Ira
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। दिसंबर 2024 के अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

जहाँ ख़ामोशी बोलती है : मणिकर्ण- डॉ० कविता विकास

जहाँ ख़ामोशी बोलती है : मणिकर्ण- डॉ० कविता विकास

कौन जाने यह उसका रोष रूप है या प्रेम रूप। कहाँ से इतनी ख़ूबसूरती समेटे हुए है यह धरती! आकाशलोक में केवल एक स्वर्ग है पर धरती की बंद परतों को झांकें तो अनेक स्वर्ग मिलेंगे। तनहाई को किसने देखा है? यह तो महसूसने की चीज़ है लेकिन मणिकर्ण आकर देखें, सशरीर तनहाई दिखाई देगी।

यादों के दस्तगाह में लम्हों के मोती हैं। हर लम्हा कुछ सीख देता है। यहाँ जिस अविस्मरणीय लम्हे की बात हम करेंगे, उसे याद कर आज भी मन सुकून से भर जाता है और रोमांचित हो जाता है। यूँ तो सूर्यास्त उगते सूरज का संदेशा होता है पर यह सूर्यास्त कुछ ऐसा था, जिसे देखकर लगता था कि पृथ्वी अपना भ्रमण रोक दे और मैं बर्फीली चोटियों के पीछे छुपते सूरज और पहाड़ों से टकराकर बिखरने वाले सातों रंगों को आँखों में बसा लूँ। क्या विलक्षण नज़ारा था!

घने जंगलों से आच्छादित घाटियाँ, जिनके पीछे सफ़ेद गगनचुम्बी चोटियाँ, जिन पर मेष की आकृति वाला मेघ किलोलें करता था और नीचे बहती सफ़ेद धाराओं में निहुरता आकाश। मानो कोई अलग ही दुनिया हो! ओडिसा का झारसुगुडा प्रान्त अपनी चिलचिलाती गर्मी के कारण विख्यात है। वर्षों से हमारा वहीं बसेरा है। धरा की आग से बचने के लिए हमने पर्वतीय स्थल में कुछ दिन बिताने का निर्णय लिया और फिर शुरू हुआ इन्टरनेट पर होटलों की तलाश और कम समय में आराम से वहाँ पहुँचने का ज़रिया। सभी कुछ फ़टाफ़ट हो गया। बच्चों ने यह ज़िम्मेवारी ले ली थी। शिमला ,कुल्लू और मनाली के साथ-साथ रोहतांग की यात्रा भी सुखद और यादगार रही। ज़्यादातर यात्री इन्हें देखकर लौट जाते हैं पर हमने मणिकर्ण जाने का फैसला किया। यह स्थान कुल्लू से 45 किलोमीटर दूर है। कुल्लू-मनाली की यात्रा में व्यास नदी ने रास्ते भर हमारा साथ दिया। जब मन हुआ, गाड़ी रुकवाकर रिवर राफ्टिंग का मज़ा लिया और जब मन हुआ, वहाँ की नैसर्गिक सुदरता को कैमरे में समेट लिया।

मणिकर्ण में पार्वती नदी हमारी हमसफ़र बन गयी। व्यास और पार्वती नदी के संगम पर बसा यह एक महत्त्वपूर्ण नगर है, जिसके बारे में पर्यटकों को कम ही पता है। भूंतर पार्वती घाटी का प्रवेश द्वार है। रास्ते में कसोल घाटी भी आती है, जहाँ मलाना संस्कृति विद्यमान है। चारों ओर चीड़, अनार, सेब आदि फलों के पेड़, तेज़ी से उठती पहाड़ियाँ, प्रदूषणरहित जलवायु तथा स्वच्छ जलधारा इस देवनगरी को मनोरम बनाते हैं। कसोल होते हुए दोपहर में हम मणिकर्ण पहुँचे, जो कसोल से 4 कि०मी० की दूरी पर बसा हुआ है। पार्वती नदी के दाहिनी ओर बसे मणिकर्ण पहुँचने के लिए दो पूल पार करने होते हैं। यहाँ इसकी धारा बेहद तीव्र हो जाती है। कौन जाने यह उसका रोष रूप है या प्रेम रूप। कहाँ से इतनी ख़ूबसूरती समेटे हुए है यह धरती! आकाशलोक में केवल एक स्वर्ग है पर धरती की बंद परतों को झांकें तो अनेक स्वर्ग मिलेंगे। तनहाई को किसने देखा है? यह तो महसूसने की चीज़ है लेकिन मणिकर्ण आकर देखें, सशरीर तनहाई दिखाई देगी।

पुरानी कहावत के अनुसार एक दिन पार्वती जी इस स्थान पर जलक्रीड़ा कर रही थीं तभी उनके कान की मणि गिर गयी, जो पृथ्वी पर न टिक कर पाताललोक में मणियों के स्वामी शेषनाग के पास पहुँची। शेषनाग ने उसे अपने पास रख लिया। शिवजी के गणों ने सब ओर ढूँढा पर मणि नहीं मिली। क्रोधवश शिवजी ने तीसरा नेत्र खोला, जिससे प्रलय आने लगा। तब शेषनाग ने ज़ोर से फुंफकारा और पार्वती की मणि को जल के बहाव के साथ पृथ्वी की ओर फेंका। इसलिए इस स्थान का नाम मणिकर्ण पड़ा। जल को विष्णु और शिव को अग्नि का रूप माना गया है।

नामकरण के पीछे चाहे जो भी तथ्य रहा हो, यह तो सर्वविदित है कि ईश्वर में आस्था रखने वाले को प्रकृति की इस अनमोल देन में ईश्वर का साक्षात दर्शन होता है- द्रुमों की कतार को चीरती किरणों में, बर्फीली पहाड़ियों के पीछे डूबते सूरज में, पार्वती नदी की उफनती धाराओं में या फिर घनघोर वन में तपस्या में लीन मुनियों में। ऐसा सम्मोहन केवल भगवान ही पैदा कर सकते हैं। मणिकर्ण में गर्म पानी के चश्मे जगह-जगह निकलते हैं, जो चट्टानों के नीचे से निकलते हैं और भारी दबाव के कारण ऊपर की ओर आते हैं। प्रवाह स्थल पर कठोर पपड़ी की परत मिलती है, जो कार्बोनेट की उपस्थिति का प्रमाण है। यहाँ पानी का तापमान 88 डिग्री से 94 डिग्री सेल्सियस तक है। इनमें पोटली में बाँधकर चावल और दाल रख कर लोग पकाते हैं और प्रसाद के रूप में ग्रहण भी करते हैं।

मणिकर्ण में नौ शिवमंदिर पहले भी थे और अब भी हैं। यहीं पर करीब 11000 वर्ष पुराना शिव मंदिर है। प्रवेश द्वार के सामने शिवलिंग स्थापित है। पृष्ठ भूमि में शिव-पार्वती की मूर्तियाँ हैं। मंदिर के नीचे एक बंद कमरा है, जिसमें गर्म पानी के चश्मे हैं और नहाने की सुविधा है। इस उबलते जल को शिव का रूद्र रूप माना गया है। दंत कथा के अनुसार इसी स्थान पर शेष नाग द्वारा पाताल लोक से उछाली गयी कर्ण मणि प्रकट हुई थी। मणिकर्ण के मंदिरों में राम मंदिर का विशेष उल्लेख है। यह शिखर शैली का मंदिर है, जिसके ऊपर स्लेट की छत है। इसे राजा जगत सिंह ने 1653 ईस्वी में बनवाया था। मंदिर परिसर के साथ एक खुला तालाब है, जिसमें केवल पुरुष स्नान कर सकते हैं। हनुमान मंदिर, नयना भगवती मंदिर, कृष्ण मंदिर और रघुनाथ मंदिर भी आस्था के केंद्र हैं। रघुनाथ मंदिर में कमलासन पर विष्णु जी विराजमान हैं। मंदिर के उत्तर-पश्चिम छोर पर एक ठण्डे पानी की वाबड़ी है। पूरे मणिकर्ण में सिर्फ यहीं पर ठंडी जल वाबड़ी मिलती है, बाक़ी सभी जगहों में गर्म जल के चश्मे हैं। पार्वती की ठंडी धाराओं के नीचे या बग़ल में अगर गर्म चश्मे का मुँह मिलता है तो सारा वातावरण इस मेल से धुआँ-धुआँ हो जाता है। एक से डेढ़ दिन इन मंदिरों को घुमने के लिए काफी हैं।

पार्वती नदी के ऊपर एक गुरुद्वारा भी है, जिसे संत श्री नारायण हरी ने कैमलपुर से आकर बनवाया था। ज़रा सोचिये ऐसी वीरान जगह में आज से सत्तर-बहत्तर साल पहले किसी भवन का निर्माण कितना दुष्कर रहा होगा। इस गुरुद्वारे में क़रीबन 4000 लोगों के आवास और निःशुल्क लंगर की सुविधा है। सुबह-शाम होने वाले भजन-ध्यान का अलग आकर्षण है। गुरुद्वारे के अंदर भी गर्म कुंड में नहाने के लिए स्त्री-पुरुष की अलग-अलग व्यवस्था है। गुरुद्वारे की प्राचीर से बाहर का नज़ारा देखते हुए लगता था, मानो धरती का ज़र्रा-ज़र्रा चूमने के लिए वृक्षदल बेताब हैं और उनकी फुनगियाँ आकाश को चादर-सी थामे हुए हैं। इन ख़ास मंदिरों के दर्शन के बाद आगे और भी दर्शनीय स्थल हैं, जैसे- ब्रह्म गंगा संगम, रूप गंगा, रुद्र्नाग, खीर गंगा आदि। गुरुद्वारा साहिब में हर साल फ़रवरी माह में समागम होता है, जो सात दिन चलकर बुद्ध पूर्णिमा को समाप्त होता है। बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहाँ आते हैं।

मणिकर्ण में तीन दिन रहने के बाद हमने वापसी की। लौटते समय बार-बार लग रहा था कि इस पावन नगरी में आने का विचार कहाँ से मन में आया था? यह देवी पार्वती की ही लीला थी, जिसने अज्ञात डोर से हमें खींच लिया था। मणिकर्ण की नैसर्गिक सुंदरता अभी भी पर्यटकों के भीड़-भाड़ से बची हुई है, शायद इसीलिए ख़ामोशी के स्वर यहाँ बोलते हैं। कभी हवाओं में घुलती बुरांश की मह-मह गंध के साथ, कभी बर्फीली नदियों के कोलाहल के साथ तो कभी कोहरे से झाँकती भोर में असंख्य परिंदों के सुर के साथ।

कैसे पहुँचे?
दिल्ली, चंडीगढ़ और प्रमुख नगरों से बस सेवा, दिल्ली से घाटी की एकमात्र हवाई सेवा भूंतर तक है, जिसमें डेढ़ घंटे का समय लगता है। निकटतम रेलवे स्टेशन जोगेंद्र नगर है, जो भूंतर से 115 कि०मी० दूर पठानकोट मार्ग पर है।

2 Total Review

वसंत जमशेदपुरी

15 November 2024

रोमांंचक संस्मरण

M

Mamta Kumari

22 October 2024

Excellent

Leave Your Review Here

रचनाकार परिचय

कविता विकास

ईमेल : kavitavikas28@gmail.com

निवास : धनबाद (झारखण्ड)

सम्प्रति- राजकीय सेवा (शिक्षिका)
प्रकाशन- 'लक्ष्य' और 'कहीं कुछ रिक्त है' (कविता संग्रह), 'सुविधा में दुविधा' (निबंध संग्रह), 'बिखरे हुए पर' (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित।
दस साझा कविता के और आठ साझा ग़ज़ल संकलनों रचनाएँ प्रकाशित।
हंस, परिकथा, पाखी, वागर्थ, गगनांचल, आजकल, मधुमती, हरिगंधा, कथाक्रम, साहित्य अमृत, अक्षर पर्व और अन्य अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, लेख और विचार निरंतर प्रकाशित। दैनिक समाचार पत्र-पत्रिकाओं और ई-पत्रिकाओं में नियमित लेखन। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित। 'झारखंड विमर्श' पत्रिका की सम्पादिका और अनेक पत्रिकाओं के विशेषांक के लिए अतिथि संपादन।
संपर्क- डी०- 15, सेक्टर- 9,पी०ओ०- कोयलानगर, ज़िला- धनबाद (झारखण्ड)- 826005
मोबाइल- 9431320288