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टी.बी. संक्रमण के सामाजिक व मानसिक पहलू- डॉ० दीप्ति तिवारी

टी.बी. संक्रमण के सामाजिक व मानसिक पहलू- डॉ० दीप्ति तिवारी

टी.बी. संक्रमण को लेकर लगभग हर व्यक्ति के मन में कुछ न कुछ डर व असहजता है और टी.बी. के संक्रमित व्यक्ति और उसके परिवारजनों के मन में कुछ सवाल अवश्य होते हैं जिनका सही जवाब उन्हें मिलना आवश्यक होता है अन्यथा उनके मन में उलझन और चिंता बनी रहती है।

टी.बी. संक्रमण के सामाजिक व मानसिक पहलू जैसा कि हम सभी जानते हैं, टी.बी. बैक्टीरिया के संक्रमण से होने वाली एक बीमारी है जो कि ज्यादातर मरीज़ों में फेफड़ों को प्रभावित करती है, हालाँकि ये शरीर के अन्य हिस्सों को भी प्रभावित कर सकती है जैसे हड्डी, जननांग, आँत, मस्तिष्क की झिल्ली इत्यादि।
आज हमारे पास टी.बी. के इलाज के लिए कई अच्छी दवायें उपलब्ध हैं मगर कुछ वर्षों पहले तक टी.बी. का इलाज काफी मुश्किल था, ख़ासतौर पर बीमारी के बढ़ जाने की स्थिति में / ऐसे में हमारे समाज में टी.बी. संक्रमण से जुड़ी कई भ्रांतियाँ हैं, विशेष रूप से पिछड़े और ग्रामीण इलाकों में / कुछ प्रचलित भ्रांतियाँ निम्न हैं।
(1) टी.बी. लाइलाज बीमारी है। (2) टी.बी. के मरीज़ के सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति में भी यह संक्रमण हो जायेगा। (3) टी.बी. आनुवंशिक बीमारी है और यह परिवारों में चलती है। (4) टी.बी. जानलेवा बीमारी है। (5) टी.बी. सिर्फ़ पिछड़े वर्ग के लोगों को होती है।
इस तरह की भ्रांतियाँ हमारे आज के पढ़े-लिखे समाज में कम है फिर भी टी.बी. संक्रमण को लेकर लगभग हर व्यक्ति के मन में कुछ न कुछ डर व असहजता है और टी.बी. के संक्रमित व्यक्ति और उसके परिवारजनों के मन में कुछ सवाल अवश्य होते हैं जिनका सही जवाब उन्हें मिलना आवश्यक होता है अन्यथा उनके मन में उलझन और चिंता बनी रहती है।
इसके साथ ही टी.बी. संक्रमण का एक और अहम पहलू है इलाज का लम्बे समय तक चलना। टी.बी. की दवाओं से होने वाले दुष्प्रभाव (जैसे जी मिचलाना, भूख न लगना, कमजोरी लगना इत्यादि) के कारण कई बार मरीज इलाज बीच में ही छोड़ देते हैं। कई बार अज्ञानतावश मरीज थोड़ा सा आराम होने पर सोचता है कि अब तो हम ठीक हो गए हैं तो दवा क्यों खानी है और यह सोचकर इलाज बीच में छोड़ देता है। कई बार आर्थिक समस्याओं की वजह से व्यक्ति इलाज पूरा नहीं करता। ऐसे में संक्रमण पर 1st Line Durgs का असर होना बन्द हो जाता है और बीमारी जटिल हो जाती है। ऐसे में बीमारी से होने वाली शारीरिक क्षति परिवर्तनीय हो जाती है और व्यक्ति भविष्य में नार्मल जीवन नहीं जी पाता। साथ ही ऐसे Drug Registant Cases में उपचार के लिए जो दवायें दी जाती हैं वे ज़्यादा मंहगी भी होती हैं और उनके हानिकारक प्रभाव भी अधिक होते हैं। ज़ाहिर है कि ऐसे में व्यक्ति शारीरिक कमज़ो, आर्थिक बोझ व मानसिक तनाव के दुष्चक्र में फँस जाता है। इसके साथ ही मरीज़ व उसके परिवारजनों का सामाजिक जीवन भी ऐसी परिस्थिति में नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है।
टी.बी. संक्रमण के निश्चित मानसिक व सामाजिक प्रभाव हैं और ये प्रभाव बीमारी के परिणाम को भी प्रभावित करते हैं ऐसा कई अनुसंधानों से सत्यापित किया जा चुका है। अनुसंधानों से मिले कुछ निष्कर्ष निम्न हैं:-
(1) साधारण लोगों की अपेक्षा टी.बी. के मरीजों में अवसाद व उद्वेग काफ़ी अधिक देखने को मिलता है। यह ख़ासतौर पर पिछड़े देशों में देखा गया है। (2) मानसिक तनाव से ग्रसित मरीज़ों की सेहत में सुधार अन्य मरीज़ों की अपेक्षा धीमी गति से होता है। (3) सामाजिक व आर्थिक स्थिति, शिक्षा, बीमारी के प्रति सोच, पारिवारिक सहयोग इत्यादि का इलाज के परिणाम पर सीधा असर पड़ता है।
अतः सरकार व स्वास्थ्य कर्मियों का यह कर्तव्य है कि आम जनता में इस बीमारी के विभिन्न पहलुओं पर जागरूकता फैलायें ताकि टी.बी. की वजह से होने वाले व्यक्तिगत व सामुदायिक नुकसान में अर्थपूर्ण कमी लायी जा सके।

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रचनाकार परिचय

दीप्ति तिवारी

ईमेल : deptitew@gmail.com

निवास : कानपुर(उत्तर प्रदेश)

नाम- डॉ० दीप्ति तिवारी 
जन्मतिथि- 30 सितंबर 1972 
जन्मस्थान- कानपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा- एम बी बी एस, एम ए (मनोविज्ञान),डिप्लोमा ( मेंटल हेल्थ), पी जी  डिप्लोमा(काउंसलिंग एंड बिहैवियर मैनेजमेंट), पी जी डिप्लोमा(चाइल्ड साइकोलजी), पी जी डिप्लोमा(लर्निंग डिसबिलिटी मैनेजमेंट)
संप्रति- फैमिली फिजीशियन एंड काउन्सलर, डायरेक्टर, संकल्प स्पेशल स्कूल, मेडिकल सुपरिन्टेंडेंट, जी टी बी हॉस्पिटल प्रा. लि. 
प्रकाशन- learning Disability: An Overview 
संपर्क- फ्लैट न. 101 , कीर्ति समृद्धि अपार्टमेंट, 120/806, लाजपत नगर, कानपुर(उत्तर प्रदेश)
मोबाईल- 9956079347