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विकास वाहिद की ग़ज़लें

विकास वाहिद की ग़ज़लें

ये  मुश्किलें  भला  क्या  ही  बिगाड़तीं  मेरा
कि मुश्किलों से तो फ़ौलाद हो के निकला मैं

ग़ज़ल-एक

अधूरे इश्क़  की  रूदाद  हो  के  निकला  मैं
किसी की आँख से फिर याद हो के निकला मैं

बचा है इश्क़ कभी ये भी कर के देखूँगा
तिजारतों से तो बर्बाद हो के निकला  मैं

ये  मुश्किलें  भला  क्या  ही  बिगाड़तीं  मेरा
कि मुश्किलों से तो फ़ौलाद हो के निकला मैं

तमाम उम्र फ़क़ीरी  में  काट  दी  थी  मगर
सफ़र पे आख़िरी, शहज़ाद हो के निकला मैं

हज़ार  पटखनी    खाई    गयी   ज़माने  से
तब इस अखाड़े से उस्ताद हो के निकला मैं

तेरे तिलिस्म से दुनिया बचा है  कौन  यहाँ
मगर तू देख कि अपवाद हो के निकला मैं

लगा सभी को मुझे मौत आ गयी,  लेकिन
बदन की क़ैद से आज़ाद हो के निकला मैं

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ग़ज़ल-दो

जो मिला रब की ही रज़ा माना
कब किसी बात का बुरा  माना

था यक़ीं इस क़दर अक़ीदत पर
हमने पत्थर को भी ख़ुदा  माना

दोस्त समझा हरीफ़ को हमने
बद्दुआओं को भी दुआ माना

काट ली ज़िन्दगी तेरे ग़म से
और एहसान भी  तेरा  माना

क्यों ख़फ़ा है मेरी हयात बता
उम्र भर तो तेरा  कहा  माना

अपने हाथों से जो  दिया तू ने
हमने उस ज़हर को दवा माना

वो सलीक़े का आदमी भी नहीं
जिसको लोगों ने  देवता  माना

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ग़ज़ल-तीन

दिले मुज़तरिब को यूं आबाद करके
चलो  देखते  हैं  तुम्हें  याद  करके

उम्मीदें तो उस दर से हैं कुछ नहीं पर
चले आएं हैं हम  भी  फ़रियाद  करके

वो इक शहर आबाद था कल तलक जो
बहुत   मुतमइन   हैं  वो  बर्बाद  करके

जो कल तक क़तारों में थे ले के कासा
ख़ुदा  बन  गए  हैं  वो  इम्दाद  करके

लिखा है ये किरदार उसने हमारा
नए ग़म कहानी में  ईजाद  करके

कोई मुझ में जैसे रिहा हो गया हो
जो देखा परिंदे को आज़ाद करके

उठाते हैं हर सुब्ह अख़बार "वाहिद"
कलेजे को हम अपने फ़ौलाद करके

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ग़ज़ल-चार

क्या रिआया का ग़म नहीं  दिखता
तुमको इतना तो कम नहीं दिखता

यूँ तो दिलकश लुभावने हैं मगर
तेरे वादों  में  दम  नहीं  दिखता

देखता   है   वो   हाथ  में  पत्थर
उसको ख़ाली शिकम नहीं दिखता

अश्क  दिखते  हैं  मेरी आँखों  में
उसको अपना सितम नहीं दिखता

चिट्ठियों में भी  अब  कहाँ  जज़्बात
अब तो काग़ज़ भी नम नहीं दिखता

हो वफ़ा तो वफ़ा ही  की  जाए
आजकल ये नियम नहीं दिखता

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ग़ज़ल-पाँच

क्या कहें दिल फ़िगार लोगों को
इश्क़ के इन  शिकार  लोगों को

ये जो बैठे हैं ले के कासा अब
बाँटते   थे   उधार  लोगों  को

दूर करना हो गर ये ख़ुशफ़हमी
मुश्किलों  में  पुकार  लोगों  को

छोड़ती कब है आख़री दम तक
ज़िन्दगी   क़र्ज़दार   लोगों   को

इतना ज़्यादा भी मत कुरेदो तुम
इश्क़   के   राज़दार  लोगों  को

फूल रखती है ख़ुद सियासत और
बाँट  देती   है   ख़ार  लोगों  को

कोई ऐसी ग़ज़ल कहो "वाहिद"
पढ़ के आए क़रार  लोगों  को

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रचनाकार परिचय

विकास वाहिद

ईमेल : vikasjoshi1965@gmail.com

निवास : इंदौर (मध्य प्रदेश)

जन्मतिथि- 11 फ़रवरी 1965
जन्मस्थान- इंदौर (मध्य प्रदेश)
लेखन विधा- ग़ज़ल
शिक्षा- एम.बी.ए. 
सम्प्रति- व्यवसाय 
प्राकाशन- विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में ग़ज़लें प्रकाशित 
सम्मान- परवाज़े ग़ज़ल, काव्य धारा, ग़ज़ल कुम्भ
संपर्क
- ए 39, एम आय जी कॉलोनी, इंदौर
मोबाइल-9406832912