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वरिष्ठ कथाकार अमरीक सिंह ‘दीप’ का साक्षात्कार- राजेश क़दम

वरिष्ठ कथाकार अमरीक सिंह ‘दीप’  का साक्षात्कार- राजेश क़दम

भले ही उपनाम ‘दीप’ है, लेकिन साहित्य की तिलिस्मी दुनिया की मायावी गहरायी में डूबने-उतराने वाले अस्सी और नब्बे के दशक में अधिकांश नवांकुर लेखक और लेखिकाओं को सूरज की तरह रोशनी देने वाले अमरीक सिंह ‘दीप’ आज भी अपनी ऊर्जा और सृजन की भूंख का ईंधन तलाशते रहते हैं। स्वभाव से निहायत घुमक्कड़, जिज्ञासु, विनम्र, सहज, सरल और संकोची अमरीक सिंह ‘दीप’ हमेशा से ही किसी संस्था, ग्रुप और गुट से ख़ुद को बचाते-छिपाते रहे हैं। 

जड़ों को सींचने से पत्तियों तक नमी पहुँचने में 
वक़्त ज़रूर लगता है।
 
राजेश क़दम:- आज ही तारीख़ में अमरीक सिंह ‘दीप’ होने का क्या अर्थ है?
अमरीक सिंह ‘दीप’:-जीवन की वैतरणी पार करने के लिए साहित्य का दामन क़स कर थामे रखने के लिये प्रयासरत एक संघर्षशील इन्सान।
राजेश क़दम:- ‘दीप’ जी, दरअसल मेरा प्रश्न इस तरह से था, कि साहित्यिक जीवन की एक लम्बी और शानदार पारी खेली है, आपने। बहु और विविध विधाओं, भाषाओं में रचनाओं के प्रकाशित होने के बावजूद आलोचकों, समीक्षकों द्वारा आपके कृतित्व का सामयिक मूल्यांकन नहीं करने या किसी बड़े अकादमिक पुरस्कार के ना मिलने का कोई अफ़सोस ?
अमरीक सिंह ‘दीप’:- देखो राजेश, प्रकृति ने इस धरा पर हर जीव-जन्तु की भूमिका निर्धारित कर रखी है। कुछ जीव इस पृथ्वी पर निर्माण के लिये पैदा हुये हैं और कुछ विध्वंस के लिये। राम और रावण हर युग में होते रहे हैं और होते रहेंगे। मानव-समाज में लेखक की भूमिका एक रचनाकार की है। मैं भी ख़ुद को रचनाकार समझता हूँ। अपनी कलम द्वारा अपने समाज के नयन-नक़्श संवारने उसे मानसिक रूप से समृद्ध करने की कोशिश ताउम्र की है मैंने। नहीं जानता कि अपनी इस कोशिश में मैं कितना सफल या असफल रहा हूँ!

फिर, मैंने यह काम किसी पुरस्कार के लालच में नहीं किया है, बिना किसी अपेक्षा के समाज हित में किया है। हमारे शहर के लेखक गिरिराज किशोर कहा करते थे- ‘लेखक को उपेक्षा सहने की आदत डालनी चाहिए।’ मैंने उनकी इस बात को गांठ बांध लिया। मैं अपनी इस उपेक्षा के कारण आज तक रचना रत हूँ। और मैं ताउम्र रचनारत ही रहना चाहता हूँ, यह पुरस्कार क्या कुछ कम नहीं है मेरे लिये।
राजेश क़दम:- आजादी के बाद के युगीन साहित्य या साठोत्तरी पीढ़ी के बाद हिन्दी कथा साहित्य के विकास क्रम को आप किस तरह से देखते है?
अमरीक सिंह ‘दीप’:- जहाँ तक मेरा मानना है कि साठोत्तरी पीढ़ी पर विदेशी साहित्य का प्रभाव अधिक था। उसने देश और समाज के मौजूदा प्रश्नों पर ध्यान कम आदमी के अकेलेपन और संत्रास पर अपने लेखन को अधिक केन्द्रित रखा और देश-समाज की मूल समस्याओं पर कम। बाद ही हमारी पीढ़ी ने देश और समाज की मूल समस्याओं को ध्यान में रखकर लिखना शुरू किया। इस पीढ़ी ने इन्सान की कुण्ठा और संत्रास को दरकिनार कर भूख, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा इत्यादि विषयों को अपनी कहानी का विषय बनाया। शिल्प के स्थान पर कथ्य को प्रधानता मिली। महिला लेखन और दलित लेखन को प्रमुखता मिली। अध्यापन के क्षेत्र से ही नहीं हर वर्ग और पेशे के लोग लेखन में आये। कहानी का क्षेत्र एक आयामी न रह बहुआयामी हो गया। बड़े व्यापारिक घरानों की ‘सारिका’, ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ जैसी पत्रिकायें बन्द हुई तो ‘हंस’, ‘पहल’, ‘वर्तमान साहित्य’, कथाक्रम’ और ‘कथादेश’ जैसी लघु पत्रिकाओं ने एक आन्दोलन का रूप धारण कर लिया।
राजेश क़दम:- ‘दीप’ जी ...., क्या लेखन स्वयं को स्वयं में खोजने की एक सतत् प्रक्रिया है या अपने आक्रोश, असहमति, खोने और पाने की प्रतिक्रिया?
अमरीक सिंह ‘दीप’:- राजेश....... लेखक में शुरू से ही एक सिद्धार्थपन होता है। जो उसे किसी करवट चैन नहीं लेने देता! उसे निरन्तर भटकाता है! अपने होने की तलाश में पहले वह ईश्वर और अध्यात्म की शरण में जाता है। पर, जब उसे वहाँ भी अपने होने का पता नहीं मिलता तो वह साहित्य की ओर मुड़ता है। यहाँ आकर उसका साक्षात्कार लोगों के दुःख, तकलीफों, पीड़ाओं, परेशानियों से होता है। लोगों के दुःखों, तकलीफों, पीड़ाओं और परेशानियों में अपने दुःखों-परेशानियों का अक़्स पाकर वह इनसे मुक्ति पाने के लिये कलम उठा लेता है। लोगों की पीड़ा का लेखक की पीड़ा में समन्वय हो जाता है। लेखक का सारा आक्रोश,असहमति और असन्तोष रचनात्मक रूप में ढल जाता है। और इस रचनात्मकता से रचित हर रचना के पूरा हो जाने पर उसे जो सन्तुष्टि मिलती है, वह किसी बोधिसत्व से कम नहीं होती।
राजेश क़दम:- क्या आप मानते हंै ‘दीप’ जी कि लेखन किसी भी लेखक, रचनाकार या कहानीकार को सामाजिक स्तर पर अकेला करता है?
अमरीक सिंह ‘दीप’:- लेखक आने वाले कल का व्यक्ति होता है। वह परम्परावादी नहीं होता। पटरियों पर रेल चलती है। जो एक निश्चित स्थान से चलकर एक निर्धारित मुकाम पर पहुँचती है। लेखक लीक से हटकर चलता है और लीक से हटकर चलने वाले लोग अपना रास्ता खुद बनाते हैं। लेखक की बनायी पगडण्डियाँ बाद में राजमार्ग में बदलती हैं। उसके बनाये रास्ते पर बाद में दुनिया चलती है। परम्परावादी न होने के कारण परम्परावादी समाज के बीच लेखक खुद को मिसफिट पाता है। इसीलिये वह सामाजिक स्तर पर अकेला पड़ जाता है!!
राजेश कदम:-दरअसल ये प्रश्न इसलिये भी था कि घर में जब पूरापरिवार मिलकर टी0वी0 देखता है, आपस में हंसी -मजाक  और ‘एन्जाॅयमेन्ट’ का माहौल होता है तब रचनाकार एकांत में सृजन में जूझ रहा होता है!
अमरीक सिंह ‘दीप’:-लेखन भी एक कला है। और कला से जुड़े हर व्यक्ति की अभिरूचि भी कलात्मक ही होती है। वह अपने घर और आसपास का पूरा परिवेश कलात्मक चाहता है। वह हंसी-मजाक और मनोरंजन भी कलात्मक ही चाहता है लेकिन इस सामंती विवाह संस्था द्वारा उसे जो जीवन साथी प्रायः हासिल होता है वह सामान्य ढंग का होता है। या यूं कह लीजिए कला विरत व्यक्ति होता है। ऐसे जीवन साथी से उत्पन्न सन्तान भी माँ की छत्रछाया में रहने के कारण प्रायः उसी के संस्कार ग्रहण कर लेती है। ऐसे में परिवार, सास-बहू के झगड़ों वाली सीरियल, कपिल शर्मा शो और तारक मेहता का उल्टा चश्मा जैसे मनोरंजक कार्यक्रम पसंद करता है और लेखक इन्हें नापसंद करने के कारण अपना एकांत कोना तलाश साहित्य-सृजन और अध्ययन में अपना सुख तलाश लेता है।
राजेश कदम:- हाँ! ठीक है। अच्छा किसी भी फाॅर्मेट में लेखन की सामाजिक भूमिका को आप कैसे निर्धारित करेंगे?
अमरीक सिंह ‘दीप’:- मैंने उपन्यास, कहानी, कविता, लघुकथा, समीक्षा, संस्मरण, स्तम्भ लेखन गोकि साहित्य के कई फाॅर्मेट में लेखन किया है। लेकिन साहित्य की हर विधा के फाॅर्मेट का अपना एक अलग सामाजिक महत्व है। साहित्य के सारे ही फाॅर्मेट समाज को स्वस्थ-सुन्दर बनाने के लिये ही हैं। सामाजिक परिवर्तन के लिये हैं। आने वाले कल की आवाज आपको साहित्य में ही सुनाई देगी। फिर साहित्य कोई टू मिनिट नूडल्स नहीं है। यह तो वृक्ष को सींचने जैसा है। जड़ों को सींचने से पत्तियों तक नमी पहुँचने में वक़्त जरूर लगता है। लेकिन पत्तियों का हरापन बरकरार रहता है।
राजेश कदम:-‘दीप’ जी, क्या कभी आपको लगा है या महसूस किया है आपने कि हिन्दी कथा साहित्य में आपकी प्रसिद्धि या हर छोटे और बडे़ पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन ने आपके स्थानीय मित्रों की संख्या को कम किया है?
अमरीक सिंह ‘दीप’:- राजेश जी, आपने फिल्म ‘नौ दो ग्यारह’ का यह गीत सुना है- हम है राहीं प्यार के, हमसे कुछ न बोलिये। जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिये।’ तो भाई, हमसे जो भी प्यार से मिलता है, हम उसके हो जाते हैं। यूँ भी साहित्य ईष्र्या का नहीं स्पर्धा का क्षेत्र है। जो भी अच्छा लिखेगा उसे आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक पायेगा।
राजेश क़दम:- कविता, लघुकथा, कहानी, उपन्यास या संस्मरण आदि किस विधा में आप ख़ुद को ज्यादा कम्फर्ट पाते है?
अमरीक सिंह ‘दीप’:-कहानी मेरी प्रिय विधा है राजेश। जब कोई घटना या बात मेरी संवेदना को गहरे तक छू जाती है और मुझे, जब तक मैं उसे कहानी के रूप में काग़ज पर न उतार लूँ, बैचेन किये रहती है।
राजेश कदम:- ‘दीप’ जी, क्या आप इस बात से इत्तेफ़ाक रखते हैं कि आज के घोर व्यावसायिक दौर में अधिकांश बड़ी पत्रिकायेंरचनायें नहीं रचनाकार छाप रही है? किसी भी लेखक का प्रथम लक्ष्य और धर्म तो बड़ी पत्रिकायें होती हैं, किन्तु नया या अपेक्षाकृत कम चर्चित लेखक इसमें असफल रहता है! दो -दो साल तक पत्रिका या संपादक की तरफ से उसे कोई जवाब नहीं मिलता। वहीं स्थापित रचनाकार की रचना अगले या उसके बाद के अंक में प्रकाशित हो जाती है!
अमरीक सिंह ‘दीप’:-(हँसते हुए) नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। अच्छी रचना की हर पत्रिका को जरूरत होती है। मैं खुद प्रारम्भ में लघु पत्रिकाओं में छपता रहा हूँ। मेरी ‘किस जमीन पर’ कहानी ‘यथार्थ’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। वह तो ‘यथार्थ’ की एक गोष्ठी में मैंने ‘कहाँ जायेगा सिद्धार्थ’ कहानी का पाठ किया था। राजेन्द्र राव उस गोष्ठी में मौजूद थे। उन्हें कहानी अच्छी लगी। उन्होेने मुझे इसे ‘परिवर्तन’ पत्रिका में भेज देने के लिये कहा और शायद पत्रिका के सम्पादक राज किशोर जी को फोन भी कर दिया और वह कहानी ‘परिवर्तन’ में छप गई और चर्चित भी हो गई। अच्छी रचना खरा सोना होती है। वह कहीं भी प्रकाशित हो। गाहे-बगाहे उसकी चर्चा होती ही है।
राजेश क़दम:- ‘दीप’ जी, जहाँ हिन्दी कथा साहित्य में ‘उसने कहा था’, ‘गुण्डा’, ‘रसप्रिया’, ‘यही सच है’, ‘लवर्स’, ‘उपहार’, ‘जो लिखा नहीं जाता’ और ‘राम सजीवन की प्रेमकथा’ जैसी सैकड़ांे चर्चित किवदंती बन चुकी प्रेम कहानियाँ है और माना जाता है, कि आज भी एक अच्छी प्रेम कहानी लिखना किसी कहानीकार का एक अधूरा स्वप्न रहता है, वहीं आपके एक साथ दो-दो प्रेम कहानियों के संकलन ‘वनपाखी’ और ‘चांदनी हूँ मैं’ हैं, ये चमत्कार कैसे?
अमरीक सिंह ‘दीप’:- (गहरे सोचते हुये), एंगेल्स का कथन है - ‘प्राचीन समय में प्रेम हमेशा औपचारिक समाज के बाहर मिलता था। इसका दूसरा नाम व्यभिचार था। जब तक विवाह संस्था रहेगी, तब तक प्रेम हमेशा व्यभिचार के रूप में ही पनपेगा।’

मैंने अपनी कहानी ‘तीर्थाटन’ में स्पष्ट लिखा है, पति-पत्नी के बीच जो होता है वह प्रेम नहीं होता है। वह एक आदत होती है। आदत जब दिनचर्या बन जाती है तो ऊब पैदा करती है। इस ऊब से उबरने के लिये इन्सान प्रेम की तलाश की ओर उन्मुख होता है। मेरी प्रेम कहानियाँ प्रेम के तलाश की कहानियाँ है। अपने अधूरेपन की कहानियाँ हंै। अपनी सम्पूर्णता की तलाश की कहानियाँ हैं। यह तलाश अभी भी अनवरत है। इसी तलाश में भटकते हुये मेरा प्रेम कहानियो का तीसरा संग्रह ‘अनारकली के अश्क’ भी लगभग तैयार ही हो चुका है।
राजेश कदम:- ऐसा क्या था, दीप जी कि जो आप एक या दो प्रेम कहानियों में नहीं कह पाये? और आपको इतनी प्रेम कहानियाँ लिखनी पड़ी!
अमरीक सिंह दीप:-...... प्रेम जीवन का बाह्य भाव है। यह स्त्री -पुरूष को ही नहीं इन्सान से इन्सान को भी जोड़ता है। इन्द्रधनुष में केवल सात रंग होते हैं पर प्रेम के ‘शेड्स’ असंख्य है। इन्हें महसूस करना, जीना और कहानी का रूप देना सरल काम नहीं है। मेरी तो यही कामना है कि मैं इसके ज्यादा से ज्यादा ‘शेड्स’ को महसूस कर सकूं और उन्हें कागज़ पर उतारने में सक्षम हो सकूं।
राजेश क़दम:-क्या .... देह बिना नेह संभव है?
अमरीक सिंह ‘दीप’:- पे्रम में देह का सवाल ही बेमानी है। प्रेम में द्वैतयन नहीं चलता! प्रेम का गणित स्कूल के गणित से अनूठा है। यहाँ एक को एक जोड़ने पर उत्तर दो नहीं शून्य आता है। यह अवस्था बाह्य अवस्था होती है। ऐसे में इन्सान के अन्दर यह शब्द गूंजने लगता है- ‘मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा। तेरा तुझको सौंपते क्या लागे मेरा।’
राजेश क़दम:- एक सफल रचनाकार या कहानीकार अपनी रचनाओं में अपने पात्रों के माध्यम से उसकी सामाजिक परिस्थितियों, पृष्ठभूमि, विडम्बनाओं और दुश्वारियों का प्रतिनिधित्व करता है। किन्तु आपकी बहुदा कहानियों में आप पात्रों के प्रतिनिधित्व की जगह प्रतिभागी नज़र आते हैं, इसके पीछे क्या आग्रह रहा होगा, आपका?
अमरीक सिंह ‘दीप’:-मैं तुम्हारी इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ, राजेश कि मैं अपने पात्रों का ‘प्रतिनिधि न रह कर प्रतिभागी नज़र आता हँू’ मेरी ‘सिरफोड़ती चिड़िया’ कहानी एक काॅलेज में पढ़ने वाली लड़की की कहानी है। ‘हरम’ और ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए.....’ फण्तासी में लिखी कहानियाँ है। मैं पुरूष हूँ लेकिन मैंने लगभग डेढ़ दर्जन से ऊपर नारी मानसिकता की कहानियाँ लिखी है। दलित नहीं हूँ लेकिन दर्जन भर के करीब दलित कहानियाँ लिखी है। ‘नाचों जी0 आर0 यार’ कहानी शादी में बैण्ड बजाने वाले एक दलित लड़के की कहानी है।.... मैं कभी कश्मीर नहीं गया लेकिन कश्मीर त्रासदी पर मैंने ‘किरदार’ कहानी लिखी है।...... सच तो यह है कि कुदरत ने मुझे प्रखर कल्पनाशीलता प्रदान की है। अपने देखे-भोगे, अनुभव और अध्ययन को मेरी कल्पनाशीलता कहानी के रूप में ढाल देती है। शुक्रगुजार हूँ इस बात के लिए कुदरत का।

हाँ ....! यह बात मैं ज़रूर स्वीकार करता हूँ कि जाने-अनजाने मेरी प्रगतिशील विचारधारा अवश्य मेरी कहानियों में महकने लगती है।
राजेश क़दम:- ‘लेडी विद अ डाॅग’ चेखव की एक प्रसिद्ध कहानी है। क्या वैसी कहानी नहीं लिख पाने की हीनता/विवशता से ग्रसित होकर आपने और आपके शहर के एक-दो परिचित कहानीकारों ने अपने-अपने घरों में ‘जर्मन शेफर्ड’ की स्थापना कर रखी है?
अमरीक सिंह ‘दीप’:- पहली बात तो यह कि मैंने अपने घर में कोई ‘जर्मन शेफर्ड’ कुत्ता नहीं पाल रखा। ये जो तुमने देखे है वे मेरे ‘फ्लैट’ के अगल-बगल वालों के यहाँ पले है!यूं तो कुत्तों से मुझे बेहद डर लगता है। मुझे तीन बार सड़कछाप कुत्तों ने काटा है और बयालिस इन्जैक्शन मेरे पेट पर लग चुके है। इन इन्जैक्शनों से मेरा पेट पत्थर हो गया था।

रही चेखव की कहानी ‘लेडी विद अ डाॅग’ जैसी कहानी न लिख पाने का हीनताबोध तो औरों की बात मैं नहीं करता पर मुझमें ऐसा कोई हीनताबोध नहीं है। चेखव एक डाॅक्टर थे और मैं एक मशीन मैन रहा हूँ। चेखव के और मेरे अनुभव संसार में जमीन-आसमान का अन्तर है। मैं ऐसा कोई दावा नहीं करता कि  मैंने मास्टरपीस कहानियाँ लिखी है। लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा कि मैंने अपने अनुभव क्षेत्र में जो देखा, सुना, भोगा और जिया उसे लेकर ठीकठाक ही कहानियाँ लिखी हैं। इस सन्दर्भ में मैं यहाँ अपनी एक कहानी ‘चोर’ पर हंस के सम्पादक आदरणीय राजेन्द्र यादव का एक पत्र कोड कर रहा हूँ-
 
अक्षर प्रकाशन प्रा0 लि0
दरिया गंज, नई दिल्ली- 110002
29.11.91
 
भाई दीप जी, आपकी कहानी ‘चोर’ पढ़ी।
बहुत अच्छी कहानी है। इसके लिये धन्यवाद्! हालांकि 
चिनेवा अचेवे की कहानी ‘पागलपन’ जैसा दम नहीं है फिर भी 
अच्छी है। 
और कानपुर के क्या हाल है? नया क्या हो रहा है? आशा है आप 
स्वस्थ और सानन्द है।
आपका-
राजेन्द्र यादव
राजेश क़दम:- ‘दीप’ जी, मैं सिर्फ कथा या कला जगत की बात नहीं कर रहा, हर इंसान के जीवन में कभी न कभी ‘फेल्योर’ या असफलता का एक ऐसा दौर आता है जब वह खुद को कमजोर और पराजित... घोर निराशा, अवसाद, ‘मेंटल स्ट्रेस’ और ‘डेथ-विश’ की तरफ बढ़ जाता है। तत्कालीन कारण पारिवारिक, आर्थिक या सब कुछ पाकर सब कुछ खो देने जैसा कोई भी होता है, क्या कभी आपके जीवन में ऐसा कुछ ....?
अमरीक सिंह ‘दीप’:-लाजपत नगर वाला हमारा निजी तिमन्जिला मकान था। जिसकी पहली मन्जिल पर रह रहे हमारे किरायेदार ने हमारे तीन भाइयों के न रहने के बाद हमारी सगी तीन भौजाइयों और सगे भतीजे-भतीजियों के साथ मिलकर उसके तीन हिस्से खरीद लिये थे। इस बात की हम दोनों भाइयों (मैं और मुझसे बड़ा कुलदीप सिंह) को भनक तक न लगने दी थी। किरायेदार अदालती रसूख वाला था। एक जज उसका दोस्त था। हमें वह यूँ ही घर से निकाल देने की फिराक़ में था। उस वक़्त मैं गहरे तनाव में आ गया था। सोच रहा था, अगर उसने हमें दबंगई से यूं ही घर से बेघर कर दिया तो क्या होगा मेरा? मेरे परिवार का?

तब.... एक क्षण ऐसा क्षण भी आया था कि हर ओर अन्धेरा ही अन्धेरा दिखाई देने लगा था। इस अन्धेरे से मैं डर गया था। उस वक्त अचानक मुझे शेक्सपियर का ये कथन याद आ गया था - ‘उस जीवन को नष्ट करने का हमें अधिकार नहीं, जिसे बनाने की शक्ति हम में नहीं है।’ और मैं फिर से जीवन की ओर लौट आया था। ऐसे में मेरे सारे साहित्यिक मित्र मेरा कन्धा बन गये थे। उन्होने अपने रसूख से मुझे मेरा हिस्सा ही नहीं दिलवाया बल्कि एक मित्र ने आठ महीने बिना किराया लिये अपने मकान में रहने के लिये स्थान भी दिया था।
राजेश क़दम:- ‘हंस’ में प्रकाशित आपकी चर्चित कहानी ‘तीर्थाटन’ तो अपने आप में मुकम्मल कहानी है। तो फिर इसके उपन्यास ‘तीर्थाटन के बाद’ के रूप में व्यापक फलक की कोई खास वज़ह? कहीं ये हिन्दी फिल्मों के ‘सीक्वल-सीक्वल’ जैसा कोई मोह तो नहीं!
अमरीक सिंह ‘दीप’:- (तेज हंसते हुए).... दरअसल इस कहानी का फिल्म बनाने के लिये दो बार अनुबंध हुआ। एक बार अनवर जमाल ने दस हजार रूपये देकर इसके फिल्म बनाने के अधिकार खरीदें। पांच वर्ष के लिये। जब वे इन पांच वर्षो में फिल्म नहीं बना पाये तो अधिकार वापस कर दिये। दूसरी बार प्रवीण अरोड़ा जो किअसगर वज़ाहत जी के मित्र हैं उन्होने बीस हज़ार रूपये देकर इसके अधिकार खरीदे। वे भी जब फिल्म बनाने के लिये ‘फायनेन्स’ की व्यवस्था नहीं कर पाये तो असगर वज़ारत ने मुझे सलाह दी कि इस कहानी का मुद्दा उपन्यास वाला है। आप इसको उपन्यास में ढाल दीजिये। अतः कुछ कल्पना, कुछ भोगे हुए यथार्थ को कलात्मक ढंग से मैंने इसे उपन्यास का रूप दे दिया।
राजेश क़दम:- हाँ, शायद आपकी पहली मूल औपन्यासिक कृति है, ‘एक और पांचाली’ जहाँ नायिका ‘पुष्पा’ का स्त्री विमर्श वाला चिर-परिचित जीवन वृतांत है। जीवन और देह से जुड़े उसके प्राप्य संघर्ष हैं। चाहें महाभारत काल का द्रोपदी प्रसंग हो! प्राचीन काल हो या वर्तमान समय... पांचाली होना क्या कोई गौरवशाली उपाधि हो सकती है? जबकि द्रोपदी या पांचाली होना एक त्रासदी है हमारे समाज की और किसी भी कालखण्ड में इसकी स्वीकार्यता नगण्य ही रही है! थोड़ा स्पष्ट करें-
अमरीक सिंह ‘दीप’:-महाभारत काल से ही स्त्री को व्यक्ति नहीं वस्तु माना जाता रहा है। तभी तो सब कुछ हार जाने पर युधिष्ठिर द्रोपदी को दांव पर लगा देता है। उससे पहले अर्जुन जब स्वयंवर में द्रोपदी को जीत कर लाता है तो पाण्डवो की माँ द्रोपदी को वस्तु ही समझती और बेटों को आपस में बांट लेने को कह देती है।

महाभारत के ‘अनुशासन पर्व’ में अपनी पत्नी को अतिथि को देने का जिक्र है। ‘अनुशासन पर्व’ के दूसरे अध्याय में सुदर्शन की कथा है। सुदर्शन अपनी भार्या ओघवती से कहता है- ‘ग्रहस्थ धर्म के अनुसार व्यवहार करने के लिये मैं प्रतिबद्ध हूँ। अतः अतिथि के विरोध में किसी प्रकार का बर्ताव तुम न करो। यही नहीं समय आने पर तुम अपना शरीर भी अतिथि को अर्पण करने में न हिचकिचाओ।’

यह मैं मानता हूँ, वर्तमान में नारी शिक्षित और अपने अधिकारों के प्रति सचेत हुई है, पर यह भी आधी आबादी का मात्र दस प्रतिशत ही होगा। शेष नब्बे प्रतिशत अब भी अपने व्यक्तित्व और अधिकारों से विमुख है। हमारे विवाह आज भी सामंती रीत-रिवाज के अनुसार ही होते हैं। घोड़ी और डोली अब भी प्रचलन में है। ऐसे में एक अनपढ़ स्त्री एक लेखक के सम्पर्क में आने के बाद अपने अधिकारों के प्रति शनैः-शनैः सचेत होती है और पांच पुरूषों से प्रेम करने के बाद एक सजग स्त्री के रूप में खड़ी हो जाती है।
राजेश क़दम:- तो क्या आप ‘तीर्थाटन के बाद’ की नायिका ‘सुदेश’ के किरदार को ‘पांचाली’ (पुष्पा) का उत्तरार्ध मानते हैं जहाँ पर वह आधुनिकता और प्रगतिशील समाज का प्रतिनिधित्व करती समाज के थोथे, लिजलिजे और थोपे गये आडम्बरों, परम्पराओं, निष्ठाओं से लोहा ले रही है?
अमरीक सिंह ‘दीप’:- हाँ! ठीक कहा तुमने राजेश। निश्चय ही ‘एक और पांचाली’ की नायिका पुष्पा ‘तीर्थाटन के बाद’ की नायिका सुदेश का उत्तरार्ध अवश्य है लेकिन दोनों का परिवेश और व्यक्तित्व अलग - अलग है।
राजेश क़दम:- ‘दीप’ जी, अब एक अन्तिम और प्रत्याशित प्रश्न! या इसे आप औपचारिक जिज्ञासा भी कह सकते हैं। चूंकि आप कानपुर से हैं और मैं भी। सो यदि आई0 पी0 एल0 की तर्ज पर आप अपने पसन्दीदा गत/विगत ग्यारह कहानीकारों की ‘ड्रीम-टीम’ का चुनाव करेंगे तो किन-किन कहानीकारों के नाम देना चाहेंगे? बिना अपने और मेरे नाम को जोड़ते हुये-
अमरीक सिंह ‘दीप’:-(बड़ी देर तक, गंभीर मुद्रा में सोचते हुये और मुझे देखते हुए) बड़ा विचित्र प्रश्न है, राजेश -
1. सर्वश्री राजेन्द्र यादव 2. बलवंत सिंह 3. सत्येन कुमार 4. असगर वजाहत
5. मण्टो 6. उदय प्रकाश 7. काशीनाथ सिंह 8. मन्नू भण्डारी
9. शिवमूर्ति 10. डा० सुमति अय्यर 11. कृष्ण बिहारी ।
राजेश क़दम:- ‘दीप’ जी ! मेरे पास ये कानपुर के कहानीकारों की ‘टाॅप फेव -11’ की अव्यवस्थित लिस्ट है, जिसके स्रोत समय-समय पर बदलते रहते हैं। कृपया अपनी दिली पसन्द के साथ इसको व्यवस्थित क्रम दें तो बेहतर होगा - 1. शशि श्रीवास्तव, 2. प्रतिमा श्रीवास्तव, 3. प्रेम गुप्ता ‘मानी’, 4. डाॅ० सुमति अय्यर, 5. कृष्ण बिहारी, 6. गिरिराज किशोर, 7. प्रियंवद, 8. राजेन्द्र राव, 9. राजकुमार सिंह, 10. श्याम सुन्दर चैधरी, 11. हरभजन सिंह मेहरोत्रा !!!
अमरीक सिंह ‘दीप’:-राजेश....बहुत ही काॅम्पलिकेटेड है ये तय करना कि किसको कौन-सा क्रम दिया जाये या किसको कितने माक्र्स दिये जाये। निश्चय ही हर व्यक्ति की अपनी अलग-अलग पसंद और नापसंद होती है। रही बात मेरी दिली पसन्द की तो , 1. सर्वश्री गिरिराज किशोर, 2. प्रियंवद, 3. राजेन्द्र राव, 4. सुमति अय्यर, 5. कृष्ण बिहारी, 6. श्याम सुन्दर चैधरी, 7. राजकुमार सिंह, 8. हरभजन सिंह मेहरोत्रा, 9. प्रेम गुप्ता ‘मानी’, 10. प्रतिमा श्रीवास्तव, 11. शशि श्रीवास्तव।
 
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2 Total Review

राजेश क़दम

12 July 2024

आभार आपका शशि श्रीवास्तव जी 🙏😊

शशि श्रीवास्तव

12 July 2024

राजेश जी एक सशक्त व साहित्य जगत में कम उम्र से ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले कहानी कार तो हैं ही पर एक सक्षम प्रश्न कर्ता भी हैं दीप जी के साक्षात्कार ने ये साबित कर दिया । उन्हें मेरी बहुत बहुत बधाई ।

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रचनाकार परिचय

राजेश कदम

ईमेल : rajeshkumarsharma2015@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

जन्म तिथि- 05 जुलाई सन् 1970
जन्मस्थान- कानपुर (उ0प्र0)
शिक्षा- स्नातक
लेखन विधा- बाल साहित्य के साथ ही कहानी, कविता, लघुकथा, पुस्तक समीक्षा एवं फिल्म समीक्षात्मक आलेख
प्रकाशन- अधिकांश स्तरीय पत्रिकाओं एवं पत्रों में लगातार रचनाओं का प्रकाशन
सम्प्रति- भारतीय जीवन बीमा निगम में अभिकर्ता एवं हिन्दी मासिक ‘लोकतंत्र के रंग’ के कुछ अंकों का सम्पादन
सम्पर्क- 42/6, निकट आर्य समाज मन्दिर,
विजय नगर, कानपुर - 208005
मोबाइल- 08953751503, 07668185050