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कुछ आत्मपरक, कुछ विचारपरक- कुबेर कुमावत

कुछ आत्मपरक, कुछ विचारपरक- कुबेर कुमावत

इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति या वस्तु अतिविशिष्ट या सर्वश्रेष्ठ नहीं है। न कोई धर्म, जाति, वर्ग या समुदाय। इस दुनिया को प्रतिक्षण सर्वोत्तम बनाने में सहायक सभी चीज़ें श्रेष्ठ हैं। कीट-पतंगे भी। आप स्वयं यह देखें कि सूर्य, चंद्र, अन्य ग्रह, तारे, वायु, जल, अग्नि, आकाश और धरती में परस्पर कोई संघर्ष नहीं है। वास्तव में श्रेष्ठता का अहं एवं वर्चस्व की उदंड कामना ही इस संसार की वास्तविक समस्याएँ हैं और मनुष्य इसके केंद्र में है।


23 जून, 2019
जो व्यक्ति मुर्ख है, उसकी प्रायः प्रशंसा करनी चाहिए और जो व्यक्ति ज्ञानी एवं विवेकी है, उसकी आलोचना करनी चाहिए। दोनों ऐसी स्थिति में कभी भी आपको हानि नहीं पहुँचाएँगे और संभवतः मित्र भी बन जाएँगे। अंततः फिर भी मुर्ख से अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है।

28 जून, 2019
मुझे सबसे अधिक भय और धोखा चापलूसों से महसूस होता है। चापलूस इंसानों के वर्ग की एक ऐसी जमात है, जो ऊपर-ऊपर से तो बहुत प्रामाणिक, विनम्र और सरल प्रतीत होती है पर अंदर ही अंदर काफ़ी दोगली, अविश्वसनीय, धोखेबाज़ और अवसरवादी होती है। ये लोग अपने जीवन में जो कुछ भी साध्य करते हैं, वह अपने श्रम या योग्यता के बल पर नहीं बल्कि चापलूसी के बल पर साध्य करते हैं। जिससे इन्हें अपना काम निकालना होता है, उसका जूता चाटने में भी आगे-पीछे नहीं देखते। स्वार्थपूर्ति ही इनकी अंतिम साधना होती हैं। ये लोग सच्चे, प्रामाणिक, स्वाभिमानी और निःस्वार्थी लोगों के निकट तो आते हैं पर आंतरिक रूप से उनसे घृणा करते हैं। अपने स्वार्थपूर्ति के लिए ये लोग अपना समय, धन और चरित्र तीनों को दाँव पर लगाते हैं। दूसरों का उपयोग करना इनके बाएँ हाथ का खेल होता हैं। ये सज्जनों से निकटता में भी एक दूरी बनाकर रखते हैं और इसका अनुमान कतई होने नहीं देते। चापलूस अत्यंत चतुर होते हैं। ग़लती होने या पकड़े जाने पर तुरंत माफ़ी माँग लेते हैं। अपमानित होने का इन्हें बुरा नहीं लगता पर प्रतिशोध लेने में भी ये बड़े माहिर होते हैं।

30 दिसंबर, 2019
सुबह का समय। मैं नींद में था और बेतहाशा कहीं भाग रहा था। इसलिए कि मेरे पीछे कुछ सांप, केंचुए, नेवले, मक्खियाँ, लोमड़ियाँ जैसे जीव दौड़ रहे थे। क्या मैं इतना कमज़ोर और विवश हो गया था? कोई अपना, कोई मित्र नहीं था मेरे साथ! मैं कितनी मामूली-सी ज़िंदगी जी रहा थ। मुझे कुछ तो होशियार होना चाहिए था। मुझे अपनी असल ज़िंदगी को सपने की तरह समझ लेना चाहए था।

16 फ़रवरी, 2020
जिस देश के लोगों को कविता की समझ नहीं है और जो ऑनलाइन पदार्थ और वस्तुएँ ख़रीदने में व्यस्त हैं, वह दुनिया का सबसे जाहिल और गंवार देश है। भले ही वह आई०टी० का बादशाह हो।

8 अप्रैल, 2020
जो व्यक्ति लोभी, स्वार्थी, कायर और अवसरवादी होता है, उसका न कोई धर्म होता है और न कोई विचारधारा। भले ही उसका जन्म किसी धर्म में हुआ और वह किसी भी राजनीतिक पार्टी से संबद्ध हो।
किसी व्यक्ति के योग्य होते हुए उसके जीवन की उत्तम संभावनाओं को ख़त्म करना और किसी व्यक्ति के योग्य होते हुए भी उसके लिए विशेष संभावनाओं का निर्माण करना, दोनों कार्य समाज के विनाश के प्रमुख कारण हैं और घोर अपराध हैं।
कोई भी स्त्री, जिसका आप प्रेम पाना चाहते हो और वह आपके इस प्रेम का अस्वीकार करे और आपके गुण, कुल और पुरुषार्थ का नित्य अनादर और अपमान करे तब वीर एवं स्वाभिमानी पुरुषों को ऐसी स्त्री का तुरंत त्याग करना चाहिए। समय पड़े तो उसे दंडित भी करना चाहिए।

14 अप्रैल, 2020
मैंने अभी-अभी देखा कि आरक्षित कोटे में तीस लाख की घूस देकर एक अमीर दलित एक ग़रीब दलित की रोटी छीन रहा है।

17 अप्रैल, 2020
क़ानून एक शस्र है। अन्यायियों, कुकर्मियों, दुष्टों, अपराधियों को दंड देने के लिए लेकिन है तो एक शस्र ही। प्रयोगकर्ता के विवेक पर उसका भविष्य निर्भर है।
नीले पर्वतों की गोद में: ताजिक लेखकों की कहानियों की एक उम्दा किताब। रादुगा प्रकाशन, ताशकंद से हिंदी में अनूदित एवं 1987 में प्रकाशित। लगभग 20 वर्ष पूर्व पुणे के आप्पा बलवंत चौक के किसी फुटपाथ से ख़रीदी गयी इस पुस्तक में संकलित कहानियों ने आज मुझे जकड़ ही लिया। कहानियों के अनुवादक हैं- सुधीर कुमार माथुर और देवेंद्र किशोर जोशी। अनुवाद अत्यंत स्तरीय और श्रेष्ठ है कि लगता नहीं कि कहानियाँ अनुदित हैं। सदरुद्दीन एनी की ‘बुखारा के रास्ते पर’ यह संस्मरण, हाजी सादिक़ की ‘हरफ़नमौला’, पुलात तालीस की ‘सबसे बड़ा सुख’, बहराम फ़िरोज़ की ‘कड़वा सच’, बालता आर्तिकोव की ‘पत्थर के आँसू’, सारबान की ‘चिड़ीमार’, रहीम जलील की ‘संगमरमर की लड़की’, आदि शानदार, रोचक एवं पठनीय कहानियाँ हैं। ’संगमरमर की लड़की’ कहानी का यह अंश देखें- “बुरहान को बचपन से ही अपने पिता के व्यवसाय से प्यार था, उसके पिता मिट्टी के बर्तन बनाते थे पर वह अन्यान्य लोगों की तरह साधारण कारागीर नहीं थे। आस-पास के लोग उन्हें जादुई हाथों का मालिक कहकर पुकारा करते थे। अपने कार्य के लिए मिट्टी वह उसी टोकरी से लेते थे, जहाँ से अन्य कारागीर लेते थे पर उसे भिगोने और मिश्रित करने का उनका अपना विशिष्ट तरिक़ा था, जो औरों के लिए एक रहस्य ही था। लगता था कि प्रकृति ने उनकी लंबी और पतली उँगलियों को विशेष रूप से इसी काम के लिए तैयार किया था।" वे स्वयं भी कहा करते थे कि मेरी उंगलियाँ मिट्टी को नहीं छूतीं तो बराबर बेचैन-सी दुखती रहती हैं। ग़ज़ब की शब्दयोजना और शैली है इन कहानियों की। जीवन के अत्यंत छोटे एवं मामूली प्रसंगों में प्राण भर दिए हैं।

25 अप्रैल, 2020
तम्बाकू, सिगरेट, कीटकनाशकों से कैंसर। शराब और अस्वच्छ जल से किडनी, पेट के रोग, हृदयरोग, सड़क दुर्घटनाओं और अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं, आतंकवादी घटनाओं से लाखों लोग इस देश में अकाल मरते हैं। मुझे किसी ने कहा था कि ऐसे दुर्भाग्यशाली लोग हमारी कुल जनसंख्या के केवल एक प्रतिशत होते हैं। यह कोई नहीं बता सकता कि आप इस एक प्रतिशत में हैं या नहीं? उनका मानना था कि वे इस एक प्रतिशत में नहीं आएँगे। यह एक प्रतिशत भी बड़ा ख़तरनाक आँकड़ा है, ऐसा मुझे लगता है। इससे मुझे प्रतीत हुआ कि हम दूसरों की अपेक्षा अपने स्वयं का कितना भला चाहते हैं नहीं? हमारा सारा समाज ही ऐसी सोच रखता है।

7 जून, 2020
देश के अनेक विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में अध्ययन-अध्यापन का स्तर डिस्टेंस एजुकेशन जैसा है। केवल 15 से 20% छात्र उपस्थिति होती है। प्रबंधन एवं प्रशासन से निकट संबंध बनाए रख, अनेक अध्यापक एक तो पढ़ाते नहीं हैं या अंतिम डेढ़-दो महीनों में छात्रों को प्रश्नोत्तर लिखकर देते हैं। रिसर्च के नाम पर अध्यापन के कार्य से बचते रहते हैं और निष्ठा से अध्यापन का काम करने वाले अध्यापकों को तंग करते है। आश्चर्य तो मुझे तब हो रहा है, जब यही लोग भविष्य में अध्यापन की स्थिति पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं। समाज भी जो चिंता कर रहा है कि अब कैसे पढ़ाया जाएगा जबकि उसे यह ठीक तरह से मालूम है कि कोरोना से पूर्व कैसे पढ़ाया जाता था? समस्या सिर्फ परीक्षा लेने की और अंकपत्रों को प्रदान करने की मात्र बची है। इसका भी यदि कोई अंदर का रास्ता (महाराष्ट्र में इसे आजकल तोडगा कहा जाता है यानी जुगाड़) निकाल लिया जाए तो कोरोना की ऐसी क्या तैसी। सबकुछ सरलता से प्राप्त करने की आदत लग चुकी है लोगों को यहाँ। बहाना बनाकर लोग श्रम करने से बचना चाहते हैं। वास्तविक काम करनेवाला व्यक्ति दरिद्र होता जा रहा है। चतुराई से धन, प्रतिष्ठा एवं सहूलतें प्राप्त करने का असुरी संस्कार लोगों पर हो रहा है।

2 जुलाई, 2020
लगभग 20 वर्ष तक हिंदी भाषा एवं साहित्य का कॉलेज में अध्यापन करने के बाद यदि अब मेरे मन में यह विचार आता है कि मैं इस क्षेत्र में संतुष्ट या प्रसन्न नहीं हो पाया हूँ। यद्यपि अच्छे वेतन के कारण मैंने आर्थिक उन्नति तो की। अच्छा घर भी बनाया। अच्छा जीवनमान एवं अकादमिक प्रगति भी की। यह भी बता दूँ कि मैं प्रोफेसरी में पूर्ण योग्यता धारण करने के बाद ही आया। मैंने अभी-अभी यह जाना कि इस पेशे में बिना योग्यता या छद्म योग्यता के कैसे प्रवेश होता है या कराया जाता है। यदि सन 2000 में यू०जी०सी० के क़ानून मेरे पक्ष में नहीं होते और नेट/सेट की गरिमा आज के जैसी नष्ट हो चुकी होती तो मैं कभी प्रोफेसर नहीं बनता। इस क्षेत्र में यद्यपि मेरी कोई पहुँच नहीं थी और न ही किसी से घरेलू या गाढ़े व्यावसायिक संबंध। मैंने शिक्षा क्षेत्र के किसी रसूख़दार आदमी की कभी चापलूसी नहीं की और न ही किसी का पिछलग्गू बना। परंतु मैं प्रोफेसर बनकर रहा। इस सफलता में कुछ अच्छे लोग भी मेरे प्रत्यक्ष सहायक बने और कुछ खुलकर साथ नहीं दे पाए। परंतु मैं उनका सबका ऋणी हूँ और रहूँगा। इनमें से दो लोग मेरी स्मृति में हमेशा बने रहेंगे। वह एक जटिलताओं, विवशताओं एवं वंचनाओं से भरा समय था। मुझे याद है सन 1999 के फरवरी माह का वह दिन, जब मेरे गाँव के एक सज्जन अध्यापक मित्र मेरी माँ को प्रातः यह समाचार देने घर पहुँचे कि मैं सेट परीक्षा पास हो चूका हूँ और अख़बार में मेरा नाम छपा है। तब यह परीक्षा पास होना बड़ा ही गौरवपूर्ण माना जाता था। पता नहीं इस परीक्षा को किसकी कुदृष्टि लग गयी कि पिछले कई वर्षों में इस परीक्षा के गरिमामय ढांचे को तोड़ने-फोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। अच्छा, मैं यह नहीं मानता कि यह परीक्षा विद्वत्ता की कोई गारंटी देती है परंतु मुझमें श्रेष्ठताभाव का कभी प्रवेश नहीं हुआ। इसके पास होने से फ़ायदा केवल इतना होता था कि बाज़ार में नक़ली चीज़ों से कॉम्पिटीशन की संभावना ख़त्म हो जाती थी। अब यह सब ख़त्म हो चुका है। जब इस पेशे में प्रोमोशनों की बारी आयी तो फिर से मेरा मुक़ाबला कुछ ऐसी शक्तियों से हुआ, जिनसे मैं निपट सकता था। कैसे-कैसे शोधपत्र, शोध-जर्नल, शोधकर्ता और शोध की दुनिया के माफ़िया आदि को देखकर तो कुछ समय के लिए मैं सन्नाटे में आ गया लेकिन मैंने संयम नहीं खोया। ऐसी कई जगहों पर मैं छपने से बचा तो केवल अपनी सावधानी से। काडी करने वाले भी कम नहीं थे और अति महत्वाकांक्षी भी। मैंने यह भी देखा और समझा कि दिशाहीन तेज़ दौड़ने से सही दिशा में धीरे-धीरे बढ़ना ज़्यादा बेहतर है। इसी सामान्य जीवनशैली में मैं अपने आपको रखना अधिक उचित समझता हूँ। फिर भी यह प्रश्न जीवित रहता है कि मेरे अप्रसन्नता का कारण क्या है? मैं इस निर्णय पर क्यों पहुँच रहा हूँ कि मेरे पुत्र या पुत्री ने इस पेशे में नहीं आना चाहिए। इसका कारण मुझे यह लगता है कि इस पेशे में वास्तविक ज्ञान की न पढ़नेवाले को ज़रूरत है और न पढ़ाने का प्रबंध करनेवाले को। लगता है इस पवित्र पेशे को कुछ अशैक्षिक तत्वों द्वारा हाइजैक कर लिया गया है। व्यापार के नीति-नियमों एवं व्यावहारिक सफलता के सिद्धान्तों के ताने-बाने में इस क्षेत्र को प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक जकड़ दिया गया है। कोरोना की इन चिंताजनक स्थितियों में शिक्षा का माध्यम ऑनलाइन कराकर इसका समाधान खोज लेना जहाँ आश्चर्यजनक है, वहीं संदेहजनक भी। मैंने देखा कि वे यह पूछ रहे हैं कि सी-फ़ूड क्या है पर वे हमारे मासूम बच्चों को ऑनलाइन कैसे सिखाएंगे कि मछली जल की रानी है? मैं बच्चों के वर्तमान और भविष्य को लेकर भी चिंतित हूँ। क्या भाषा का कोई भविष्य ही नहीं है?

18 जुलाई, 2020
इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति या वस्तु अतिविशिष्ट या सर्वश्रेष्ठ नहीं है। न कोई धर्म, जाति, वर्ग या समुदाय। इस दुनिया को प्रतिक्षण सर्वोत्तम बनाने में सहायक सभी चीज़ें श्रेष्ठ हैं। कीट-पतंगे भी। आप स्वयं यह देखें कि सूर्य, चंद्र, अन्य ग्रह, तारे, वायु, जल, अग्नि, आकाश और धरती में परस्पर कोई संघर्ष नहीं है। वास्तव में श्रेष्ठता का अहं एवं वर्चस्व की उदंड कामना ही इस संसार की वास्तविक समस्याएँ हैं और मनुष्य इसके केंद्र में है। शेर जंगल का राजा है, यह भी मनुष्य की ही कल्पना है, शेर की नहीं। शेर तो केवल अपनी आवश्यकताओं तक ही एवं स्वभाववश ही क्रूर एवं हिंसक है। उसमें मांस के संग्रह की अभिलाषा नहीं है। मांस शेर की संपत्ति नहीं है और न ही जंगल उसका राज्य। परंतु मानव समूह में संपत्ति की एक सुव्यवस्थित परिभाषा निश्चित की गयी हैं। मानव समुदाय में मूल्यों एवं नैतिकताओं की भी एक प्राचीन व्यवस्था एवं कल्पना की गयी है, जो जंगल मे नहीं है फिर भी जंगल उतना क्रूर या अनैतिक नहीं है, जितनी कि हमारी बस्तियाँ, गांव, शहर, महानगर आदि। हमारी बनायी हुई संस्थाएँ भी दोगली हैं जबकि जंगल मे दोगलापन नहीं है। क्या ऐसा हो सकता है कि नैतिक-अनैतिक, न्याय-अन्याय, हिंसा-अहिंसा के द्वंद्व से परे भी दुनिया की वर्चस्वहीन, प्रतियोगिताहीन, शांतिपूर्ण एवं परस्पर सहयोग से युक्त दुनिया की छवि को साकार करना संभव हो?

22 जुलाई, 2022
हमारा जीवन छोटे-छोटे क्षणों से बना है। हम अपने जीवन के अधिकांश क्षणों को अनुभव तो कर ही नहीं पाते और न स्मृति में बनाकर रख सकते हैं। इस कैमरे का मनुष्य जाति पर बड़ा उपकार है कि वह हमारी मुस्कराहटों एवं आनंद-उल्लास के क्षणों को कितनी आत्मीयता एवं सच्चाई से सहेजकर रखता है। हम तो अपनी मुस्कराहटों को भी कब का भूल चुके होते हैं। वह याद कराता रहता है। यही सुंदर मुस्कराहटें हमारा वास्तविक जीवन है। चलिए हम अपने वर्तमान और भविष्य को भी इसी तरह सुंदर बनाएँ। क्षण कभी मरते नहीं हैं। वे सिर्फ बीत जाते हैं और उन्हीं के साथ हम भी। हमारा यह हँसता-खिलखिलाता जीवन ही हमारा धन है। यदि हम इस तरह हँसना भूल चुके हैं तो समझ लीजिए हम ख़त्म हो चुके हैं।

1 अगस्त, 2022
नयी शिक्षा नीति
भारत सरकार ने अभी-अभी देश के लिए नई शिक्षा नीति की घोषणा की। इस नई शिक्षा नीति की घोषणा से देश में अभूतपूर्व उत्साह का वातावरण है। यह उत्साह विशेषकर इसलिए है कि नई शिक्षा नीति में कक्षा पाँच तक शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय या मातृभाषा को बनाने का सुनिश्चित किया गया है, जो अत्यंत महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य क़दम है। इस संबंध में अभी तक असमंजस की स्थिति है। कुछ लोगों का कहना है कि मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षा का माध्यम ऐच्छिक है। अभी इस नीति का स्पष्ट एवं मानक चित्र सामने नहीं आया है। यद्यपि इस नई नीति के ड्राफ्ट अब सोशल मीडिया पर उपलब्ध हो गये हैं। जनता के उत्साह को देखकर एक बात तो स्पष्ट है कि देश की अस्सी प्रतिशत प्रजा मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा का स्वागत करती है। अतः इस विषय में उत्पन्न भ्रमों एवं संदेहों को तुरंत दूर किया जाना चाहिए।

दूसरा प्रश्न यह है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेजी भाषा का जो एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो चुका है, क्या उसे ध्वस्त किया जा सकता है? यद्यपि यह साम्राज्य दिखावटीपन से भरा है। अंगेजी भाषा के विषय में इस देश के लोगों में इस भ्रांत अवधारणा को विकसित किया गया कि अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान की भाषा है परंतु अब यह भाषा ज्ञान-विज्ञान तक सीमित न रहकर हमारी परंपराओं एवं संस्कृति को भी नष्ट करने में लगी हुई है या बहुत कुछ हानि करने में सफल भी हुई है। ऐसी स्थिति में इस नई शिक्षा नीति को आने में काफी विलंब हो चुका है, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है। ड्राफ्ट को पढ़ने से लगता है कि इसमें बहुत-सी बातें स्पष्ट नहीं हैं और इनमें से से अनेक छुपी राहें निकल सकती हैं। यह एक आदर्श शिक्षा नीति तो प्रतीत होती है पर देश निजी अंग्रेजी स्कूलों का जो आतंक है, उसे कैसे ख़त्म किया जा सकता है? मैं स्वयं अपने बचपन से शिक्षा जगत को अनुभव कर रहा हूँ एवं वर्तमान में हिंदी भाषा के प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हूँ। मेरी प्राथमिक शिक्षा मराठी स्कूल में हुई। माध्यमिक शिक्षा न्यू इंग्लिश स्कूल में और उच्च माध्यमिक में विज्ञान की पढ़ाई मैंने की। मेरे समय में निजी अंग्रेजी स्कूल नहीं थे। यदि होते तो मुझे अपने पिछड़ेपन पर निश्चित ही ग्लानि होती। मैं अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ने-पढ़ाने से सहमत नहीं हूँ। मेरे शहर के सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्कूल के प्रबंधक मुझसे अच्छी तरह परिचित हैं। उन्होंने मुझे एक बार गर्व से कहा था कि वे स्वयं ज़िला परिषद की मराठी स्कूल से पढ़े हैं। मराठी विद्यालयों से पढ़े अनेक छात्र आज अपने जीवन में सफल हैं तो फिर अंग्रेजी का यह मोहजाल क्यों?

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रचनाकार परिचय

कुबेर कुमावत

ईमेल : kuberkumawat72@gmail.com

निवास : अमलनेर (महाराष्ट्र)

निवास- प्लॉट नं०- 38,1762/3, केले नगर, ढेकू रोड, अमलनेर ज़िला- जलगाँव (महाराष्ट्र)- 425401
मोबाइल- 9823660903