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शीतल बाजपेयी के गीत

शीतल बाजपेयी के गीत

सूर्य डूबता नहीं कभी भी, धरा अक्ष पर घूमा करती।
दृष्टिकोण उत्कृष्ट बने तो मंज़िल पग को चूमा करती।
हार नही मानी है मैने, ना मरते दम तक मानूँगी।
जितना दुर्व्यवहार करोगे उतनी ही मजबूत बनूँगी।

जितने अत्याचार करोगे उतनी ही मजबूत बनूँगी
जितनी बार प्रहार करोगे उतनी ही मजबूत बनूँगी ।
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सूर्य डूबता नहीं कभी भी, धरा अक्ष पर घूमा करती।
दृष्टिकोण उत्कृष्ट बने तो मंज़िल पग को चूमा करती।
हार नही मानी है मैने, ना मरते दम तक मानूँगी।
जितना दुर्व्यवहार करोगे उतनी ही मजबूत बनूँगी ।

समय से पहले-भाग्य से ज्यादा, कभी किसी को मिला नहीं है
फिर भी ऐसा मन ना पाया जिसको रब से गिला नहीं है
अपना दुःख और दूजे का सुख कभी किसी ने कम आंका है
बंद हृदय के द्वार करोगे उतनी ही मजबूत बनूँगी ।

दुःख की आँच में तपकर ही तो कोई नवआकार मिलेगा
होगा जब अनुकूल समय तो मन का हरसिंगार खिलेगा
शूल हो कितने भी डाली पर पुष्प शिखर पर ही होता है
जितना खुद को खार करोगे उतनी ही मजबूत बनूँगी ।

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फिर से मुश्किल हैं राहों में, निश्चित ही कुछ अच्छा होगा।
फिर अवरोध लगा चाहों में, निश्चित ही कुछ अच्छा होगा।
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धूप गठरिया सर पे लादी पैरो में कांटो की पायल
सपने बाँधे उस आँचल से जिसका रोम रोम था घायल।
हरदम सींचा है अश्को से अंगारों के पथ को हमनें
पीर घुली है जब आहों में निश्चित ही कुछ अच्छा होगा।

मन का हो तो अच्छा माना, मन का न हो बहुत ही अच्छा
कुछ भी कर ले झूठा लेकिन सच्चा फिर होता है सच्चा
कितना दर्द सहेजे आखिर जख्मों की अपनी सीमा है
नमक लगाया है फाहों में निश्चित ही कुछ अच्छा होगा.

पत्थर के अंतस से हरदम फूटी है नदिया की धारा
घोर तिमिर के बाद हमेशा फैला करता है उजियारा
हो प्रतिकूल समय कितना भी जीवन चलता ही रहता है
भर लीं उम्मीदें बाहों में निश्चित ही कुछ अच्छा होगा।

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यादें, सहलाती है मन को।
कुछ अनमोल मखमली लम्हें
दे जाती हैं इस जीवन को।

आज सुबह जब चाय बनाई,
पीकर देखा, चीनी कम थी।
हल्की सी मुस्कान खिल उठी,
धड़कन भी थोड़ी मद्धम थी।
उस दिन भी बोला था तुमने
कब सीखोगी चाय बनाना
लाओ मैं ही चाय बनाऊं
लेकिन धोकर दो बर्तन को।
यादें, सहलाती हैं मन को।

कमरे की दीवारों के रंग
को लेकर कितना झगड़े थे
क्रीम कलर हो मन था मेरा
ब्लू ही होगा, तुम बिगड़े थे
ब्लू आया पर एक वाल पर
बाकी तीनों क्रीम कलर की
सबसे जब तारीफ मिली तो
इतराते देखा साजन को।
यादें, सहलाती हैं मन को।
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कोई बात नही मिलती है
मैं पूरब तो तुम पश्चिम हो।
लेकिन फिर भी तालमेल है
मैं बादल तो तुम रिमझिम हो।
ऐसा कहकर आज भी मेरा गुस्सा तुम कम कर देते हो
तुम हरदम ऐसे ही रहना
महकाना मन के आंगन को।
यादें, सहलाती हैं मन को।

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जब देखा गुलाब को मैंने

फिर गुलाब ने मुझको देखा
वो शबनम को लगा छुपाने
मैंने भी आँसू पी डाले।

हम दोनों ने ओढ़ रखी थीं
चेहरों पर झूठी मुस्कानें.
बेशक़ दोनों ने कोशिश की
मन की पीर न कोई जानें.
लेकिन मेरी ख़ामोशी से
उसकी ख़ामोशी यह बोली
हमनें ख़ुद अपने वजूद के
अनगिन हिस्से कर ही डाले?
वो शबनम को लगा छिपाने
मैंने भी आँसू पी डाले ।

क़िस्मत से ख़ुशबू पाई पर
काँटो के संग बीता जीवन.
गुलदस्ते में मुझे सजाकर
महकाया सबने घर-आँगन.
लेकिन मेरी कोमलता ही
तो मेरा अभिशाप बन गयी,
पीड़ा भी मैं बाँट न पाऊँ
इसीलिए लब तक सी डाले।
वो शबनम को लगा छिपाने
मैंने भी आँसू पी डाले ।।

कभी किसी ने बना निशानी
रख कॉपी के बीच सुखाया.
कभी किसी ने नोच पंखुड़ी
अपने को प्रेमी बतलाया.
पत्ती-पत्ती बिखर गया मन
इतनी दफ़ा गया है तोड़ा,
मन के इस सूखे बिरवे में
कोई नेह नीर भी डाले।
वो शबनम को लगा छिपाने
मैंने भी आँसू पी डाले ।।

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होरी में हाय होरी में
रे कनुआ कारौ लै गयो मौज
सखी री होरी में
रे बंशीबारो लै गयो मौज
सखी री होरी में

बाके नैना तीर कटारी
नठिआ घाघ है शिकारी
बानै कर डारो परपोज
सखी री होरी में
रे मतवारो लै गयो मौज
सखी री होरी में ।

बाको रूप है सजीलो
कान्हा बड़ो ही छबीलो
दै गयो प्रेम को ओवरडोज
सखी री होरी में
रे हुरियारो लै गयो मौज
सखी री होरी में


मेरो गोरो गोरो अंग
बापै चढ़ि गौ श्यामल रंग
रगरू दस दस साबुन रोज
सखी री होरी में
कारो छोरो लै गयो मौज
सखी री होरी में
रे छिछोरो लै गयो मौज
सखी री होरी में

बाकी मिसरी जैसी बोली
बरबस करै बू ठिठोली
सैल्फी लै गयो दै के पोज
सखी री होरी में
रे मतवारो लै गयो मौज
सखी री होरी में
बंशीवारो लै गयो मौज
सखी री होरी में

मैं तौ बात बताऊँ सांची
कल तक कह रह्यौ मोसौं चाची
छलिया कै गयो मो ते भौज
सखी री होरी में
कनुआ कारो लै गये मौज
सखी री होरी में ।
बंवीवारो लै गयो मौज
सखी री होरी में ।

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रचनाकार परिचय

शीतल बाजपेयी

ईमेल : madhuknp0512@gmail.com

निवास : लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

पिता श्री- स्व प्रमोद कुमार मिश्रा
माता श्री- श्रीमती मधु मिश्रा
पति- श्री निखिल वाजपेयी
शिक्षा- परास्नातक (हिंदी साहित्य)
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन
प्रकाशित कृति- 'स्वर्णिम उजाले नेह के' (गीत संग्रह)
समवेत संकलन- 'कविता इन दिनों'
साहित्यिक गतिविधियाँ- नियमित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता व आलेख प्रकाशित, अनेक साझा संकलनों में कविताएं प्रकाशित, साहित्यिक मंचो से  काव्यपाठ
प्रसारण- दूरदर्शन व आकाशवाणी रेडियो पर काव्यपाठ
मोबाइल- 7376012394, 7007741778