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शमीम हयात  की ग़ज़लें

शमीम हयात  की ग़ज़लें

चाँद, सितारे, नदियाँ, सागर, धरती, अंबर महकेंगे
तुम आओ तो पतझड़ में भी गुल शाखों पर महकेंगे

संदल की ख़ुश्बू का डेरा है अब तेरी जुल्फों में
गर बैठी जूड़े में तेरे तितली के पर महकेंगे

 

ग़ज़ल-एक

वो पहाड़ों पर झुका है इस तरह से आसमाँ
पढ़ रहा हो जैसे गुज़रे मौसमों की चिट्ठियाँ

मैंने जाना, जब गुज़ारी बिन तेरे अबके बरस
किस क़दर हैं जानलेवा जनवरी की सर्दियाँ

आएगा जब फ़रवरी तो साथ ले कर आएगा
धूप ख़ुश्बू गुल बहारें रंग बिरंगी तितलियाँ

आएँगे फिर लौट कर वो बेंग्लोरी दिन कहाँ
शाम एम जी रोड की वो ख़ूबसूरत लड़कियाँ

उस से कह दो भीगने दे अबके सावन में हमें
बाँटता है कौन जाने बारिशों में छतरियाँ

क़ुर्बतें जिस्मों की हैं ये रूह का नाता नहीं
फ़ासला सा है अभी तक कुछ हमारे दरमियाँ

हिज्र में अबके दिलों का हाल ऐसा है हयात
रख गया हो कोई जैसे धूप में दो मछलियॉँ

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ग़ज़ल-दो

मिलन के गीत अब गाती है जमना पार की लड़की
किसी दिन डूब जाएगी ये खेवनहार की लड़की

क़बीले से बग़ावत इसलिए करनी पड़ी मुझको
मैं था अदना-सा इक लड़का, वो थी सरदार की लड़की

उसे जिल्लेइलाही आप ने चुनवा दिया लेकिन
मिसाले इश्क़ बन जाए न ये दीवार की लड़की

यहाँ बेटी पढ़ाएँगे बचाएँगे ये नारा है
मगर सरकार से भयभीत ख़ुद सरकार की लड़की

मुदावा कर रहा हूँ मैं असीरे-ग़म नहीं लगती
मुअत्तर है मिरी ख़ुशबू से वो अत्तार की लड़की

अजब है इश्क़ की दुनिया यहाँ नौकर की ख़ातिर भी
लटक जाती है पंखे से जो नंबरदार की लड़की

नज़र में सेठ की मुझको बड़ी वहशत झलकती है
ख़ुदा महफ़ूज़ रख लेना किराएदार की लड़की

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ग़ज़ल- तीन

चाँद, सितारे, नदियाँ, सागर, धरती, अंबर महकेंगे
तुम आओ तो पतझड़ में भी गुल शाखों पर महकेंगे

संदल की ख़ुश्बू का डेरा है अब तेरी जुल्फों में
गर बैठी जूड़े में तेरे तितली के पर महकेंगे

ऐ हमराही! जिन रास्तों से गुज़रेगा तू साथ मेरे
उन रास्तों के मौसम तो क्या, कंकड़, पत्थर महकेंगे

तुम रूठो तो फिर रूठेंगे झोंकें मस्त हवाओं के
तुम को छू कर आने वाले किसको छू कर महकेंगे

ख़्वाबों की इन देहलीज़ों पर आँखें दीप जलाती हैं
कब नींदों की बस्ती में फिर सपनो के घर महकेंगे

इक दिन तू बिछ्डेगा लेकिन मुझको ये लगता है 'हयात'
बरसों तक ये मेज़ ये कुर्सी, तकिया, चादर महकेंगे

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ग़ज़ल- चार

जब लोगों ने नाफ़, कमर पर और शानों पर शेर कहे
हमने उस की गहरी नीली नम आँखों पर शेर कहे

फूलों से भी बातें की और दरियाओं से गीत सुने
हमने कुछ दिन तक क़ुदरत की सौग़ातों पर शेर कहे

उसे चिढ़ाने को मैंने जब इक लड़की पर शेर कहा
उस ने मेरे सरकल वाले सब लड़कों पर शेर कहे

इक चौखट पर आँखें छोड़ी बंजारे ने जोग लिया
दर दर जा कर हीरें गाईं, महिवालों पर शेर कहे

छोड़ आए थे बूढ़ा बरगद आँखों में उम्मीद लिए
लौट के जाने की आशा में चौपालों पर शेर कहे

शाइर ने इक रात गुज़ारी जब दिल्ली की सड़कों पर
घर आ कर फिर ए.सी. खोला बदहालों पर शेर कहे

फूलों पर और तितली पर तो हयात् अभी सब कहते हैं।
कोई आए ऐसा भी अब जो शाख़ों पर शेर कहे।

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ग़ज़ल- पाँच

किसी पर तो ज़माने में भरोसा मुझको करना था
मुझे मालूम था ये भी उसे कह कर मुकरना था

वही दरिया हूँ मैं जिसको कभी मंज़िल न मिल पाई
मेरी तक़दीर में सेहराओं से हो कर गुज़रना था

उसे महसूस करता था मुक़य्यद कैसे कर लेता
वो ख़ुश्बू थी हवाओं में उसे इक दिन बिखरना था

चुरा कर ले गईं जिसको बहारें मेरी आँखों से
तेरी तस्वीर में मुझको वही एक रंग भरना था

वो जो पहचान लेता था मुझे क़दमों की आहट से
उसे ख़ुद अपने दर पर अब मेरी दस्तक से डरना था

हयात उसने जो माँगा था मुझे अक्सर दुआओं में
मुझे उस ही के हाथों की लकीरों में उभरना था

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रचनाकार परिचय

शमीम हयात 

ईमेल : Hayat.shamim@gmail.com

निवास : शामली(उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि- 5 फरवरी 1979
जन्मस्थान- शामली उत्तर प्रदेश 
लेखन विधा- ग़ज़ल गीत नज़्म
मोबाइल-7404972737