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तेजेन्द्र शर्मा की कहानी -पापा की सज़ा

तेजेन्द्र शर्मा की कहानी -पापा की सज़ा

पापा ने ऐसा क्यों किया होगा ?
उनके मन में उस समय किस तरह के तूफ़ान उठ रहे होंगे? जिस औरत के साथ उन्होंने सैंतीस वर्ष लम्बा विवाहित जीवन बिताया; जिसे अपने से भी अधिक प्यार किया होगा; भला उसकी जान अपने ही हाथों से कैसे ली होगी? किन्तु सच यही था- मेरे पापा ने मेरी माँ की हत्या, उसका गला दबा कर, अपने ही हाथों से की थी।

पापा ने ऐसा क्यों किया होगा ?

उनके मन में उस समय किस तरह के तूफ़ान उठ रहे होंगे? जिस औरत के साथ उन्होंने सैंतीस वर्ष लम्बा विवाहित जीवन बिताया; जिसे अपने से भी अधिक प्यार किया होगा; भला उसकी जान अपने ही हाथों से कैसे ली होगी? किन्तु सच यही था- मेरे पापा ने मेरी माँ की हत्या, उसका गला दबा कर, अपने ही हाथों से की थी।

सच तो यह है कि पापा को लेकर ममी और मैं काफ़ी अर्से से परेशान चल रहे थे। उनके दिमाग़ में यह बात बैठ गई थी कि उनके पेट में कैंसर है और वे कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। डाक्टर के पास जाने से भी डरते थे। कहीं डाक्टर ने इस बात की पुष्टि कर दी, तो क्या होगा? पापा के छोटे भाई जॉन अंकल को भी पेट में कैंसर हुआ था। बस दो महीने में ही चल बसे थे। जॉन अंकल पाँच फ़ुट ग्यारह इंच लम्बे थे। लेकिन मृत्यु के समय लगता था जैसे साढ़े तीन फ़ुट के रह गये हों। कीमोथिरेपी के कारण बाल उड़ गये थे, कुछ खा ना पाने के कारण बहुत कमज़ोर हो गये थे। बस एक कंकाल सा दिखने लगे थे। उनकी दर्दनाक स्थिति ने पापा को झकझोर दिया था। रात रात भर सो नहीं पाते थे।

पापा को हस्पताल जाने से बहुत डर लगता है। उन्हें वहाँ के माहौल से ही दहश्त होने लगती है। उनकी माँ अस्पताल गई, लौट कर नहीं आई। पिता गये तो उनका भी शव ही लौटा। भाई की अंतिम स्थिति ने तो पापा को तोड़ ही दिया था। शायद इसीलिये स्वयं अस्पताल नहीं जाना चाहते थे। किन्तु यह डर दिमाग में भीतर तक बैठ गया था कि उन्हें पेट में कैंसर हैं। पेट में दर्द भी तो बहुत तेज़ उठता था। पापा को एलोपैथी की दवाओं पर से भरोसा भी उठ गया था। उन पलों में बस ममी पेट पर कुछ मल देतीं, या फिर होम्योपैथी की दवा देतीं। दर्द रुकने में नहीं आता और पापा पेट पकड़ कर दोहरे होते रहते।

ममी अपनी रुलाई रोक नहीं पाती थीं। बस मदर मेरी की फ़ोटो के सामने जा कर रो देतीं। वो चर्च जा कर पादरी से भी मिल कर आईं। उसे लगता था कि शायद पापा पर किसी प्रेतात्मा का साया है। लेकिन मुझे कभी कभी महसूस होता कि शायद पापा किसी मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो गये हैं। एक बार मैंने ममी से कहा भी, लेकिन उसने ऐसा मुँह बनाया कि मैं चुप हो कर रह गई। जिस ज़माने की ममी हैं, उस ज़माने के लोग मानसिक बीमारियों को सीधे पागलपन से जोड़ देते हैं। और किसी अपने को पागल क़रार करना उनके बूते से बाहर की बात होती है।

पापा की हरकतें दिन प्रतिदिन उग्र होती जा रही थीं। हर वक्त बस आत्महत्या के बारे में ही सोचते रहते। एक अजीब सा परिवर्तन देखा था पापा में। पापा ने गैराज में अपना वर्कशॉप जैसा बना रखा था। वहाँ के औज़ारों को तरतीब से रखने लगे, ठीक से पैक करके और उनमें से बहुत से औज़ार अब फैंकने भी लगे। दरअसल अब पापा ने अपनी बहुत सी काम की चीज़ें भी फेंकनी शुरू कर दी थीं। जैसे जीवन से लगाव कम होता जा रहा हो। पहले हर चीज़ को संभाल कर रखने वाले पापा अब चिड़चिड़े हो कर चिल्ला उठते, 'ये कचरा घर से निकालो !'

ममी दहश्त से भर उठतीं। ममी को अब समझ ही नहीं आता था कि कचरा क्या है और काम की चीज़ क्या है। क्ई बार तो डर भी लगता कि उग्र रूप के चलते कहीं माँ पर हाथ ना उठा दें, लेकिन माँ इस बुढ़ापे के परिवर्तन को बस समझने का प्रयास करती रहती। माँ का बाइबल में पूरा विश्वास था और आजकल तो यह विश्वास और भी अधिक गहराता जा रहा था। अपने पति को गलत मान भी कैसे सकती थी? कभी कभी अपने आप से बातें करने लगती। यीशु से पूछ भी बैठती कि आख़िर उसका कुसूर क्या है। उत्तर ना कभी मिला, ना ही वो आशा भी करती थी।

पापा बड़बड़ाते रहते। पेट दर्द ने जैसे उनके जीवन में एक तूफ़ान सा ला दिया था। एक दिन ममी के पास आकर बोले, 'मार्गरेट, अगर मुझे कुछ हो गया, तुम मेरे बिना कैसे ज़िन्दा रह पाओगी ? तुम्हें तो बैंक के अकाउण्ट, बिजली का बिल, काउंसिल टैक्स कुछ भी करना नहीं आता है। मुझे मरना नहीं चाहिये, तुम तो ज़िन्दा ही मर जाओगी।' बेचारी ममी, रोज़ाना मर मर कर जी रही थी।

हमारा घर है भी थोड़ी वीरान सी जगह पर। घर से करीबी रेल्वे स्टेशन कार्पेन्डर्स पार्क तक की दूरी भी कार से सात आठ मिनट में पूरी होती है। ऑक्सी विलेज - हाँ प्यारा सा हरियाला गाँव। हरयाली की भीनी भीनी ख़ुशबु नथुनों को थपथपाती रहती है। पापा कभी कभी अकेले बैठे उकता जाते तो जा कर रेलवे स्टेशन पर बैठ जाते। एक ज़माने में तो एक ही रंग की ब्रिटिश रेल की गाड़ियाँ दिखाई दिया करती थीं। लेकिन जब से रेलों ने रंग बदला है, तब से रंगबिरंगी रेलें गुज़रने लगी हैं। वर्जिन ट्रेन्स की लाल और काली और कॉनेक्स कंपनी की पीली तेज़ रफ्तार गाड़ियाँ, जो धड़धड़ करती वहां से निकल जाया करतीं। और फिर सिल्वर लिंक की ठुकठुक करती हरी और बैंगनी रेलगाड़ी जो कार्पेन्डर्स पार्क पर रुकती है। वाटफ़र्ड से लंदन यूस्टन तक की गाड़ियाँ- स्कूल जाते बच्चे, काम पर जाते रंग रंगीले लोग।

रंगहीन तो ममी का जीवन हुआ जा रहा था। उसमें केवल एक ही रंग बाकी रह गया था। डर का रंग। डरी डरी माँ जब मीट पकाती तो कच्चा रह जाता या फिर जल जाता। कई बार तो स्टेक ओवन में रख कर ओवन चलाना ही भूल जाती। और पापा, वैसे तो उनको भूख ही कम लगती थी, लेकिन जब कभी खाने के लिये टेबल पर बैठते तो जो खाना परोसा जाता उससे उनका पारा थर्मामीटर तोड़ कर बाहर को आने लगता। ममी को स्यवं समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या होता जा रहा है।

पापा पर जॉन अंकल का भूत छाया जा रहा था। जॉन अंकल के जीवन के अंतिम छ: महीने जैसे पापा के दिल और दिमाग क़ो मथे जा रहे थे। मुझे और माँ को हर वक्त यह डर सताता रहता था कि पापा कहीं आत्महत्या न कर लें। ममी तो हैं भी पुराने ज़माने की। उन्हें केवल डरना आता है। मैं सोचती हूँ अगर मेरे पति ने मेरे साथ ऐसा सुलूक किया होता तो मैं तो उसको कबकी छोड़ छाड क़र अलग हो गई होती। किन्तु मेरे ममी और पापा मुझ जैसे नहीं हैं न। सैंतीस वर्ष की हँसी, ख़ुशी और गम - सभी को साथ साथ सहा था उन्होंने। मैं उनके सम्बन्धों के बारे में सोच सोच कर परेशान होती रहती हूँ।

परेशान तो मैं उस समय भी हो गई थी जब पापा ने मुझे अपने कमरे में बुलाया। उन्होंने कमरे में बुला कर मुझे बहुत प्यार किया और फिर एक पचास पाउण्ड का चैक मुझे थमा दिया, 'डार्लिंग, हैप्पी बर्थडे !' मैं पहले हैरान हुई और फिर परेशान। मेरे जन्मदिन को तो अभी तीन महीने बाकी थे। पापा ने पहले तो कभी भी मुझे जन्मदिन से इतने पहले मेरा तोहफ़ा नहीं दिया। फिर इस वर्ष क्यों।

'पापा, इतनी भी क्या जल्दी है? अभी तो मेरे जन्मदिन में तीन महीने बाकी हैं।'
'देखो बेटी, मुझे नहीं पता मैं तब तक जिऊँगा भी या नहीं। लेकिन इतना तो तू जानती है कि पापा को तेरा जन्मदिन भूलता कभी नहीं।'
मैं पापा को उस गंभीर माहौल में से बाहर लाना चाह रही थी। 'रहने दो पापा, आप तो मेरे जन्मदिन के तीन तीन महीने बाद भी माँगने पर ही मेरा गिफ्ट देते हैं।' और कहते कहते मेरे नेत्र भी गीले हो गये।

मैं पापा को वहीं खड़ा छोड़ अपने घर वापिस आ गई थी। उस रात मैं बहुत रोई थी। केनेथ, मेरा पति बहुत समझदार है। वो मुझे रात भर समझाता रहा। कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला।

सुबह ममी का फ़ोन था। पापा बैंक में जा कर बैंक वालों से झगड़ा कर बैठे थे। अपने अकाउण्ट को लेकर परेशान थे। बात बढ़ती गई और गाली गलौज तक पहुँच गई। बैंक वाले पापा ममी को जानते थे। पिछले तीस वर्षों से वहीं तो अकाउण्ट था। उन्होंने पुलिस की जगह ममी को फ़ोन किया। ममी को पता ही नहीं था कि पापा बैंक गये हैं। वो बेचारी घर में परेशान थी कि आख़िर चले कहाँ गये। वो सोच ही रही थी कि मुझे फ़ोन करके पूछे। शर्मिंदा होती ममी बैंक जा कर पापा को वापिस घर ले कर आ गई। पापा बड़बड़ाए जा रहे थे, 'मेरे बाद तुम अपने अकाउण्ट का पूरा ख्याल रखना। ये लोग किसी के सगे नहीं होते। तुम्हें लूट कर खा जायेंगे।'

बीमारी का ख़ौफ़ पापा को खाए जा रहा था और ममी उस ख़ौफ़ के साये तले पिसती जा रही थी। मैं कभी कभी हैरान भी होती हूँ कि ममी पापा से इतना डरती क्यों हैं। घर में शुरू से ही पापा का रोबदाब देखा है। पापा स्टीम इंजिन पर सैकण्ड मैन थे। हर वक्त बुड़बुड़ाते रहते थे कि उनको पूरा ड्राइवर नहीं बना रहे। उनकी तरक्की में कौन रोड़े अटका रहा था हमें कभी पता नहीं चला। काम की बात घर पर पूरी तरह से नहीं करते थे, बस बुड़बुड़ाते रहते थे। सभी रेलवे वालों की तरह पापा भी चाहते थे कि उनका भी एक पुत्र हो जो कि रेलवे में ड्राइवर बने। पापा के ज़माने में औरतें ड्राइवर नहीं बना करती थीं। मैं ममी पापा की इकलौती संतान ! पापा न स्वयं पूरे ड्राइवर बन पाये, न ही अपने पुत्र को बना पाये। कभी-कभी जब बहुत प्यार आता तो कहते, 'मैं तो अपनी बेटी को पायलट बनाऊँगा।'

मैं पढ़ाई लिखाई में बहुत तेज़ नहीं थी। मेरी सभी सहेलियों ने भी बस 'ओ-लेवल' तक ही पढ़ाई की थी। मैं भी उससे आगे नहीं जा सकी। और बिल्डिंग सोसाइटी में कैशियर बन गई। मुझे जीवन से कोई शिकायत नहीं। अब तो मेरी बिल्डिंग सोसाइटी पूरा बैंक बन चुकी है। और मैं अपनी ब्रांच की असिस्टेंट मैनेजर हूँ।

लेकिन पापा के जीवन को कैसे मैनेज करूँ, समझ नहीं आ रहा था। ध्यान हर वक्त फ़ोन की ओर ही लगा रहता था। डर, कि कहीं ममी का फ़ोन न आ जाए और वह रोती हुई कहें कि पापा ने आत्महत्या कर ली है।

फ़ोन आया लेकिन फ़ोन ममी का नहीं था। फ़ोन पड़ोसन का था- मिसेज़ जोन्स। हमारी बंद गली के आख़री मकान में रहती थी, ' जेनी, दि वर्स्ट हैज़ हैपण्ड।.. युअर पापा... ' और मैं आगे सुन नहीं पा रही थी। बहुत से चित्र बहुत तेज़ी से मेरी आँखों के सामने से गुज़रने लगे। पापा ने ज़हर खाई होगी, रस्सी से लटक गये होंगे या फिर रेलवे स्टेशन पर.. .

मिसेज़ जोन्स ने फिर से पूछा, 'जेनी तुम लाइन पर हो न?'
'जी।' मैं बुदबुदा दी।
'पुलिस को भी तुम्हारे पापा ने ख़ुद ही फ़ोन कर दिया था। ...आई एम सॉरी माई चाइल्ड। तुम्हारी माँ मेरी बहुत अच्छी सहेली थी।'
'...थी? ममी को क्या हुआ?' मैं अचकचा सी गई थी। 'आत्महत्या तो पापा ने की है न?'
'नहीं मेरी बच्ची, तुम्हारे पापा ने तुम्हारी ममी का ख़ून कर दिया है।' और मैं सिर पकड़ कर बैठ गई। कुछ समझ नहीं आ रहा था। ऐसे समाचार की तो सपने में भी उम्मीद नहीं थी। पापा ने ये क्या कर डाला। अपने हाथों से अपने जीवनसाथी को मौत की नींद सुला दिया !

पापा ने ऐसे क्यों किया होगा? मैं कुछ भी सोच पाने में असमर्थ थी। केनेथ अपने काम पर गये हुए थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मेरी प्रतिक्रिया क्या हो। एकाएक पापा के प्रति मेरे दिल में नफ़रत और गुस्से का एक तूफ़ान सा उठा। फिर मुझे उबकाई का अहसास हुआ; पेट में मरोड़ सा उठा। मेरे साथ यह होता ही है। जब कभी कोई दहला देने वाला समाचार मिलता है, मेरे पेट में मरोड़ उठते ही हैं।

हिम्मत जुटाने की आवश्यकता महसूस हो रही थी। मैं अपने पापा को एक कातिल के रूप में कैसे देख पाऊँगी। एक विचित्र सा ख्याल दिल में आया, काश! अगर मेरी ममी को मरना ही था, उनकी हत्या होनी ही थी तो कम से कम हत्यारा तो कोई बाहर का होता। मैं और पापा मिल कर इस स्थिति से निपट तो पाते। अब पापा नाम के हत्यारे से मुझे अकेले ही निपटना था। मैं कहीं कमज़ोर न पड़ जाऊँ.. .

ममी को अंतिम समय कैसे महसूस हो रहा होगा..! जब उन्होंने पापा को एक कातिल के रूप में देखा होगा, तो ममी कितनी मौतें एक साथ मरी होंगी..! क्या ममी छटपटाई होगी..! क्या ममी ने पापा पर भी कोई वार किया होगा..! सारी उम्र पापा को गॉड मानने वाली ममी ने अंतिम समय में क्या सोचा होगा..! ममी.. प्रामिस मी, यू डिड नॉट डाई लाईक ए कावर्ड, मॉम आई एम श्योर यू मस्ट हैव रेज़िस्टिड..! अगर हत्यारा कोई अन्जान व्यक्ति होता तो ममी और पापा मिल कर क्या कुछ नहीं करते..! मगर पापा ही...!
मैंने हिम्मत की और घर को ताला लगाया। बाहर आकर कार स्टार्ट की और चल दी उस घर की ओर जिसे अपना कहते हुए आज बहुत कठिनाई महसूस हो रही थी। ममी दुनिया ही छोड़ गईं और पापा - जैसे अजनबी से लग रहे थे। रास्ते भर दिमाग़ में विचार खलबली मचाते रहे। मेरे बचपन के पापा जो मुझे गोदी में खिलाया करते थे..! मुझे स्कूल छोड़ कर आने वाले पापा...! मेरी ममी को प्यार करने वाले पापा...! घर में कोई बीमार पड़ जाए तो बेचैन होने वाले पापा...! ट्रेन ड्राइवर पापा...! ममी और मुझ पर जान छिड़कने वाले पापा...! कितने रूप हैं पापा के, और आज एक नया रूप - ममी के हत्यारे पापा...! कैसे सामना कर पाऊंगी उनका...! उनकी आँखों में किस तरह के भाव होंगे...! सोच कहीं थम नहीं रही थी।

मेरी कार घर के सामने रुकी। वहाँ पुलिस की गाड़ियाँ पहले से ही मौजूद थीं। पुलिस ने घर के सामने एक बैरिकेड सा खड़ा कर दिया था। आसपास के कुछ लोग दिखाई दे रहे थे - अधिकतर बूढ़े लोग जो उस समय घर पर थे। सब की आंखों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे। कार पार्क कर के मैं घर के भीतर घुसी। पुलिस अपनी तहकीकात कर रही थी। ममी का शव एक पीले रंग के प्लास्टिक में रैप किया हुआ था। ... मैनें ममी को देखना चाहा..मैं ममी के चेहरे के अंतिम भावों को पढ़ लेना चाहती थी। देखना चाहती थी कि क्या ममी ने अपने जीवन को बचाने के लिये संघर्ष किया या नहीं। अब पहले ममी की लाश- कितना कठिन है ममी को लाश कह पाना- का पोस्टमार्टम होगा। उसके बाद ही मैं उनका चेहरा देख पाऊँगी।

एक कोने में पापा बैठे थे। पथराई सी आँखें लिये, शून्य में ताकते पापा। मैं जानती थी कि पापा ने ही ममी का ख़ून किया है। फिर भी पापा ख़ूनी क्यों नहीं लग रहे थे ? पुलिस कांस्टेबल हार्डिंग ने बताया कि पापा ने स्वयं ही उन्हें फ़ोन करके बताया कि उन्होंने अपनी पत्नी की हत्या कर दी है।

पापा ने मेरी तरफ़ देखा किन्तु कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। उनका चेहरा पूरी तरह से निर्विकार था। पुलिस जानना चाह्यती थी कि पापा ने ममी की हत्या क्यों की। मेरे लिये तो जैसे यह जीने और मरने का प्रश्न था। पापा ने केवल ममी की हत्या भर नहीं की थी – उन्होंने हम सब के विश्वास की भी हत्या की थी। भला कोई अपने ही पति, और वो भी सैंतीस वर्ष पुराने पति, से यह उम्मीद कैसे कर सकती है कि उसका पति उसी नींद में ही हमेशा के लिये सुला देगा।
पापा पर मुकद्दमा चला। पापा ने वकील की सेवा लेने से इन्कार कर दिया। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं किस तरफ़ से अदालत में जाऊँ। हत्या मेरी माँ की हुई थी और हत्यारे थे मेरे अपने पिता। मैं चकराई हुई सी महसूस कर रही थी कि मैं किसके साथ हूँ। यह तो ज़ाहिर था कि माँ की मौत मेरे लिये जीवन का सबसे बड़ा हादसा था। बस सोच रही थी की जीज़स किसी को भी ऐसी परिस्थिति में न ला खड़ा करे।

अदालत ने पापा के केस में बहुत जल्दी ही निर्णय भी सुना दिया था। जज ने कहा, "मैं मिस्टर ग्रीयर की हालत समझ सकता हूँ। उन्होंने किसी वैर या द्वेष के कारण अपनी पत्नी की हत्या नहीं की है। दरअसल उनके इस व्यवहार का कारण अपनी पत्नी के प्रति अतिरिक्त प्रेम की भावना है। किन्तु हत्या तो हत्या है। हत्या हुई है और हत्यारा हमारे सामने है जो कि अपना जुर्म कबूल भी कर रहा है। मिस्टर ग्रीयर की उम्र का ध्यान रखते हुए उनके लिये यही सज़ा काफ़ी है कि वे अपनी बाकी ज़िन्दगी किसी ओल्ड पीपल्स होम में बितायें। उन्हें वहाँ से बाहर जाने कि इजाज़त नहीं दी जायेगी। लेकिन उनकी पुत्री या परिवार का कोई भी सदस्य जेल के नियमों के अनुसार उनसे मुलाक़ात कर सकता है। दो साल के बाद, हर तीन महीने में एक बार मिस्टर ग्रीयर अपने घर जा कर अपने परिवार के सदस्यों से मुलाक़ात कर सकते हैं।"

मेरे मन को बहुत राहत मिली थी। लेकिन सोच रही थी कि क्या मेरी माँ के हत्यारे के लिये क्या यह सज़ा काफ़ी है? जज ने तो पापा को बहुत सस्ते में छोड़ दिया था। भला यह भी कोई सज़ा हुई? सोच रही थी कि क्या मुझसे पहले कभी कोई इन्सान इस तरह की स्थिति से दो चार हुआ होगा?

मैं चिड़चिड़ी होती जा रही थी। कैनेथ भी परेशान थे। बहुत समझाते, बहलाते। किन्तु मैं जिस यन्त्रणा से गुज़र रही थी वो किसी और को कैसे समझा पाती। किसी से बात करने को दिल भी नहीं करता था। कैनेथ ने बताया कि वोह दो बार पापा को जा कर मिल भी आया है। समझ नहीं आ रहा था कि उसका धन्यवाद करूँ या उससे लड़ाई करूँ।

कैनेथ ने मुझे समझाया कि मेरा एक ही इलाज है। मुझे जा कर अपने पापा से मिल आना चाहिये। यदि जी चाहे तो उनसे ख़ूब लड़ाई करूँ। कोशिश करूँ कि उन्हें माफ़ कर सकूँ। क्या मेरे लिये पापा को माफ़ कर पाना इतना ही आसान है? तनाव है कि बढ़ता ही जा रहा है। सिर दर्द से फटता रहता है। पापा का चेहरा बार बार सामने आता है। फिर अचानक मां की लाश मुझे झिंझोड़ने लगती है।

मेरी बेटी का जन्मदिन आ पहुँचा है, "ममी मेरा प्रेज़ेन्ट कहाँ है?" मैं अचानक अपने बचपन में वापिस पहुँच गई हूँ। पापा एकदम सामने आकर खड़े हो गये हैं। मेरी बेटी को उसके जन्मदिन का तोहफ़ा देने लगे हैं।

अगले ही दिन मैं पहुँच गई अपने पापा को मिलने। इतनी हिम्मत कहाँ से जुटाऊँ कि उनकी आँखों में देख सकून। कैसे बात करूँ उनसे। क्या मैं उनको कभी भी माफ़ कर पाऊँगी? दूर से ही पापा को देख रही थी। पापा ने आज भी लंच नहीं खाया था। भोजन बस मेज़ पर पड़ा उनकी प्रतीक्षा करता रहा, और वे शून्य में ताकते रहे। अचानक ममी कहीं से आ कर वहाँ खड़ी हो गयीं। लगीं पापा को भोजन खिलाने। पापा शून्य में ताके जा रहे थे। कहीं दूर खड़ी माँ से बातें कर रहे थे।

मैं वापिस चल दी, बिना पापा से बात किये। हाँ, पापा के लिये यही सज़ा ठीक है कि वे सारी उम्र माँ को ऐसे ही ख़्यालों में महसूस करें, उसके बिना अपना बाकी जीवन जियें, उनकी अनुपस्थिति पापा को ऐसे ही चुभती रहे।
जाओ पापा मैंने तुम्हें अपनी ममी का ख़ून माफ़ किया।

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1 Total Review

शशि श्रीवास्तव

11 July 2024

एक नये अनोखे कथ्य की बेहद सवेदन शील व मार्मिक कहानी

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रचनाकार परिचय

तेजेन्द्र शर्मा

ईमेल : tejinders@live.com

निवास : मिडलएक्सेस (यूनाइटेड किंगडम )

जन्मतिथि- 21 अक्टूबर 1952
जन्मस्थान- जगराँव (पंजाब – भारत)
लेखन विधा- कहानी, ग़ज़ल, कविता, संपादकीय आलेख।
शिक्षा- एम.ए. अंग्रेज़ी (दिल्ली विश्वविद्यालय)
सम्प्रति- लन्दन की ओवर-ग्राउण्ड रेलवे में कार्यरत।
प्रकाशित कृतियाँ-
कथा सप्तक (2024), मेरी कहानियां (2023), तू चलता चल (2021), मृत्यु के इंद्रधनुष (2019), स्मृतियों के घेरे (समग्र कहानियां भाग-1) (2019), नयी ज़मीन नया आकाश (समग्र कहानियां भाग-2) (2019), मौत... एक मध्यांतर (2019), ग़ौरतलब कहानियां (2017) ; सपने मरते नहीं (2015); श्रेष्ठ कहानियां (2015); प्रतिनिधि कहानियां (2014); दीवार में रास्ता (2012); क़ब्र का मुनाफ़ा (2010); सीधी रेखा की परतें (2009); बेघर आंखें (2007); यह क्या हो गया ! (2003); देह की कीमत (1999); ढिबरी टाईट (1994); काला सागर (1990) सभी कहानी संग्रह।

ये घर तुम्हारा है... (2007 - कविता एवं ग़ज़ल संग्रह); मैं कवि हूं इस देश का (2014 - द्विभाषिक कविता संग्रह); टेम्स नदी के तट से (2020).
अपनी बात (खण्ड-1), अपनी बात (खण्ड-2) – 2022, अपनी बात (खण्ड 3) - 2023 पुरवाई पत्रिका में प्रकाशित संपादकीय-संग्रह।

सम्मान
1) ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय द्वारा एम.बी.ई. (मेम्बर ऑफ़ ब्रिटिश एम्पायर) की उपाधि 2017; 2) केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा का डॉ. मोटुरी सत्यनारायण सम्मान – 2011. 3) यू.पी. हिन्दी संस्थान का प्रवासी भारतीय साहित्य भूषण सम्मान 2013. 4) हरियाणा राज्य साहित्य अकादमी सम्मान – 2012. 5) मध्य प्रदेश सरकार का साहित्य सम्मान, 6) ढिबरी टाइट के लिये महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार - 1995 तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों । 7) भारतीय उच्चायोग, लन्दन द्वारा डॉ. हरिवंशराय बच्चन सम्मान(2008), 8) टाइम्स ऑफ़ इण्डिया समूह एवं आई.सी.आई.सी.आई बैंक द्वारा एन.आर.आई ऑफ़ दि ईयर 2018 सम्मान। 9) भारत गौरव सम्मान 2016 (ब्रिटेन की संसद में), 10. ढींगरा फ़ाउण्डेशन का लाइफ़ टाइम अचीवमेंट सम्मान।

प्रसारण– बीबीसी लंदन में न्यूज़ रीडर, ऑल इंडिया रेडियो पर ड्रामा वायस करीब 40 नाटकों में अभिनय, यूट्यूब पर बहुत सी कहानियों का पाठ, लगभग 80 ऑनलाइन कार्यक्रमों में संबोधन।
विशेष-
• लंदन से प्रकाशित एकमात्र पत्रिका पुरवाई का संपादन
• कथा यू.के. संस्था द्वारा भारतीय उच्चायोग लंदन, नेहरू सेंटर लंदन, ब्रिटेन की
• संसद के हाउस ऑफ़ कॉमन्स एवं हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में निरंतर हिन्दी कार्यक्रमों का आयोजन।
• अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान का पिछले 25 वर्षों से लगातार आयोजन।
तेजेन्द्र शर्मा के लेखन पर उपलब्ध आलोचना ग्रन्थः तेजेन्द्र शर्मा – वक़्त के आइने में (2009), हिन्दी की वैश्विक कहानियां (2012), कभी अपने कभी पराये (2015), प्रवासी साहित्यकार श्रंखला (2017), मुद्दे एवं चुनौतियां (2018), तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार (2018), कथाधर्मी तेजेन्द्र (2018), वैश्विक हिन्दी साहित्य और तेजेन्द्र शर्मा (2018) प्रवासी कथाकार तेजेन्द्र शर्मा (2019), प्रवासी साहित्य एवं तेजेन्द्र शर्मा (2019), भारतेतर हिन्दी साहित्य और तेजेन्द्र शर्मा (2019)। वाङ्मय पत्रिका का प्रवासी कथाकार तेजेन्द्र शर्मा विशेषांक (जुलाई-दिसम्बर 2020), वैश्विक संवेदना के कथाकार तेजेन्द्र शर्मा- 2022 (संपादक– अनुज पाल, नेहा देवी)।

विशेष-
शोध
– विभिन्न विश्वविद्यालयों से तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों पर अब तक पाँच पीएच. डी. और दस एम. फ़िल. की डिग्रियां हासिल की गयी हैं।

पता– 33-A, Flat-2, Spencer Road, Harrow & Wealdstone, Middlesex HA3 7AN, Middlesex, UK
मोबाइल– 00-44-7400313433