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सूर्यबाला की कहानी- यादों के बंदनवार

सूर्यबाला की कहानी- यादों के बंदनवार

व्यक्ति कभी बुरा नहीं होता, स्थितियाँ बनाती हैं उसे बुरा..." लेकिन मई की वह जलती-झुलसती दोपहरी में कभी नहीं भूल सकती, जब विश्वविद्यालय ऑफिस के अपने कक्ष में विभागाध्यक्ष ने दहाड़कर, मुझे मिल चुकी छात्रवृत्ति के अनुमति पत्र पर, सिर्फ इसलिए अपने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था, क्योंकि उनके द्वारा संस्तुति किये गये शोध छात्र की छात्रवृत्ति नहीं स्वीकृत हुई थी।....

मेरी कलम मेरे बचपन की उस छोटी-सी, पतली-सी गली की यात्रा, कितने-कितने वर्षों से कर रही है, लेकिन गली है कि ख़त्म होने को नहीं आती। और ताज्जुब कलम को भी कोई थकान नहीं महसूस होती इस यात्रा में। शायद वह चाहती है, यह गली कभी ख़त्म न हो। यह यात्रा चलती रहे।

बहुत-से राजमार्ग जुड़े, नाट्यशालाएँ खुलीं इमारतें उठीं, ढहीं ....दुकानों के शटर गिरे और खुले, लेकिन यात्रा चलती रही। गली जस की तस रही, मेरे ज़ेहन में। कलम को जब सुस्ताने की मंशा हुई भी तो उसी गली के तीसरे मकान पर ही...जो तीन दशक पहले ही बिक चुका है।....आँगन में लाल मुनियों वाले पिंजड़े टँगे होते थे। चारों ओर चुनार मिट्टी के नक्काशीदार गमलों में चितकबरे क्रोटन, पाम । बारहसिंगे की सींगें एक-दो नहीं, पूरी एक कोठरी भर। राजा रवि वर्मा की आदमकद पेंटिंग्स की अनुकृतियाँ । पिता थे मध्यमवर्गीय, लेकिन शौक रजवाड़ों के पालते थे।

आज सोचती हूँ, माँ उन दिनों ज़्यादा से ज़्यादा चालीस की रही होंगी। किन्हीं कारणों से घर में सिर्फ बीस दिनों तक एक शिक्षक ने पढ़ाया था–हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी का प्रारम्भिक ज्ञान, चालीस तक पहाड़े। जब तक पिता थे, तब तक तो चालीस तक गिनती की भी ज़रूरत कभी महसूस न हुई थी। सरकारी मुलाजिम की बीवी, नौकर-चपरासियों से घिरी इत्मीनान से गृहस्थी चलाती थीं । मनोनुकूल पति, घर और विवाह के कई वर्षों बाद कोख में आयीं बेटियाँ, ऊपर से अन्तिम सन्तान के रूप में गोदी में खेलता बेटा......अपने सुख-सौभाग्य पर इतराती माँ...

अब एक असहाय बेवा थीं। चार बड़ी-छोटी बेटियों और एक ढाई बरस के बेटे के साथ। दो-तीन मझोली बीमा पॉलिसियाँ और मध्यमवर्गीय गृहस्थ की काटी-कपटी बचतों की पासबुकें । 'स्थायी आय' के सामने एक बड़ा-सा क्रॉस टॅगा था। पिता शिक्षा विभाग में उच्च अधिकारी थे, किन्तु उन दिनों सेवा-निवृत्ति पर तो पेंशन का प्रावधान था, मृत्यु पर नहीं।

इसलिए जुड़-मिलकर एक विधवा और उसके पाँच बड़े होते बच्चों के गुज़ारे की जुगत बिठाई जाने लगी, पर किसी के वश का था क्या वह?
पिता की मृत्यु हमें समाज में खुलेआम निरीह और अनाथ प्रमाणित कर गयी थी । यह मेरे बाल मन के लिए असह्य स्थिति थी। महीनों पिता की मृत्यु वाले प्रसंग से, उसके सम्बन्ध में पूछे जाने के भय से, कतराती टीचरों, लड़कियों से आँखें चुराती लोगों की सहानुभूति और जिज्ञासा से एक घबराहट, वितृष्णा-सी होती।
तब से अब तक किसी का दुःख बाँटना होता है, तो मौन होकर ही महसूस करती, बाँटती हूँ।

इस बीच कटावदार मुँडेरों और मेहराबों वाले हमारे मकान में कई किरायेदार रख लिए गये। शानदार फ़र्नीचरों और काँच के झाड़फ़ानूसों से सजी रहने वाली हमारी बैठक और बरामदे में अब जहाँ-तहाँ पत्थर के कोयले की अँगीठी में दाल उफनती होती अलगनियों पर अधमैले अंगोछे और लुंगियाँ टँगी होतीं ।
फिर भी पासबुकें बड़ी तेज़ी से ख़ाली हो रही थीं। मेरे अबोध बचपन का सबसे दहशतजदाँ अहसास वह था, जब माँ ने आखिरी बार किसी पासबुक से बचे-खुचे रुपये निकाले और घर आकर उस खाली हुई पासबुक को खाली-खाली आँखों से देखती रहीं.....

दशकों बाद, अभी भी उन अवसादी अहसास के बीच से कभी 'न किन्नी न' निकलती है, तो कभी 'सुमिंतरा की बेटियाँ', 'आदमक़द' या 'लाल पलाश के फूल न ला सकूँगा'...जैसी कहानियाँ | पासबुकों वाला प्रसंग अनायास 'यामिनीकथा' में कब, कैसे आ गया, मुझे पता भी नहीं। शायद उस दृश्य-प्रसंग का एक भावनात्मक भार था, जो उपन्यास में आने के बाद ही हलका हुआ ।

इसी तरह का एक थोड़ा दिलचस्प प्रसंग। पिछले वर्षों, मेरे उपन्यास ‘मेरे सन्धिपत्र' पर एम.फिल. करने वाली एक शोध-छात्रा ने बताया कि परीक्षकों ने 'सन्धिपत्र' शब्द पर 'कामायनी' के प्रभाव के विषय में प्रश्न किया उससे।...सुनकर अचानक मुझे याद आया कि उन दिनों अक्सर मेरी पुस्तिकाओं, डायरी पर लिखा होता-आँसू से भीगे आँचल पर/अपना सब कुछ रखना होगा तुमको अपनी स्मित रेखा से/यह सन्धिपत्र लिखना होगा।
जीवन के व्यंग्य, कथा-कहानी के प्रसंग...इनकी एक समान्तर दुनिया बसती जा रही थी अन्दर । लेकिन ज़रूरतें इन सबसे पूरी तरह बेख़बर, बेलगाम बढ़ती जा रही थीं। हमारी ऊँची होती फ्रॉकें. ऊँची होती क्लासें, बढ़ती उम्र, बढ़ती फीस प्रायः सहमा जाती हमें।
बरसों-बरस, माँ हम बच्चों से छुपकर घर के किसी कोने में रोतीं, लेकिन हमारी भूख-प्यास का संकेत मिलते ही बदहवास हो जुट जातीं रसोई में। उन पर जुनून-सा सवार था, अपने बच्चों को किसी भी तरह का आर्थिक दबाव, अभाव न महसूस होने देने का। माँ हमारी छोटी से छोटी ज़रूरतें पूरी कर ले जाने के उपाय सोचतीं, हम उन्हें माँ की आँखों से छुपा ले जाने के। माँ सुविधाएँ तो जुटा देतीं लेकिन 'सुख' का क्या करतीं।...यथासम्भव हम बच्चे भी अपनी तरफ़ से माँ के सामने खुश दिखने का ही अभिनय करते!

शहर के सम्भ्रान्त, इज़्ज़तदार घरानों में हमारी गिनती थी। इसलिए माँ हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा और मान-मर्यादा को लेकर सदैव सन्नद्ध रहतीं। वे यह भी समझती थीं कि सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्पन्नता का बहुत नज़दीकी रिश्ता हुआ करता है। ज़रा-स चूक सारी मान-मर्यादा मिट्टी में मिला सकती है और माँ को तो इसी समाज में चार-चार बेटियाँ ब्याहनी थीं, अकेले दम पर।

एक बात बहुत अच्छी थी। अपनी कटावदार नफीस मुँडेरों और नक्काशियों वाली मेहराबों के साये में हमारा मकान, हमारी सारी बदहालियाँ छुपा ले जाया करता था। लेकिन किरायेदार हमेशा झींक-झींककर, अपनी तंगहालियों का रोना रो-रोकर पैसे देते। प्रायः मकान छोड़ने से पहले, डेढ़-दो महीने की हेराफेरी भी कर जाते, लेकिन मकान-टैक्स और बिजली के बिलों का भुगतान माँ को समय पर ही करना पड़ता। कभी दुमंजिले सायबान की बाहरी मुँडेर पर खड़ी होती और नीचे गली में साइकिल पर मकान-टैक्स की नोटिसों का पुलिन्दा बाँधे म्युनिसिपैलिटी का कारिन्दा दिखाई पड़ जाता तो सहमकर सूख - सी जातीं । थरथराती शिराओं में भय की लहर -सी व्यापती, हाथ-पैर ठण्डे होते महसूस होते। मन करता, माँ को नन्हे शिशु की तरह हाथों में उठाकर इन सारी आपदाओं से दूर उठा ले जाऊँ।

लेकिन जानती थी, यह सम्भव नहीं था। हमारे वश में कुछ था, तो यही कि हम निरन्तर ख़ुशहाल बने रहने और दिखने का निरन्तर अभिनय करते रहें। एक हफ़्ते शीशम का नक्काशीदार पालना बिकता, दूसरे हफ़्ते भोंपू वाला ग्रामोफोन। कभी पीतल के हंडे, परातें और सुराहीदान तो कभी बारहसिंगे की सींगें। जब वे बिककर जा रही होतीं, तब भी हम ऐसी निर्लिप्तता जताते जैसे इन सारी की सारी बेज़रूरत चीज़ों ने बेवजह जगह घेर रखी थी। अच्छा हुआ जो कबाड़ से मुक्ति मिली और हम सब झटपट सफाई कर डालते। जगह और ज़्यादा ख़ाली दिखाई देने लगती। अगले दिन हमारी फीसों का भरा जाना या बिजली के बिल का अदा होना तो महज़ एक संयोग है, ऐसा कह हम अपने आपको कई-कई बार प्रबोधते।
आज पैंतीस-चालीस वर्षों बाद भी कभी-कभी खिड़की, बालकनी से सड़क की तरफ़ देखती हूँ तो लगता है, सुबरन कबाड़ी हमारा हारमोनियम और शीशम का पालना सिर पर उठाये चला जा रहा है। और मैं तार पर फँसी पतंग देखने के बहाने आख़िरी बार उन्हें देखे जा रही हूँ।

उस हारमोनियम पर बाबूजी कभी-कभार अपनी छोटी- जायरी खोल, राग पीलू या अल्हैया बिलावल गाया करते साहित्य-संगीत के मर्मज्ञ थे। सरकारी कामकाज के बीच-बीच में शेरो-शायरी भी चलती रहती। शौकिया लिखते थे। तरन्नुम में डूबकर गाते थे। बुलन्द आवाज में। शान्त, अनुशासित घर में डूबती भरी-भरी सी आवाज।
उठो हिन्द वालो ! हुआ है सवेरा...इस तरह की बहुत-सी ग़ज़लें आजादी मिलने के बाद उन्होंने लिखी थीं। मातहतों के बीच फाइल निपटाने के बीच भी कभी बाहरी बैठक से उनकी ताज़ा-तरीन गजल गूँज जाती।

ये फहरे हिन्द से लेकर, अटल कैलाश तक फहरे,
जिएं तो वीर सर पे और मरें तो लाश पर फहरे।

वीर (वीर प्रताप सिंह) उनका तखल्लुस था। सुनती हूँ कोई भी ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती, सिर्फ परिवर्तित होती जाती है। शताब्दियों पहले की ध्वनियाँ भी ध्वनि तरंगों में परिवर्तित हो, वायुमण्डल में व्याप्त होंगी ही होंगी। तब शायद राग पीतु और अल्हैया बिलावल की वे धुने, हारमोनियम पर निकाले पिता के तन्मय स्वर भी चारों ओर की अदृश्य ध्वनि-तरंगों में व्याप्त होंगे न!..

बारहवीं तक आते-आते मेरी उदासी और एकान्त की तलाश बढ़ गयी थी। अब तक दो बड़ी बहनें ससुराल में थीं, दो छोटे भाई-बहन घर में। बीच में मैं और माँ। एक तरह से घर में छोटी बहन, भाई और मों के बीच की कड़ी भी मैं थी। थी कुछ नहीं पर अनजाने अपने आपको माँ की भी अभिभावक-सी महसूस करती। एक असहाय, अक्षम अभिभावक। मेरे और माँ के बीच सारा सम्पाद मौन में ही चलता। ब्याही बेटियों, जानने-समझने पर भी ज्यादा कुए कर पाने या कैसी भी मदद पहुँचाने में असमर्थ थीं। शेष किसी के भी सामने हमें मुँह खोलने की पूरी मनाही थी। बारहवीं में प्रथम श्रेणी मिली। मेरिट की छात्रवृत्ति भी। आज की 'बाल-संसद' से अलग 'दादा' (स्व. श्री मोहनलाल गुप्त, हास्य व्यंगकार) मेरी कहानियों, कविताएँ और लेख 'आज' के साप्ताहिक, साहित्यिक

परिशिष्ट में प्रकाशित करने लगे थे। दादा ने रचनाओं के पीछे लिखा मेरा पता देखा, तो मुझे अपने घर बुलाया। पैदल सिर्फ पाँच मिनट की दूरी पर थे। घर में चारों ओर ठुसी किताबों की ओर दिखाकर प्रोत्साहित किया, 'मन चाहे जितनी ले जाओ, पढ़ो! रचनाएँ यहाँ घर पर सुबह मेरे कार्यालय जाने से पहले दे जाया करो, सिर्फ दाम्पत्य-कुण्ठाओं पर कहाँ तक लिखा जायेगा और हाँ, सब कुछ स्वाहा कर. विक्षिप्त हो, 'निराला' बनने की ज़रूरत नहीं !...
मेरी कलम आजन्म ऋणी रहेगी उनके शुरुआती सहारे के लिए। अपवादी रूप से शालीन व्यक्तित्व था उनका। मेरे प्रति विशेष स्नेह भी ।
छात्रवृत्ति के पैसे मिलते, 'आज' से दस रुपए का मनीऑर्डर आता, तो एक रुपया डाकिये को देने के बाद नौ रुपये, पूजा की चौकी पर विराजते माँ के भगवानों के सुपुर्द कर देती। माँ के अनवरत चलते हवन में सचमुच ही चुटकी-भर समिधा ।

पढ़े-पढ़ाये जाने वाले महान् रचनाकारों में, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का तुक के प्रति अतिरिक्त आग्रह असहनीय हो उठता कभी-कभी मेरे लिए। (तब 'उस समय' से रचनाओं को जोड़कर देखने और उनका मूल्यांकन करने की तमीज़ नहीं थी...) लेकिन 'साकेत' में कैकेयी का अन्तर्दन्द्व मेरा अत्यन्त प्रिय काव्यांश था, है और सीधी-सादी होने पर भी 'सोने का संसार मिला मिट्टी में मेरा, इसमें भी भगवान! भेद कुछ होगा तेरा!' जैसी पंक्तियाँ जीवन और नियति के प्रति एक निस्पृह तटस्थता से भर देती थीं।

'दादा' न कहते, तो भी 'निराला' की विक्षिप्तता मुझे उस छोटी उम्र में भी स्वीकार नहीं थी । कवि कमज़ोर होगा, तो शब्द सामथ्र्य की प्रतीक 'राम की शक्ति पूजा' जैसी कविता के आराधक कहाँ जायेंगे? दुरूहता और क्लिष्टता, उस समय भी साहित्य के लिए हानिप्रद ही ज्यादा लगती, लेकिन इसके प्रतिकूल, संस्कृत तत्सम शब्दों की बहुलता के बावजूद प्रसाद का गद्य, पद्य दोनों अपने लालित्य में डुबो लेता।

शायद साहित्य, कला, संगीत की मर्मज्ञता की अनमोल विरासतें ही थी, जिन्होंने हमें उन गाढ़े, घुटन भरे तकलीफदेह दिनों में भी जिलाये रखा, हमें जीवन आस्था और जिजीविषा दी। बिना आह किये मजबूती से टिके रहने और मुस्कराते हुए झेल ले जाने की कूवत । बेरौनकी और मायूसियाँ हमें कभी रास न आतीं। परस्पर हास्य-विनोद • और चिढ़ने-चिढ़ाने की गुंजाइशें हमारे बीच हमेशा रहतीं। खुद अपनी गलतियाँ स्वीकारने और खुद पर ठठाकर हँसने की एक बहुत स्वस्थ परम्परा हमारे परिवार में कायम थी। शायद इसीलिए आज तक जितना हास्य-व्यंग्य लिखा, उसका तैंतीस प्रतिशत आलम्बन-उद्दीपन निखालिस अपने ही गोदाम का। वह तो भला हो हिन्दी साहित्य का, कि इसकी सोहबत में रहते-रहते अब हँसने-हँसाने की कुटेवों से काफी कुछ निजात मिल चुकी है।
एम.ए. प्राइवेट किया। किसी तरह द्वितीय श्रेणी की उम्मीद थी, लेकिन जब उनसठ प्रतिशत मिले, तो मुझसे ज़्यादा माँ को लोगों ने पीएच.डी. के लिए उकसाया। हमारे सन्दर्भ में हमसे कहीं-कहीं ज़्यादा पागलपने की हद तक महत्त्वाकांक्षी माँ थी ।
थोड़ी-सी पहचान के बल पर विश्वविद्यालय के प्रवक्ता डॉक्टर बच्चन सिंह ने भी प्रोत्साहित किया, स्वयं अपने निर्देशन में भी लेने के लिए आश्वस्त कर दिया, तो हिम्मत बढ़ी। कई लोगों ने यह भी दिलासा दिया कि प्राइवेट छात्रा रहीं, तो क्या हुआ? अंक अच्छे आये हैं, छात्रवृत्ति भी बड़ी न सही, छोटी तो मिल ही जायेगी। काम रुकेगा नहीं ।

अभी तक मुझे जीवन में नियति और परिस्थितियाँ ही थकाती, बिराती आयी थीं लेकिन छात्रवृत्ति के प्रसंग में पहली बार किसी खलनायक से साक्षात्कार हुआ। वे थे हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष। वे 'अकारण' मुझसे प्रारम्भ से ही, एकदम बराबरी की-सी खार खाये बैठे रहते। मैं हतप्रभ, अवाक् थी।
लोगों ने मेरे द्वारा कहे, समझे 'अकारण' को जातिवादी कारणों की संज्ञा दे रखी थी, लेकिन मैं इस सबसे अलग अपने निर्देशक के आत्मीय निर्देशन में अपना काम करने की ठान चुकी थी। मैं अब भी मानती हूँ कि विभागाध्यक्ष डॉ. शर्मा के विस्मित कर देने वाले भीमी, दम्भी आचरण के पीछे अवश्य कोई कुण्ठाजनित कारण था।

व्यक्ति कभी बुरा नहीं होता, स्थितियाँ बनाती हैं उसे बुरा..." लेकिन मई की वह जलती-झुलसती दोपहरी में कभी नहीं भूल सकती, जब विश्वविद्यालय ऑफिस के अपने कक्ष में विभागाध्यक्ष ने दहाड़कर, मुझे मिल चुकी छात्रवृत्ति के अनुमति पत्र पर, सिर्फ इसलिए अपने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था, क्योंकि उनके द्वारा संस्तुति किये गये शोध छात्र की छात्रवृत्ति नहीं स्वीकृत हुई थी।....
निरुपाय मैं, स्वीकृत छात्रवृत्ति का लिफाफा हाथ में लिए, अपने निदेशक के कहने पर, उत्तप्त दोपहरी में गर्मी के थपेड़े खाती, पैदल सेंट्रल ऑफिस में रजिस्ट्रार के पास चली जा रही थी। पता नहीं, चेहरा पसीने से ज़्यादा तर था या आँसुओं से... पता नहीं, अन्धड़ बाहर ज़्यादा था या अन्दर। एक ख़ौफ़, दहशत और आक्रोश भरी लाचारी... 1. सौ रुपये महीने का सहारा एक दम्भी व्यक्ति की निरर्थक हठवादिता की वजह से छीना जा रहा था और कोई कुछ कर नहीं पा रहा था। था भी कौन? निश्चित मियाद के अन्दर विभागाध्यक्ष के हस्ताक्षर के साथ वह फार्म जमा न हो पाने की स्थिति में छात्रवृत्ति मिलने का प्रश्न ही नहीं था।
किसी तरह अपना छितरा-बितरा साहस और सारी ऊर्जा समेटकर रजिस्ट्रार के सामने मेज पर अपना फॉर्म रखकर कह गयी, 'सर! यह काग़ज़ मैं आपको वापस करने आयी हूँ, मेरे लिए इसका कोई अर्थ नहीं रह गया है' आश्चर्य! उन्होंने सदय आवाज़ में मुझे आश्वस्त किया। बताया कि विभागाध्यक्ष बिना बात के अड़े बैठे हैं, जबकि उनके छात्र को भी छात्रवृत्ति स्वीकृत हो गयी है। सचमुच उसके बाद ही अध्यक्ष ने मेरे फॉर्म पर हस्ताक्षर किये। और अन्ततः चालीस की जगह सौ रुपये वाली छात्रवृत्ति मुझे मिली। चमत्कारों, संयोगों की बड़ी विलक्षण भूमिका रही है मेरे जीवन में... लेकिन आश्चर्य है कि विश्वास हमेशा अपने कर्म और आस्थाओं पर ही रहा ।

कर्म के साथ कर्म-स्थलियों के ध्रुवान्तों की, धुर गाँव की पगडंडियों से नगर कस्बों से लेकर महानगरों तक के राजमार्गों की दूरियाँ तय की हैं मेरी कलम ने मेरे साथ-साथ। निम्न और निम्न-मध्य वर्ग की लाचारियाँ जितनी अपने हिस्से में आयीं, वे 'अग्निपंखी' और 'दीक्षान्त' में तद्रूप हुई, तो उच्चवर्गीय अभिजात्य से जुड़े अनुभव, अहसास 'मेरे सन्धिपत्र' या 'यामिनीकथा' और अन्यान्य कहानियों में । विपन्नता की निरुपायता के साथ-साथ खेलते-खाते जीवन के बीचोबीच भी बैठकर देखा तो यही जाना कि दुःख, दुःख होते हैं, सम्पन्न और विपन्न नहीं हुआ करते। उन्हें बड़ा और छोटा बताना कलम की नादानी है।

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रचनाकार परिचय

सूर्यबाला

ईमेल : suryabla.lal@gmail.com

निवास : मुंबई (महाराष्ट्र)

जन्मतिथि- 25 अक्टूबर, 1944
जन्मस्थान- वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा- एम.ए., पी-एच.डी. (रीति साहित्य—काशी हिंदू विश्वविद्यालय)।
लेखन विधा- कहानी, उपन्यास, डायरी, संस्मरण, आलेख
प्रकाशित कृतियाँ-
उपन्यास- मेरे संधि-पत्र, सुबह के इंतजार तक, अग्निपंखी, यामिनी-कथा, दीक्षांत।
कथा-संग्रह- एक इंद्रधनुष : जुबेदा के नाम : (समान सतहें, व्यभिचार, सुलह, ‘हाँ, लाल पलाश के फूल...नहीं ला सकूँगा....’, दरारें, अविभाज्य, निर्वासित, रेस, एक इंद्रधनुष जुबेदा के नाम।), दिशाहीन, थाली भर चाँद : (न किन्नी न, रहमदिल, तोहफा, रमन की चाची, पराजित, पड़ाव, संताप, झील, राख, सिर्फ मैं... कहाँ तक, खोह, ‘कहो, ना’, थाली भर चाँद, योद्धा, सुम्मी की बात।), मुँडेर पर, गृह-प्रवेश, साँझवती, कात्यायनी संवाद : (लिखना क्यों?...., बिन रोई लड़की, बिहिश्त बनाम मौजीराम की झाड़ू, ‘कागज की नावें, चाँदी के बाल’, एक लॉन की जबानी, सीखचों के आर-पार, उत्सव, चोर दरवाजे, अंतरंग, उजास, कात्यायनी संवाद, माय नेम इश ताता।), इक्कीस कहानियाँ, पाँच लंबी कहानियाँ : (गृह प्रवेश, भुक्खड़ की औलाद, मानसी, मटियाला तीतर, अनाम लमहों के नाम।), सिस्टर! प्लीज आप जाना नहीं, मानुष-गंध : (मानुष-गंध, शहर की सबसे दर्दनाक खबर, तिलिस्म, इस धरती के लिए, दादी और रिमोट, क्रॉसिंग, पूर्णाहुति, जश्न, सजायाफ्ता, क्या मालूम, मातम, चिड़िया जैसी माँ, भुक्खड़ की औलाद, और एक सत्यकथा...(आत्मकथांश)।
हास्य-व्यंग्य- अजगर करे न चाकरी, धृतराष्ट्र टाइम्स, देशसेवा के अखाड़े में, भगवान ने कहा था।
बालोपयोगी- झगड़ा निपटारक दफ्तर।
सम्मान/पुरस्कार- प्रियदर्शिनी पुरस्कार, घनश्याम दास सर्रफ़् पुरस्कार के अतिरिक्त साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत।
विशेष-
*अनेक रचनाएँ कक्षा आठ से स्नातक एवं स्नातकोत्तर कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में संकलित।
*टी.वी. धारावाहिकों के माध्यम से अनेक कहानियों, उपन्यासों तथा हास्य-व्यंग्यपरक रचनाओं का रुपांतर प्रस्तुत, जिनमें ‘पलाश के फूल, न किन्नी न, सौदागर, एक इंद्रधनुष- जुबेदा के नाम, सबको पता है, रेस, निर्वासित आदि प्रमुख हैं।
सम्पर्क- बी-504, रुनवाल सेन्टर गोवन्डी स्टेशन रोड, देवनार, मुम्बई (महाराष्ट्र)- 400088
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