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तालाब: ग्राम्य जीवन का आधार- आशा पाण्डेय

तालाब: ग्राम्य जीवन का आधार- आशा पाण्डेय

हमारी संस्कृति में प्रकृति के विभिन्न रूपों– जिनसे हमें कुछ प्राप्त होता है, हमारा जीवन सहज हो चलता है– के प्रति कृतज्ञ होने की परम्परा है। बरगद, पीपल, तुलसी, साँप, गाय, बैल आदि के प्रति कृतज्ञ होकर उनकी पूजा करने वाला ग्राम्य-जीवन भला तालाब की पूजा को कैसे भूलता! इसलिए घर के वैवाहिक उत्सवों में तालाब पूजन का विधान रखा गया।

जल ही जीवन है’- ये केवल सूक्ति वाक्य नहीं है, प्रमाण हैं इसके। बड़ी-बड़ी सभ्यताएँ नदियों के किनारे विकसित हुईं, संस्कृतियाँ फली-फूलीं। हमारे देश की प्राचीन और समृद्ध सिन्धुघाटी की सभ्यता सिन्धु नदी की देन है तो वर्तमान भारतीय संस्कृति गंगा नदी की। ऋषि-मुनियों के आश्रम नदियों के तटों पर ही हुआ करते थे। हमारे अधिकांश तीर्थस्थल भी नदियों के किनारे हैं। वेद में जल को ‘विश्वभेषज’कहा गया। एक कथा के अनुसार एक बार एक ऋषि बीमार पड़े तो वैद्य ने उन्हें जल का सेवन करने के लिए कहा क्योंकि जल में सभी औषधियाँ होती हैं।

हमारे गाँव वहाँ फैले, जहाँ ज़मीन के नीचे जल था। जल से ही कृषि संभव हुई। ज़मीन खोदकर कुँए बनाये गये। आकाश से बरसने वाली हर बूँद को संजोकर रखने की व्यवस्था की गयी। इस क्रम में तालाब खुदवाये गये, बावड़ियाँ बनवाई गयीं। बड़ी-बड़ी रियासतों के राजे-रजवाड़े, सेठ-साहूकारों ने इस कार्य में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। ये जल को अर्थात जीवन को बचा लेने का कार्य था। जल देवता है तो देवता की उपासना में, उसके संरक्षण में न सिर्फ राजे-रजवाड़े, सेठ-साहूकार लगे अपितु आर्थिक रूप से कमज़ोर लोग भी लगे। तालाब का निर्माण पवित्र कार्य था, पुण्य का कार्य था। तालाब खोदने वाले हाथ सम्मान के हकदार होते थे। समाज उनके इस हक़ को चुकाता था।
देश के लगभग हर इलाके में ऐसे पक्के, विशाल तालाब और बावड़ियों के अवशेष मिलते हैं। इन पक्के तालाबों के पास मन्दिर, घाट, बारादरी आदि भी बनते थे। तालाब में उतरने के लिए सीढ़ियाँ होती थीं।

ये हुई पूरी योजना के साथ तालाब निर्माण की बात। मैं बात कर रही हूँ– गाँवों में अनायास निर्मित हो जाने वाले तालाबों की, जिन्हें गाँव में गड़हा या गड़ही कहा जाता है। इन अनायास निर्मित हो जाने वाले तालाबों की महत्ता भी कम नहीं थी। पहले जब कच्चे मकान बनाये जाते थे तो जिस स्थान से मकान के लिए मिट्टी खोदी जाती थी, वहाँ स्वत: तालाब निर्मित हो जाता था। मेरे गाँव में एक बड़ा तालाब था। उससे लगकर ही तीन-चार छोटे गड़हे थे। बरसात के महीनों में जब वरुण देवता अपने दोनों हाथों से जल लुटाते थे तब वह जल इन तालाबों में इकठ्ठा हो जाता था और अगले कई महीनों तक रहता था। गाँव भर के जानवर उसी तालाब में पानी पीते थे। भैंसे घण्टों उसमें बैठती थीं, सुस्ताती थीं। खेती-किसानी के अन्य कई कार्य जैसे- बांस भिगाना, सनई सड़ा कर उसे पानी में सटकना, सुखाकर उससे सन अलग करना आदि किये जाते थे। जब तक तालाब में पानी रहता था तब तक महिलाएँ भी कुँए से पानी खीचने के अपने श्रम को बचा लेती थीं और घर को लीपने-पोतने, साफ-सफाई आदि करने के लिए तालाब के पानी का ही इस्तेमाल करती थीं। तालाब गाँव की रोज़मर्रा की ज़िंदगी का अंग था।

हमारी संस्कृति में प्रकृति के विभिन्न रूपों– जिनसे हमें कुछ प्राप्त होता है, हमारा जीवन सहज हो चलता है– के प्रति कृतज्ञ होने की परम्परा है। बरगद, पीपल, तुलसी, साँप, गाय, बैल आदि के प्रति कृतज्ञ होकर उनकी पूजा करने वाला ग्राम्य-जीवन भला तालाब की पूजा को कैसे भूलता! इसलिए घर के वैवाहिक उत्सवों में तालाब पूजन का विधान रखा गया। वैवाहिक अवसर पर तालाब पूजने की इस अनिवार्यता ने गाँव में तालाब के होने को भी अनिवार्य बनाया।

पूर्वी उत्तरप्रदेश के बहुत बड़े हिस्से में विवाह के विविध कार्यक्रमों में मंडपाच्छाद्न के बाद पहला कार्यक्रम होता है माटीमागर (मटिमगरा) का। शुभ मुहूर्त देखकर माटीमागर का दिन निश्चित किया जाता है। अड़ोस-पड़ोस, गाँव, मुहल्ले में बुलावा भेजा जाता है। अघोषित रूप से इस बुलावे में महिलाएँ और लडकियाँ ही आमंत्रित होती हैं। विवाह वाले परिवार की बुजुर्ग सुहागिन महिला, जिसे भोजइतिन कहा जाता है, मंडप (माडव) में बैठकर गौरि गणेश की पूजा करती हैं, फिर पाँच या सात कन्याओं को बैठाकर उनके माथे पर तेल और सिंदूर का टीका लगाकर उन्हें चने की दाल, गुड़ और तेल देती हैं– यहाँ कन्याओं की पूजा लड़कियों की महत्ता को दर्शाती है। विवाह में कई ऐसे कार्यक्रम होते हैं, जहाँ कन्याओं की भी अहम भूमिका रहती है।

कन्या पूजन के उपरांत वहाँ एकत्र अन्य महिलाओं को भी चने की दाल, गुड़ और तेल का वितरण किया जाता है। इस कार्य के सम्पन्न होने के बाद महिलाएँ तालाब पूजन के लिए जाती हैं। पाँच सुहागिनें मिलकर पूजन-सामग्री वाली दौरी उठाती हैं, जिसे लेकर नाउन आगे-आगे चलती है। उसके पीछे महिलाएँ गीत गाते हुए चलती हैं। इन मृदु शीतल गीतों के बोल गाँव में जहाँ-जहाँ तक गूंजते हैं, वहाँ-वहाँ तक लोग मुदित होते हैं। उत्सव की तरंगें उनके पास तक पहुँचती हैं और उन्हें आह्लादित करती हैं, उन्हें उल्लास से भर देती हैं– लोग कान लगाकर गीत के बोल सुनते हैं। तो गीत गाती हुई महिलाएँ जब तालाब के किनारे पहुँच जाती हैं तो अब तक गाए जा रहे गीत को बंद कर कर दिया जाता है और एक दूसरा गीत गाया जाता है। इस गीत के माध्यम से वे तालाब में रहने वाले दृश्य-अदृश्य जीवों से प्रार्थना करती हैं कि कुछ देर के लिए आप बाहर हो जाएँ, हम तालाब पूजने आये हैं।
...और फिर वो स्थल महिलाओं का एकांत हो जाता है। पूजन सामग्री की दौरी उतारी जाती है। जिन पाँच महिलाओं ने दौरी उठाने में हाथ लगया था, वही यहाँ उसे नीचे उतारने में भी हाथ लगाती हैं। भोजइतिन थोड़ी-सी ज़मीन को पानी से लीपकर गौरि गणेश की पूजा करती है, साथ आयीं महिलाएँ गीत गाती हैं पर अब ये गीत मज़ाक के होते हैं। इन गीतों के द्वारा वे एक-दूसरे की चुहुल में जुट जाती हैं। अपने लिए तलाशे गये इस एकांत में वे जी भरकर हँसती हैं, खिलखिलाती हैं और कुछ देर के लिए घर-गृहस्थी के संघर्ष को भूल जाती हैं। भूल जाती हैं विवाह वाले घर में बढ़े कार्य की थकान को और फिर से तारो-ताज़ा होकर उसी प्रकार गाते हुए घर लौटती हैं।

तालाब का ये पूजन सिर्फ एक दिन ही नहीं होता बल्कि मायन पूजने वाले दिन भी महिलाएँ उसी प्रकार मिल-जुलकर गीत गाते हुए तालाब की पूजा करने जाती हैं। विवाह के अंत में एक रस्म होती है चौथी छुड़ाने की। ये रस्म भी तालाब के पूजन से ही सम्पन्न होती है। इसमें जिस लड़की या लड़के का विवाह रहता है, उसे भी साथ ले जाया जाता है। भोजइतिन उस लड़के या लड़की की पीठ पर जल से थप्पा मारकर पूछती है कि इस विवाह के संपन्न होने से तुम्हारे दिल में ठंडक पहुँची? इसी प्रकार वह लड़का या लड़की भोजइतिन की पीठ पर जल का थप्पा देकर उनसे पूछता/पूछती है कि इस विवाह से वो संतुष्ट हुईं? संतुष्टि की ये स्वीकारोक्ति तालाब के किनारे होती है! तालाब को साक्षी मानकर दिल के उद्गार व्यक्त किये जाते हैं। तालाब के जल की तरह ही हृदय के शीतल हो जाने की बात स्वीकारी जाती है। परमतृप्ति का एहसास आपस में साझा किया जाता है। जल शीतलता के गुणों से युक्त होता है और शीतल मन पुण्य कार्य करने के लिए तत्पर होता है। हम कितने भी थके हों संतप्त हों, शीतल जल से स्नान करते ही तरोताज़ा हो जाते हैं और परम शांति का अनुभव करते हैं। विवाह एक पुण्य कार्य है, जिसके संपन्न हो जाने पर हृदय जल-सा शीतल हो जाता है इसलिए जल का महत्व है, तालाब का महत्व है।

इस तरह विवाह में शुरू से लेकर अंत तक तालाब को याद किया जाता है। कहीं-कहीं तालाब से मिट्टी खोदकर लाई जाती है और माडव (मंडप) में उसी मिट्टी से चूल्हा बनाया जाता है, जिसमें धान का लावा भूना जाता है, जो विवाह के समय परछने के काम आता है। गाँव जहाँ हर तरफ मिट्टी इफ़रात (अधिकता) है, वहाँ चूल्हे के लिए तालाब से ही मिट्टी लाना तालाब की महत्ता को दर्शाता है और तालाब पूजन हमारी संस्कृति का अंग बन जाता है। गाँव से विस्थापित होकर शहर में बसने वाले लोग भी वैवाहिक अवसरों पर तालाब, कुआँ, हैण्डपम्प- जो वहाँ उपलब्ध हो जाये, उसकी पूजा करते हैं।

विवाह के अतिरिक्त दो त्योहार ऐसे और हैं, जिसमें तालाब का महत्व है– एक तो है शीतला सप्तमी– इसमें तालाब में ‘दह बैठाया’ (एक विशेष पूजा) जाता है | अगर गाँव में तालाब नहीं है या है भी किंतु वह स्वच्छ नहीं है तो लोग अपने घर के सामने तालाब के प्रतीक के रूप में एक छोटा गड्ढा खोदते हैं, उसमें जल भरते हैं फिर माँ शीतला की पूजा करके दह बैठाते हैं। दूसरा त्योहार हैं- भादों के महीने में आने वाला ‘हलछठ। इसमें भी तालाब के अभाव में प्रतीक के रूप में एक गड्ढा खोदकर, उसमें पानी भरा जाता है। गड्ढे के पास ढाख और कुश की डंडियों को गाड़ दिया जाता है फिर वहीं बैठकर महिलाएँ अपनी औलाद की ख़ुशहाली के लिए माँ की पूजा करती हैं।

तो तालाब हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। हमारे पुरखों ने समझा था इस बात को, किंतु अब स्थिति बदल रही है। नये तालाबों का निर्माण तो अब बीते कल की बात हो गयी है किंतु अनायास खुद जाने वाले तालाब भी अब गाँवों से ग़ायब हो रहे हैं। अब पक्के मकान बन रहे हैं, जिसके लिए मिट्टी की कोई ज़रूरत नहीं है। कच्चे मकान गिर रहे हैं। उसकी मिट्टी तालाबों में फेंकी जा रही है। तालाब पाटे जा रहे हैं। मेरे गाँव का तालाब जो कभी साफ जल से भरा रहता था अब जलकुम्भी से भरा है। आकार भी बहुत छोटा हो गया है उसका। ग्राम पंचायत या गाँव के लोग चाहें तो तालाब से जलकुम्भी निकलवा दें, गाद साफ करवा दें। फिर से उपयोगी बन जाये तालाब। पर कौन चाहे!! प्रधान के अपने तर्क हैं, अपने संबंध हैं, सरकार इस ओर से सोई है और गाँव के लोग! अब प्रत्यक्ष रूप से उन्हें तालाब के फ़ायदे नहीं दिखाई दे रहे हैं। गाँवों में गाय-भैंस अब कोई-कोई ही पालता है। दरवाज़े पर जानवरों के खूंटे पहले सम्पन्नता की निशानी थे, अब पिछड़ेपन के सूचक बनते जा रहे हैं। जानवरों की जगह अब स्कूटर, मोटरसाइकिल, कार और ट्रैक्टर दरवाजे की शान बन गए हैं | खेती ट्रैक्टर से होती है इसलिए बैल भी अनुपयोगी सिद्ध हो चुके हैं। जानवर थे तो तालाब बहुत उपयोगी था, अब नहीं रहा।

लोग इस बात से अनजान हो चुके हैं कि तालाब रहेगा तो प्राकृतिक जल-चक्र सुचारू रूप से चलता रहेगा। बारिश का पानी जब कुओं और तालाबों में भर जायेगा तो भू-जल का स्तर ऊपर उठेगा। नल और कुँए सूखने से बचेंगे। नदियों का प्रवाह बढ़ेगा। पहले भी जिन गाँवों में तालाब कम या नहीं थे, वहाँ कुँए बहुत गहरे खोदने पड़ते थे, तब पानी का स्रोत मिलता था।
तालाब तो तालाब अब तो गाँवों से कुँए भी ग़ायब हो रहे हैं! बड़ी बेरहमी से लोग उसे पाट रहे हैं। कुँए खोदने वाले हाथ पूजे जाते थे, इन पाटने वाले हाथों का क्या किया जाय! बिना तालाब, बिना कुँए के गाँवों की कल्पना कितनी त्रासद है। तालाब नहीं रहे, कुँए नहीं रहे। सरकारी नलों ने इनकी जगह ले ली पर जिस दिन किसी कारण से पानी की सप्लाई नहीं हो पाती है तब शहरों की तरह गाँव के लोग भी बूँद-बूँद पानी के लिए इधर-उधर भटकते हैं।

पानी जीवन के लिए तो है ही बहुत ज़रूरी किंतु कुँए और तालाब सिर्फ पानी ही नहीं देते थे, लोगों के मिलन के स्थल भी थे। महिलाएँ वहाँ अपने सुख-दुःख साझा करती थीं। पल दो पल के लिए अपने ग़म को भूल जाती थीं। सखियों का साथ उन्हें हिम्मत देता था। पर अब गाँव से पनघट का मिलन, हँसी-ठिठोली सब ग़ायब हो गये हैं। ग़ायब हो गया है गाँव से गाँवपन! वैवाहिक रस्मों में हो सकता है तालाब की जगह घर के नलों की पूजा कर ली जाये पर इस सत्य को नहीं नकारा जा सकता कि गीत गाते हुए तालाब की ओर जाने वाली महिलाओं के सुर के बिना गाँव बहुत सूना हो गया है।

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रचनाकार परिचय

आशा पाण्डेय

ईमेल :

निवास : अमरावती (महाराष्ट्र)

शिक्षा- एम० ए०, पीएच० डी (प्राचीन इतिहास)
प्रकाशन/प्रसारण- धूप का गुलाब, चबूतरे का सच व खारा पानी (कहानी संग्रह), बादल को घिरते देखा है (यात्रा वृत्तांत), तख्त बनने लगा आकाश (कविता संग्रह), खिले हैं शब्द (हाइकु संग्रह), यह गठरी है प्रेम की (दोहा संग्रह), खट्टे हरे टिकोरे, सोन चिरैया व मैं पंछी बन जाऊं (बाल कविता संग्रह) प्रकाशित। बादल को घिरते देखा है (यात्रा वृत्तांत) पुस्तक उड़िया भाषा में अनूदित एवं प्रकाशित।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, लेख कविताएँ तथा यात्रा वृत्तांत प्रकाशित।
कई कहानियाँ, कविताएँ मलयालम, उड़िया तथा नेपाली भाषा में अनूदित, प्रकाशित।
आकाशवाणी नागपुर तथा अकोला से कविताएँ तथा कहानियाँ प्रसारित।
पुरस्कार- महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी का 2010-11 का मुंशी प्रेमचंद प्रथम पुरस्कार
श्री राधेश्याम चितलांगिया स्मृति अखिल भरतीय हिंदी कहानी प्रतियोगिता सन- 2011 द्वितीय पुरस्कार
सृजन लोक सम्मान, चेन्नई
ललद्यद शारदा सम्मान, लेह
तुलसी सम्मान, भोपाल
सम्पर्क- 5, योगीराज शिल्प, आई०जी० बंगला के सामने, कैंप, अमरावती (महाराष्ट्र)
मोबाइल- 9422917252