।

"आपने नाश्ता किया?" मैग्ज़ीन में से सिर उठाकर वत्सला की ओर बिना देखे मुकुल ने पूछा।
"नहीं, अभी थोड़ा जल्दी है इतनी जल्दी नाश्ता करने की आदत नही है मुझे।"
"तो आपको कुतुबमीनार देखनी है!" मुकुल ने जिस अन्दाज़ में कहा उससे वत्सला अब तक अच्छी तरह परिचित हो चुकी थी।
"देखना तो पूरी दिल्ली चाहती हूँ पर सिर्फ दिनभर का समय है मेरे पास।"
वत्सला ने सहजता से उत्तर दिया।
कोई नहीं, चलिए इस बार कुतुबमीनार ही सही।"
इसी बीच पहले से ऑर्डर की हुई कॉफ़ी और बिस्कुट से सजी ट्रे रखकर रूम सर्विस वाला लड़का भी कमरे में होकर चला गया।
कॉफी पीते-पीते मुकुल ने सुझाव दिया,
"क्यों न एक काम करें वत्सला जी!"
वत्सला ने प्रश्नवाचक नज़रों से मुकुल की ओर देखा।
"आप अपना सामान भी गाड़ी में रख लें समय बचेगा। वापसी में सीधे स्टेशन चलेंगे सामान लेने होटल नहीं आना पड़ेगा।"

बात वत्सला को भी जँच गई। अपना सामान समेट कर दस मिनट के भीतर वत्सला निकलने के लिए तैयार खड़ी थी। लगेज़ लेकर मुकुल कमरे से बाहर निकला ही था कि होटल स्टाफ ने लपक कर सामान ले लिया और गाड़ी तक पहुँचा दिया।

अभी नौ भी न बजा था और धूप चटक दुपहरी सी हो गई थी। बड़ा सा घास का मैदान उसपर घूमते सैलानी,बच्चों के साथ आए परिवार, किसी स्कूल के बच्चे जो कुतुबमीनार पिकनिक के लिए आए थे बड़े अनुशासित ढंग से पंक्तिबद्ध आगे बढ़ रहे थे। बाल सुलभ चपलता चेहरों से छलक रही थी टीचर से आँख बचा एक दूसरे से छेड़छाड़ करते बच्चों को देखने में खोई वत्सला के बगल में मुकुल भी अपनी कार पार्क करके आ खड़ा हुआ था। उसे बच्चों को देखने में डूबा देख मुकुल धीरे से फुसफुसाया, "वत्सला जी, कुतुबमीनार वो उधर सामने है ये तो बच्चों की रेलगाड़ी है।"

मुकुल की बात सुनकर वत्सला खिलखिलाकर हँस पड़ी। अब तक मुकुल ने वत्सला की ऐसी हँसी सुनी न थी वह ठिठक कर रह गया। अपलक वत्सला को निहारता ही रह गया। वत्सला आगे बढ़ चली तो वह भी उसके पीछे हो लिया।
दूर तक फैले घास के मैदान पर लोग कहीं चटाई कहीं चादर बिछाए तो कुछ यूँ ही घास बैठे ऐसे लग रहे थे कि ज़िंदगी से कुछ लम्हे चुरा कर ज़िंदगी जी लेना चाहते हों। इनको देखकर लग रहा था जैसे भागदौड़ में जीना भूली ज़िंदगी साँस लेने को दो पल ठहर गई हो।

सजग पहरी सी पत्थर की वह ऊँची सी इमारत जैसे लाल वर्दी में सुसज्जित पहरेदार हो जिसके भरोसे रात भर पूरा शहर अपने अपने घरों में चैन से सोता हो। बुलन्द खड़ी मीनार प्रतिपल कहती प्रतीत हो रही है चिंता न करो मैं हूँ।

"पहले कुतुबमीनार के भीतर जा सकते थे। पर अब पिछले कई सालों से रोक लगा दी है।"
टकटकी बाँधे कुतुबमीनार को निहारती वत्सला से मुकुल ने कहा।
"जीहाँ, वो पुरानी फ़िल्म है न जिसमें देवानन्द और नूतन गाना गाते घूम रहे हैं। मैंने देखा है। "वत्सला ने चहकते हुए कहा।
"और ये पिलर देख रहीं हैं इसकी एक कहानी है।"मुकुल ने बताना शुरू किया।
"जीहाँ कहीं पढ़ा था मैंने,फिर 'चीनीकम' फिल्म में देखा था।"
"आप फिल्में देखती हैं?"
"हाँ पर सारी नहीं, कुछ चुनिंदा ही। अब ना तो इतना समय मिलता है और फिल्में भी तो पता नहीं कैसी बनने लगी हैं।"

खुली जगह में घूमते पुरानी इमारत की बारीक नक्काशी को देखते सराहते दोनो एक कोने में जा टिके। वत्सला की निगाहों में कौतूहल के साथ संतोष भी तैरने लगा था। इस बुलंद इमारत को देखने की बरसों की साध जो पूरी हुई थी। मंत्रमुग्ध सी वत्सला पुरानी कलाकारी में पूरी तरह से खोई हुई थी।

"अब उधर चले?" अचानक मुकुल ने खड़े होते हुए पूछा।
"क्या है उधर?" उठते उठते वत्सला ने पूछ ही लिया।
"उस तरफ़ बगीचा है और पीने का पानी भी।" मुकुल मुस्कुराते हुए बोला।
"पानी, पानी तो मेरे पास भी है!" वत्सला ने अपने बड़े से बैग से बोतल निकाल कर मुकुल को पकड़ा दी। चलते चलते पानी पी मुकुल ने बोतल वापस कर वत्सला को बताया।
"यहाँ गुलाब की बीस से भी ज्यादा किस्में है!"
"अच्छा" वत्सला के स्वर में उत्सुकता थी। मुख्य प्रवेश द्वार के दूसरी तरफ स्थित बगीचे तक पहुँच चुके थे। रंग-बिरंगे गुलाब के छोटे बड़े असंख्य पौधे हवा में लहरा रहे थे जिनकी खुशबू हवा में बिखरी हुई थी।
"यह यह हरा भी गुलाब है?"
वत्सला ने एक फूलों से लदी टहनी की तरफ इशारा करते हुए पूछा।
"जी हाँ,कितना खूबसूरत है!" मुकुल में प्यार से पौधे को निहारते हुए कहा।
एक के बाद दूसरी तीसरी बारी-बारी से सारी कतारों से गुजर पौधे, कलियाँ, फूल निहारते,जानकारी बांटते, मुकुल ने अचानक से कहा,
"भूख लग रही है!"
वत्सला ने अपनी कलाई पर नजर डाली और बोली,
"अरे दो बज गया।"
"चलें?"
"कहाँ?"
"आप चलिए तो सही!"
किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह सर हिला मुकुल के पीछे पीछे चल पड़ी वत्सला।
"क्या खाना पसंद करेंगी आप?" गाड़ी बैक करते हुए मुकुल ने पूछा।
"कुछ भी जो आसानी से उपलब्ध हो! बस फास्ट फूड थोड़ा कम पसंद है मुझे।"
"सुनिए, एक आईडिया है!आपको खाना बनाना आता है?" मुकुल ने शरारती अंदाज़ से पूछा।
"हाँ जी आता तो है पर किचन में बना पाती हूँ गाड़ी में नहीं।"
वत्सला ने भी उसे उसी के अंदाज़ में उत्तर दिया।
"चलिए यहाँ से दस मिनट की दूरी पर है किचन!"
मुकुल का अर्थ वत्सला ठीक से समझ पाती तब तक मुकुल ने गाड़ी घुमा दी।
"आइए, इधर से आ जाइए!"

मंजिल पर पहुँच रास्ता बताता मुकुल आगे आगे चलता हुआ एक फ्लैट के बाहर ठहरकर जेब से चाबी निकालने लगा। लॉक्ड फ्लैट के बाहर खड़ी वत्सला एक नव परिचित व्यक्ति के साथ...अचानक, उसकी सोच को झटका लगा। वह कर क्या रही है? अपनी उम्र, पद, प्रतिष्ठा, सुरक्षा सब कुछ भूल कर एक अनजान व्यक्ति के साथ कहाँ खड़ी हुई है किसी अप्रत्याशित घटना के लिए किसको दोषी ठहराएगी। वह कैसे बिना आगा पीछा सोचे चली आई। वत्सला का सिर घूम गया। पसीने से तरबतर वत्सला से बेखबर मुकुल ने ताला खोला और ज़ोर से बोला,
"सरप्राइज़"
"अरे तुम आ भी गए? तुम तो शाम को आने वाले थे!"
अंदर से स्त्री का मधुर स्वर सुन वत्सला को थोड़ा संबल मिला।
"आइए वत्सला जी! इनसे मिलिए यह मेरी सोन चिरैया, जिसको मैं ताले में बंद रखता हूँ।"

मुकुल ने सामने इशारा कर कहा तो मुकुल के हाथ की दिशा में नजर गई वत्सला चित्र लिखित सी रह गई। सामने व्हील चेयर पर जैसे सौंदर्य साक्षात मूर्त रूप में प्रकट हो गया।

गहरे गुलाबी रंग की कुर्ती जिस पर काले रंग के स्प्रिंग स्टिच से गोल गले के किनारे-किनारे छोटे-छोटे गुलाब की कढ़ाई की हुई थी,जो गले में काले मोतियों की माला का सा आभास दे रही थी। नीचे काले रंग की लॉंग स्कर्ट, जिस पर कुर्ती के रंग के छींटे ऐसे पड़े थे जैसे किसी बच्चे ने पेंटिंग करते हुए अचानक ब्रश से अतिरिक्त रंग झाड़ दिया हो और वे सारे छींटे स्कर्ट पर आ गिरे पहले मोटी और फिर क्रमशः छोटी होती गई बूंदों के रूप में। माथे पर आधी काली आधी गुलाबी, ड्रेस से मैचिंग की बिंदी, गालों की रंगत ऐसी जैसे देर तक हंसने से खून का दौरा बढ़कर जो रक्ताभ रह जाए न कम न ज्यादा! जो बड़ी से बड़ी सौंदर्य विशेषज्ञ भी अपने किसी प्रसाधन से ना ला सके। मांग में सिंदूर बस चुटकी भर, लंबे काले खुले बाल जो आराम से गोद में रखे थे।

"तो आप हैं वत्सला जी! अरे मुकुल आप ने यह नहीं बताया वत्सला जी इतनी सुंदर दिखती हैं।"

उसने अपनी व्हीलचेयर बढ़ाई मुकुल ने लपक कर पीछे से थाम कर आगे बढ़ा दिया। मुकुल के पास पहुँचकर उसने धीरे से मुकुल के हाथ पर चपत लगाई।

"नमस्कार वत्सला जी! मैं शीतल हूँ। मुकुल की पत्नी।
नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़कर वत्सला सोच में पड़ गई कितनी मूर्ख हूँ मैं भी सब कुछ पूछा बताया पर कल से एक बार भी मुकुल की पत्नी के बारे में नहीं पूछा।
"अपना ही घर है! अंदर आइए ना, वत्सला जी।" दरवाजे पर ठिठकी हुई वत्सला की ओर शीतल ने हाथ बढ़ाया तो वत्सला ने झट से उसका हाथ थाम लिया।
"ओके! ब्यूटीफुल लेडीज़! आप लोग बाते कीजिए,मैं अभी हाज़िर होता हूँ।"
मुकुल अपनी मुस्कुराहट के मोती बिखेरता चला गया। इस बार वत्सला ने मुस्कान के मोती बीनने का प्रयत्न नहीं किया था। उसे महसूस हुआ शायद ये मोती उसके लिए नहीं हैं।
"आप आराम से बैठिए! वत्सला जी।"

किनारे की ओर की कुर्सी बैठी वत्सला को शीतल ने लगभग खींचकर आपने बिल्कुल बगल वाले सोफे पर बैठा लिया। वत्सला शीतल का आत्मीयता भरा व्यवहार देखती ही रह गई। दोनों स्त्रियाँ साथ बैठ हौले हौले अजनबीपन की गाँठें खोलती चली जा रही थीं।

शीतल एक सवाल करती, वत्सला उत्तर देती,तबतक शीतल दूसरा सवाल उछाल देती। बातों ने औपचारिकता का आवरण उतारना शुरू किया ही था कि मुकुल ट्रे में तीन कप चाय और स्नैक्स लेकर आ गया।

"टी-ब्रेक" और ट्रे दोनों के सामने की टेबल पर रखकर टेबल की दूसरी ओर पड़े सोफे पर आ बैठा।
"शीतल हमेशा से व्हील चेयर पर नहीं थी वत्सला जी!"
मुकुल ने जैसे वत्सला के मन की हलचल को पढ़ लिया था।
मुकुल की बात से माहौल में उदासी फैल गई।
"ओह! फिर कोई हादसा?मेरा मतलब एक्सीडेंट हुआ था क्या?" वत्सला ने हौले से पूछा।
"नहीं वत्सला जी वो हादसा नहीं था। मौका तो खुशगवारथा।" मुकुल ने समंदर जैसी गहराई भरी आवाज़ में कहा।
"बस डॉक्टर से ज़रा सी चूक हो गई। और तो और डॉक्टर भी हमारा अपना ही था।" शीतल ने बात में आगे जोड़ा।
"मेरे बेटे के जन्म के समय कुछ कॉम्प्लीकेशंस आ गई थी, उस समय जो इंजेक्शन दिए गए वो रिएक्शन कर गए। बेहोशी में पहले तो पता ही नहीं चला। पर जब उठाया गया तो खड़ी भी न हो सकी। कमर के नीचे के हिस्से में लकवा मार गया था"  शीतल ने इतनी सहजता से वत्सला के मन में उमड़ते-घुमड़ते प्रश्नों का उत्तर दे दिया जैसे वह अपनी नहीं किसी और के बारे में बात कर रही हो। बहुत सोच समझ कर किसी ने उसे नाम दिया होगा शीतल। यथा नाम तथा गुण।

"मुकुल, वत्सला जी का पेट क्या बातों से ही भर दोगे? मैं फ्री थी तो राजमा बना दिया था सोचा था शाम को काम आ जायेगा"
शीतल ने मुस्कुराते हुए कहा तो वत्सला को लगा कि सारी चमक किसी डिबिया में भर कर रख ले।

मुकुल ने मेज पर बिखरे बर्तन झटपट समेट कर ट्रे में रखे ही थे कि वत्सला ने उसके हाथ से ट्रे ले ली और किचन की ओर बढ़ गई। पीछे पीछे मुकुल और शीतल भी आ गए तीनों ने मिलकर लंच तैयार कर लिया। फिर साथ बैठकर खाया भी पूरे समय कभी मुकुल तो कभी शीतल कोई न कोई चुटकी लेते रहे और हँसते खिलखिलाते रहे। वत्सला भी इस खुशमिज़ाज़ जोड़े को देखदेख मोहित होती रही। मुकुल और शीतल की ऊर्जावान संगति में समय कपूर की तरह उड़ गया। ढेरों वादों और इरादों के बाद मिली विदाई की उदासी वत्सला के चेहरे पर तो साफ़ दिखाई दे रही थी मुकुल भी अपनी मुस्कान के आवरण में छुपा नही पा रहा था। दो दिन साथ बिताने के बाद अब वे अपरिचित न थे।

"आपका साथ बहुत अच्छा रहा वत्सला जी" मुकुल ने नम स्वर में कहा।
"मुझे भी आपके साथ एक पल को भी नहीं लगा कि हम पहली बार मिल रहे हैं।"

ट्रेन अपने समय पर थी। वत्सला का लगेज रखकर मुकुल सामने वाली खाली सीट पर बैठ गया। ट्रेन में बैठते हुए वत्सला की आँखें नम हो गई बहुत कुछ कहना चाह रही थी पर शब्द गले में ही घुटकर रह गए।

वत्सला ने घड़ी पर नज़र मारी और मुकुल की ओर देखा। उसका अभिप्राय समझ मुकुल उठ खड़ा हुआ वत्सला के हाथ पर अपना हाथ रख कर बोला, “चलिए में भी उतरता हूँ अब"

स्वयं को सहेजती संभालती वत्सला ने सिर हिलाकर हामी भरी। ट्रेन चल पड़ी मुकुल,प्लेटफॉर्म,स्टेशन और दिल्ली शहर सब पीछे छूटता चला जा रहा था। वत्सला अब भी अपने हाथ पर वह गुनगुना स्पर्श महसूस कर रही थी।

"अरे तुम सोई नहीं अभी तक?"
पति के स्वर से वत्सला के विचारों की कड़ियाँ बिखर गई जैसे ट्रेन से निकल धम से बिस्तर पर आ गिरी हो।
"हाँ, काम कर रही थी।"

पति को उत्तर दे वत्सला ने खींचकर आँखे बंद कर ली। नींद अब भी आँखों में नहीं थी, पर मन में दो दिन में एक नई जिंदगी जी लेने का रोमांच था। वत्सला ने अपने दोनों हाथ गाल के नीचे दबाकर सोने की मुद्रा बनाई। उसकी दोनों हथेलियों के बीच में मुकुल के हाथ का गुनगुना स्पर्श अभी भी बाक़ी था।

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शशि श्रीवास्तव

12 July 2024

बेहद भाव प्रवण सवेदनशील व रोचक कहानी

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रचनाकार परिचय

सीमा सिंह

ईमेल : libra.singhseema@gmail.com

निवास : ग्रेटर नोएडा (उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि- 30 नवम्बर 1973 
जन्मस्थान- बदायूँ (उत्तर प्रदेश)
लेखन विधा- लघुकथा एवं कहानी
शिक्षा- स्नातकोत्तर – (हिंदी साहित्य, मनोविज्ञान।) 
संप्रति- महासचिव,शक्ति ब्रिगेड सामाजिक एवम् साहित्यिक संस्था, सदस्य, सम्पादक मंडल, लघुकथा कलश (अर्धवार्षिक पत्रिका) एवं स्वतंत्र लेखन 
प्रकाशन- • पड़ाव और पड़ताल खण्ड-28 (छह नवोदिताओं की छियासठ कथाएँ), लघुकथा-अनवरत संकलन (साझा संकलन), नई सदी की धमक (साझा संकलन), स्त्री-पुरुष सम्बन्धी लघुकथाएँ (साझा संकलन), उद्गार (सांझा संकलन) सहित चालीस से अधिक साझा संकलनों में सम्मिलित।
• लघुकथा कलश पत्रिका, शोध-दिशा पत्रिका, दृष्टि पत्रिका, साहित्य अमृत पत्रिका, मृगमरीचिका पत्रिका, चेतना पत्रिका, मरु गुलशन के साथ ही पंजाबी पत्रिका गुसाइयाँ में अनुवाद सहित विभिन्न पत्रिकाओं में। • दैनिक जागरण, दैनिक ट्रिब्यून, राजस्थान पत्रिका, हिंदुस्तान,अमर उजाला, महानगर मेल, लोकजंग सांध्य दैनिक सहित विभिन्न समाचार पत्रों में। • yourstoryclub.com, openbooksonline.com, laghukatha.com, pratilipi.com वेबसाईट, तथा सेतु (Pittsburgh), हस्ताक्षर, अटूट बंधन सहित कई अन्य वेब पत्रिकाओं में
प्रसारण- बोल हरियाणा, रेडियो पर रवि यादव द्वारा लघुकथाओं का पाठ।
सम्मान/ पुरस्कार- कलश लघुकथा गौरव सम्मान - 2017
ग्वालियर साहित्य एवं कला परिषद द्वारा - महादेवी वर्मा सम्मान - 2017 आशा किरण समृद्धि फाउंडेशन द्वारा - शिक्षा गौरव सम्मान - 2017
रोटरी क्लब इलीट द्वारा - हिंदी भाषा सेवा सम्मान - 2018
विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ द्वारा - विद्या वाचस्पति सारस्वत सम्मान - 2018 रोटरी क्लब कानपुर इलीट द्वारा - वीमेन अचीवर सम्मान - 2019भारत उत्थान न्यास सम्मान - 2019
पुरस्कार: प्रतिलिपि कथा सम्मान प्रतियोगिता - प्रथम पुरस्कार - 2017
साहित्य सृजन संवाद कहानी प्रतियोगिता - विशिष्ट कहानी पुरस्कार - 2017
सेतु लघुकथा प्रतियोगिता - प्रथम पुरस्कार - 2018
संपर्क- रॉयल नेस्ट टेक ज़ोन -iv, ग्रेटर नोएडा गौतम बुद्ध नगर,(उत्तर प्रदेश)-201306
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