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‘यमदीप’ उपन्यास की भाषागत विशिष्टताओं का अध्ययन- डॉ० नितिन सेठी

‘यमदीप’ उपन्यास की भाषागत विशिष्टताओं का अध्ययन- डॉ० नितिन सेठी

किन्नर विमर्श पर आधारित यमदीप, स्पष्ट है कि किन्नरों के जीवन को सामने लाता है। उल्लेखनीय है कि हिजड़ों का जीवन एक ऐसा रहस्यमयी संसार है, जो सामान्य जनजीवन के सामने सहजता और सरलता से नहीं खुलता। इसके अपने अनसुलझे और अनछुए से तथ्य हैं, जो सामान्य व्यक्ति के सामने जल्दी नहीं आते।

स्त्री और पुरुष के अतिरिक्त समाज में एक तीसरा वर्ग भी है, जिसे समाज अनेक नामों से पुकारता है। हिजड़ा, खुसरा, ख्वाजा, किन्नर, जंखा जैसे शब्द इनकी पहचान से जुड़े हैं। नीरजा माधव अपने उपन्यास ‘यमदीप’ के माध्यम से इनकी कथा को अभिव्यक्ति देती हैं। यमदीप किन्नर विमर्श पर आधारित प्रथम उपन्यास माना जाता है।

एक अनजानी-सी दुनिया की कहानी यमदीप में दर्शायी गयी है। किन्नरों का जीवन बहुत ही निर्धनता और अशिक्षा में गुज़रता है। पेट भरने के लिए उन्हें बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ‘यमदीप’ में इन मुद्दों को भी प्रमुखता से उठाया गया है। मेजर साहब के यहाँ तीसरी संतान के रूप में बिटिया का जन्म होता है। उसका नाम नंदरानी रखा जाता है। समय के साथ नंदरानी के शारीरिक परिवर्तन स्त्रियोचित नहीं होते। पुरुषोचित आचरण, भारी आवाज़, चाल-ढाल में अजीब-सी लचक; उसके कुछ असामान्य होने की पुष्टि करते हैं। भाई-बहन के विरोध के कारण नंदरानी को छोटी-सी उम्र में अपना घर छोड़ना पड़ता है और वह हिजड़ों के समूह में शामिल हो जाती है। उसे अब एक नया नाम मिलता है नाजबीबी। नाजबीबी मानवीय गुणों से परिपूर्ण है। दूसरों की व्यथा से द्रवित होना उसके सभ्य परिवार से आने का प्रमाण देते हैं। एक पगली सड़क किनारे बच्ची को जन्म देने के बाद मर जाती है। नाजबीबी अपनी टोली के साथ जब उधर से गुजरती है तो करुणा भरे हृदय से उस बच्ची के पालन-पोषण का भार वह अपने कंधों पर ले लेती है। सभ्य समाज की मानवीयता भले ही मर चुकी हो किंतु नाजबीबी के शब्द हैं, "अब कोई पूछनहार नहीं इसका तो क्या हम भी छोड़ जाएँगे? अरे हम हिंजड़े हैं, हिंजड़े...इनसान हैं क्या जो मुँह फेर लें। जा जल्दी कर।"1

नाजबीबी उसे अपने डेरे में ले आती है और इस बच्ची को सोना नाम देती है। सोना समय के साथ बड़ी होती है। महताब गुरु डेरे के प्रमुख हैं, जिनके निर्देशन में पूरा डेरा चलता है। सोना को लेकर महताब गुरु थोड़े से आशंकित हैं। हिजड़ों की दुनिया में सभ्य समाज की बालिका आख़िर कैसे पाली जा सकती है। लेकिन नाजबीबी की ज़िद और ममता के आगे उन्हें झुकना पड़ता है। नाजबीबी को सोना के पालन-पोषण और पढ़ाई के लिए स्कूल में प्रवेश दिलवाने के लिए भी पर्याप्त संघर्ष करना पड़ता है। आगे चलकर एक डॉक्टर सोना का भेद पुलिस के सामने खोल देता है। पुलिस के दबाव के कारण सोना को नारी उद्धार गृह भेज दिया जाता है। नाजबीबी इसके लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है। नाजबीवी को जब अख़बार के माध्यम से नारी उद्धार गृह में चलने वाली काली करतूतों का पता चलता है तो वह सोना को वहाँ से सुरक्षित छुड़वाने का प्रयत्न करने लगती है। मानवी एक पत्रकार है, जो विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर लिखती है। नारी उद्धार गृह की रिपोर्टिंग भी मानवी ने समय-समय पर की है। अंत में मानवी ही सोना को नारी उद्धार गृह से विभिन्न कठिनाइयों का सामना करते हुए छुड़वाती है। उसका साथ देते हैं डी० एम० आनंद कुमार। नाजबीबी जहाँ किन्नर विमर्श का प्रतिनिधित्व करती है, वहीं मानवी स्त्री विमर्श को सामने लाती है। विभिन्न घटनाक्रमों से गुज़रता हुआ उपन्यास अंत में नाजबीबी के दृढ़ संकल्प और आशावादी दृष्टिकोण के साथ समाप्त होता है।

उपन्यास मानव जीवन के विस्तृत कैनवास को छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। मानव जीवन के विविध चित्र उपन्यास में मिलते हैं। जीवन की विभिन्न घटनाएँ ही केवल इसमें अंकित नहीं होतीं अपितु जीवन के समक्ष आने वाले विभिन्न प्रश्नों को सामने लाने के प्रयास भी उपन्यास में किए जाते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर भी कभी-कभी स्वयं उपन्यासकार देता है तो कभी इनके संकेतसूत्रों को समझाकर पाठक के लिए यह काम छोड़ देता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के उपन्यास के बारे में कहे गये ये शब्द आज भी उतने ही सत्य हैं, "वर्तमान जगत में उपन्यासों में बड़ी शक्ति है। समाज जो रूप पकड़ रहा है, उसके भिन्न-भिन्न वर्गों में जो परिस्थितियाँ उत्पन्न हो रही हैं, उपन्यास उनका विस्तृत प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करते, आवश्यकतानुसार उनके ठीक विन्यास, सुधार अथवा निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न कर सकते हैं। लोक या किसी जनसमाज के बीच काल की गति के अनुसार जो गूढ़ और चिंन्त्य परिस्थितियाँ खड़ी होती रहती हैं, उनको गोचर रूप में सामने लाना और कभी-कभी विस्तार का मार्ग भी प्रत्यक्ष करना उपन्यास का काम है।"2

‘यमदीप’ उपन्यास में दो प्रकार के जीवन रूपायित किए गये हैं- एक है ‘यमदीप’ शब्द को चरितार्थ करता किन्नर विमर्श और दूसरा है सभ्य-सुसंस्कृत कहा जाने वाला सामान्य समाज। किन्नर वर्ग के पात्रों में महताब गुरु, नाजबीबी, छैलू, अकरम, शबनम, चमेली आदि सम्मिलित हैं। सामान्य समाज के अंतर्गत मानवी और उसका परिवार, डी०एम० आनंद कुमार और अन्य पात्र आते हैं। ‘यमदीप’ के माध्यम से लेखिका ने दो भिन्न-भिन्न समाजों की जीवन-शैली, उनकी सोच, उनकी समस्याओं आदि को बहुत ही कुशलता और गहराई से दर्शाया है। लेखिका इस कार्य के लिए कथानक में उन्नत भाषा-शैली का प्रयोग करती है। भाषा की कुशल अभिव्यक्ति के माध्यम से उपन्यास को अर्थवत्ता प्राप्त होती है। ‘यमदीप’ का सृजन करते समय नीरजा माधव ने इसकी भाषा और शैली- दोनों पर ही अपना ध्यान विशेष रूप से केंद्रित किया है। ‘यमदीप’ एक बेहद नाज़ुक विषय को औपन्यासिक रूप में अभिव्यक्ति देने का प्रयास है। किन्नर विमर्श पर आधारित ‘यमदीप’, स्पष्ट है कि किन्नरों के जीवन को सामने लाता है। उल्लेखनीय है कि हिजड़ों का जीवन एक ऐसा रहस्यमयी संसार है, जो सामान्य जनजीवन के सामने सहजता और सरलता से नहीं खुलता। इसके अपने अनसुलझे और अनछुए से तथ्य हैं, जो सामान्य व्यक्ति के सामने जल्दी नहीं आते। इनकी अपनी विशिष्ट बोली और शब्दावली होती है, जिसके प्रयोग से ये अपनी बात परस्पर किया करते हैं और सामान्यजन भी इन बातों को स्वाभाविक रूप से नहीं समझ पाते। सभ्य समाज से निर्वासित जीवन जीने वाला किन्नर समाज अपनी भाषा-बोली में बहुत सक्षम और समर्थ होता है। सामान्य बोलचाल की भांति इनके यहाँ भी अपनी बात को कहने-समझाने के लिए सक्षम शब्दावली है।

नीरजा माधव जहाँ एक नवीन और अनछुआ-सा कथानक बुनती हैं, वहीं सामान्य जीवन के पात्रों और किन्नर पात्रों के संयोजन से उपन्यास की कथावस्तु को गति देती हैं। ये पात्र विभिन्न परिस्थितियों से जूझते दर्शाये गये हैं। इन सबको पाठकों के सामने लाने वाला उपकरण है ‘भाषा’। जीवन के अनेकानेक पक्षों की सार्थक अभिव्यक्ति भाषा के उपकरण से ही संभव होती है। डॉ० भोलानाथ तिवारी के अनुसार, "मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उपन्यास है समाज का चित्रण और भाषा है माध्यम, जिसके द्वारा उसका समाज से सम्बंध स्थापित होता है। कहना नहीं होगा कि मनुष्य अपने विचारों, भावों तथा इच्छाओं को, दूसरे व्यक्तियों पर भली-भाँति केवल भाषा के माध्यम से ही प्रकट कर सकता है। वस्तुत: भाषा मानव जीवन के साथ इतनी घुल-मिल जाती है कि उसके महत्त्व और स्वरूप की ओर हम लोगों का ध्यान नहीं जाता।"3 किन्नर जीवन बहुलांश में अमूर्त भाव-भूमि पर आधारित है। इसमें आम आदमी का प्रवेश आज भी वर्जित है। कल्पना और कयास के कारनामे यहाँ अधिक हैं। वर्जना के इन क्षेत्रों में अपनी सामाजिक संचेतना और मानवीयता के साथ प्रवेश करना और इसके पश्चात् उन वर्जनाओं को सर्जनात्मकता के संदर्भों से संयोजित कर, समझने और अनुभव करने योग्य रूपाकार प्रदान कर ‘यमदीप’ उपन्यास साहित्य जगत में लाना; नीरजा माधव जैसी सक्षम और समर्थ लेखिका का ही कार्य है। अपने अन्य उपन्यासों की भांति ‘यमदीप’ में भी लेखिका ने अपनी सशक्त भाषा से कथानक का स्वरूप निर्धारित किया है और इसे पठनीय उपन्यास के सांचे में ढाला है।

अपनी भाषा के प्रयोग के स्तर पर नीरजा माधव अत्यंत सजग रचनाकार हैं। प्रत्येक पात्र की भाषा को उन्होंने उसके परिवेशगत रहन-सहन और जीवनशैली के अनुरूप गढ़ा है। नाजबीबी, महताब गुरु, छैलू जैसे पात्र किन्नर जीवन से सम्बंधित हैं, इसीलिए इनकी भाषा को भी लेखिका ने उनकी अदा और अंदाज़ का अमल करते हुए नाज-नखरों का जामा पहनाया है। इस सम्बंध में डॉ० रुचिरा ढींगरा के विचार उल्लेखनीय हैं, "सशक्त अभिव्यक्ति साहित्य की उत्कृष्टता का निकष मानी जाती है। भाव, विचार, घटना, पात्र और उनका जीवन-व्यापार, परिवेश, यहाँ तक कि लेखिकीय मंतव्य भी अपनी संपूर्णता के लिए यथोचित अभिव्यक्ति, शिल्प और शैली की माँग करते हैं। कथा साहित्य में पात्रानुकूल, परिस्थिति अनुसार और अवसरानुकूल भाषा का प्रयोग कर कथाकार अपनी रचना को शिष्टता प्रदान करता है। ‘यमदीप’ बनारस की पृष्ठभूमि पर अवस्थित कृति है। अत: वहाँ की भाषा-बोली में भोजपुरी-अवधी की सुवास मिलती है। पुरवा (कुल्हड़), बेना (गेहूँ की नरई से बना पंखा), टेंटुआ (गला), दबंगई (अकड़) आदि शब्द वहाँ मिलते हैं। वहाँ का शिक्षित और अशिक्षित समुदाय भी अपने-अपने स्तरानुरूप अलग-अलग भाषा का प्रयोग करता है।"4 किन्नर समाज कुछ ऐसा बंद समाज है, जो जल्दी किसी के सामने नहीं खुलता। इनकी जीवनशैली का सामान्य परिचय मिलना आज भी इतना आसान नहीं है। ज्ञातव्य है कि जब वर्ष 2002 में नीरजा माधव का ‘यमदीप’ उपन्यास प्रकाशित हुआ था, उस समय इस विमर्श पर नगण्य ही सामग्री उपलब्ध थी। इसी क्रम में उपन्यास की तैयारी के सम्बंध में उनका अलग-अलग किन्नरों के डेरे पर आना-जाना हुआ। डेरे पर उनके सामने किन्नर अक्सर सांकेतिक भाषा में बात करते थे और अपनी बात कहकर निकल जाते थे। इस तिलिस्म को तोड़ना आसान नहीं था। परंतु अपनी लगन और जिजीविषा से नीरजा माधव ने इस कार्य को संभव बनाया। अपने आलेख ‘जीविकोपार्जन एवं कुछ सांकेतिक शब्द’ में नीरजा माधव किन्नरों की भाषा पर विस्तार से चर्चा करती हैं। उनका कहना है, "यजमानों के सामने अपने साथियों को कुछ संकेत में समझाने के लिए अपनी गढ़ी गयी शब्दावलियों का प्रयोग हिजड़ा करता है और जीवन के बेसुरे लय को एक ताल में फिट करने की कोशिशें करता है, तालियाँ पीटता है, ठनगन करता है।"5

हिजड़ों की शब्दावली सामने लाते हुए नीरजा माधव आगे भी लिखती हैं, "भरण-पोषण देने वाले रखैल सामान्य पुरुष को हिजड़े अपनी भाषा में ‘गिरिया’ कहते हैं और जो हिजड़ा उस पुरुष का समलैंगिक सम्बंध वाला रखैल बनता है, उसे वे अपनी सांकेतिक भाषा में ‘कोती’ कहते हैं। यह उनकी अपनी विकसित की गयी सांकेतिक शब्दावली है, जिसका कोई आधिकारिक व्याकरणशास्त्र नहीं। ज़रूरी नहीं कि यदि वाराणसी के हिजड़े ‘गिरिया’ या ‘कोती’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो दिल्ली, अहमदाबाद या लखनऊ में रहने वाले हिजड़े भी इस सम्बंध के लिए ‘गिरिया’ और ‘कोती’ शब्द का ही प्रयोग करें। जिले और क्षेत्र के अनुसार उनकी सांकेतिक शब्दावली परिवर्तित हो जाती है।"6 नीरजा माधव ने ‘यमदीप’ उपन्यास में ऐसी अनेक सांकेतिक शब्दावलियों का प्रयोग किया है। उल्लेखनीय बात यह है कि हिजड़ा पात्र आपस में जहाँ-जहाँ भी बात करते दिखाई दिए हैं, वहाँ हिजड़ों की अपनी ही निर्धारित शब्दावली का प्रयोग लेखिका ने किया है। इस संदर्भ में उनके द्वारा किया गया गहन अध्ययन और परिश्रम स्पष्टतया परिलक्षित भी किए जा सकते हैं। एक लंबी जद्दोजहद के बाद लेखिका इस शब्दावली को ‘डिकोड’ कर पाने में सफल हो पाईं। पाठकों की सुविधा के लिए उपन्यास में नीचे इन शब्दों के अर्थ भी सामान्य बोलचाल की हिंदी में दे दिए गए हैं। टेपका, टेपकी, कड़ेताल, बड़मा, काटका, पानकी, डामरी, सुड्डा-सुड्डी, कनबासी जैसे शब्द उपन्यास के सहज प्रवाह में घुलमिल से गये हैं। इसके अतिरिक्त हिजड़ों की आपसी बातचीत के वाक्यांश भी यत्र-तत्र प्रयुक्त किये गये हैं।

‘यमदीप’ में वर्णनात्मक-विवरणात्मक शैली का प्रयोग पर्याप्त रूप से मिलता है। उपन्यास की पात्र मानवी की भाषा पर लेखिका ने विशेष ध्यान दिया है। अपने स्वगत कथनों में मानवी के विचार दार्शनिकता और गंभीरता से पूर्ण हैं। महताब गुरु से भेंट करते समय मानवी के विचार कितने उदात्त और कलात्मक बोध से भरे हुए हैं, "स्त्री और पुरुष यानी इस सृष्टि के आधार। माया-मोह के जनक। इन्हीं रूपों में तो आत्मा अज्ञान ओढ़ती है, माया में लिप्त होती है और जब ज्ञान प्राप्त होता है तो आत्मा अपने परम स्वरूप में आ जाती है। मिट जाता है स्त्री-पुरुष का भ्रम। आत्मा आत्मा होती है, विशुद्ध, अमर…अजर...। तो क्या ये भी स्त्री-पुरुष के द्वैत से परे परब्रह्म के साधक नहीं हैं? कहाँ है इनके अंदर पद, पुत्र प्राप्ति मोह? स्थितप्रज्ञ की तरह माया से परे, आत्मतत्त्व के ज्ञान के साथ जीवनचक्र पूरा करते हुए। जीवनमुक्त, कर्मयोगी, परमतत्त्व पंथ के साधक। तमाम तरह के पंथों और संप्रदायों से अलग। स्त्री-पुरुष के स्वीकार्य-अस्वीकार्य के सिद्धांतों से बिल्कुल पृथक्, मात्र देही पंथ, जो काल के साथ स्वयं छूट जाएगा और विशुद्ध आत्मा का साक्षात्कार होगा उस परमतत्त्व से। यदि समाज से संपृक्त नहीं तो ये भी जीविका को छोड़ उससे कहाँ रागद्वेष का नाता रखते हैं?7 मानवी के डी०एम० आनंद कुमार से एक स्थान पर संवाद भी ऐसी ही सांस्कृतिक और दार्शनिक चेतना से युक्त हैं, "मैंने भी इसे हृदय से महसूस किया है, आनंद और एक लंबे समय से महसूस करती आ रही हूँ। मंथन करने के बाद इतना ही निष्कर्ष निकाल सकी कि बुद्धि और विवेक के उपयोग में तो नारी पूर्णतः स्वतंत्र हो पर अपनी सांस्कृतिक सीमा का अतिक्रमण न करते हुए। पुरुष का चाहे वह पिता हो, भाई हो, पति हो या पुत्र हो, संबल उसकी आवश्यकता ही नहीं, बल्कि इस देश की संस्कृति को सुरक्षित रखने का एक सशक्त उपादान भी है।”8 नीरजा माधव एक सफल उपन्यासकार होने के साथ-साथ भावपूर्ण कवयित्री भी हैं। इसीलिए विभिन्न देश-काल का वर्णन करते हुए उनकी भाषा काव्यात्मक हो जाती है। मानवी के संदर्भ में उनके शब्दों की कोमलता द्रष्टव्य है, "पीड़ा के घनघोर अंधकार में सुख के बहुत महीन तंतु का आभास मात्र भी जीवन में उजास भरने का दायित्व संभाल लेता है। जीवन की अमा रात्रि केवल महाकाल है-पूर्ण विराम; जहाँ सुख-दुःख, पीड़ा के द्वैत की प्रतीति मिट जाती है। अन्यथा जीवन आशा और विश्वास की पतली डोरी पर भी कंधों पर भारी पीड़ा लादे नटी-सा चलता रहता है। मानवी के जीवन में भी घोर निराशाओं और उनके बीच डी०एम० आनंद कुमार का स्नेह उसी पतले प्रकाश-तंतु का काम कर रहा, जिसके सहारे वह जीवन में प्राण पहनाए हुए थी।"9 कल्पनाशीलता इन शब्दों में काव्यगुण का संचार करती दिखाई देती है। अज्ञेय के शब्द हैं, "साधारण सामाजिक प्रयोजनों के संदर्भ में भाषा का प्रयोग करते समय हमारा पहला अभीष्ट यह होता है कि कुछ जानकारी दूसरे पक्ष तक स्पष्ट, निर्भ्रांत और सहज ग्राह्य रूप में पहुँचे। यह जानकारी केवल तथ्यों की भी हो सकती है, जैसे आंकड़ों की जानकारी या घटनाओं का अख़बारी ब्यौरा वगैरह। रचनात्मक भाषा कभी इकहरी नहीं होती।" अज्ञेय के ये शब्द ‘यमदीप’ पर पूरी तरह खरे उतरते हैं। विशेष संकेतात्मक भाषा को नीरजा माधव ने सहज-सामाजिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर प्रस्तुत किया है और पाठक को भी नवीन शब्द-विन्यास से जोड़ा है।10

‘यमदीप’ उपन्यास का शीर्षक भी स्वयं में पर्याप्त प्रतीकात्मकता रखता है। मानक हिंदी कोश के अनुसार प्रतीक की परिभाषा है, "वह गोचर या दृश्य तथ्य या वस्तु जो अगोचर, अदृश्य या अप्रस्तुत तथ्य या वस्तु के ठीक या बहुत कुछ अनुरूप होने के कारण उसके गुण-रूप का परिचय कराने के लिए इसका प्रतिनिधित्व करती है।"11 ‘यमदीप’ शीर्षक की प्रतीकात्मकता पर नीरजा माधव उपन्यास की भूमिका में लिखती हैं, "घर के एक दीये को केवल यम से संवाद करने के लिए उठाकर घूर (कूड़ा-करकट) पर रख देना और फिर उधर मुड़कर भी न देखना कि वह कब जलते-जलते बुझा, सत्य से विमुख होना है। उस माँ और उसके जीवन-भर के लिए बिछड़ने वाले उस बेटे(?)/ बेटी(?) के हृदय में झांककर कोई देखे। क्या भूल पाये हैं दोनों एक-दूसरे को?12 डॉ० एम० फ़ीरोज़ खान द्वारा एक भेंटवार्ता में पूछ जाने पर कि उपन्यास का शीर्षक ‘यमदीप’ ही क्यों रखा; नीरजा माधव का उत्तर है, "यमदीप शीर्षक रखने के पीछे भी उनके जीवन की विडम्बना ही थी। अच्छे घरों में पैदा हुए ये थर्ड जेंडर के लोग उस दीपक की ही तरह तो हैं, जो दीपावली से एक दिन पूर्व यमराज के नाम निकालकर कूड़े-करकट या घूरे पर रख देते हैं लोग और पीछे पलटकर देखना मना होता है उस दीप को। इनका भी जीवन लगभग यम के उस दीप की तरह होता है, जिसे समाज में जगह नहीं मिलती और बदहाल बस्ती में भागकर जाना और वहीं समाप्त हो जाना इनकी नियति बन जाती है। एक सनातन परम्परा यम का दिया से इस प्रतीक को लिया है मैंने।"13

‘यमदीप’ अपनी भाषा-शैली से साहित्य जगत में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि ‘यमदीप’ के बाद अब तक किन्नर विमर्श पर अनेक उपन्यास और कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं परंतु भाषा के स्तर पर ‘यमदीप’ अपना अलग ही महत्त्व रखता है।‘यमदीप’ के परवर्ती अनेक उपन्यासों में तृतीयलिंगी पात्र सामान्य बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग करते दर्शाये गये हैं। उनकी अपनी शब्दावली के प्रयोग को लेखकों द्वारा वहाँ ज़्यादा महत्त्व नहीं दिया गया है जबकि ‘यमदीप’ इस विमर्श पर प्रथम उपन्यास होने के बावजूद भी किन्नरों की भाषा-बोली और शब्दावली को नज़रअंदाज़ नहीं करता। सामान्य बोलचाल के शब्दों के साथ ही गुंथे हुए ये शब्द ‘यमदीप’ की भाषा को विशिष्ट और अलग बनाते हैं। कथानक के स्तर पर यह विशिष्ट शब्दावली कोई उलझाव या पठनीयता की समस्या भी पाठक के लिए उत्पन्न नहीं करती। उपन्यास के रूप में यही ‘यमदीप’ और उसकी भाषा शैली की सफलता कहे जा सकते हैं। ‘यमदीप’ ऐसा उपन्यास रहा है, जिसने किन्नर विमर्श को साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक स्वरुप प्रदान करके इसका पथ सदैव आलोकित किया है और उसे विमर्शों की दुनिया में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हुए साहित्य जगत का ध्यान भी इस ओर आकर्षित किया है।


संदर्भ सूची
1. नीरजा माधव, यमदीप (सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2017), पृ०- 12
2. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ०- 513
3. डॉ. भोलानाथ तिवारी, भाषाशास्त्र की रूपरेखा (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद सं.1970), पृ.- 1
4. डॉ. रुचिरा ढींगरा, साहित्य और समाज में उभरता किन्नर विमर्श (नालंदा प्रकाशन,दिल्ली, सं०- 2019) तीसरी सत्ता का सच और यमदीप पृ०- 46
5. नीरजा माधव, किन्नर नहीं हिजड़ा समुदाय (ए.बी.एस.पब्लिकेशन, वाराणसी,सं. 2019), पृ.- 40
6. वही, पृष्ठ- 42
7. यमदीप, पृ०- 160
8. वही, पृ०- 286
9. वही, पृ०- 184
10. अज्ञेय, सर्जना और संदर्भ (नेशनल पेपरबैक्स, सं०- 2011) रचनात्मक भाषा और संप्रेषण की समस्याएँ, पृ०- 304
11. मानक हिंदी कोश, पृ०- 378
12. यमदीप (उपन्यास के बारे में), पृ०- 7
13. किन्नर नहीं हिजड़ा समुदाय, पृ०- 82

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रचनाकार परिचय

नितिन सेठी

ईमेल : drnitinsethi24@gmail.com

निवास : बरेली (उत्तरप्रदेश)

जन्मतिथि- 05 अगस्त, 1984
जन्मस्थान- बरेली (उ०प्र०)
शिक्षा- परास्नातक (गणित, हिन्दी, अंग्रेज़ी एवं संस्कृत), एम०जे०एस०सी०, पी-एच डी०, डी० लिट्
सम्प्रति- अध्यापन
प्रकाशन- शब्दों से अनुबंध, शब्दों से संवाद, नवगीत के नये क्षितिज एवं ट्रांसजेंडर: पर्सपेक्टिव्स एंड परसेप्शंस पुस्तकें प्रकाशित।
सम्पादन- सृजन का आलोकपर्व, बालसाहित्य का परिवेश, वर्तमान सन्दर्भ और संत कबीर, हिन्दी साहित्य के नव्य विमर्श, किन्नर विमर्श पर आधारित ‘अस्तित्व’ उपन्यास का यथार्थवादी अध्ययन।
प्रसारण- सांस्कृतिक-साहित्यिक कार्यक्रमों के संयोजक, संचालक व निर्णायक के रूप में विविध दायित्वों का निर्वहन, आकाशवाणी से वार्ताओं का प्रसारण।
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