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समकालीन हिंदी काव्य में बेरोज़गारी का चित्रण- डाॅ० अलका शुक्ला

समकालीन हिंदी काव्य में बेरोज़गारी का चित्रण- डाॅ० अलका शुक्ला

समकालीन कवियों ने बेरोज़गारी के कारण अभावग्रस्त जीवन का भी मार्मिक वर्णन किया है। आधी रोटी के लिए लड़ते बच्चे, ख़ाली कनस्तर, उदास चूल्हा, दोस्त की कमर, जो वक्त के पहले ही झुक गई है, रोजगार कार्यालय में युवाओं की लम्बी लाइन, एक वेकेन्सी के लिए अर्जियाँ लिये एक हज़ार नौजवान, एक सवारी को ले जाने के लिए बीस रिक्शे वाले गिड़गिड़ाते हुए, छँटनी के बाद, 'इंकलाब ज़िंदाबाद' के नारे लगाते फैक्ट्री के बाहर एकत्र लोग, नौकरी की आस में चालीस वर्षीय कुंवारे और कुंवारियों आदि संवेदनाओं को समकालीन रचनाकारों ने बड़ी गम्भीरता से उठाया है।

देश की बढ़ती आबादी और सीमित संसाधनों के कारण बेरोज़गारी का होना स्वाभाविक है। आज बेरोज़गारी केवल विकासशील देशों की समस्या ही नहीं है वरन विकसित देश भी इस समस्या से जूझ रहे हैं। हमारे देश में बेरोज़गारी कई प्रकार की है। शिक्षित बेरोज़गारी, अशिक्षित बेरोज़गारी, पूर्णकालिक बेरोज़गारी, आंशिक बेरोज़गारी, मौसमी बेरोज़गारी आदि। आबादी बढ़ने के कारण परम्परागत कृषि और व्यवसाय अब अपर्याप्त सिद्ध हो रहे हैं। खेत बँटते-बँटते आजीविका लायक नहीं रह गए हैं। व्यवसाय में कड़ी प्रतिस्पर्धा के कारण भारी भरकम पूँजीवाले व्यवसायी ही सफल हो पा रहे हैं। उद्योग धन्धों का भी यही हाल है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों तथा बड़े-बड़े पूंजीपतियों की स्पर्धा में लघु और कुटीर उद्योगों की हालत ख़राब है। पढ़े-लिखे नौजवान सरकारी नौकरियाँ (व्हाइट कॉलर जाॅब) चाहते हैं, जो अत्यन्त सीमित हैं अस्तु सबके लिए सम्भव नहीं हैं। फलतः पढ़े-लिखे नौजवानों की लम्बी फौज बेकार घूम रही है।
युवाओं को सर्वाधिक निराशा तब होती है, जब उन्हें यह महसूस होता है कि सब प्रकार से सामर्थ्यवान होने के बावजूद उन्हें कहीं कोई काम नहीं मिल पा रहा है। राष्ट्र निर्माण में वे कोई योगदान नहीं कर पा रहे हैं। कम्प्यूटरीकृत व्यवस्था ने रोज़गार के अवसर अत्यन्त सीमित कर दिए हैं। फैक्ट्रियों, कारखानों में हज़ारों व्यक्तियों का कार्य एक मशीन कर देती है, जो भारत जैसे विशाल श्रमशक्ति वाले देश के लिए घातक ही है। महात्मा गाँधी ने इसीलिए भारत जैसे देश में मशीनीकरण का विरोध किया था।

सरकारी, अर्धसरकारी क्षेत्रों में वर्षों से कहीं कोई रिक्ति नहीं निकाली जा रही है। जो निकल रही हैं, वे भी अत्यल्प। नई नियुक्तियों पर पूर्णतः रोक लगी हुई है। सभी कार्यालयों में कम्प्यूटर लग जाने से पुराने कर्मचारियों की छँटनी की जा रही है तथा वी०आर०एस० जैसी योजनाएँ लागू कर उन्हें हटाया जा रहा है। अनेक सार्वजनिक उद्यमों के बंद हो जाने से हज़ारों श्रमिक और कर्मचारी सड़कों पर आ गए हैं, उनके सामने रोज़ी-रोटी का गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया है तथा उनके परिवारों के सामने भुखमरी की स्थिति आ गई है। इन समस्त परिस्थितियों को समकालीन रचनाकारों ने बड़ी संवेदना के साथ अभिव्यक्त किया है। धूमिल के शब्दों में-

वे मेरे देश के हम उम्र नौजवान
जिनकी आँखों में रोज़गार दफ्तर की
नौनछहीं ईटों का अक्स झिलमिला रहा है
वे मेरे दोस्त-
किस तेज़ी से तोड़ना चाहते हैं भाषा का भ्रम
लेकिन रेल का डिब्बा टूट रहा है।1

डाॅ० राकेश शुक्ल की एक कविता का नायक प्यार करने में भी हिचक रहा है। वह बेरोज़गारी को इसके लिए बाधक समझता है क्योंकि वह जानता है कि प्यार का अन्तिम लक्ष्य विवाह है और आज की लड़कियाँ भी उन युवाओं से ही प्यार करती हैं, जिनके पास ख़ूब पैसे हैं-

तुम कहतीं हम करें प्यार
क्या किया कभी तुमने विचार?
नहीं जब धंधा या रोज़गार
टिकेगा कैसे बिन आधार
एक जोड़ी कपड़ों पर ख़ाली जेबें
एम०ए० की डिग्री दिखलाता हर बार
निराशा बार-बार2

आज के युवा रचनाकारों ने बेरोज़गारी की स्थिति का सजीव वर्णन किया है। नौकरियों के लिए बड़ी-बड़ी सिफ़ारिशें, रिश्वत और भाई-भतीजावाद आज सबसे बड़ी योग्यता है। बहुत-सी नौकरियाँ नीलाम होती हैं, उनके लिए बोली लगने लगती है और सर्वाधिक पैसा देने वालों को मिल जाती हैं। लीलाधर जगूड़ी लिखते हैं-

नौकरी के लिए पढ़कर
सिफ़ारिश से कुर्सी पर चढ़ कर
इस दरमियान मैंने जाना कि
जनतंत्र में बिल्कुल नया ज़माना है
और नागरिकता पर सबसे बड़ा रन्दा थाना है3

बेरोज़गारी के कारण युवा पीढ़ी भटकाव की शिकार है। वह कुण्ठित और हताश जीवन जीने को विवश है। इसलिए वे अपनी ज़िम्मेदारियों से मुँह मोड़कर कल्पनाजीवी बन रहे हैं। सार्थक बहसों को छोड़कर फिल्म, क्रिकेट, राजनीति आदि पर बहसें हो रही हैं तथा क्लब, पार्टी आदि में दो-चार पैग लेकर वे अपने गम को भुलाना चाहते हैं। धूमिल के ही शब्दों में-

नौजवान अपनी ज़िम्मेदारियाँ
रोज़गार दफ्तरों को सौंपकर
चूहों की नस्लों पर बहस करते हैं4

इन युवाओं को एक ओर भौतिक उन्नति की चकाचौंध आकर्षित करती है तो दूसरी ओर 'नो वेकेन्सी' के साइन बोर्ड अंगूठा दिखाते हुए, चिढ़ाते हुए-से प्रतीत होते हैं। राजीव की कुछ पंक्तियाँ हैं-

रंगे हुए हैं 'नो वेकेन्सी' के साइन बोर्ड
न्योनलाइन शाॅपिंग विन्डो की
झलमलाती हुई चकाचौंध बुलाती है इशारों से
आँखों में झाँककर हँस देती है अंगूठा दिखाकर5

बेरोज़गार युवक को समाज में सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। घर-परिवार में भी उसकी उपेक्षा होती है। पुलिस विभाग भी जब-तब उसे आशंका की दृष्टि से देखता है। कुल-मिलाकर उसकी स्थिति दयनीय होती है। विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों में-

वे जब महसूस नहीं कर पाते
कि पैर में दर्द
फटी चप्पल की कील का है या बेकारी का
या शाम को घर लौटकर बाप और माँ को
चेहरा दिखाने के खौफ का
वे इसी खौफ का छाता
अपने ऊपर तान लेते हैं6

समकालीन कवियों ने केवल नगरों एवं महानगरों में रहने वाले बेरोज़गारों का चित्रण ही नहीं किया है, उन्होंने ग्रामीण बेरोज़गारी का भी बहुत संवेदना के साथ अंकन किया है। गाँवों में बढ़ते परिवार और बँटते खेतों के कारण अब केवल कृषि ही आजीविका का साधन नहीं रह गई है। ग्रामीण युवाओं की पूर्ण बेरोज़गारी, आंशिक बेरोज़गारी या मौसमी बेरोज़गारी पर भी समकालीन कवियों ने ख़ूब लेखनी चलाई है।

रमेश रंजक ने ग्रामीण परिवेश की बेरोज़गारी का चित्रण बड़ी संवेदना के साथ किया है। नौकरी से छँटनी के बाद युवक के परिवार में किस तरह सावन-भादों की स्थिति बन जाती है।

जा घर में बहिना, सावन आइ गयौ
छटनी में चटनी को टोटो जाखन छाई गयौ
महतारी की आँख घटा-सी बरसै सारी रात
बाबुल की अँखियाँ बिजुरी-सी प्रानन कूं डरपात
जा घर में बहिना, सावन आइ गयौ7

भारत में बेरोज़गारी का एक प्रमुख कारण जनसंख्या विस्फोट के साथ ही साथ लघु एवं कुटीर उद्योगों का हृास भी है। वैज्ञानिक उन्नति एवं औद्योगीकरण के फलस्वरूप सारे विश्व में परम्परागत कुटीर उद्योग, लघु उद्योग एवं हस्तशिल्प का हृास हुआ है। कम आबादी वाले देशों में मशीनीकरण का फ़ायदा हुआ किन्तु भारत जैसे विशाल श्रम शक्ति वाले देश में मशीनीकरण के चलते भारी बेरोज़गारी का सामना करना पड़ रहा है। आज़ादी के बाद तेज़ी से हुए औद्योगीकरण ने लघु एवं कुटीर उद्योगों को क्षति पहुँचाई। बाद में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगमन तथा बड़े-बड़े पूंजीपतियों द्वारा मनुष्य के दैनिक उपयोग में आने वाली सामग्री के निर्माण में कूद पड़ने के कारण लघु एवं कुटीर उद्योगों की कमर ही टूट गई। दैनिक उपभोग की वस्तुएँ, पिसा नमक, अचार, पापड़, चिप्स, पीने का पानी आदि जो पहले गृह उद्योगों में तैयार होकर बिकती थीं, अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों अथवा बड़े पूंजीपति प्रतिष्ठानों द्वारा निर्मित होकर बिकती हैं। आकर्षक विज्ञापनों के द्वारा इन वस्तुओं पर पूंजीपति प्रतिष्ठानों ने एकाधिकार कर रखा है। इस प्रकार इन प्रतिष्ठानों ने जहाँ एक ओर अधिकांश युवाओं से रोज़गार छीनने का कार्य किया है, वहीं दूसरी ओर यदि इन्हें अपने यहाँ रोज़गार दिया भी है तो भी उनका बहुत अधिक आर्थिक शोषण हो रहा है। डाॅ० राकेश शुक्ल की एक कविता 'गृह उद्योग' की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

मेरा गृह उद्योग
घर की रोटी चलाने में असमर्थ रहा
अब मैं तुम्हारी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में
कार्य करने को मज़बूर हूँ
हे पूंजीपतियो!
मेरा शोषण करने की कृपा करें8

समकालीन कवियों ने बेरोज़गारी के कारण अभावग्रस्त जीवन का भी मार्मिक वर्णन किया है। आधी रोटी के लिए लड़ते बच्चे, ख़ाली कनस्तर, उदास चूल्हा, दोस्त की कमर, जो वक्त के पहले ही झुक गई है, रोजगार कार्यालय में युवाओं की लम्बी लाइन, एक वेकेन्सी के लिए अर्जियाँ लिये एक हज़ार नौजवान, एक सवारी को ले जाने के लिए बीस रिक्शे वाले गिड़गिड़ाते हुए, छँटनी के बाद, 'इंकलाब ज़िंदाबाद' के नारे लगाते फैक्ट्री के बाहर एकत्र लोग, नौकरी की आस में चालीस वर्षीय कुंवारे और कुंवारियों आदि संवेदनाओं को समकालीन रचनाकारों ने बड़ी गम्भीरता से उठाया है। इतना ही नहीं बेरोज़गारी के कारण आत्महत्या जैसी विभीषिका भी इस देश में अक्सर घटित होती रहती है, जिस पर कवियों ने लेखनी चलाई है।
डाॅ० उर्मिलेश के शब्दों में-

डिग्रियाँ फिर अर्ज़ियाँ फिर गोलियाँ सल्फास की
इस तरह कितने ही सपने गुम यहाँ पर हो गये9

 

 

 

संदर्भ-
1. संसद से सड़क तक : धूमिल, पृ०- 102
2. जलता रहे दिया : डाॅ० राकेश शुक्ल, पृ०- 47
3. नाटक जारी है : लीलाधर जगूड़ी, पृ०- 48
4. संसद से सड़क तक : धूमिल, पृ०- 102
5. आत्मनिर्वासन तथा अन्य कविताएँ : राजीव, पृ०- 87
6. जैसा कह सका : विश्वनाथ त्रिपाठी, पृ०- 46
7. इतिहास दुबारा लिखो : रमेश रंजक, पृ०- 56
8. गृह उद्योग (कविता) : डाॅ० राकेश शुक्ल
9. धुँआ चीरते हुए : डाॅ० उर्मिलेश, पृ०- 33

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रचनाकार परिचय

अलका शुक्ला

ईमेल : sbuklaalka496@gmail.com

निवास : कानपुर (उत्तरप्रदेश)

जन्मतिथि- 01 दिसंबर, 1973
शिक्षा- एम०ए०, पीएच डी०
सम्प्रति- प्राचार्य, मयंक शेखर महाविद्यालय, कानपुर देहात (उत्तरप्रदेश)
लेखन विधाएँ- शोध आलेख एवं समीक्षा
प्रकाशन- समकालीन हिंदी काव्य में सामाजिक जीवन (समीक्षा पुस्तक) प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा एवं आलेख प्रकाशित।
सम्मान- 'दिव्या' संस्था का सम्मान, 2006
निवास- 117/254, पी-ब्लॉक, हितकारी नगर, काकादेव, कानपुर (उत्तरप्रदेश)- 208025
मोबाइल- 6393343043