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शराफ़त अली ख़ान की तीन लघुकथाएँ

शराफ़त अली ख़ान की तीन लघुकथाएँ

बुढ़ापा क्या इतना दयनीय भी हो सकता है? वह सोचने लगा। उसने बिस्तर पर से उठने का असफल प्रयास किया। किंतु उठने की उसकी सारी शक्ति व्यर्थ गई। वह कमर तक उठा, फिर लेट गया। ये बुढ़ापा भी क्या कमीनी चीज है? वह ये सोचकर इस कठिन समय में भी मुस्कुरा पड़ा। वह लेटे-लेटे सोचने लगा। वक़्त ही दुनिया में सब कुछ है। एक वक़्त वह था, जब ट्रेनिंग के दौरान वह पच्चीस किलोमीटर की तेज चाल से चलकर वन विभाग के फिजिकल टेस्ट में पास हुआ था।

लघुकथा- एक 

प्यार


"हेलो बेटा हसन, कैसे हो?"
'मम्मी, मैं ठीक हूँ।"
"कहाँ हो, हॉस्टल में?"
"जी मम्मी, मैं हॉस्टल में ही हूँ।"
"बेटा, क्या तुम्हारे साथ लड़कियाँ भी पढ़ती हैं?"
"हाँ मम्मी, पढ़तीं हैं।"
"क्या वे भी तुम्हारे साथ हॉस्टल में रहतीं हैं?"
"नहीं मम्मी, वे गर्ल्स हॉस्टल में रहतीं हैं।"
"क्या तुम्हारी कोई दोस्त भी है?"
"हाँ मम्मी, साथ में पढ़तीं हैं तो सभी दोस्त ही हैं।"
"बेटा, उनके साथ घूमने तो नहीं जाते?"
"हाँ मम्मी, कभी-कभी हम दो-चार दोस्त मॉल वगैरा घूमने जाते हैं।"
"बेटा, लड़कियों में कोई मुस्लिम तो होगी नहीं?"
"हाँ मम्मी, कोई मुस्लिम लड़की नहीं है।"
"तो बेटा, तुम किसी लड़की के साथ मन्दिर वगैरह मत जाना।"
"क्यों मम्मी?"
" बेटा, अभी दो दिन पहले ही रामनगर में एक मंदिर के मेले की भीड़ में किसी ने एक लड़की के साथ मुस्लिम लड़के को पहचान कर शोर मचा दिया और भीड़ ने उस लड़के को बहुत मारा। वह तो भला हो उस नौजवान सरदार दारोगा का जिसने उस लड़के को अपने सीने में छुपा लिया और भीड़ की मार से बचाया।"
" मगर मम्मी, मेरे दोस्त तो मुझे प्रत्येक मंगलवार को हनुमान मंदिर ले जाते हैं और वहाँ के पुजारी भी मुझसे बहुत प्रेम करते हैं, जबकि वह अच्छी तरह जानते हैं कि मैं मुस्लिम हूँ।

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लघुकथा- दो 

खिलौने


कॉलोनी की गली में एक व्यक्ति ठेले पर लकड़ी की बारीक़ डैडोनुमा फन्टियों से बनी तीन ख़ानों की एक बुकसेल्फनुमा अलमारी बेच रहा था।
मैंने देखा तो मुझे महसूस हुआ कि यह किताबों के लिए बहुत उपयोगी रहेगी। इतने में हमारा पड़ोसी भी बाहर आ गया। मैंने उस व्यक्ति से अलमारी का मूल्य पूछा तो उसने चार सौ रुपये बताए। मैंने कहा भाई, मैंने कई साल पहले बेंत की इस तरह की अलमारी ली थी और वह चार सौ रुपये की थी, अब तुम लकड़ी की अलमारी चार सौ की तक बता रहे हो। सौ रुपये की देना हो तो बताओ। वह व्यक्ति खामोश हो गया, कुछ नहीं बोला। मैं अपने पोर्च में आ गया। तभी मेरा पड़ोसी मेरे पास आया, बोला, "भाई साहब,यह सौ रुपये में नहीं देगा। मैं देखूँ? शायद यह डेढ़ सौ रुपए में मान जाए।” मैंने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
थोड़ी देर बाद पड़ोसी आया और बोला, “भाई साहब, एक अलमारी उठा लीजिए। मैंने बात कर ली है।“
मैं बाहर जाकर एक अलमारी उठाकर पोर्च में रख ही पाया था कि श्रीमती जी का फोन आ गया। वह दिल्ली से ट्रेन से आ रही थीं। रास्ते में थीं। पूछा, “क्या हो रहा है?”
मैंने कहा- “एक लकड़ी की अलमारी वाला आया है मैंने उससे किताबों के लिए डेढ़ सौ रुपये में ले ली है।“ तब श्रीमती जी ने तुरंत कहा, "अरे एक और ले लीजिए, चप्पल- जूते रखने के काम आएगी।“ मेरे दिल में कहीं कोई चटखन सी हुई। मैंने दो अलमारी उठाकर ड्राइंग रूम में रख दी। एक अलमारी में एक मोटा सफेद कागज काटकर बिछाया और उसके ऊपर इधर उधर बिखरी हुईं पत्रिकाएँ और पुस्तकें रखने लगा। दूसरी अलमारी को वैसे ही छोड़ दिया।
थोड़ी देर बाद मैंने देखा के हमारी छह वर्षीय लाडो हाथ में कुछ छुपाए हुए मेरे सामने से जा रही थी। मैंने उससे पूछा,' “लाडो ,क्या छुपा रही हो, दिखाओ?”
उसने दोनों हाथ आगे किए तो एक हाथ में छोटी सी कार थी और एक हाथ में गुड़िया थी। बहू ने पीछे से आवाज दी, “लाडो, खिलौने कहां ले जा रही हो? अलमारी में मत रखना। पापा डाटेंगें।“
अब मैंने लाडो से पूछा, “खिलौनें अलमारी में रखोगी?” उसने स्वीकृत में सिर हिलाया।
मैं ने कहा, “आओ बेटा, रखो और जितने खिलौने हैं सब ला के रख दो।" लाडो ने एक-एक करके अपने सारे खिलौने लाकर अलमारी में सजा दिए।
शाम को श्रीमती जी ने आने पर ड्राइंग रूम में देखा की एक अलमारी में पुस्तके लगी थीं और दूसरी में लाडो के खिलौने। खिलौने देखकर वह नाराज हो गईं। बोली, “अरे खिलौने...! किसने रखें ?'
मैंने कहा, "लाडो ने।“
श्रीमती जी बोलीं, “खिलौने क्यों?” तब मैंने कहा, “भाग्यवान, दोनों अलमारियों में खिलौने हैं, एक में लाडो के खिलौने हैं और दूसरी में लाडो के पापा के।“

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लघुकथा- तीन 
डस्टबिन

बुढ़ापा क्या इतना दयनीय भी हो सकता है? वह सोचने लगा। उसने बिस्तर पर से उठने का असफल प्रयास किया। किंतु उठने की उसकी सारी शक्ति व्यर्थ गई। वह कमर तक उठा, फिर लेट गया। ये बुढ़ापा भी क्या कमीनी चीज है? वह ये सोचकर इस कठिन समय में भी मुस्कुरा पड़ा। वह लेटे-लेटे सोचने लगा। वक़्त ही दुनिया में सब कुछ है। एक वक़्त वह था, जब ट्रेनिंग के दौरान वह पच्चीस किलोमीटर की तेज चाल से चलकर वन विभाग के फिजिकल टेस्ट में पास हुआ था। ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट में रोज सुबह तीन किलोमीटर की दौड़ में भाग लेता और एक बार तो सारे ट्रेनीज़ को पीछे छोड़ते हुए वह सबसे आगे दौड़ा था। अब क्या हो गया ? मैं तो वही हूँ। मजबूत कद-काठी का, बस उम्र ही तो बढ़ गई है। जब आज से आठ साल पहले मैं रिटायर्ड हुआ तो सभी साथी लोग कहने लगे यार, तू तो अभी दस साल नौकरी और कर सकता था, क्या हुआ? इतनी जल्दी रिटायरमेंट? मैं हँसकर कहता, यार! सरकार शक्ल नहीं डॉक्यूमेंट देखती है, उसे क्या मालूम मैं अभी भी समर्थ हूँ?
इतने में पत्नी भीगे हुए चार बादाम, दो अंजीर और एक गिलास दूध लेकर आ गई। मैंने उठने का प्रयास किया। इस बार पत्नी ने सहारा देकर बिठाया और बादाम रख चली गई। बोली कुछ नहीं। मुझे मालूम है कि वह मुझसे नाराज़ है। पत्नी को तो हक़ होता है नाराज़ होने का। खासतौर पर बुढ़ापे में। वैसे वह जवानी के दबे हुए बदले भी तो गिन-गिन कर लेना चाहती है। ताने भी देती है। लेकिन मैं चुपचाप रहता हूँ। इस उम्र में चुप रहने में ही भलाई है। सारा गुस्सा जवानी में निकाल जो चुका हूँ। वह अक्सर बड़बड़ाती रहती है कि सारा दिन लेटे-लेटे किताबों में गुम रहते हैं या कहानियां लिखते रहते हैं, वह भी बेसिर-पैर की। अरे सुबह-शाम न सही कम से कम दिन में तो थोड़ा बाहर जाकर टहला करो। मगर क्या करूँ? मुझे टहलने से और घर से बाहर निकलने से एलर्जी हो गई है। सारी जवानी घर से बाहर ही काटी। सुबह होते ही ऑफिस जाने की जल्दी में कभी घर भी ठीक से नहीं देखा। शाम को लोग-बाग घर लौट आते हैं और मैं हमेशा अप-डाउन करने की वजह से रात के दस या ग्यारह बजे से पहले घर नहीं आ पाता और लोग संडे या त्योहार घर पर मनाते हैं। मगर पेड़ कभी अवकाश पर नहीं होते और जंगल कभी त्यौहार नहीं मनाता है। इसलिए उन दिनों और भी ज्यादा गस्त बढ़ जाती, चौकसी ज़्यादा करनी पड़ती। कई-कई दिन घर नहीं आ पाता, जंगल कोठी पर ही रहना पड़ता।
पत्नी के पास शिकायतों की एक पूरी गठरी है और जब वह गठरी खोलकर बैठती है तो मैं जमीन में जैसे गढ़ सा जाता हूंँ क्योंकि इसकी शिकायतें अपनी जगह वाजिब होती हैं। कभी बाहर घूमने नहीं ले गए, कभी दिल से शॉपिंग नहीं करा पाए। कभी बच्चों को नहीं देखा। स्कूल के पेरेंट्स मीटिंग के लिए टाइम ही नहीं रहा वगैरह-वगैरह।
पत्नी अब झूठे बर्तन उठाने आई तो मैंने उसकी निगाहों में झाँका। उसने ताड़ लिया। बोली, "क्यों क्या हुआ?"
"नाराज़ हो?" मैंने सीधे प्रश्न किया।
"नाराज़? नहीं तो, क्यों?" उसने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
"नहीं, यूँ ही, तुम्हारे चेहरे के हावभाव से लग रहा था।" मैंने स्पस्टीकरण देने का प्रयास किया।
पत्नी अब संभल चुकी थी। बोली," अब नाराज़गी करने से क्या फायदा। नाराज़ होने का समय तो बहुत पहले छूट गया है। अब तक तो मैं नाराज़गी को अतीत के डस्टबिन में डाल चुकी हूँ।" इतना कहकर पत्नी ने जाते-जाते घूमकर तिरछी नज़र से देखा। उसकी मुस्कराहट से मेरे भीतर बुझे दीप जल से उठे थे।

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रचनाकार परिचय

शराफ़त अली ख़ान

ईमेल : sharafat1988@gmail.com

निवास : बरेली(उत्तर प्रदेश)

जन्मतिथि-01 फ़रवरी 1958
शिक्षा-एम.ए. समाज शास्त्र, हिन्दी-प्रथम श्रेणी
सम्प्रति- क्षेत्रीय वन अधिकारी(से.नि.),स्वतंत्र लेखन
प्रकाशन- वर्ष-1978 में नंदन पत्रिका में प्रथम रचना प्रकाशित।तत्पश्चात अब तक सरिता,
सारिका, कादम्बिनी, हंस,चंपक,अहा!ज़िन्दगी, आजकल, अमर उजाला दै.आदि सैंकड़ों पत्र-
पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।
पुस्तकें- कहानी,लघुकथा, लेख,बालकथा और संस्मरण पर 7 पुस्तकें प्रकाशित।
विशेष- आकाशवाणी बरेली से कहानियों का प्रसारण।
अनेक रचनाओं का पंजाबी, अंग्रेजी, उर्दू ,नैपाली, गुजराती भाषा में अनुवादित।
सम्मान- अनेक साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित।
संपर्क- 343,फाइक इन्क्लेव, फेज-2,पो. रूहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली-243 006(उ.प्र.)
मोबाइल- 7906849034