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इक्कीसवीं सदी की ग़ज़लें और भारतीय आदर्श- डॉ० सीमा विजयवर्गीय

इक्कीसवीं सदी की ग़ज़लें और भारतीय आदर्श- डॉ० सीमा विजयवर्गीय

वेदों से लेकर आज तक की परंपरा बहुत समृद्धशाली है, आदर्शमयी है, अनुकरणीय है, वसुधैव कुटुम्बकम का पाठ पढ़ाने वाली है, ख़ुद जीओ-जीने दो के आदर्श पर चलने वाली है, जो आज भी पूर्णतः सामयिक है। इतनी उदारमयी संस्कृति के पुरोधाओं को शत-शत नमन करते हैं। चूँकि साहित्य समाज का दर्पण है इसलिए शायरी में भी भारतीय संस्कृति, भारतीय आदर्शों का बहुत ख़ूबसूरती के साथ प्रयोग हुआ है।

सदियों पुरानी हमारी भारतीय संस्कृति के लिए सच ही कहा गया है कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। भारतीय संस्कृति जितनी प्राचीन संस्कृति है, उतनी ही परिष्कृत भी है। वक़्त के साथ छन-छन कर सार-सार इकट्ठा कर इतनी मूल्यवान बन गई है, जिसका कोई सानी नहीं। राम, कृष्ण, गौतम, नानक महावीर, सूर, तुलसी, मीरा, कबीर आदि सभी भारतीय संस्कृति के आदर्श हैं, जो सभी पूजनीय हैं, मार्गदर्शक हैं, प्रेरक हैं, जिनके पदचिह्नों पर चलकर जीवन को सरल, सुगम, सार्थक बनाया जा सकता है। हम तो बहुत भाग्यशाली हैं, जो भारत जैसे देश में जन्म लिया, जहाँ की समृद्ध विरासत हमारे साथ है। वेदों से लेकर आज तक की परंपरा बहुत समृद्धशाली है, आदर्शमयी है, अनुकरणीय है, वसुधैव कुटुम्बकम का पाठ पढ़ाने वाली है, ख़ुद जीओ-जीने दो के आदर्श पर चलने वाली है, जो आज भी पूर्णतः सामयिक है। इतनी उदारमयी संस्कृति के पुरोधाओं को शत-शत नमन करते हैं। चूँकि साहित्य समाज का दर्पण है इसलिए शायरी में भी भारतीय संस्कृति, भारतीय आदर्शों का बहुत ख़ूबसूरती के साथ प्रयोग हुआ है। भारतीय आदर्शों में अगाध आस्था रखने वाले इस सदी के महान शायर डॉ० कृष्णकुमार नाज़ साहब कहते हैं-

रामचरितमानस, रामायण, भगवतगीता वेद-पुराण
अभिनन्दन उन पुरखों का जो ये जागीरें छोड़ गए

वहीं भारतीय संस्कृति, सनातन संस्कृति के प्रति अपनी प्रणम्य चेतना की अभिव्यक्ति करते हुए मान्यवर रमेश कंवल साहब कहते हैं-

सनातन धर्म की जब हो चतुर्दिक जय भला इससे
कहाँ होंगे कभी बढ़कर बताएँ आप अच्छे दिन

वहीं भारतीय संस्कृति के संवाहक शरद तैलंग साहब कहते हैं-

वो सबकी प्रार्थनाओं पर हमेशा ध्यान देता है
ज़माना नाम उसको इसलिए भगवान देता है

राम हमारे आदर्श हैं, हमारे प्रणम्य हैं, हमारी संस्कृति के आधार स्तम्भ हैं, जैसा कि अपने शेर के माध्यम से कृष्ण कुमार 'बेदिल' साहब कहते हैं-

राम बस नारा नहीं हैं, राम तो आदर्श हैं
आस्था, विश्वास, मर्यादाओं के प्रतिमान हैं

युग-पुरुष हैं, धर्म का अस्तित्व भी है राम से
राम हैं आदर्श, भारतवर्ष की पहचान है

कृष्ण कुमार 'बेदिल' साहब स्वयं भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति हैं तभी उनके शेरों में असीम गहराई है। भारतीय संस्कृति भारतीय आदर्शों के प्रति गहन श्रद्धा है। तभी वे सुंदरतम शेर कह पाए हैं, यथा-

सृष्टि में हैं, भाव में हैं भक्ति में श्री राम हैं
सद्गुणों में कर्म में हैं युक्ति में श्री राम हैं
______________

तीर्थ में भी राम, चारों धाम भी हैं राममय
मोक्ष में, गंगा में हैं, और मुक्ति में श्री राम है

वहीं मधु मधुमन जी कहती हैं-

है राम नाम में कोई ऐसा कमाल जो
पत्थर भी उसका नाम ले के पार हो गए

संजीव प्रभाकर जी श्रीराम के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहते हैं-

पधारे हैं अयोध्या में सियावर राम रघुनन्दन
पतितपावन प्रजावत्सल तुम्हारा कोटिशः वंदन

वहीं भारतीय संस्कृति का अनुगमन करते हुए डॉ० सीमा विजयवर्गीय कहती हैं-

जाने कितनी सदियों का ये मंथन है
मानस का तो हर आखर भव मोचन है
_____________

राम के आदर्श गहरे तब समझ पाएँगे हम
छोड़कर महलों के सपने जब चलें वनवास को

राम त्रेतायुग से लेकर कलयुग में आज भी अनुकरणीय हैं, पूजनीय हैं जबकि आसुरी प्रवित्तियाँ किसी भी युग में स्वीकार नहीं हुईं। आज भी आसुरी प्रवित्तियों या रावणी प्रवित्तियों के प्रति अश्रद्धा के भाव ही देखने को मिलते हैं। यही है हमारी भारतीय संस्कृति, यही हैं हमारे आदर्श। संजय जैन साहब कहते हैं-

सिया की सुध समुंदर पार से हनुमान लाए थे
वही रावण की लंका में लगाकर आग लाए थे

ओम प्रकाश 'यती' साहब सत्य का पक्ष लेते हुए कितना सुंदर शेर कहते हैं-

छूट जाता है पसीना राक्षसों को भी
नेक मक़सद लेके जब वानर निकलते हैं

डॉ० सीमा विजयवर्गीय कहती हैं-

रावण राज मिटा देंगे हम जय रघुनन्दन
सारा गगन झुका देंगे हम जय रघुनन्दन
____________

घर की इज़्ज़त पर जो आँच अगर आई तो
लंका को भी जला देंगे हम जय रघुनन्दन

राम ही हमारे आदर्श नहीं अपितु हनुमान, जामवंत सभी हमारे आदर्श हैं। जैसा कि संजीव प्रभाकर जी इस शेर में कहते हैं-

अंजनिनन्दन, पवनसुत, वीरवर हनुमान जी
आप सबमें, आप में सब चर अचर, हनुमान जी

वहीं सीमा विजयवर्गीय कहती हैं-

जामवंत हनुमान सरीखे सहचर बनकर
सच का साथ निभा देंगे हम जय रघुनन्दन

हमारे आदर्श ही विपत्ति में हमारा सहारा बनकर हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं-

घर-घर में श्री राम अरे फिर डर काहे का
बनेंगे बिगड़े काम अरे फिर डर काहे का
_____________

चलता चल अपनी राहों पर तू दृढ़ होकर
लेकर प्रभु का नाम अरे फिर डर काहे का

वहीं डॉ० आरती कुमारी जी अपनी भावाभिव्यक्ति कुछ इस तरह से करती हैं-

राम कोई अब न भागेगा हिरन के पीछे-पीछे
है छलावा रूप का विन्यास हम सब जानते हैं

राम के साथ सभी सत्पात्र राममय हो गए हैं। क्या शबरी, क्या अहिल्या, क्या केवट हर पात्र में पुरुषोत्तम राम के प्रति गहरी आस्था है। जैसा कि डॉ० आरती कुमारी कहती हैं-

एक भक्तिन ने कई वर्षों तलक है राह देखी
सब्र का मीठा था वो अहसास हम सब जानते हैं

वहीं मधु मधुमन जी कहती हैं-

बहुत ज़ायका है अक़ीदत के फल का
कभी बेर शबरी के खाकर तो देखो
____________

चखा हो स्वाद जिसने इक दफ़ा शबरी के बेरों का
उसे फिर और कोई ज़ायका अच्छा नहीं लगता

वहीं सीमा विजयवर्गीय कहती हैं-

वो खिलाती रही राम को प्यार से
झूठे बेरों में बस प्रेम ही प्रेम है

संजय जैन साहब अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति कुछ इस तरह से करते हैं-

मैं तो श्रापित अहिल्या-सी थी एक दिन
तुम जो आए तो सीता-सी मैं हो गई

पर जब-जब सीताजी का प्रश्न उठेगा तब-तब नारी मन ऐसे ही आहत होकर कह उठेगा जैसा कि डॉ० भावना अपने इस शेर में कहती हैं-

सीता की धरती है जाने कलुषित क्यों
मर्यादा का बंधन किसने तोड़ा है

वहीं तूलिका सेठ जी कहती हैं-

संसार को ये कौनसा इतिहास दे गया
सीता को उसका राम ही वनवास दे गया

वहीं कविता किरण जी समसामयिक चेतना को अतीत से जोड़ते हुए कहती हैं कि-

मेरी क़िस्मत में लिक्खी हैं कई अग्नि परीक्षाएँ
मैं सीता हूँ यहाँ हर युग में ही वनवास है मुझको

वहीं ममता किरण जी कहती है-

धरती की गोद में समा जाएगी अभी
कब राम जान पाए कि क्या है सिया का रुख

पर सच तो यही है कि राम बनना सहज नहीं है। राम पुरुषोत्तम ऐसे नहीं बन गए अपितु उनका पूरा जीवन संघर्ष की एक विकट कहानी है। देवेंद्र माझी साहब के शब्दों में-

राम बनकर आने वाले याद रखना
कैकेयी है वक़्त की वनवास देगी

वहीं डॉ० सीमा विजयवर्गीय के ये शेर कुछ बिंदुओं पर प्रश्न उठाकर उनका वर्तमान परिस्थितियों में समाधान भी खोजते हैं-

उर्मिला के त्रास पर इक प्रश्न तो मेरा भी है
रुठते मधुमास पर इक प्रश्न तो मेरा भी है
____________

चूक किससे हो गई ये वक़्त बोलेगा मगर
राम के वनवास पर इक प्रश्न तो मेरा भी है
____________

क्यों रही बनकर अहिल्या इक शिला सदियों तलक
आज उस विश्वास पर इक प्रश्न तो मेरा भी है

होनी को तो कौन टाल सकता है पर ऐसा लगता है कि यदि अतीत कुछ निर्णय यदि ऐसे नहीं वैसे लेता तो इतिहास कुछ और ही होता पर वर्तमान सन्दर्भ में उनसे सबक लिया जा सकता है। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना रखने वाले मान्यवर गोविंद गुलशन साहब लिखते हैं-

प्रेम का हो संचरण चारों तरफ
प्रार्थना की है ये मैंने राम से

राजनीति में तो क्या-क्या नहीं होता! राजनीति के दुश्चक्रों में तो घर, परिवार, समाज तक स्वाहा हो जाते हैं। डॉ० आरती कुमारी कहती हैं-

ताज पाने के लिए क्या-क्या नहीं होता यहाँ पर
क्यों मिला था राम को वनवास हम सब जानते हैं

त्रेता से लेकर आज तक अहिल्या शापित ही रही है। जैसा कि डॉ० भावना कहती हैं-

उधर बुत है बनी बैठी अहिल्या
इधर कुछ राम की भी व्यस्तता है

पर जैसे-जैसे वक़्त की परतें गहराती जा रही हैं, हमारी आस्थाएँ और भी प्रबल होती जा रही है। राम के साथ-साथ कृष्ण भी हमारे प्रमुख आदर्श हैं। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'साहित्य, कला, संगीत में मैं हूँ, सृष्टि के कण-कण में मैं हूँ।' इस तरह कृष्ण हमारे तन में, मन में, कला में, संगीत में, कण-कण में समाए हैं। हमारे जीवन में समाए हैं, प्रेम में समाए हैं, राधा-मीरा-बाँसुरी में समाए हैं।

डॉ० कृष्णकुमार 'नाज़' अपने शेर के माध्यम से कहते हैं-

मनमोहन के जादू ने कुछ ऐसा रंग जमाया 'नाज़'
मीरा ने सबकुछ ठुकराकर विष का प्याला चूम लिया

वहीं सीमा विजयवर्गीय आदर्श कर्मप्रधान जीवन को स्थापित करने वाली श्रीमद्भागवतगीता के प्रति अनन्त आस्था व्यक्त करते हुए कहती हैं-

गीता को मत समझो केवल इक पुस्तक
इसमें तो पूरा ही जीवन दर्शन है

वहीं अजय 'अज्ञात' साहब कहते हैं-

गीता में श्री कृष्ण ने दिया पार्थ को ज्ञान
तन तो केवलमात्र है रूहों का परिधान

डॉ० सीमा विजयवर्गीय हमारी संस्कृति के प्रेममय आदर्शों पर अपनी असीम आस्था व्यक्त करते हुए कहती हैं-

प्रेम रूहानी है जो बंधा एक विश्वास की डोर से
कृष्ण-राधा ने जो भी जिया वो खज़ाना है बिल्कुल अलग

जब तक साहित्यकार आदर्शों को अपने व्यावहारिक जीवन में नहीं जीते, तब तक उनके प्रति शब्दों में श्रद्धा का भाव आ ही नहीं सकता। औदात्य की अभिव्यक्ति उदार साहित्यकार ही कर सकते हैं। डॉ० कृष्ण कुमार 'नाज़' साहब कृष्ण के दो अलग-अलग रूपों की कितनी सुंदर व्याख्या करते हैं-

गीतेश्वर का रूप अलग है, गोपेश्वर का रूप अलग
इक रौशन किरदार से जुड़कर, जगमग हैं अफसाने दो

वहीं अतीत को वर्तमान से जोड़ती हुई डॉ० सीमा विजयवर्गीय कहती हैं-

बस उसी पहली नज़र को याद रखना श्याम तुम
और फिर गोकुल में आकर तुम चले जाना नहीं

डॉ० भावना भी प्रतीकों के माध्यम से कहती हैं-

है ये द्वापर नहीं फिर भी क्यों अब तलक
द्रोपदी लग रही दाँव पर आज भी

बुराई तो बुराई है उसका पक्ष लेना भी बुराई है। ओम प्रकाश 'यती' साहब कितनी ख़ूबसूरती से अतीत की एक ग़लती पर लक्ष्य करते हुए कहते हैं-

जुआ खेला था तो ख़ुद झेलते दुश्वारियाँ उनकी
भला उसके लिए क्यों द्रोपदी ख़तरे में पड़ती है

वहीं डॉ० सीमा विजयवर्गीय कहती हैं-

वंश सारा मिट गया जिसकी बदौलत पांडवो!
द्रोपदी के हास पर इक प्रश्न तो मेरा भी है

वहीं स्वर्णिम अतीत को वर्तमान से जोड़ती हुई तूलिका सेठ जी भी कहती हैं-

ख़ुशनुमा आज पनघट नहीं है
पायलों की भी आहट नहीं है

डॉ० सीमा विजयवर्गीय अपनी विचाराभिव्यक्ति कुछ इस तरह करती हैं-

क्यों तड़पती रह गईं ताउम्र सारी गोपियाँ
साँवरे के रास पर इक प्रश्न तो मेरा भी है

जब वक़्त बुरा होता है तो कोई भी अपना नज़र नहीं आता। अपने भी पराए हो जाते हैं। ओम प्रकाश 'यती' साहब कहते हैं-

था तो भाई ही मगर जब जान पर बन आई तो
कंस कैसा पेश आया द्रोपदी के सामने

वहीं आज के युग में भी जब नारी चारों तरफ से असहाय महसूस करती है तब इस तरह के शेर हो जाते हैं। डॉ० सीमा विजयवर्गीय के शब्दों में-

सुनो घनश्याम अबलाएँ तुम्हें फिर-फिर बुलाती हैं
दुशासन पड़ गया भारी मेरे गणतंत्र भारत में
_____________

नयन से खोल कर पट्टी तलाशेगी दिशाएँ ख़ुद
न चुप बैठेगी गांधारी मेरे गणतंत्र भारत में

डॉ० भावना कहती हैं-

बांध लूँ पट्टी नयन पर मैं न देखूँ पाप सब
गांधारी मैं हो जाऊं आपको दिक्कत है क्या

डॉ० सीमा विजयवर्गीय वर्तमान को कुछ इस तरह अभिव्यक्त करती हैं-

गीता पर तुम हाथ रखोगे पहले तो
फिर सच से इनकार करोगे सब मालूम

वहीं डॉ० भावना कहती हैं-

रख अदालत में हाथ गीता पर
फिर से झूठा बयान हे ईश्वर!

जब इन्हीं आदशों की अच्छाइयों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है तब डॉ० सीमा विजयवर्गीय कहती हैं-

राम की, कृष्ण की, बुद्ध की जायसी और रसखान की
देख पाए न अच्छाई तो फिर कमी ही गिना दीजिए

वे आगे कहती हैं-

भौतिकता में ऐसे डूबे धर्म नियम ही भूल गए सब
वेद पुराणों गीता वाला मेरा हिंदुस्तान कहाँ हैं

डॉ० मासूम ग़ाज़ियाबादी आज की ज्वलंत समस्याओं को अतीत से जोड़कर कुछ इस तरह अभिव्यक्त करते हैं-

पैदा तो कर दिए कुंतियों ने करन
उनके हिस्से में तौहीन किसने लिक्खी
____________

माँओं ने अपने दामन बचा तो लिए
अपने बच्चों की लेकिन हँसी छीन ली

भारतीय संस्कृति का मूल तत्व प्रेम शाश्वत है। अतीत को वर्तमान से जोड़ते हुए डॉ० सीमा विजयवर्गीय कहती हैं-

है जहाँ दुष्यंत तो फिर कण्व तनया भी वहाँ
पर उसे इक दिन भुलाकर तुम चले जाना नहीं
______________

है अभी भी वक़्त पहले सोच लो अच्छी तरह
पर मुझे अपना बनाकर तुम चले जाना नहीं

अरविंद 'असर' साहब वर्तमान भौतिकवाद पर करारा प्रहार करते हुए कहते हैं-

अपनी परम्परा तो तथागत के कुल की है
सपने दिखा रहे हो किसे राजपाट के

वहीं बुद्ध विषयक एक प्रश्न डॉ० सीमा विजयवर्गीय भी उठाती हैं-

गोद में राहुल लिए ममता रही चुप ही मगर
बुद्ध के संन्यास पर इक प्रश्न तो मेरा भी है

डॉ० सीमा विजयवर्गीय द्रोणाचार्य को लक्ष्य करके आगे कहती हैं-

एक पल में ही अँगूठा ले लिया क्यों शिष्य से
द्रोणगुरु की आस पर इक प्रश्न तो मेरा भी है

वहीं ओमप्रकाश 'यती' साहब आज की शिक्षण व्यवस्था में शिष्य गुरु के प्रति कितने समर्पित हैं इस बात पर व्यंग्य प्रतीकों के माध्यम से करते हुए कहते हैं-

न आशा द्रोण को है एकलव्यों से अंगूठे की
अगर माँगे भी तो क्या शिष्य ऐसी दक्षिणा देंगे

भौतिकता की चकाचोंध में हम अपने आदर्श विस्मृत करते जा रहे हैं पर इसका खामियाजा हमें इतना भुगतना पड़ेगा। जिसकी भरपाई करना सम्भव न हो पाएगा। आज के हालात को बयाँ करते हुए अरविंद 'असर' साहब एक शेर के माध्यम से कहना चाहते हैं-

कोई भी शख्स सुनने को तैयार ही नहीं
नानक, कबीर, बुद्ध की बानी का क्या करें

हमारी संस्कृति पाश्चात्य संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित होती जा रही है। हमारे जीवन मूल्य आदर्श पीछे छोड़ते जा रहे हैं। निरुपमा चतुर्वेदी जी इस दर्द को उकेरती हुई कहती हैं-

जोड़ती थी जो हमें अपनी जड़ों से
वो कड़ी अब दूर होती जा रही है

वहीं डॉ० सीमा विजयवर्गीय का ये शेर उम्मीद की किरण जगाता है, जैसा कि वे कहती हैं-

ख़ून हत्या साज़िशों से हैं घिरी चारों दिशाएँ
पर इसी परिवेश में मैं बुद्ध होना चाहती हूँ

पर सच तो यही है हमारे भारतीय आदर्श शाश्वत हैं, कालजयी-कालातीत हैं। सदियों से चलते आ रहें हैं और सदियों तक चलते रहेंगे। वक़्त की आँधी समय-समय पर प्रभावित अवश्य करेगी पर न कमज़ोर कर सकती है, न मिटा ही सकती है। हमारी संस्कृति अजर, अमर, अमिट रहेगी।

डॉ० कृष्णकुमार 'नाज़' साहब के शब्दों में-

ये वो धरती है जहाँ बात की ख़ातिर ऐ नाज़!
बिक गए ख़ुद भी हरिश्चंद्र से दानी अक्सर

एक बार पुनः कहना पड़ेगा कि साहित्य समाज का दर्पण है। अतः साहित्य की एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है गिरती दीवारों को संभालना। ऐसे चुनौतिपूर्ण कार्य में इस तरह के आलेख बहुत सहायक सिद्द होंगे और इसी उम्मीद के साथ अंत में डॉ० सीमा विजयवर्गीय अपनी सम्पूर्ण आस्था के फूल दिल में समेटकर और भारतीय परिवेश, भारतीय संस्कृति, भारतीय आदर्शों पर श्रद्धा के भाव अभिव्यक्त करते हुए यही कहती हैं-

आओ वेदों की ऋचाओं से चलें साकेत तक
भारती की इन मिसालों को नमन, शत-शत नमन

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रचनाकार परिचय

सीमा विजयवर्गीय

ईमेल : seemavijay000@gimail.com

निवास : अलवर (राजस्थान)

जन्मतिथि- 3 नवम्बर
जन्मस्थान- अलवर( राजस्थान)
लेखन विधाएँ- गीत, ग़ज़ल, दोहा, गद्य आदि
शिक्षा- एम० ए०, बी० एड एवं पी-एच डी
सम्प्रति- हिंदी व्याख्याता
प्रकाशन- चार ग़ज़ल संग्रह 'ले चल अब उस पर कबीरा', 'रज़ा भी उसी की', 'तेरी ख़ुशबू मेरे अंदर' एवं 'बुद्ध होना चाहती हूँ' प्रकाशित
प्रसारण- दूरदर्शन एवं रेडियो पर ग़ज़लों का प्रसारण
पता- 2/84, स्कीम- 10 बी, अलवर (राजस्थान)
मोबाइल- 7073713013