Ira
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। दिसंबर 2024 के अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

टांगीनाथ: देवाधिदेव शिव का महिमा स्थल- डॉ० हरेन्द्र सिन्हा, पुरातत्वविद्

टांगीनाथ: देवाधिदेव शिव का महिमा स्थल- डॉ० हरेन्द्र सिन्हा, पुरातत्वविद्

प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य को धर्म की कोई अवधारणा हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। लेकिन इतना अवश्य समझा जा सकता है कि प्रकृति के अतिवादी  स्वरुप से वो भयभीत रहा करते होंगे, विशेष कर आंधी-तूफान,बरसात, बिजली का चमकना-कड़कना, आग का लगना आदि ये सारी घटनाएं उन्हें अवश्य डराती होंगी। आगे चलकर एक अन्य घटना से भी वह संभवत: डरने लगे होंगे, और वो घटना थी, उनकी गुफाओं में शिशु जन्म। जब उनके साथ रहने वाली गर्भवती  महिलाएं शिशु को जन्म देती होंगी, तब इस  पूरी प्रक्रिया को देखकर उन्हें ये लगता होगा कि ये कोई चमत्कार, कोई जादू है, जो स्त्रियां करती हैं और नए मानव का निर्माण करती हैं।

प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य को धर्म की कोई अवधारणा हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। लेकिन इतना अवश्य समझा जा सकता है कि प्रकृति के अतिवादी  स्वरुप से वो भयभीत रहा करते होंगे, विशेष कर आंधी-तूफान,बरसात, बिजली का चमकना-कड़कना, आग का लगना आदि ये सारी घटनाएं उन्हें अवश्य डराती होंगी। आगे चलकर एक अन्य घटना से भी वह संभवत: डरने लगे होंगे, और वो घटना थी, उनकी गुफाओं में शिशु जन्म। जब उनके साथ रहने वाली गर्भवती  महिलाएं शिशु को जन्म देती होंगी, तब इस  पूरी प्रक्रिया को देखकर उन्हें ये लगता होगा कि ये कोई चमत्कार, कोई जादू है, जो स्त्रियां करती हैं और नए मानव का निर्माण करती हैं। इसीलिए आदि मानव ने स्त्रियों से भी भयभीत रहना और उनका सम्मान करना शुरू किया। इसी भय का परिणाम हम आगे चलकर धर्म की नींव के पड़ने के रूप में देखते हैं । ऐसा मानने का कारण ये है कि आगे चलकर प्रागैतिहासिक मानव ने स्त्रियों की मूर्तियों का निर्माण भी किया। दुनिया भर में  प्रागैतिहासिक काल की गुफाओं से, पुरातात्त्विक  उत्खननों में,  छोटी-छोटी स्त्री मूर्तियां पाई गई हैं, जो लकड़ी या पत्थर की बनाई जाती थीं। आगे चलकर ये मूर्तियां  कच्ची या पक्की मिट्टी की भी बनने लगीं, जिन्हें आज पुरातत्व में  मातृ देवी के नाम से जानते हैं। मातृ देवी के रूप में पाई जाने वाली ये मूर्तियां  पुरातत्व की ऐसी प्राथमिक साक्ष्य हैं जिनसे पता चलता है कि मनुष्य के मन में धर्म की अवधारणा प्रागैतिहासिक काल में ही स्थापित होने लगी थी। ऐसे ही, धार्मिक विचारों का  धीरे-धीरे प्रसार होने लगा और फिर अन्य देवी देवताओं की परिकल्पना भी की गई, जिसमें  मातृ देवी के बाद, पुरातात्विक साक्ष्यों सहित सबसे पुराना संदर्भ संभवत: शिव का मिलता है, जो हमें मोहनजोदड़ों की खुदाई में प्राप्त एक सील पर दिखता है । इस सील पर एक पुरुष को एक आसन पर बैठे हुए दिखाया गया है जिसके चारों तरफ चार पशु भी बैठे हुए हैं और उस व्यक्ति के सर पर दो सींग भी बने हुए हैं। इसे हम पशुपति शिव की प्राचीनतम मूर्ति मानते हैं, जिसमें यही सींग आगे चलकर शिव मूर्तियों में संभवतः त्रिशूल के रूप में रूपांकित किया जाने लगा।

शिव की आराधना  देश के हर हिस्से में होती है । झारखंड में भी शिव आराधना की परम्परा बहुत पहले से ही चली आ रही है। विशेष कर आदिवासियों के बीच  शिव सर्वाधिक प्रचलित देवी- देवताओं  में से एक हैं, जिनकी आराधना मुख्यतः शिवलिंग के रूप में की जाती रही है।

झारखंड में शैव धर्म से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण स्थल हैं, जिनमें से एक टांगीनाथ का मंदिर भी है, जो गुमला ज़िले के झुमरी प्रखंड में मझगांव के पास अवस्थित है। यह गुमला ज़िला मुख्यालय से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर  है और सर्वप्रथम 1915 में चुन्नीलाल नामक शोधकर्ता  ने इसके बारे में सूचना दी थी।  बाद में प्रसिद्ध मानव शास्त्री शरत चंद्र रॉय ने भी ने भी इसे देखा था और इसकी चर्चा भी की थी।

टांगीनाथ झारखंड राज्य के प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरों में से एक महत्वपूर्ण शिव मंदिर है जिसके अवशेष एक छोटी सी टुंगड़ी यानी पहाड़ी के ऊपर अवस्थित हैं। हालांकि अब यहां का प्राचीन मंदिर, जो लगभग आठवीं शताब्दी के आसपास का माना जाता है, अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है। लेकिन वहां प्राचीन मंदिर के जो अवशेष बिखरे पड़े थे, उन्हें ही सजा कर एक छोटे मंदिर का रूप दे दिया गया है। इस प्राचीन मंदिर के पुनर्निर्माण में अधिकांशतः  यहां बिखरे प्राचीन आर्किटेक्चरल मेम्बर्स का इस्तेमाल किया गया है, जिसमें अब छत वाला हिस्सा नहीं है। इस मंदिर के अंदर कुछ मूर्तियां भी सजा दी गई हैं , जो इसी स्थल पर बड़ी संख्या में बिखरी पड़ी थीं। इन बिखरी मूर्तियों और सैकड़ों शिवलिंगों को संग्रहित कर आगे चलकर एक नये मंदिर का निर्माण यहीं पर  कर दिया गया जहां शिवलिंग स्थापित किया गया है, जिसकी अनवरत पूजा आराधना होती है।

प्राचीन मंदिर के प्रवेश द्वार दो तोरण के रूप में है। दोनों के बीच एक गलियारा भी बना हुआ है। दोनों द्वारों के ऊपर कुछ कलाकृतियां भी बनाई गई होंगी जो अब देखने को नहीं मिलती । बलुआही पत्थरों से निर्मित  यहां जो दो स्तंभ खड़े किए गए हैं, उनमें  एक पर गंगा और दूसरे पर यमुना देवी की आकृतियां उत्कीर्ण की गई हैं। गंगा देवी को घड़ियाल पर एवं एवं यमुना देवी को कच्छप पर आरुढ़ दिखलाया  गया है। इस मंदिर के चौखट के ललाट बिम्ब पर गणेश की मूर्ति उत्कीर्ण है और उसके उपर नवग्रह की छोटी मूर्तियां  भी उत्कीर्ण दिखती हैं ।

ये प्राचीन मंदिर छत विहीन है और पंच-रथ योजना के आधार पर निर्मित है। इसके अंदर प्रवेश करने पर गर्भ गृह के क्षेत्र में, इसी स्थल पर पाई गई अनेक मूर्तियां में से कुछ मूर्तियां सजा कर रख दी गई हैं, मध्य में एक शिवलिंग स्थापित है । मंदिर  के अन्य भग्नावशेष तथा आमलक आदि भी यहां बड़ी संख्या में पाए गए हैं, जिससे प्रतीत होता है कि मूल रूप में ये विशालकाय मंदिर रहा होगा। विशेष कर यहां पाए गए एक विशालकाय लोहे का त्रिशूल, जिसकी चर्चा आगे की गई है, को देखकर एक पुरातत्वज्ञ के रूप में मेरी परिकल्पना ये है कि यहां का मूल मंदिर इतना विशाल रहा होगा कि उसके शिखर के शीर्ष पर इस त्रिशूल को स्थापित किया गया होगा। लेकिन इस परिकल्पना पर और शोध की आवश्यकता है। यहां शिवलिंगों की भी बहुतायत है।  यहां से एक बेहतरीन एकमुखी शिवलिंग भी पाया गया है जो सामान्यत: बहुत कम संख्या में पाये जाते हैं। इस मंदिर परिसर में विष्णु, सूर्य, महिषासुर मर्दिनी, दुर्गा, लक्ष्मी, गणेश, अर्धनारीश्वर, उमा-महेश्वर, हनुमान, नंदी, गज तथा सिंह आदि की अनेकानेक  मूर्तियां पाई गईं, जिन्हें मंदिर परिसर में ही सजाकर सुरक्षित रखा गया है। एक मूर्ति राधा कृष्ण की भी मिली है।

पिछले कुछ सालों से इस मंदिर की देखरेख स्थानीय लोगों द्वारा अनवरत रूप से की जा रही है, जिससे ये मंदिर अब बेहतर स्थिति में है और इसी परिसर में एक आधुनिक सुविधाओं युक्त नया शिव मंदिर भी बना दिया गया है, जिसमें सावन के महीने में तथा शिवरात्रि आदि के अवसर पर भक्तों की भारी भीड़ इकट्ठी होती है और भक्तगण इस मंदिर सहित, प्राचीन मंदिर तथा त्रिशूल आदि की भी पूजा करते हैं। अब इसी परिसर में दुर्गा माता का भी एक मंदिर  निर्मित कर दिया गया है। शिवरात्रि एवं सावन आदि अवसरों पर यहां अब बड़े मेले भी लगते हैं, जिससे लोगों में इस प्राचीन मंदिर की प्रसिद्धि और लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है। अब झारखंड के महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों में टांगीनाथ मंदिर की भी गणना हो रही है।

इस मंदिर से संबंधित एक विशालकाय त्रिशूल के बारे में देश भर में जिज्ञासा बढ़ी हुई है। लोहे का बना ये त्रिशूल आकार में यहां के बचे हुए मंदिर की तुलना में बहुत ही बड़ा है। इस त्रिशूल के तीनों फलक भूमि पर पड़े मिले थे। त्रिशूल का दंड अष्टकोणीय है और इसकी परिधि 11 इंच है।  त्रिशूल के फलकों सहित अनुमानित ऊंचाई 5 मीटर है जिसमें से 3 मीटर ज़मीन के ऊपर और 2 मीटर ज़मीन के नीचे अनुमानित है। दिल्ली में क़ुतुब मीनार परिसर में अवस्थित मेहरौली स्तंभ की भांति इस त्रिशूल पर भी धूप पानी आदि का कोई असर नहीं होता है क्योंकि इसमें सैकड़ो साल के बाद भी जंग नहीं लगी है। त्रिशूल के निकट ही छत विहीन एक  शिव मंदिर के अवशेष हैं, जिनकी चर्चा पूर्व में की जा चुकी है।

जनश्रृति के अनुसार उक्त त्रिशूल को स्थानीय लोहरा जाति के लोगों ने कभी उठा ले जाने का प्रयास किया था । कहा जाता है, इसकी भारी क़ीमत उन लोगों द्वारा, दैवीय प्रकोप के रूप में, चुकानी पड़ी। संभवतः इसी कारण उसके बाद किसी और ने ऐसा दुस्साहस नहीं किया और आज भी इस स्थान के 10-15 कि.मी. की परिधि में लोहरा जाति के लोग निवास नहीं करते हैं।

टांगीनाथ धाम का प्राचीन मंदिर भले ही अब खंडहर में तब्दील हो चुका है, लेकिन यहीं पर नए मंदिर के निर्माण के पश्चात् यह स्थान फिर से राज्य के एक महत्वपूर्ण धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में लोकप्रिय हो चुका है, जिसके विकास के लिए पर्यटन विभाग को विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है।

 

 

0 Total Review

Leave Your Review Here

रचनाकार परिचय

हरेन्द्र सिन्हा

ईमेल : harendra.sinha@rediffmail.com

निवास : राँची (झारखण्ड)

नाम- डॉ० हरेन्द्र सिन्हा 
जन्मतिथि- 29 जुलाई 1950
जन्मस्थान- पटना
लेखन विधा- कविता, इतिहास/पुरातत्व 
शिक्षा- पी एच. डी.
सम्प्रति- विजिटिंग प्रोफेसर, राची विश्व०
प्रकाशन- कला संस्कृति इतिहास पुरातत्व आदि विषयों पर लगभग 17 प्रकाशन।
सम्मान- 'झारखण्ड रत्न : 2011','हिंदी रत्न सम्मान : 2024'  आदि।
प्रसारण- आकाशवाणी, दूरदर्शन में 50 से अधिक वार्ता, साक्षात्कार, नाटक, फिल्म, सीरियल्स आदि में भागीदारी आदि।
विशेष- अनवरत पुरातात्विक अन्वेषण में संलग्न।
संपर्क- सी-103, हरिहर एस्टेट, कुसुम विहार, रोड नं० 4, मोराबादी, रांची : 834008.
मोबाइल- 9204246549