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उर्मिला आचार्य की कहानी "शुद्धिकर्म"

उर्मिला आचार्य की कहानी "शुद्धिकर्म"

शहर, भीतर-भीतर घना हो रहा था। घास के मैदान गायब होते जा रहे थे। अब तो साहबों के बंगले पर या खेल के मैदान तक ही रह गए थे जिसके कारण शहर से तीन चार किलोमीटर दूर जाकर साइकिल पर चारा लाना ले जाना पुन्नू के लिए कठिन हो गया था।

आज दिन भर से पुन्नू का यह पाँचवां धुलाई केंद्र था। धुलाई केन्द्र! जिसे सब धोबी की दुकान कहते हैं।
पुन्नू! पुन्नालाल त्रिपाठी। ऊँचा ललाट ,लम्बा कद, सुतवां नाक पर कुछ कमज़ोर क़द काठी का अधेड़ व्यक्ति I 
"क्या आप मेरी ये धोती धो देंगे? ये धोती धुलवाना था जी!"
कुछ कमज़ोर सी आवाज़ में कहा उन्होंने ।
सुबह से चाय भी नसीब नहीं थी। भोजन की बात तो छोड़ ही दो।
आज 'दशगात्र 'था न ! पितृॠण!
धोबी की दुकान आने से पहले वे काफ़ी देर तक सूखी सी नदी के किनारे बैठे रहे। बहुत उदास साथ में उनकी धर्मपत्नी रेखा भी थी ।नदी किनारे लौंडे-लपाड़े सिगरेट, शराब का जलसा लगाये बैठे थे। पत्नी बोली- "सुनो जी ! दुःख करने से क्या होगा? जो हुआ,सो हुआ। अब आज की सोचो--क्या करना है--! पर पुन्नू--पुन्नालाल तो जाने कहाँ खोए हुए थे उन्होंने कुछ सुना भी कि नहीं--! किसी ने नदी में ज़ोर से कंकड़ फेंका तो पुन्नू चौंक पड़े!
“तुम्हें याद है हमारे गाँव की नदी ! कैसे कल-कल बहती..... सदा नीरा I दिन भर चहल- पहल, शाम होते ही जैसे सो जाती थी। निश्छल आकाश और सोई नदी ! बहुत याद आते हैं मुझे। पर इस महानगर में नदी की छाती पर धड़-धड़ रेलगाड़ियाँ। उफ़ !क्या वह कभी सोती भी होगी---"
"यहाँ कहाँ है जी 
 नदी का सोना -जागना---! रेखा ने पल्लू झाड़ते हुए कहा--
"जाने क्या-क्या सोचते रहते हो--! मुझे तो यह नदी अल्पायु लगती है।"
"सच कहती हो रेखा! गदंगी में मरती हुई देखो कैसे बेसुध पड़ी है। "
'मरने 'की बात आई तो पुन्नु चिहुंक पड़े। उन्हें ख़याल आया कि वे तो धोबी की दुकान पर खड़े हैं। "जी क्या आप मेरी यह धोती धो देंगे?"
प्रत्युत्तर में झकझकाते कपड़ों के बीच दुकान का मालिक उन्हें कपड़े की धुलाई, चरक, प्रेस और ड्राईक्लीन के अलग-अलग रेट बताने लगा I
"इतना महंगा! "वो हाँफ रहे थे-- शायद धोबी ने उनकी बात समझी ही नहीं। वे फिर से बोले-
"मैं केवल धोती धुलाने की बात कर रहा हूँ।"
 जी! मालिक ने उन्हें अजीब निगाहों से घूरा फिर कुछ उपेक्षा से कहा—“हाँ मैं भी उसी का रेट बता रहा हूँ।”
"भाई ! आप जो रेट बता रहे हो उसमें तो नई धोती आ जाएगी।"
पुन्नू हैरान हो रहे थे।
"हाँ तो ठीक है !आगे देख लीजिये ।"
अरे !---पुन्नू को लगा जैसे वे गाँव के कोई बरसाती मेंढक हैं जिसकी टर्र-टर्र पर किसी ने ज़ोर से पत्थर मार दिया हो।
पर इस उपेक्षा के बाद भी वे वहां से हिले नहीं। बस बेमतलब एक प्रश्न कर बैठे–
"कहाँ के रहने वाले है आप लोग?"
दुकान में काम करने वाला नौकर उनसे कुछ कहता उसके पहले ही काउंटर पर बैठे ऊँचे ललाट वाले मालिक ने उत्तर दिया-
"आड़ावाल के। जानते हैं न---आप भी !
पुन्नू ने पलटकर देखा। अरे ये तो उन्हीं के गाँव के ऊँचे लोग हैं। दलवी जी!"
 "ओहो! तो आपने जजमानी छोड़कर धुलाई केंद्र खोल लिया---?
पुन्नू के कहने में हैरानी कम तिरस्कार का भाव अधिक था पर दलवी जी शर्मिंदा नहीं हुए बल्कि अपनी तरक़्क़ी का बखान जोर-शोर से करने लगे-
"नहीं जी! जजमानी नहीं, ये तो बिजनेस है। जजमानी में अब वो बात कहाँ रह गई?"
" तीन बेडरूम का फ़्लैट और ये फियेट गाड़ी पुरोहिती से नहीं कमाई जा सकतीI"
पुन्नू अवाक थे! 
"धर्म भ्रष्ट!" कहीं ऐसा भी होता है--!
  "ये तो बिजनेस है।"
 वो दलवी साहब के इस कर्म को धिक्कारना चाहते थे पर उनकी फटी धोती और अपने शुद्धिकर्म की चिंता ने उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी ।
उफ़! एक छोटा सा काम और दर दर की ठोकरें! पुन्नू ने सोचा कि गाँव की बात होती तो वहाँ धोबी घाट नदी किनारे हाथ जोड़े उनके कपड़े धोने में ऐसी कोताही कोई नहीं करता। उस पर दस बीस रुपये का इनाम और पुन्नु पुरोहित का आशीर्वाद पाकर कौन धन्य नहीं हो जाता भला पर ये शहर है। नगर---,महानगर। हद हो गई! कोई क़द्र नहीं उसके ऊँचे कुल की!
 इस महानगर का चरित्र भी कुछ अजीब है। जाति भेद कुछ नहीं । बस कौन कितना ख़रीद और बेच सकता है यही देखते रहो--! जूते के दुकान का मालिक पाण्डेय, तो बाल बनाने वाला खत्री मछली बेचने वाला वैष्णवी---! तो आगे और भी रहस्य है। बस पैसे की चमक!!! 
"अड़ावाल" का तो पुन्नु भी था पर देखो उसकी हालत! शहर आकर क्या कर लिया उसने--- बात पुरानी है हालत देखो उसकी--I
यह आत्मकथन पुन्नू का अपने से था। गाँव से निकले सालों गुज़र गए पर अब भी चलचित्र सा घूम जाता है उनके सामने। गाँव से वे अकेले नहीं भागे थे। भागे वे सब थे जो पसायता भूमि से बेदख़ल हुएI
वह भी क्या ज़माना था! जब गाँव में कुछ ख़ास खेत होते थे, जिसे वजिसा या पसायता भूमि कहते थे। इसका‌ सार्वजानिक उपयोग ब्राह्मण, नाई, धोबी, कुम्हार और वर्तुनियों (गाँव की रक्षा करने वाले चंद हथियार बंद लोग) करते थेI सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय।
काम के बदले इस भूमि से पोषण का अघोषित अधिकार उन सबके पास समूह में था I
उन्हीं दिनों पुन्नू अपने पिता के साथ ज्योतिष और कर्मकांड सीख रहे थे। हल चलाने का काम न पांडे जी ने किया था न ही जगुनाई डोमन ने। राम नागे न कुम्हार पिंटू ने। फिर भूमि का पट्टा किसी एक के नाम पर था ही नहीं इसीलिए "भूमि बंदोबस्त" के समय किसी व्यक्ति या ट्रस्ट के नाम पट्टा जारी नहीं हो सका देखते ही देखते सब बेदखल हो गये। पसायता भूमि को सरकारी भूमि में शामिल कर लिया गया I कोई क्या कर सकता था सिर्फ़ देखने के अलावाI किसी ने एक आवाज़ भी नहीं उठाई। बरसों अकर्मण्य! वे निरापद, शांत लोग थे विरोध करना---असंभव! वर्तुनियों के हथियार भी सुरक्षा का ढोंग करते-करते जंग खा चुके थे।
घर में अभाव था I अभाव ने स्वभाव बदला I बंदोबस्त के समय पुन्नू ने एक बड़ी चालाकी करनी चाही। झूठ-मूठ के लिए ही पसायता भूमि के एक भाग में हल चलाकर अपना हक़ जताना चाहा। काम बन भी जाता पर कर्मकांडी पिता ने उसे सिरे से खारिज कर दिया--" ब्राह्मण का बेटा हल चलाए ये अपने जीते जी सोमदत्त त्रिपाठी होने नहीं देंगे ।"उच्च कुल की पंडिताई छोड़कर हल धारी ! छि-छि !धिक्कार है इस पापी पेट पर !"अवाक देखते रहे पुन्नू।
कभी संवलाई भूमि को और कभी ग़ुस्से में बिफराए बापू को जो रपाट्टा मार रहे थे--"वह बिगड़े भाग कहीं के सर्वनाशी!"
पुन्नू के तो होश उड़ गए।" खांटी सोना समझता था रे तुझे---!"अनाथ का नाथ! "दो ही टुकड़ा तो खाएगा रोटी का फिर जम के खाए गरमाए काहे--!"
"भूल गए अपना संस्कार --! पोथी उठाए कांधे हम हल थामे ये!"
 पीढ़ी दर पीढ़ी जजमानी की बैठकी सजाए इस गाँव में सोमदत्त अब किसी को मुँह दिखलाने लायक नहीं रहे --!
 एक पुरानी कहावत वे दिन भर रटते रहे कि 'शेर भूखा मर जायेगा पर घास नहीं खायेगा। 'कलयुग है कलयुग!कुलनाशक ! हाथ की रोटी कौआ खाए, कनकी भर को ललाये जाए I तो बेटा था कि मान ही नहीं रहा था। और सबके बीच चौराहे पर बाप बेटे में ठन गई ।
"पुन्नू तू मेरे लिए मर गया।"
इस भीष्म प्रतिज्ञा के बाद पुन्नूलाल के पास इस गाँव में अब कुछ नहीं बचा। अकेले तो उसने खूब मार खाई थी पर आज बापू ने गाँव की बिरादरी के सामने ताल ठोकी यह पुन्नू बर्दाश्त न कर सका।
बाप- बेटा दोनों ही नहीं समझ पा रहे थे कि जो धार्मिक नियम जनता को दुख और तनाव देते हों तो उसे छोड़ देना चाहिए।
नाते रिश्तेदारों की लाख समझाइश के बाद भी पुन्नू टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी छोड़ कर घटते सूरज का अंश लिए सड़क पर उतर आए और चढ़ती सड़क दूर महानगर की ओर मुड़ती चली गई I
उन दिनों नई-नई मशीनों का बोलबाला था। अपने हुनर और रोज़गार के अभाव में गाँव के हाथ खेत से उठकर मशीनों के साथ हो लिए ।पुन्नू भी अपनी ज़मीन से उखड़ कर उन सबके साथ शहर की ओर चल पड़े जो पसायता भूमि पर अब तक जीवित थे I 
देखते ही देखते पसायता भूमि और चारागाह कारखाने बनने को उतावले होने लगे थे I
शहर आकर देखा कि मशीनों की कोई जाति नहीं होती ब्राह्मण, चमार-वैश्य सब इस मशीन के साथ मशीन बन जाते हैं। इसमें मशीनों का कोई दोष नहीं। वे तो बेजान थीं। लोभ -मोह, अहंकार, क्षोभ, अपमान के कारण पुन्नू गाँव तो छोड़ आये थे पर उनके भीतर जातिगत दंभ छूटा नहीं था। घर छूटने के बाद भी  पुन्नू के भीतर यह बात गहरे उतर चुकी थी कि मशीन तो मनुष्यकृत है पर जाति ईश्वरीय विधान है। रोटी ना होने पर भी ऊँची जाति का अभिमान-- पुन्नू गौरवान्वित थे।
इधर गाँव में मशीनों के मालिकों की रंगीनियाँ फार्म हाउस के नाम से आबाद होने लगी थीं। तो पुन्नू जैसे अवांछित लोगों के शहर में आ बसने से गंदगी और चाल संस्कृति बढ़ गई थी I पुन्नू इससे इनकार भी नहीं कर सकते थे क्योंकि जिस चाल के एक कमरे में वे रहते थे वहाँ भूख और गंदगी नालियों में बजबजा रही थी पुरानी कहावत है कि हाड़ तोड़ते हरिजन और पोथी बाँचते ब्राह्मण का पेट कोई नहीं भर सकता। कैसी विडंबना कि दो विपरीत ध्रुव भी कभी-कभी एक समानान्तर चलते हैं। इसे देखने के लिए अभागे पुन्नू जैसे लोग ही बचे थे ।
पुन्नू का भाग्य अच्छा था कि शहर आकर भी एक ग़रीब ब्राह्मण कन्या ने उनका हाथ थाम लिया था। पेट का चाहे कुछ भी कहें पर गृहस्थी तो रम ही गई थी ।
शुरुआती दिनों ने मशीनों का हाथ थामा पर उम्र बढ़ने के साथ-साथ कलावती-लीलावती की कथा बाँचने में वे रमने लगे।
 मशीन ने पेट को थोड़ी सी राहत तो दी थी पर अभाव की खाई वो भी पाट नहीं सके थे ।  
पुन्नू नहीं जानते थे कि मशीन हो या कथा बाँचने की कला ,यह सब बाज़ार पर निर्भर है 
और बाज़ार का आइटम! ....इस कला से वे अनभिज्ञ थेI
आगे चलकर गौ सेवा के नाम-- कुछ दिन गाय भी पाला पर चारा जुटाने की तक़लीफ़ बढ़ गई थी।
 शहर, भीतर-भीतर घना हो रहा था। घास के मैदान गायब होते जा रहे थे। अब तो साहबों के बंगले पर या खेल के मैदान तक ही रह गए थे जिसके कारण शहर से तीन चार किलोमीटर दूर जाकर साइकिल पर चारा लाना ले जाना पुन्नू के लिए कठिन हो गया था।
गाय बिना चारा के भटकती रही लौटी नहीं। गाय बेचना ---!अधम!
" समझो दान ही दे दिया! "जा ह वह भी छूटा। "
उनके साथ गाँव से जो और लोग आये थे उनमें से कुछ व्यापारी, नेता और कुछ बुद्धिजीवी बन गए थे। बाक़ी बच गए थे कुछ पुन्नू जैसे अनफिट, अवांछित लोगI
बरसों बाद दुःख और अभाव में जीते पिता सोमू त्रिपाठी ने कई चिट्ठियाॅं लिखी- "कैसे हो पुन्नू--"याद आती है तुम्हारी"
बस!आओ ना जाओ न---कुछ नहीं 'किस मुँह घर लौटे पुन्नू--!'
आख़िर वे भी तो सोमू त्रिपाठी के पुत्र ही थे। अपने बाप की औलाद I
"पुन्नू तू मर गया रे मेरे लिए।"
यह आख़िरी चिट्ठी थी पिता की। जो पुन्नू के ह्रदय में छप गई थी ।
"कितने बार मारोगे बापू--! "मैं तो तभी मर गया था। भूखे पेट भजन भी तो नहीं होता। और आज—
बरसों बाद आज सुबह एक चिट्ठी आई थी किसी रिश्तेदार की ।
"पंडित ,सोमू काकू नहीं रहे।" 
"क्या ? बाबूजी नहीं रहे?"
किंकर्तव्यविमूढ़ थे पुन्नु!
"बाबा नहीं रहे....तो बाबा जीवित थे अब तक! यह प्रश्न पुन्नू का स्वयं अपने से था।
 कुछ दिन पहले ही उनका मन हो रो रहा था ---"क्यों नहीं स्वीकार करते हो मुझे बापू--! मैं तो तुम्हारा ही हूँ --! आगे बढ़ जाना कोई अपराध तो नहीं ---! केवल चिट्ठी लिख देने से क्या होगा" आ जाओ "यह भी तो लिखो__! या आप भी कभी शहर आ जाते -! है न बापू!
पिता के मृत्यु की ख़बर ने उन्हें गहरी चोट पहुँचाई" अब लग रहा था कि अपने पिता-पुत्र के संबंध को उन्होंने ख़ुद ही कुएं में धकेल दिया था।"अब रोने से क्या होगा --? सब ख़तम ख़तम ---! "अधम हूँ मैं! "इस पूरी सोच के बीच पुन्नू यह भूल रहे थे कि उनके संबंधों पर कुठाराघात केवल मान, अपमान, अहंकार ही नहीं सामूहिक अर्थव्यवस्था का विलुप्त हो जाना भी था।
धर्म परायण रेखा भी थी सहधर्मिणी--- उसने अनदेखे ससुर के मृत्यु दिवस की गणना की कि- "अमावस को गुज़रे थे बाबा ,यह लो कल नवमी आज दशमी--!" "ए जी ! आज दशगात्र है! शुद्धि का दिन! पिंडदान का दिन! सुन रहे हो --?" पर इन सबसे परे स्मृति के कपाट खोल जड़वत बैठे थे पुन्नू-
फिर उन्होंने एक ज़ोरदार ठहाका लगाया था-- बहुत दिनों से जकड़े उनके फेफड़े जैसे खुल गए थे।
पत्नी रेखा हैरान, परेशान!
"पगला गए हो क्या" पुन्नू की हँसी अब रुलाई में बदल गई थी। पोथी पांजी छोड़ हल चलाया था उन्होने---फिर जाति की लाज छोड़कर मशीन भी चलाई--! बापू---!
उनके पिता सोमदत्त त्रिपाठी अपनी समझ में बड़े विद्वान थे। किसी विद्वतमंडली में विचारों के आदान-प्रदान के बीच उन्होंने स्वयं कहा था कि पहले समाज में वर्ण नहीं होते थे। उनके जन्म का आधार परिश्रम की योग्यता और उत्पादन के सिवा कुछ नहीं था।
जब मनुष्य काम क्रोध, भय, लोभ, शोक, चिंता सुख, मेहनत आदि एक दूसरे को अलग नहीं करते तो वर्ण भेद क्यों कर संभव हुआ----?
इस बात का उत्तर उन्होंने भृगु ऋषि के उद्धरण से दिया---
" पहले सब,ब्राह्मण थे पर बाद में अपने परिश्रम, अपनी योग्यता कर्म और अधिकार के कारण उन सबसे बाहर निकल कर एक विशेष वर्ण बन गए।

"चातृवर्ण्यस्य वर्णेन यदि वर्णों विभज्यते-----भारद्वाज"
"न विशेषोस्ति सर्व ब्राह्मममिद जगतू----भृगु"

पिता वैदिक काल से आगे बढ़े ही नहीं। उन्होंने सोचा भी नहीं कि श्रम विभाजन जन्म के आधार पर नहीं बल्कि अपने हुनर, अपने तकनीकी दक्षता के आधार पर है।

बात चल रही थी शुद्धि की दशगात्र की--! क्या करें वो--! किसके भरोसे--- कहाँ हैं वे सामाजिक लोग---बरसों बाद अब गाँव वो लौट नहीं सकते थे किस मुँह लौटते--!तीज, अमूस तिहार सब तो छोड़ दिया--बहुत पहले!"अब करो न्याय--! तज दिया धरम जाति --कुल बोर दिया ---!" बड़बड़ा रहे थे पुन्नू!
"पश्चाताप से क्या होगा-- सुनो विधि का जो विधान है वही करो"
रेखा ढांढ़स बँधा रही थी। पर उसकी सामग्री--श्राद्ध तर्पण के लिए---यह समस्या सबसे बड़ी समस्या थी। वे जानते हैं सुख -दुख निभाने के लिए धन अनिवार्य है और धन--- ! वह तो सदैव मुँह बाये खड़ी रहती है उनके सामने। ---! पुरानी बातें ही सही पून्नू के अपने उपनयन संस्कार में बापू ने कितने पापड़ बेले थे --!
वो तो भला हो उन दिनों धातु की गणेश प्रतिमा दूध पी रही थी। तब इस चमत्कारिक आस्था का प्रतिफल---! पूजा पाठ करते हुए पंडित सोमदत्त त्रिपाठी ने दान दक्षिणा से उपनयन संस्कार बड़े धूमधाम से निपटाया था।
 तब --!
आज प्रतिमा तो दूध नहीं पी रही है पर कर्मकांड की कमी कहाँ--! रामलला की स्थापना हो, ग्रह-नक्षत्र की शांति या प्रवचन करना हो लोग हाथों हाथ ले रहे हैं। बात परिश्रम की है---! कौन कितने दूर की हाँकता है--बयह देखने की बात है---! हमारी तो सादा जीवन उच्च विचार---! बेचारा पुन्नू क्या करे--
लो भुगतो--!वे अपने को ही कोसने लगे थे।व"अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा ---जाओ कहीं कोई कर्मकांड करा आओ" ---रेखा सलाह दे रही थी।
"क्या कर रही हो हम तो अशुद्ध हैं ना!"पिता का मृतक सूतक--!
कहते हुए पितरों का पिंडदान, दशगात्र, गणेश प्रतिमा न जाने क्या क्या विचार --घबराए हुए से पुन्नू उठ खड़े हुए।
सामने नाई की दुकान थी मुंडन तो करवा लिया। घर में कुछ पुराने सूत पड़े थे। अपने हाथों से नौ गाँठ वाला जनेऊ भी तैयार कर लिया। पुत्र है ना-- वह भी इकलौते! उत्राधिकारी नौ गाँठ वाला जनेऊ --!
रेखा रोने का उपक्रम करने लगी। पिंडदान से पहले अश्रुदान भी तो ज़रूरी है। ठीक है बरसों से नहीं मिले पर पिता तो थे ही--!
"अवगति गति कछु कहत ना आवे ज्यों मीठे फल को अंतरतम ही भावे"---जाने क्या- क्या बड़बड़ा रहे थे वे पर रेखा ने इतना ही समझा "पिता तुम मन में बसे हो चाहे कहीं पर भी हो--!"
पितृपक्ष में कौए,कुत्ते तक को रोटी डालने वाले बापू का दशगात्र्--! कोई कमी ना हो इस बात के लिए वो चैतन्य हो गए थे

"पितृआज्ञां परोधर्म स्वधर्मो मातृरक्षणम्"

आशय यह कि "पिता की आज्ञा मानना परोधर्म है। माता की रक्षा करना स्वधर्म है।"
माता तो जन्म देकर स्वर्ग सिधार गईं तब पुन्नू पितृ धर्म का ही पालन करेगा---!
"यही सत्य है बाबा! " पुन्नू स्वत:भाषित थे।
-शुद्धि!दशगात्र !
दशगात्र की सामग्री कुछ तो नहीं।
रेखा ने ज्यों-त्यों पिंडदान की सामग्री जुटाई ।
घर की साफ-सफाई के बाद - पुन्नू को ख़याल आया कि उसकी अपनी पहनी हुई धोती तो बाक़ी है शुद्धि के लिए।
सोचा पिंडदान करने के पहले अपनी धोती ही धोबी से धुला लें।
 प्रेत भी शुद्ध कर्म को ही स्वीकार करतें हैं, इसे पुन्नू पंडित से अधिक कौन जान सकता था भला! "सुनो रेखा!" " मैं अपनी धोती धुला कर आता हूँ।" रेखा ने भी हामी भरी। "हाँ ठीक है ! कम से कम एक धोती ही सही I"
धोबी ! महानगर में--- धोबी, मोची, ढूँढते-ढूँढते वे तर-बतर हो रहे थे पसीने से। दिन भर भूख,थकान से चूर। इतने में दूर से चमकते एक साईन बोर्ड ने उन्हें चौकन्ना कर दिया "कपड़ा धुलाई केंद्र”।
काउंटर पर ग्राहकों की भीड़ थी पर वो इंतज़ार कर रहे थे। जानते थे महत्वपूर्ण काम को हड़बड़ी में बिगाड़ना नहीं है।हालाँकि उन्हें चिंता थी कि शाम ढलने से पहले शुद्ध होना ज़रुरी है वरना ब्रह्महत्या का पाप और बाबा का शाप। उफ़!भले ही वे गाँव छोड़ आए पर एक स्मृतिचित्र हमेशा उनके ज़ेहन पर बना रहा ख़ाससकर बापू का चेहरा कभी धूमिल नहीं होने दिया उन्होंने।
थोड़ी देर बाद भीड़ छंटी तो काउंटर के उस पार से उठकर एक सूटेड-बूटेड आदमी उनके करीब आकर जिज्ञासु स्वर से पूछने लगे -- "पुन्नू!तुम पुन्नू हो न ?
पुन्नू की आँखें परिचय तलाशने लगीं। भला एक भद्र आदमी उन्हें क्योंकर पहचानने लगाI
"मैं?...जी....जी I" "पहचाना? मैं नागेश्वर! नागेश्वर अड़ावाल वाला! तुम्हारे साथ मशीन भी आपरेट करता था।" "ओहो तुम! मेरा मतलब आप? नागे ?" "हाँ भाई मैं ही नागेश्वर! कहो, क्या बात है? कैसे आए हो--! पुन्नू ने सारा दुखड़ा एक झटके में सुना दिया। "यार ! इस महानगर में धोबी, नाई, "ब्राह्मण की कोई पहचान ही नहीं है?" "ईश्वर ने भला किया जो तुमसे मुलाकात करवा दी वरना मै तो अशुद्ध ही रह जाता I"
नागेश्वर गाँव का बाशिंदा था। न चाहते हुए भी उसे पुन्नू की मजबूरी समझनी पड़ी थी I 
थोड़ी देर दोनों चुप थे अपनी-अपनी उलझन में।फिर जाने अपने पुरखों की जातिगत भावना या संबंधों की लाज रखने के लिए नागेश्वर ने उन्हें दुकान के पिछवाड़े बुला लिया I
"इधर आ जाओ पुन्नू। आ जाओ।
बताओ क्या धोना है?"
"धोना क्या, बस यह धोती थोड़े पानी में छू लो--! बस।
"हाँ कितने रुपये लोगे बता दो। बाद में झिकझिक नहीं।"
"लेना क्या यार! बस सोमू काका के मृतक सूतक का उद्धार करने में मैं तुम्हारी मदद कर सकूँ--यही पर्याप्त है ल।"
पुन्नू पंडित, नागे की सदाशयता से प्रभावित हो रहे थे, पर कुछ रुपये तो वे देगें ही---! आख़िर तर्पण का मामला था "ना -ना। पैसे तो लेने पड़ेंगे तुझेI" "चल पैसे नहीं तो यह अँगूठी ही रख लो मेरे पिता की। ये तांबे की अँगूठी है एकमात्र निशानी पिता की अनमोल---लो-अब तुम्हारी हुई--लो रख लो। "नागे हँस पड़ा। दुकान में उसकी पुकार हो रही थी। जल्दी में था वह। "अरे लाओ भी तुम्हारी धोती धो देता हूँ" कहते हुए नागे ने अपने गाँव के, बचपन के दोस्त पुन्नू की धोती धीरे से खींच ली। पुन्नू तो बस उछल पड़ा I
"ये क्या? ये .... ये तुमने मुझे याने की एक ब्राह्मण को छू लिया मुझे तुमने...।
 जानते हो मै? मैं तुम्हें....
बाक़ी बातें उनकी ज़बान में दबी रह गई।
"धोती धुलानी है ना?" नागे असमंजस में था "हाँ पर तुम्हारी जाति का.. तुम्हारा हाथ ही शुद्ध है शरीर नहीं। तुम कपड़े छुओ तो वो शुद्ध हो जाते हैं ,पर तन को छुओ तो ... तो....अशुद्ध हो जाता है"
 "जानते हो न मुझे फिर स्नान करना पड़ेगा श्राद्ध-तर्पण के लिए। "नागे, पुन्नू को आश्चर्य से सुन रहा था--देख रहा था फिर रोष की तुरंग दुंदुभी बजने लगी उसकी--"क्या कहा? मेरे छूने से तू अशुद्ध हुआ? अभी तो गिड़गिड़ा रहा था धुलना धुलाना।
ढोंगी! निठल्ला! "शुद्धि के लिए आया था और मेरी जात उतारता है?"तेरे बाप की--!
घृणा से नागे ने पुन्नू की फटी धोती सड़क पर उछाल दी।
अधनंगा पुन्नू अपनी हालत देखकर सकते में था। उसकी फटी धोती उसकी अकर्मण्यता को चिढ़ा रही थी जबकि नागे अपनी दुकान को चकाचक करने में लगा हुआ थाI
दिन ढल रहा था और पुन्नू--- स्तब्ध खड़ा रहा--
न जाने कितने पल बीत गए। उन पलों में उन्होंने अपने कर्मों का हिसाब किया तो ख़ुद हैरान रह गये कि ज़माने के साथ वे बदले क्यों नहीं ---घर छोड़ा अहंकार के लिए---नागे का अपमान किया---- यह --यह अहंकार की नाक आख़िर कब तक आसमान पर टंगी रहेगी--! 
ओह मैंने क्या किया--! अब वह कहने की हालत में नहीं थे कि -
"नागे तेरी इतनी हिम्मत कि तू मेरी धोती उछाल दे---"! बल्कि उनकी अंतरात्मा से यही कह रही थी कि----" नहीं भाई यह धोती जो तुमने मेरी उछाली-- वह तुम्हारी नहीं मेरे अपने कुसंस्कारों की धोती थी।  
अपनी सोच में पुन्नू के माथे जो स्वेद बूंदें टपक रहीं थी वह परिश्रम के नहीं लज्जा के थे ,अकर्मण्यता के थे।
जाने उनके मन में ऐसी भावना क्यों आ रही थी कि वे अब भी गाँव लौट जाएं। भले ही बाबा नहीं रहे पर चिरपूटी धान का बिहन अभी भी घर के किसी डोलगीं में ज़रूर धरी होगी ---जिससे -मुट्ठी- मुट्ठी धान वे अपनी बाड़ी में धीरे-धीरे छोड़ेंगे।
पसीने के श्रमबिंदु और बादलों की मर्जी होगी तो उसे सौ गुना अधिक फसल देंगे। इस सोच के साथ वे आसमान को देख रहे थे
कि सचमुच उनकी प्रार्थना सुन ली गई-- एक बड़ा सा बादल उनके सर पर आया--- शगुन की बूँदें बरसने लगीं।
बादलों ने पुन्नू को और उछाली गई धोती दोनों को धो डाला ।
 अब एक ख़ानाबदोश कोयल की तरह वे भी अपने कोटर में जाने के लिए कूक रहे थे ---
केने जावां ---,केने जांवा --मां केने जावां- !
कहाँ जा रहे हो-- कहाँ जा रहे हैं-- कहाँ जा रहे हो--! 



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रचनाकार परिचय

उर्मिला आचार्य

ईमेल :

निवास : बस्तर(छतीसगढ़)

जन्मतिथि-2 जून
जन्मस्थान-जगदलपुर बस्तर छत्तीसगढ़
लेखन विधा- कहानी कविता संस्मरण यात्रा
शिक्षा- एम.ए., एल लब.बी., बी.एड. 
सम्प्रति- प्राचार्य पद से सेवानिवृत, स्वतंत्र लेखन
प्रकाशन- सरगतारा , चहट चंपा कहानी संकलन, उजली धूप कविता संग्रह।
सम्मान- कहानीसंकलन को भोपाल मध्य प्रदेश लेखिका संघ द्वारा ब्रह्म दत्त कहानी पुरस्कार, हिंदी साहित्य परिषद कोंडागांव द्वारा श्रेष्ठ कहानी संग्रह पुरस्कार
प्रसारण-आकाशवाणी दूरदर्शन से प्रसारित
विशेष-आदर्श शिक्षक राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित
छत्तीसगढ़ स्तरीय नारी शक्ति सम्मान
उड़ीसा साहित्य अकादमी द्वारा उत्कल भारती साहित्य सम्मान
संपर्क- पाँच चौक सुभाष वार्ड जगदलपुर बस्तर छत्तीसगढ़ 494 001
मोबाइल- 957 5 665 624, 6266088307