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शकुन अग्रवाल 'सहज' के गीत

शकुन अग्रवाल 'सहज' के गीत

धर्म-धर्म का खेल खेलते, भरते सबके हृद में रोष।
लूट-पाट दंगे फैलाकर, भरते जाते अपना कोष।
अपना उल्लू सीधा करते, कैसी कैसी चलते चाल।
लड़ते हैं आडंबर खातिर, इसे बनाते अपनी ढाल।
झूठी शान हेतु करते हैं, एक दूसरे पर ही वार।
जीत रही पशुता पग पग पर, आज रही मानवता हार।

एक- त्राहि-त्राहि करती धरती यह

त्राहि-त्राहि करती धरती यह, गूँज रही कैसी चीत्कार?
जीत रही पशुता पग-पग पर, आज रही मानवता हार।

वस्तु समझते हैं नारी को, भूल रहे करना सम्मान।
कन्या को देवी कहते फिर, होता क्यों उसका अपमान?
नहीं सुरक्षित सुता कहीं भी, विषय सोच का गहरा आज।
उसे शिकार बनाने को क्यों, घात लगाए बैठे बाज?
यह समाज का रूप घिनौना, बढ़ा रहा विस्तृत आकार।
जीत रही पशुता पग-पग पर, आज रही मानवता हार।

देते साथ सभी बल का ही, रहते कब निर्बल की ओर?
दुर्बल दीप बुझाये मारुत, दावानल को करता ज़ोर।
लुप्त हुई संवेदना कहीं, बचा नहीं नैनों में नीर।
अपने में ही खोया मानव, क्यों समझे न पराई पीर?
मित्र मदद करने को खोलो, आप सदा इस मन के द्वार।
जीत रही पशुता पग-पग पर, आज रही मानवता हार।

धर्म-धर्म का खेल खेलते, भरते सबके हृद में रोष।
लूट-पाट दंगे फैलाकर, भरते जाते अपना कोष।
अपना उल्लू सीधा करते, कैसी-कैसी चलते चाल।
लड़ते हैं आडंबर खातिर, इसे बनाते अपनी ढाल।
झूठी शान हेतु करते हैं, एक-दूसरे पर ही वार।
जीत रही पशुता पग-पग पर, आज रही मानवता हार।

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दो- जान नहीं पाते

जान नहीं पाते हैं मोती, लिखा भाग्य में कैसा लेख,
सीप मध्य ही खो जायेंगे या मिल सकता है संसार।

सपनों को आकाश न मिलता, रहें सीप के भीतर बंद,
टूट कदाचित जाते भीतर, निकले बाहर केवल चंद।
दीन दशा उनकी हो जाती, किस्मत की जब पड़ती मार,           
सीप मध्य ही खो जायेंगे या मिल सकता है संसार।

रहें तरसते ही वे हर पल, मिलती नहीं स्वाति की बूंद,
आस लिए वे राह देखते, सपने ले आँखों में मूंद।
जब पहचान नहीं बनती है, मिले नहीं उनको आकार,
सीप मध्य ही खो जायेंगे या मिल सकता है संसार।

हूक हृदय में उनके उठती, चले वेदना के कटु तीर,
सहे नियति का पक्षपात वे, किसे कहें अंतस की पीर।
जले न उम्मीदों का दीपक, हृदय गहन छाए अँधियार,
सीप मध्य ही खो जायेंगे या मिल सकता है संसार।

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तीन- गठबंधन का जोड़

हर बंधन से नाजुक होता, गठबंधन का जोड़,
किन्तु रहे विश्वास परस्पर, कोई सके न तोड़।

करते भाँवर सप्त शुरू नव, जीवन का अध्याय,
सप्त वचन ये वचन न केवल, हैं निष्ठा पर्याय।
एक नवल पथ बन जाता है, जीवन का आधार,
जीवनसाथी बनकर होते, स्वप्न सभी साकार।
रिश्ता यही विशेष बने अब, सब रिश्तों को छोड़।

किन्तु रहे विश्वास परस्पर, सके न कोई तोड़।

भाव नदी का मिलन अनूठा, उठे नेह का ज्वार,
संगम द्वय हृद का है होता, प्रणय प्रीत संचार।
गेह हृदय में अनुपम बनता, पाकर शुचि अनुराग,
नींव बनाते हैं इसकी तो, प्रेम, समर्पण, त्याग।
पार प्रीत भावों से होता, हर बाधा का मोड़,
किन्तु रहे विश्वास परस्पर, सके न कोई तोड़।

लेकर आती प्रीत हृदय में, नवल किरण, नव भोर,
महक प्राण में संदल के सम, पुलकित मन का छोर।
जीवन साथी के भावों का, धड़कन रखती ध्यान,
होता है निज हित से ऊपर, अब साथी का मान।
नित रहता सम्मान हृदय में, कभी न होती होड़।
होता यदि विश्वास परस्पर, सके न कोई तोड़।

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चार- यदि करना भव पार

अनियंत्रित यदि हुई इन्द्रियाँ, कैसे हो उद्धार?
रखना इन पर सदा नियंत्रण, यदि करना भव पार।

दास बना जो भी इनका है, मिलते उसको कष्ट,
नहीं बुद्धि फिर उसमें रहती, हो जाती है नष्ट।
वशीभूत इन्द्रिय के जो हो, कभी न होता तृप्त,
विषयों में ही डूबा रहता, राग-द्वेष में लिप्त।                 
इन्द्रिय निग्रह का तो होता, सदाचरण आधार,
रखना इन पर सदा नियंत्रण, यदि करना भव पार।

नहीं मनुज कर पाता अपने, जीवन का उपयोग,
दीन दशा हो जाती उसकी, जकड़ें उसको रोग।
आध्यात्मिकता को अपना लें, भौतिक सुख को त्याग,
दिव्य एक अनुभूति अलौकिक, हृद में जाए जाग।
मन में लें संकल्प हमें तो, पाना इससे पार,
रखना इन पर सदा नियंत्रण, यदि करना भव पार।

मोड़ इंद्रियों को यदि दें हम, आत्म-ज्ञान की ओर,
मिले भाव संतुष्टि भरा जो, है न उसका छोर।
वश में इसके रहने को हम, कभी न होंगे बाध्य,
बन जाती है साधन ये तो, जगत बने फिर साध्य।
करें मनन-चिंतन प्रभु का हम, पावन रखें विचार,
रखना इन पर सदा नियंत्रण, यदि करना भव पार।

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पाँच- कभी मन शांत झीलों-सा

कभी मन शांत झीलों सा, कभी उठता समंदर है,
दिखे मुस्कान होंठों पर, छुपी इक आह अंदर है।
 
कहीं पर फूल खिलते हैं, कहीं पत्ते न शाखों पर,
कहीं कौड़ी नहीं मिलती, कहीं है खेल लाखों पर।
कमी सच की हुई है, झूठ का ही बोलबाला है,
किसी से द्वेष हृद में रख, लहू हमने उबाला है।
नहीं कोई किसी से कम, छुपा सबमें सिकंदर है,
दिखे मुस्कान होठों पर, छुपी इक आह अंदर है।
 
मुखौटों में छुपे मुखड़े, नहीं होता भरोसा है,
जिसे समझा कभी सच्चा, उसी ने दुख परोसा है।
बुझा है दीप शुचिता का, जहाँ में पाप फैला है,
दिखें तन के धवल हैं जो, हृदय मैला-कुचैला है।
मिथक का आवरण बाहर, छुपा सच घोर कंदर है।
दिखे मुस्कान होठों पर, छुपी इक आह अंदर है।
 
नहीं राहत मिले दिल को, सभी राहें बनी सपना,
गए हैं भीड़ में खो हम, दिखे कोई नहीं अपना।
किसे कहते अरे चाहत, हुई वो तो किताबी है,
पड़ा तकदीर पर ताला, मिले हमको न चाबी है।
मदारी बन नचाये वो, बना मनु आज बंदर है,
दिखे मुस्कान होठों पर, छुपी इक आह अंदर है।

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रचनाकार परिचय

शकुन अग्रवाल 'सहज'

ईमेल : shakunagarwal44@gmail.com

निवास : राउरकेला (उड़ीसा)

जन्मतिथि- 22 फरवरी 1970
जन्मस्थान-पत्थलगांँव (छत्तीसगढ़)
लेखन विधा- छंद, ग़ज़ल, गीत, लघुकथा
शिक्षा-स्नातकोत्तर
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन
प्रकाशन- गीत संग्रह 'नेह वर्तिका' प्रकाशित
सम्मान- उड़ान साहित्य रत्न सम्मान, संकल्प साहित्य सौरभ सम्मान, काव्यांचल शास्त्र मणि सम्मान इत्यादि
पता- MM/13, सिविल टाउनशिप, राउरकेला-4, उड़ीसा
मोबाइल- 9437961691