Ira
इरा मासिक वेब पत्रिका पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है। दिसंबर 2024 के अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

यदि हम अब भी न चेते- मीनाधर पाठक

यदि हम अब भी न चेते- मीनाधर पाठक

एक समय था कि घर में एक कूलर होता था और घर के सभी सदस्य उसी एक कमरे में खाते-पीते, सोते-बैठते थे। अब सभी के घर लगभग हर कमरे में एयर कंडीशनर लगा है। सभी घरेलू कार्य मशीनी हो गए हैं इसलिए पानी का खर्च भी अनियंत्रित हो गया है। कई बार तो घरों की छत पर रखी टंकियों से भूल वश या लापरवाही से देर तक मीठा पानी व्यर्थ ही बहता हुआ सीधे गंदी नाली में चला जाता है। हम अपनी इन आदतों पर लगाम तो लगा ही सकते हैं।

जून, यानी कि ज्येष्ठ माह हिंदी पंचांग के अनुसार वर्ष का तीसरा महीना है जिसमें गर्मी अपने चरम पर होती है। सूर्य के ताप से बेकल धरती मेघों की राह तकती है। क्योंकि यही वह समय होता है जब सूर्य की प्रचण्ड ऊष्मा से भरी हवाएँ सब कुछ झुलसा देने को तत्पर रहती हैं। धरा के आँचल में छुपी लता-बल्लरियाँ मुरझाकर अंतिम श्वास भर रही होती हैं। नदी, ताल, पोखर आदि सभी जल के श्रोत झुरा जाते हैं। और देखते ही देखते हरीतिमा कहीं बिला जाती है। सकल जीवधारी ही नहीं, धूल का हरेक कण भी त्राहिमाम कर उठता है। तब जाकर कहीं आषाढ़ का हृदय द्रवित होता है और उसके अनुग्रह पर प्रकृति का ताप हरण करने श्रावण मास आ पहुँचता है। वर्षा के रूप में मेघों से प्रेम पा धरती की कोख हरियाती है और जीव जगत में नया उल्लास भरती है।

हम भाग्यशाली हैं कि हमने भूमि के जिस हिस्से पर जन्म लिया है वहाँ एक ऋतु चक्र है और हम ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शीत, बसंत आदि ऋतुओं का सुख भोगते हैं। यह मौसम हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। रबी और ख़रीफ़ की फसलें ऋतुओं के हिसाब से खेत में लहलहाती हैं। परंतु ये बीते कल की बात है। आज मनुष्य नामक प्राणी ने इन ऋतुओं को असंतुलित कर रखा है। कब मौसम अपना स्वभाव बदल दे, कुछ कहा नहीं जा सकता।

बनवास काल में जब माता सीता का मन स्वर्णमृग पर मोहित हो गया तब उन्होंने श्रीराम से उसकी माँग की। श्रीराम ने समझाया कि “यह वन है और यहाँ पग-पग पर माया ने अपना जाल बिछा रखा है। कहीं यह मृग माया ही न हो।” परन्तु राघव के बहुत समझाने पर भी जब वे न मानीं तब रघुवंशमणि उसे लेने चल दिए। पीछे लक्ष्मण को माता की सुरक्षा में छोड़ गए। पर निर्जन वन और चप्पे-चप्पे पर पसरी माया! माता भी भ्रम में पड़ गईं। मायावी पुकार को श्रीराम की पुकार समझ बैठीं और लक्ष्मण के समझाने पर उन्हें कटु वचन कहने लगीं। अंत में हार मानकर लक्ष्मण ने अपने तुणीर से एक बाण खींचा और कुटिया के आगे एक रेखा खींच कर कहा, “माता यह रेखा आपकी सीमा है। आप इसके भीतर सुरक्षित रहेंगी। कृपया मेरे और भैया के लौटने तक आप इस सीमा-रेखा के भीतर ही रहें।”

इसके बाद जो हुआ, हम सभी जानते हैं। इस कथा को कहने का मर्म इतना ही है कि सीमा लाँघना विनाश का कारण बनता है। और आज हम वही सीमा लाँघ रहे हैं। बल्कि यह कहा जाए की लाँघ चुके हैं, तो अतिशयोक्ति न होगी।
हमने प्रकृति का आवश्यकता से अधिक दोहन किया है और करते ही जा रहे हैं। कहीं विकास के नाम पर तो कहीं स्वार्थ के नाम पर। स्वार्थ तो कभी फलित होता नहीं और विकास का चरम विनाश होता है। इतिहास गवाह है कि सभ्यताएं नष्ट हुई हैं। इतनी समृद्ध सभ्यताएं कैसे लुप्त हो गईं? कुछ तो कारण रहा होगा। पर हम हैं कि सब कुछ जानते बूझते भी सबक नहीं लेना चाहते।

गिरि, जल, पावक(सूर्य), भू, आकाश, दिग-दिगंत में मनुष्य की पहुँच हो चुकी है। आज का मनुष्य खोजी है। वह प्रकृति के सारे रहस्य ख़ोज लेना चाहता है। उसकी जिज्ञासा इस ब्रह्माण्ड के किस छोर तक ले जाएगी ये तो समय ही बताएगा। तो जब इस शांत और अपनी ही मौज में किसी अदृश्य की परिक्रमा करते ब्रह्मांड में मानव ने हलचल मचा दी है तब उसका परिणाम भी तो उसे ही भोगना पड़ेगा।

आज दुनिया पर्यावरण असंतुलन का सामना कर रही है। ग्लोबल वार्मिंग से हिमशैल खण्ड-खण्ड हो, जल में विलीन हो रहे हैं। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। आसमान, ओला, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, प्रचंड ताप और शीत बरसा रहा है। मीठा जल दिनों दिन अतल की ओर अग्रसर है। वन संकुचित हो रहे हैं। नदियाँ कराह रही हैं। दावानल अपनी रसना पसारे सब कुछ लील लेने को तत्पर है। कुल मिलाकर मानव ने अपनी सीमाओं का उल्लंघन कर प्रकृति के क्रियाकलापों में हस्तक्षेप किया है तो प्रकृति ने भी अपनी लक्ष्मण रेखा लाँघ दी है। जिसके परिणामस्वरूप समय-समय पर वह हमें प्राकृतिक आपदाओं द्वारा दंड दे कर चेताती रहती है कि अब भी समय है, चेत जाओ। पर मनुष्य की अपनी लिप्सा कहाँ ख़त्म होती है!

आज पर्यावरण की जो स्थिति है उसके लिए वे देश भी कम जिम्मेदार नहीं हैं जो अपने झूठे अहंकार की तुष्टि और भूमि, सागर, आकाश हथियाने की होड़ में एक दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण कर युद्ध की विभीषिका में जल और जला रहे हैं। इन देशों की ये चाहना दुनिया को कहाँ तक ले जाएगी, ये भी आने वाला समय तय करेगा। परन्तु हम स्वयं अपने स्तर पर क्या कर रहे हैं? क्या इसका आँकलन हमने कभी किया है?

हमारे घरों में बिजली की कितनी खपत है? पानी का प्रयोग किस तरह से हो रहा है? कभी गौर किया है? यदि हम ईमानदारी से आकलन करें तो उत्तर होगा कि ‘आवश्यकता से अधिक’। पानी और बिजली हम आवश्यकता से अधिक खर्च कर रहे हैं।बल्कि कहें कि बेदर्दी से खर्च कर रहे हैं तो उचित होगा।

एक समय था कि घर में एक कूलर होता था और घर के सभी सदस्य उसी एक कमरे में खाते-पीते, सोते-बैठते थे। अब सभी के घर लगभग हर कमरे में एयर कंडीशनर लगा है। सभी घरेलू कार्य मशीनी हो गए हैं इसलिए पानी का खर्च भी अनियंत्रित हो गया है। कई बार तो घरों की छत पर रखी टंकियों से भूल वश या लापरवाही से देर तक मीठा पानी व्यर्थ ही बहता हुआ सीधे गंदी नाली में चला जाता है। हम अपनी इन आदतों पर लगाम तो लगा ही सकते हैं।

यदि हम आज भी न चेते तो आने वाली पीढियों को हमारे किये का भारी दण्ड भोगना पड़ेगा। ऐसा न हो, इसके लिए हमें सरकारों की ओर न देख कर स्वयं के स्तर पर भी कार्य करना होगा। अपने कार्य व्यवहार में जागरुकता लानी होगी। प्रकृति के जितने भी संसाधन हैं, वह हमें ईश्वर से उपहार स्वरूप मिले हैं। उस पर जितना हमारा अधिकार है उतना ही अन्य जीवधारियों का भी। इसलिए हमें उसे विलासिता पूर्वक नहीं बल्कि संयम पूर्वक भोगने का प्रयास करना होगा। इसके अलावा जितना संभव हो, उनकी देखभाल, सुरक्षा और संरक्षण की जिम्मेदारी भी उठानी होगी। तभी हम विरासत में अपनी आने वाली पीढ़ी को एक स्वस्थ और समृद्ध पर्यावरण दे पाएँगे।

‘इरा’ के लिए दो शब्द
‘इरा’ वेब पत्रिका का जून अंक कहानी विशेषांक है। प्रयास किया है कि कहानी में जीवन का हर रंग शामिल हो परन्तु हम जितना चाहते हैं उससे कहीं ज़्यादा छूट जाता है। मुझसे भी अवश्य ही छूटा होगा। कहानियों के महासागर से कुछ बूँदे ले कर इस अंक के माध्यम से आप सभी के समक्ष रख रही हूँ। इस आशा के साथ कि जून-जुलाई 2024 संयुक्तांक की ‘इरा’ अपनी धज के साथ सुधी पाठकों को पसंद आएगी।

अंत में रचनात्मक सहयोग हेतु इस अंक के सभी सुधी रचनाकारों का आत्मीय धन्यवाद। ‘इरा’ पत्रिका की मुख्य संपादक, मित्र अलका मिश्र का भी हार्दिक धन्यवाद जिन्होंने मुझपर भरोसा कर इस अंक का कार्यभार सौंपा। अंक पर आप सभी सहृदय पाठकों की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

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4 Total Review
U

Umesh mehta. Ahmedabad. Gujarat

11 July 2024

Ira bahot accha he. Congrats. Very nice articles, Kahaniya muje Ira me mile. Me purane Ira pdhna Chahunga. Please help me. Thanks Regards

शशि श्रीवास्तव

10 July 2024

बहुत ही अच्छा विचारणीय सम सामयिक व शिक्षा प्रद संपादकीय सपादक को बहुत बहुत बधाई व साधुवाद

डॉ कविता विकास

10 July 2024

बहुत बढ़िया लेख है । प्रकृति, पर्यावरण और भावी पीढ़ी की चिंता को एक साथ समेट कर निष्कर्ष निकाला है। हम से कल है, कल है तो हम हैं। हार्दिक बधाई मीना जी। आपकी लेखनी से हम पाठकगण समृद्ध होते रहें।

K

KP Anmol

09 July 2024

पर्यावरण की चिंता करता एक ज़रूरी लेख लिखा है आपने। निश्चित रूप से इस ओर गंभीरता से विचारे जाने की ज़रूरत है अन्यथा परिणाम हमारे सामने उपस्थित होना आरम्भ हो चुके हैं। इस समृद्ध अंक के लिए हार्दिक धन्यवाद। आशा है आपका यह श्रमसाध्य कार्य सराहा जाएगा।

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रचनाकार परिचय

मीनाधर पाठक

ईमेल : meenadhardwivedi1967@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तर प्रदेश)

शिक्षा- एम.ए. (हिन्दी)
जन्मतिथि-
 05 मई 1967
जन्मस्थान- कानपुर(उत्तर प्रदेश)
संप्रति- अध्यापन, लेखन
प्रकाशित कृतियाँ- ‘घुरिया’ (2019) ‘व्यस्त चौराहे’ (2022) (कहानी-संग्रह)
साझा प्रकाशन- उपन्यास ‘खट्टे-मीठे रिश्ते’ (साझा उपन्यास) के साथ दस से भी अधिक साझा संकलन और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। प्रसारण- रेडियो पर कहानियाँ प्रसारित डब्ल्यू सम्मानित हुईं। 
सम्मान- शोभना वेलफेअर सोसायटी द्वारा शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान, मांडवी प्रकाशन द्वारा साहित्यगरिमा सम्मान, अनुराधा प्रकाशन द्वारा विशिष्ट हिन्दी सेवी सम्मान, विश्व हिन्दी संस्थान कल्चरल आर्गेनाइजेशन कनाडा द्वारा सम्मान तथा विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ द्वारा विद्यावाचस्पति सारस्वत सम्मान प्राप्त हुआ|
मोबाईल- 9140044021