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योगराज प्रभाकर की लघुकथाएँ

योगराज प्रभाकर  की लघुकथाएँ

दरवाज़ा एकदम खुल गया है, वे दोनों बाहर आ गए हैं और मुझसे थोड़ी ही दूर खड़े हैं। मुझे लगा कि दोनों मुझे अजीब-सी नज़र से देख रहे हैं मैं सकपका-सा गया हूँ, कहीं इन्होने मेरी चोरी तो नहीं पकड़ ली है...

घूरा

एक-एक करके मेरे सभी साथी गिनती में आ गए, उनकी शक्ति के अनुसार उन्हें युद्ध में शामिल कर लिया गया।
चतुरंगी सेना, चार टुकड़ियाँ, हर टुकड़ी में तेरह-तेरह सैनिक। और सभी मोर्चे पर तैयार-बर-तैयार।
किंतु आश्चर्य! घोर आश्चर्य... न तो मेरा नाम ही पुकारा गया और न ही मुझे किसी गिनती में शामिल किया गया।
बस... मैं कालकोठरी में बंद, अकेला... उदास और उपेक्षित।
कितने ही युद्ध हुए, कितनी बाज़ियाँ पलटीं।। लेकिन मैं अनगिना ही रहा, मेरी क़िस्मत नहीं बदली।
उस दिन मैं उनींदा-सा, अधमरा-सा अँधेरी कोठरी में पड़ा अपनी क़िस्मत को कोस रहा था,
तभी एकदम से शोर उठा -
पहली आवाज़, ‘बादशाह खो गया - खो गया है बादशाह।’
दूसरी आवाज़, ‘बिना बादशाह के पूरी पलटन सिरकटी लाश-सी हो गई है।
तीसरी आवाज़, ‘अरे कोई तो इसका हल ढूँढ़ो रे!’
चौथी आवाज़, ‘बादशाह न मिला तो मैदान छोड़कर भागना पड़ेगा ।’
पाँचवीं आवाज़, ‘ मैदान छोड़कर भागना बुज़दिली होगी... कोई उपाय सोचना पड़ेगा।’
सामूहिक आवाज़, ‘तो जल्दी से सोचो, ऐसा न हो कि बाज़ी हाथ से निकल जाए।”
फिर यह शोर फुसफुसाहट में बदल गया। शायद कोई गंभीर मंत्रणा चल रही थी,
मैं कान लगाए सुनने की कोशिश कर रहा था। कालकोठरी में बंद कोई इसके अलावा और कर भी क्या सकता है।
लेकिन मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था।
एक बार फिर से शोर उभरा, पहले से भी कहीं तेज़... मुखर।
मेरे क़यास की पतंग अभी उड़ी ही थी कि अचानक मेरी कोठरी का दरवाज़ा खुला।
एक अनुभवी स्वर उभरा,
‘मिल गया मिल गया, बादशाह का बदल मिल गया। सौंपो गद्दी इसे।’
मुझे कालकोठरी से निकाला गया, पूरी इज़्ज़त से शानदार सिंहासन पर बिठाया गया।
युद्ध फिर से शुरू हुआ... मेरे नेतृत्व में।
किसी और के भाग बदले या नहीं बदले, मुझे नहीं पता। लेकिन मेरे ज़रूर बदल गए।
ताश का जोकर जो हूँ।

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ढोल

मैं इस आलीशान कोठी में पौधों की कटाई-छटाई कर रहा हूँ। जितनी सुंदर कोठी है उससे भी कहीं सुंदर इसकी मालकिन है। मैं उसकी सुंदरता देखकर दंग रह गया हूँ। उम्र पचास के आसपास ही होगी, शरीर छरहरा, जैसे छेनी से तराशी कोई मूर्ति। दो-तीन बार मेरे पास से गुज़री तो लगा जैसे मोगरे के फूलों से लदी सैकड़ों डालियाँ की महक मेरे अंदर तक उतर गई हो। लॉन के साथ वाले कमरे के अंदर से उसके हँसने की धीमी-धीमी आवाज़ मुझ तक पहुँच रही है, हँसी भी ऐसी, जैसे दूर कहीं चाँदी की घंटियाँ मद्धम स्वर में खनक रही हों। मालिक भी अंदर ही है, लेकिन मैंने सिर्फ़ उसकी आवाज़ ही सुनी है, अभी तक शक्ल नहीं देखी। जबसे मैं यहाँ आया हूँ वे पति-पत्नी अधिकांश समय एक साथ और एक ही कमरे खिलखिलाकर हँसते हुए ही मिले। और एक मेरी बीवी है, तीस की भी नहीं हुई, लेकिन हमेशा हल्दी सने हाथ, कपड़ों से आटे की गंध, उलझे हुए बाल, ब्याई से फटी एड़ियाँ... उफ़्फ़! कभी चूल्हे के आगे तो कभी गैया का गोबर सँभालती हुई। छूने की कोशिश करता हूँ तो एक ही जवाब, ‘क्या करते हो? अम्मा ओसारे में बैठी है, बापू बाहर घूम रहा है।’ ये अमीर औरतें पता नहीं क्या खाती हैं, न बुढ़ापा न मोटापा।।इसका पति कितना भाग्यशाली है, बार-बार मेरे मन में यही ख़याल आता है। मैं पौधों की निराई-गुड़ाई कर तो रहा हूँ, लेकिन अंदर से आ रही अस्पष्ट आवाज़ें बार-बार मेरा ध्यान भटका रही हैं। मैं जान न चाहता हूँ कि ये बड़े लोग आख़िर अकेले में बातें क्या करते है, मगर कुछ भी सुन नहीं पा रहा हूँ।
दरवाज़ा एकदम खुल गया है, वे दोनों बाहर आ गए हैं और मुझसे थोड़ी ही दूर खड़े हैं। मुझे लगा कि दोनों मुझे अजीब-सी नज़र से देख रहे हैं मैं सकपका-सा गया हूँ, कहीं इन्होने मेरी चोरी तो नहीं पकड़ ली है... नहीं! क्योंकि वे दोनों निर्लिप्त भाव से कोठी के गेट की तरफ़ चल पड़े हैं।
‘अब ये आठ से लेकर बाईस तक दुबारा टूर पर जाएँगे... तब मिलेंगे, ओके?” मालकिन ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा, लेकिन मैं सब कुछ सुन पा रहा हूँ। “हे भगवान!” मैं कानों को हाथ लगाता हूँ। मैं जैसे गहरी नींद से जागा हूँ। अचानक सच का आदमक़द आईना मेरे सामने आ खड़ा हुआ है, अब मैं सब कुछ साफ़-साफ़ देख पा रहा हूँ। गेट से लौट रही कोठी की मालकिन ने मुझे पैसे पकड़ाए तो मैंने ध्यान से उसकी ओर देखा। गाढ़ा ख़िज़ाब भी कनपटी के बालों की सफ़ेदी छुपा नहीं पा रहा है। मैंने देखा कि एकाएक छुपी हुई झुर्रियाँ उजागर हो गई हैं। उसके माथे की लाल बिंदी काले टीके में बदल गई हैं। सहसा मेरी पत्नी का मुस्कराता हुआ निर्मल-सा चेहरा मेरी आँखों के आगे घूमने लगा है, मैं उससे नज़रें नहीं मिला पा रहा हूँ।
“धिक्कार है!” मेरे अंदर से बहुत भारी-सी लानत निकलती है, आधी अपने लिए और आधी उस निर्लज्ज महिला के लिए।
“हुँह! कहाँ मेरी पत्नी, एकदम सिया सुकुमारी... और कहाँ ये नकटी शूर्पणखा।” बड़बड़ाते हुए मैं कोठी से बाहर आ गया हूँ।
मेरी बरसों पुराना साइकिल अब हवा से बातें कर रही है। मैं जल्दी से अपने घर पहुँच जाना चाहता हूँ, अपनी नेक और शरीफ़ पत्नी के पास।

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रचनाकार परिचय

योगराज प्रभाकर

ईमेल : yrprabhakar@gmail.com

निवास : पटियाला(पंजाब)

जन्म तिथि- 18 नवम्बर, 1961
जन्म स्थान- पटियाला (पंजाब)
मौलिक पुस्तकें- 1 (लघुकथा सँग्रह)
संपादित पुस्तकें- 2
अनुदित पुस्तकें-13
संपादित पत्रिका-'लघुकथा कलश' (11 विशेषांक)
पुनः प्रकाशन- 6 से अधिक
संप्रति- प्रतिष्ठित निजी कम्पनी के उच्चाधिकारी पद से सेवा निवृत्त प्रकाशन एवम् संपादन,स्वतंत्र लेखन।
संबद्धता- प्रधान संपादक, ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
संस्थापक एवं सम्पादक- 'लघुकथा कलश'
सम्पर्क- 53- 'उषा विला' , रॉयल एनक्लेव एक्सटेंशन, डीलवाल, पटियाला-147002 (पंजाब)
मोबाईल- 98725-68228