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वैक्सीन की कहानी की दूसरी कड़ी- डॉ० ज्योत्सना मिश्रा

वैक्सीन की कहानी की दूसरी कड़ी- डॉ० ज्योत्सना मिश्रा

1766 में जार्ज वाशिंगटन की सेना अंग्रेजी सेना से हार गयी कारण चेचक फैलने से अमरीकी ट्रूप्स बीमार हो कर सिकुड़ गये। सभी इंग्लिश सिपाही वैरियोनेटेड थे। ये सबक था जार्ज वाशिंगटन के लिये जिन्होंने अगले किसी भी अभियान के पहले सभी सिपाहियों को वैरियोलेटेड कराने की क़सम खाई।

डॉ० मार्टिन लिस्टर ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से चाइना में तैनात थे , उन्होंने सन सत्रह सौ में रॉयल सोसायटी लंदन को एक रिपोर्ट भेजी जिसमें बताया था कि उन्होंने चाइना में स्माल पॉक्स की रोक थाम के लिये किया जाता एक अजीब तरीक़ा देखा यह तरीक़ा क़रीब तीन सौ साल से शायद मिंग डायनेस्टी के युग से चल रहा था। इसमें स्मॉल पॉक्स के छालों की सूखी पपड़ी का चूरा बना कर लोगों की नाक में छिड़क / ब्लो कर दिया जाता था। ऐसा किये जाने वाले लोगों में एक हल्की बीमारी होती थी तक़रीबन .5 से 1 प्रतिशत की मृत्यु दर भी थी मगर वो प्राकृतिक रूप से होने वाली तीस से चालीस प्रतिशत मृत्यु दर से बहुत कम थी।
देखा गया कि तुर्क भी ऐसा ही कुछ कर रहे हैं। इसे वैरियोलेशन कहा गया, तुर्क ही नहीं पर्शिया और अफ्रीका वाले भी इससे मिलते जुलते तरीके अपना कर इस घातक बीमारी से बच रहे थे। यहाँ यह कुछ अलग था इन जगहों पर चमड़ी में एक छोटा चीरा देकर छालों से निकला द्रव डाला जाता था।
ओटोमॉन एम्पायर में ब्रिटिश एम्बैसेडर की पत्नी लेडी मैरी को श्रेय जाता है रॉयल सोसायटी लंदन में वैरियोलेशन के तुर्की तरीके की रिपोर्टिंग करने का। वे एक लेखिका भी थीं उनका लेखन पत्रों के रूप में होता था 'letters to a friend'। वे स्वयं स्मॉल पॉक्स पीड़िता थीं जिसने उनका ख़ूबसूरत चेहरा बिगाड़ दिया था और उनके बीस वर्षीय भाई को छीन लिया था। उसी साल उन्होंने अपने बेटे का वैरियोलेशन तुर्की में कराया और अगले साल बेटी का लंदन में ।

ब्रिटेन और समूचे यूरोप में हड़कंप मचा था ,वैसे देखा जाये तो उस युग के हिसाब से यह बेहद क्रेज़ी आइडिया था एक सामान्य स्वस्थ व्यक्ति की चमड़ी में चीरा देकर संक्रमित पस भर देना। स्वीकार करना मुश्किल था लोग तैयार नहीं होते थे। लंदन के न्यूगेट कारागार में एक अनोखा प्रयोग किया गया उम्र क़ैद या मृत्यु दण्ड पाये बंदियों को वैरियोलेशन करवाने को कहा गया इसके बदले में उन्हें स्वतंत्रता मिलनी थी अगर वे बच जाते और सारे के सारे बच गये, स्वतन्त्र !!

मैडम मैरी ने जब लंदन में तुर्की तरीके का समर्थन किया, उसी समय के आस पास ,नयी दुनिया के बोस्टन में चेचक की महामारी फैल गयी थी जिसमें बोस्टन की चौदह प्रतिशत आबादी समाप्त हो गयी थी। विभीषिका और बढ़ती यदि ओनेस्मस न होता। ओनेस्मस बोस्टन के एक दमदार मिनिस्टर कॉटन माथेर का दास था। अब तक मैसेचुसेस्टस और बोस्टन के व्यापारी वर्ग ने कुछ बातें नोटिस कर लीं थीं, एक कि जब जहाज़ दूर दराज़ से लौटते हैं तभी महामारी फैलती है। दूसरे आम तौर पर अफ्रीकन ग़ुलामों पर इस बीमारी का असर नहीं होता। उन्हें गुलामों के शरीर पर वैरियोलेशन के दाग़ जो चमड़ी पर चीरा देकर किये जाते थे, परखना आ गया था। वो ग़ुलाम जिनके शरीर पर ये निशान होते थे ज़्यादा ऊँचे दामों बिकते थे। 1721 की महामारी के समय ओनिस्मस ने कॉटन मथेर को वैरियोलेशन का तरीका बताया जो उसने अपने बेटे और बाक़ी ग़ुलामों पर सफलतापूर्वक आज़माया, पर बोस्टन में हंगामा हो गया। मथेर पर नीग्रोइश बुद्धि रखने और इस नापाक़ पागान तरीके को अपनाने से ईश्वर को नाराज़ करने का आरोप लगा। मथेर की खिड़की पर बम फेंका गया और कहा गया ;

COTTON MATHER, You Dog, Dam You; I’l inoculate you with this, with a Pox to you!!

हाॉंलांकि मथेर ख़ुद कुछ कम फैनेटिक नहीं था सलेम विच ट्रायल में बेकुसूर स्त्रियों के विरुद्ध फ़ैसला लेने वाली जूरी में वह भी था, पर इस बार उसने समझदारी से काम लिया सम्भवतः नीग्रोइश बुद्धि बेहतर थी।

यही वो समय था जब भारत में टीकादार होने लगे थे। इनके तरीक़े में खाल में कंट्रोल्ड चीरा देकर उसमें समुचित मात्रा में मरीज़ के छालों से लिया संक्रमित द्रव छुआया जाता था। आज भी भारत में वैक्सीनेशन को टीकाकरण कहा जाता है। यद्यपि तब तक विश्व में क़रीब आठ देवी देवता चेचक को फुसलाने के लिये उदित हो चुके थे जिसमें एक भारत की शीतला माता भी थीं। पर भारत में इस डेस्पेरेट अंधविश्वास के साथ-साथ वैरियोलेशन जो चीन से अलग मगर तुर्कियों और अफ्रीकियों से मिलता जुलता था वो भी क़रीब दो ढाई सौ सालों से प्रचलन में था। तुर्की वैरियोलेशन से काफ़ी पहले से।

भारत में नवप्रसूता मातायें ऐसी माताओं के पास जातीं थीं जिनके शिशु को चेचक हुई हो वो उस शिशु के छालों के पानी से एक चिंदी छुआ कर ले आती थीं जिसे दो तीन दिन पूजा जाता था, दो तीन दिन के बाद वो चिंदी स्वस्थ शिशु की कलाई में बाँध दी जाती थी, यह भी एक तरह से वैरियोलेशन था दो तीन दिन के मद्धम पड़े वायरस से सनी चिंदी शिशुओं को हल्की बीमारी कर के आगे के जीवन के लिए सुरक्षित कर देती थी।

यूरोप में भी दिनों-दिन प्रचार बढ़ता जा रहा था। जब यह सामान्य जानकारी हो गयी तो यूरोप के बड़े-बड़े डॉक्टरों को लगा कि एशियाटिक और अफ्रीकन तरीक़े को वैसे का वैसा ही प्रयोग करने से उनकी नाक कैसे ऊँची होगी, यह इतना सरल तरीक़ा था कि कोई भी इसे कर सकता था तो उनकी विशेषज्ञता ख़तरे में पड़ गयी। डॉ० रॉबर्ट सटन ने इसे और तमाम क्रियाओं जैसे ब्लड लेटिंग के साथ जोड़ा और तमाम सटन क्लीनिक्स शुरु किये जिसमें वैरियोलेशन की विधि गोपनीय रखी और विधि को सटानियन विधि कहा, हालाँकि उसके एक बेटे ने ही उसकी पोल खोल दी और पता चल गया कि वो मात्र वही करता है जो कई अफ्रीकन, एशियन देशों में होता है। नाटकीयता के दीवाने लोग डॉ० नेटलटन के पास जाने लगे जो कंबल उढ़ा कर आग जला गर्मी कर देता था और कुछ देर बिना हवा के रहना बचाव का हिस्सा बताता था एक दो फ़िज़ीशियन बियर पिलाने को भी संक्रमण प्रतिरोध का हिस्सा बताते थे। चमड़ी में चीरा घटाने बढ़ाने, गोल चौकोर क्रॉस डिज़ाइन जैसे बहुत से प्रयोग किये गये। बहरहाल किसी भी तरह हो, बोस्टन की 1721 की महामारी के बाद के दशकों में वैरियोलेशन नये इंग्लैंड की कॉलोनियों में काफ़ी प्रचलन में आ गया था। 1766 में जार्ज वाशिंगटन की सेना अंग्रेजी सेना से हार गयी कारण चेचक फैलने से अमरीकी ट्रूप्स बीमार हो कर सिकुड़ गये। सभी इंग्लिश सिपाही वैरियोनेटेड थे। ये सबक था जार्ज वाशिंगटन के लिये जिन्होंने अगले किसी भी अभियान के पहले सभी सिपाहियों को वैरियोलेटेड कराने की क़सम खाई।
1768 में रशिया की साम्राज्ञी कैथरीन द्वितीय या कैथरीन द ग्रेट ने इंग्लिश फ़िज़ीशियन डिम्सडेल को बुलावा भेजा वैरियोलेशन के लिये कहते हैं डिम्सडेल ने अंगरक्षक और तेज गामी घोड़े तैयार रखे थे राजमहल के बाहर जिससे अगर कोई गड़बड़ हो तो तेजी से भागा जा सके। पर कुछ हुआ नहीं और डिम्सडेल को इनामों इक़राम व उपाधियों से नवाज़ा गया।
इस घटना से पहले ही 1757 में ग्लोसेस्टर शहर में एक आठ साल का बच्चा इनाक्यूलेट/ वैरियोलेट किया गया उसका नाम था एडवर्ड जेनर! उसे हल्का बुख़ार और हल्की रैश हुई और कुछ ही दिनों में वह ठीक हो गया। यह बच्चा आगे चल कर डाक्टर बनने वाला था। और दुनिया में एक नया इतिहास रचने वाला था। स्माल पॉक्स वैक्सीन का अन्वेषण का सेहरा इसी के माथे बँधना था।

तो अगली कड़ी में जानिए..

किस तरह और किन परिस्थितियों में दुनिया की पहली वैक्सीन की खोज हुई और कैसे यह भयावह व्याधि लुप्त हुई, क्या कभी स्मॉल पॉक्स लौट सकता है ?

क्या कहीं ज़िंदा वायरस अब भी है?

 

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रचनाकार परिचय

ज्योत्सना मिश्रा

ईमेल : docjyotsna1@gmail.com

निवास : नई दिल्ली

नाम- डॉ० ज्योत्सना मिश्रा 
जन्मस्थान- कानपुर

शिक्षा- एम बी बी एस, डी जी ओ
सम्प्रति- स्त्री रोग विशेषज्ञ
विधा- कविता, कहानी, लेख एवं यात्रा-वृतांत
प्रकाशन- औरतें अजीब होती हैं (काव्य संग्रह)
देश के प्रतिष्ठित पत्र , पत्रिकाओं में लेख, कहानी एवं कविताओं आदि का प्राकाशन।
सम्पादन- साझा-स्वप्न 1 (साझा-काव्य संग्रह)
सम्मान- विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित  
संपर्क- नई दिल्ली 
मोबाईल- 9312939295