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सुधीर द्विवेदी की लघुकथाएँ

सुधीर द्विवेदी की लघुकथाएँ

सुधीर द्विवेदी लघुकथाओं में जीवन की छोटी छोटी घटनाओं को अत्यंत सहजता से शब्दों में पिरोते हैं। 

एक- पल में तोला 

पत्नी दरवाज़ा खोलकर बिना कुछ कहे-सुने रसोई में चली गयी थी। उसने दीवार घड़ी पर नजर डाली, छह बज चुके थे।
उसने झल्लाहट में सिर झटका और हाथ-मुँह धोने बाथरूम में घुस गया। पत्नी रसोई में घुसे-घुसे ही कनखियों से उसकी गतिविधियों पर बराबर नज़र रखे हुए थी। बाहर आकर उसने जान-बूझ कर गीला तौलिया वहीं सोफे पर पटक दिया और ज़ोर-ज़ोर से चाय सुड़कने लगा।
पत्नी बात-बात पर उसको टोकती थी, पर आज कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दे रही है? सोच-सोच कर अब उसे अजीब सी उलझन होने लगी। उसने टीवी ऑन कर लिया। थोड़ी देर में ही वह ऊब गया।
एकबारगी तो उसके मन में आया कि वह पत्नी से माफ़ी माँग ले। कल के झगड़े में आखिर गलती तो उसकी ही थी। टीवी बंद करके वह रसोई की तरफ बढ़ा। पर फिर वह रुक गया ‘मैं अपनी तरफ से पहल क्यूँ करूँ?’ उसका अहम जैसे रास्ता रोककर खड़ा हो गया था। वह वापस मुड़ा और सोफे में धँस गया।
अचानक उसने दराज़ में छुपाई सिगरेट निकालकर सुलगा ली।
"ख़बरदार जो इसे मुँह भी लगाया। मैं कल की अपनी कसम भूल जाऊँगी। फिर जितना चाहे उलाहना देना कि मैं बेवजह खीझती हूँ।" उसकी उँगलियों में फँसी सिगरेट छीनते हुए वह लगभग चिल्‍लाई। अब तक शांत दिख रही पत्नी ज्‍वालामुखी की तरह भभक उठी थी।
“तुम्हें मेरी परवाह करने की ज़रूरत नहीं है!” उसने बेतक़ल्लुफ़ी से जवाब दिया।
"पर मुझे है। मुझे खिझाने में तुम्‍हें बहुत मज़ा आता है न?’’ वह अपनी कमर में दोनों मुट्ठियाँ टिकाए बिल्कुल उसके सामने खड़े होकर चुनौती देती मुस्कुरा रही थी।
जवाब में उसने पत्नी को खींचकर अपने पास बिठा लिया। पत्नी के कंधे पर झूल आए बालों को उसने प्‍यार से परे सरकाया और शरारती नज़रों से उसके चेहरे को निहारने लगा।

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दो- जगह

एक दूजे के हाथ में हाथ डाले बेंच पर बैठे हुए हम दोनों को न जाने कितना समय और बीत जाता, अगर पीछे से किसी ने छड़ी से मेरे पीठ को ठकठकाया न होता। इस अत्प्रत्याशित घटना से मैं चौंक उठा।
मैंने अचकचा कर बैठे-बैठे ही पलटकर देखा, तो बिलकुल साधारण परन्तु साफ-सुथरे कपड़े पहने एक बूढा आदमी खड़ा हुआ था। मैंने जलती हुई नजरों से उसे ऊपर से नीचे तक घूरा पर वह अविचल खड़ा रहा। मेरा तन-बदन सुलग उठा।
"क्यों? क्या परेशानी है?" मेरे लहजे में जवानी की गर्माहट थी।
यह सब देख मेरी प्रेमिका सहम गई थी। भौचक्की वह कभी मेरी तरफ देखती तो कभी उस बूढ़े आदमी की ओर। उसका इस तरह सहम जाना मुझसे न देखा गया, मैंने फौरन उसका हाथ अपने हाथों में कसकर थाम लिया।
बूढ़ा आदमी अब भी अपलक मेरी ओर ही ताक रहा था। उसकी ढिठाई ने मेरे अंदर के युवा अहम को और उकसा दिया। भला अपनी प्रेमिका के सामने खुद को इस तरह उपेक्षित होता मैं कैसे देख सकता था? मैं बैंच पर बैठे-बैठे ही पलटा और उस बूढ़े आदमी से लगभग सटते हुए उसके सामने झटके से उठ खड़ा हुआ। वह दो कदम पीछे होते हुए जरा लड़खड़ाया, पर फौरन ही सम्हल भी गया। मैंने अपना प्रश्न फिर दोहराया। बूढ़े आदमी ने मेरी बात को अनसुना कर दिया और वापस जाने का उपक्रम किया।
मैं लगभग चीख उठा, "सुनाई नहीं दिया क्या?" मारे क्रोध के मेरे शरीर के साथ-साथ मेरे स्वर भी कांप रहे थे।
जवाब में पहले तो वह बूढ़ा आदमी मुस्कुराया फिर अचानक गम्भीर होते हुए अपनी छड़ी से इधर-उधर, हमारे द्वारा फेंके गए चिप्स वगैरह के खाली पैकेट की ओर इशारा कर दिया।
फैली गन्दगी की ओर निगाह जाते ही मेरी प्रेमिका का चेहरा उतर गया। पर मेरे गुस्से का पारा अब उफान पर था, "क्यों, ये जगह तुम्हारे बाप की है क्या?" अपनी भँवे उचकाते हुए मैं फिर गुर्राया।
बूढ़े आदमी ने आगे बढ़कर मेरा कन्धा थपथपाया, मुस्कराया, फिर मेरी प्रेमिका की ओर देखते हुए संयत स्वर में बोला, "नहीं! हम सब की है।" और पलटकर आगे बढ़ गया।

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वसंत जमशेदपुरी

14 November 2024

सार्थक लघुकथाएँ

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रचनाकार परिचय

सुधीर द्विवेदी

ईमेल :

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

शिक्षा- स्नातक(कंप्यूटर साइंस )
रुचि- पेंटिंग एवं लेखन में रूचि 
विधा- लघुकथा, कविताएँ, हायकु सहित विभिन्न विधाओं में लेखन।
प्रकाशन- दैनिक जागरण, अमर उजाला हिंदुस्तान एवं राजस्थान पत्रिका सहित विभिन्न समाचार पत्रों ने प्रकाशन। लघुकथा कलश, संरचना, साहित्यअमृत जैसी स्थापित पत्रिकाओं में स्थान।
संपर्क- 128/809 वाई ब्लॉक 
किदवई नगर कानपुर (उ. प्र.)
208011