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वैक्सीन की कहानी की अंतिम कड़ी- डॉ० ज्योत्सना मिश्रा

वैक्सीन की कहानी की अंतिम कड़ी- डॉ० ज्योत्सना मिश्रा

आगे की कहानी खूबसूरत ग्वालिन सारा नेल्म्स की हो सकती थी जिसे प्यार से लूसी भी कहा जाता था आखिर बात उसके खूबसूरत हाथों पर पड़े छालों से शुरू हुई थी। कहानी जेम्स फ़िप्स की भी है ,आठ साल का माली का बेटा जेम्स जो उस दिन शायद मिठाई के लालच में वहाँ पहुँचा होगा। वैसे कहानी तो ब्लॉसम नाम की बड़ी बड़ी आँखों वाली गाय की भी है आखिर उसी का दूध निकालते सारा के हाथों में काऊ पॉक्स के छाले पड़े और सारा को इलाज के लिए डॉ० जेनर के पास जाना पड़ा ।

आगे की कहानी खूबसूरत ग्वालिन सारा नेल्म्स की हो सकती थी जिसे प्यार से लूसी भी कहा जाता था आखिर बात उसके खूबसूरत हाथों पर पड़े छालों से शुरू हुई थी। कहानी जेम्स फ़िप्स की भी है ,आठ साल का माली का बेटा जेम्स जो उस दिन शायद मिठाई के लालच में वहाँ पहुँचा होगा। वैसे कहानी तो ब्लॉसम नाम की बड़ी बड़ी आँखों वाली गाय की भी है आखिर उसी का दूध निकालते सारा के हाथों में काऊ पॉक्स के छाले पड़े और सारा को इलाज के लिए डॉ० जेनर के पास जाना पड़ा ।
लेकिन कहानी बनी डॉ० एडवर्ड जेनर की जिसने जब अपने आस पास के दुग्ध व्यवसाइयों से वैरियोलेशन के लिये कहा तो उन्होंने एक स्वर में कहा उन्हें काऊ पॉक्स हो चुका है अब उन्हें स्मॉल पॉक्स नहीं होगा। यही सब सुना देखा रहा होगा जेनर के दिमाग में जो सारा के हाथों में काऊ पॉक्स के छाले देखकर उनके दिमाग मे एक प्रयोग की तरंग उठी। सारा सहायक बनने को तैयार थी उसे तो बचपन से ही काऊ पॉक्स की स्मॉल पॉक्स पर प्रतिरोधक क्षमता का पता था
एक सब्जेक्ट की तलाश थी जो बना जेम्स, डॉ० जेनर के माली का बेटा। अब यह नहीं पता कि जेम्स के पिता को कोई लालच दिया गया या उनकी श्रद्धा डाक्टर जेनर पर इतनी अगाध थी।
जेम्स की चमड़ी पर रगड़ कर हल्के घाव बनाये गये उनपर सारा के छालों से निकला द्रव डाला गया ,अगले दो दिनों में उसे हल्का बुखार आया सर्दी ज़ुकाम के साथ और काँख में थोड़ी तक़लीफ़ हुई पर कुछ ही दिनों में वो पहले की तरह खेलने कूदने लगा, यह थी मई 1796।
जुलाई 1796 में जेम्स को एक बार फिर इनॉक्यूलेट किया गया ,इस बार स्माल पॉक्स के छालो के द्रव से। एक दिन, दो दिन, हफ़्ता निकल गया जेम्स को कोई भी तक़लीफ़ नहीं हुई।
बिंगो ! डॉ० जेनर ने और भी चार बच्चों में यही प्रयोग दोहराया सभी बच्चे स्माल पॉक्स से बच निकले। अब बारी थी इस प्रयोग को अधिकारिक रूप देने की
1797 मई में जेनर ने रॉयल सोसाइटी में अपने अध्ययन और प्रयोगों का पर्चा जमा किया ---
पेपर रिजेक्ट हो गया ! सलाह साथ में नत्थी थी कि अगर इज़्ज़त बचाये रखना चाहते हो तो यह ऊल जलूल प्रयोग बंद करो।
फिर 1798 में जेनर ने और भी कुछ केसेस अध्ययन में शामिल किये अपने खर्चे पर एक बुकलेट पब्लिश की, entitled "An Inquiry into the Causes and Effects of the Variolae Vaccina"
गाय के लिये लेटिन शब्द है वैक्का ,और काऊ पॉक्स को कहते हैं वैक्सीनिया। इन शब्दों पर आधारित करके जेनर ने अपने तरीके को कहा वैक्सीनेशन
जेनर की इस बुकलेट के तीन हिस्से थे पहले मे बताया गया था कि काऊ पॉक्स ,हॉर्स पॉक्स से आता है ये थ्योरी जेनर के जीवन भर रिजेक्ट की जाती रही पर बाद में सही साबित हुई।
दूसरे में उन्होंने कहा जिसे एक बार काऊ पॉक्स हो गया उसे फिर स्मॉल पॉक्स नहीं होता यह थोड़ा गड़बड़ था हल्का असर हो सकता था ,जलन खोर भाई लोग इस प्वाइंट को ले उड़े और उन्हें डिसक्रेडिट करने लगे।
तीसरा हिस्सा थोड़ा लम्बा डिस्कशन था जिस पर कम ने ही ध्यान दिया और मेडिकल समुदाय ने इस पर कुछ मिली जुली सी प्रतिक्रिया दी नकारात्मक ज़्यादा । जेनर लंदन गये वैक्सीनेशन के लिए वॉलेंटियर की तलाश में, तीन महीने में एक भी नहीं मिला। जेनर अपना कुछ मैटीरियल वहाँ के डॉक्टरों को दे आये जिन्होंने बाद में इसे आज़माया, धीरे धीरे दो तीन डॉक्टरों का सहयोग मिला। स्वयं प्रसार और प्रचार से ये जानकारी समूचे यूरोप में पहुँची।
1800 में यह इनॉक्यूलेशन पहुँचा हावर्ड यूनिवर्सिटी ,हावर्ड के प्रोफ़ेसर वाटर हाउस ने तीसरे यू. एस. प्रेसीडेंट थॉमस ज़ेफ़रसन को वर्जीनिया में इसे प्रयोग करने को मनाया, ज़ेफ़रसन ने नेशनल वैक्सीनेशन इन्स्टिट्यूट का गठन किया और प्रो० वाटर हाउस को इसका वैक्सीन एजेंट बना दिया,अब यह वैक्सीन यू. एस. के नेशनल वैक्सीनेशन कार्यक्रम का हिस्सा थी। अब जेनर को अपना यथोचित सम्मान और पुरस्कार मिला।
जेनर के सहयोगी डाक्टरों तथा श्रीमान ज़ेफ़रसन की बदौलत 1967 में जब तक वैक्सीनेशन अभियान तेजी से पूरे विश्व में शुरू किया गया तब तक नॉर्थ अमेरिका और यूरोप में इसका सफ़ाया हो चुका था।
2सितम्बर उन्नीस सौ पैंतालीस को सेकेंड वर्ल्ड वार समाप्त हुई और सात अप्रैल उन्नीस सौ अड़तालिस को कई देशों ने मिलकर एक संस्था का गठन किया जिसका नाम था वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन, जिसका मूल उद्देश्य ही ग़रीब पिछड़े देशों समेत सभी को बराबर स्वास्थ्य सुविधाएँ मुहैय्या कराना था। वर्ल्ड वार की तबाही को संभालने के बाद वैक्सीनेशन अभियान में तेजी आई सन उन्नीस सौ सड़सठ से ।तब WHO के डायरेक्टर डोनाल्ड हैंडरसन थे, डॉ० डोनाल्ड 1967 से 1977 तक तीसरी दुनिया के देशों मे रहे, ख़ासकर बांग्लादेश और भारत में भारत में यूँ तो उन्नीस सौ बासठ में नेशनल स्माल पॉक्स उन्मूलन कार्यक्रम लॉन्च हो गया था पर सन 1966 में बावजूद साठ मिलियन पहले और 440 मिलियन दोबारा टीके लगने के, एक्टिव केस बढ़ते गये। इसकी कई वजहें जैसे अधिक बर्थ रेट, बहुत बड़ी आबादी,नासमझी, धार्मिक कारण थे।
मगर 1972 से भारत ने एक बार और कमर कसी। नये आधुनिक उपकरणों और डब्ल्यू. एच. ओ. के पूरे सहयोग से जी जान से टीकाकरण तेज़ किया गया और बावजूद 1974 की एपिडेमिक के 1975 में भारत स्माल पॉक्स मुक्त हो गया।
जनवरी 1975 में टारगेट ज़ीरो शुरू हुआ मई 1975 में भारत में अंतिम केस मिला करीमगंज आसाम में वो महिला बांग्लादेश के सिलहट से आई थी संभवतः पहले से इंफेक्टेड होकर। दो साल और केस ढूँढने के बाद 1977 में डब्ल्यू. एच. ओ. द्वारा भारत आफिशियली स्मालपॉक्स मुक्त घोषित कर दिया गया ।
विश्व का आखिरी नेचुरल केस मिला बांग्लादेश में तीन वर्ष की रहीमा बानो जुलाई 1975 में जिसकी रिपोर्टिंग आठ वर्षीय बिल्कुन्निशां ने की थी जिसके बदले में उसे ढाई सौ टका मिले थे। रहीमा बानो को डब्ल्यू. एच. ओ. द्वारा कड़ी सुरक्षा में क्वैरैंटाइन किया गया वो जीवित रही।
इस व्याधि से विश्व की अंतिम मृत्यु थी मेडिकल फोटोग्राफर जेनेट पार्कर की, 1978 की गर्मियों में, जिन्हें यह बीमारी किसी दूसरे बीमार से नहीं बल्कि वायरस लैब से मिली । डब्ल्यू. एच. ओ. ने 1980 में हमारे इस खूबसूरत प्लेनेट को स्माल पॉक्स मुक्त घोषित कर दिया ।
बहुत बहसें हुईं वायरस के नमूनों को नष्ट कर दिया जाये या नहीं । क्या ये कभी दोबारा काम आयेंगें ? कहीं कोई देश इसे जैविक युद्ध का माध्यम तो नहीं बना लेगा ? पर अभी भी स्माल पॉक्स वायरस के सैंपल विश्व में दो जगहों पर मौज़ूद हैं-
एक रशिया में स्टेट रिसर्च सेंटर ऑफ वायरोलॉजी, साइबेरिया
दूसरा यू. एस. सेंटर फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन अटलांटा
यह बहुत बड़ी जीत थी मानवीय संवेदनाओं,मेहनत और विज्ञान की आशा ,प्रार्थना ,दृढ़ प्रतिज्ञा करते हैं हम कोरोना को भी जीत लेंगे ।

साभार- गूगल, प्रिवेंटिव मेडिसिन, WHO Journals

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रचनाकार परिचय

ज्योत्सना मिश्रा

ईमेल : docjyotsna1@gmail.com

निवास : नई दिल्ली

नाम- डॉ० ज्योत्सना मिश्रा 
जन्मस्थान- कानपुर

शिक्षा- एम बी बी एस, डी जी ओ
सम्प्रति- स्त्री रोग विशेषज्ञ
विधा- कविता, कहानी, लेख एवं यात्रा-वृतांत
प्रकाशन- औरतें अजीब होती हैं (काव्य संग्रह)
देश के प्रतिष्ठित पत्र , पत्रिकाओं में लेख, कहानी एवं कविताओं आदि का प्राकाशन।
सम्पादन- साझा-स्वप्न 1 (साझा-काव्य संग्रह)
सम्मान- विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित  
संपर्क- नई दिल्ली 
मोबाईल- 9312939295