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डॉ० उपमा शर्मा की पाँच ग़ज़लें

डॉ० उपमा शर्मा की पाँच ग़ज़लें

पेशे से दंत चिकित्सक डॉ० उपमा शर्मा उर्दू ग़ज़ल के कारवां को आगे बढ़ाता एक नया नाम है। इनकी ग़ज़लगोई का परंपरागत लबो-लहजा आकर्षित करता है। प्रेम के विभिन्न रूप और दर्शन की उपस्थिति इनकी ग़ज़लों के मूल तत्व हैं। यहाँ प्रस्तुत हैं इनकी पाँच चुनिंदा ग़ज़लें।

ग़ज़ल- एक

मैं अपने आपको अक्सर तलाश करती हूँ
जो मुझमें है उसे बाहर तलाश करती हूँ

कभी-कभी तो यूँ महसूस होता है मुझको
कि मैं नदी हूँ, समुंदर तलाश करती हूँ

ये एक दौड़ न जाने कहाँ ले जाए मुझे
मैं एक दुनिया ही बेहतर तलाश करती हूँ

गले लगा ले जो सबको, जो दे ख़ुशी सबको
मैं मंदिरों में वो पत्थर तलाश करती हूँ

मैं हो गई हूँ मुकम्मल ज़रा नहीं हूँ कम
ये ख़्वाब है जिसे शब भर तलाश करती हूँ

जिसे पहन के वो दुनिया में सर उठा के चलें
मैं औरतों का वो ज़ेवर तलाश करती हूँ

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ग़ज़ल- दो

गुज़िश्ता वक़्त भी जीना मुहाल करता है
हर एक बात पे सौ-सौ सवाल करता है

तुम्हारे शहर में हम भी कहीं पे रहते हैं
बहुत उदास हमे ये ख़याल करता है

हमेशा काफ़िला लगती है हमको तनहाई
नज़र में चेहरा तेरा यूँ कमाल करता है

ये मशविरा है कि बातों में इसकी आएँ नहीं
ये इश्क़ लोगों का जीना मुहाल करता है

मैं लाजवाब-सी होकर उसी को तकती हूँ
वो शख़्स आँखों से ऐसे सवाल करता है

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ग़ज़ल- तीन

तुम्हारी यादों के किस्से बरस गये होंगे
हमारे इश्क़ की बस्ती में बस गये होंगे

बड़ी इमारतें सूरज को खा गयी होंगी
हमारी धूप के टुकड़े झुलस गये होंगे

फिर आएँगे वो परिंदों के जैसे अब के बरस
तमाम लम्हे जो पिछले बरस गये होंगे

मुझ ऐसी शख़्स को आख़िर सुकून क्यों नहीं है
तुम्हारी यादों के साए ही डस गये होंगे

कुछ एक पल तो गुज़ारो तुम इनके साथ कभी
हमारी गज़लों के मिसरे तरस गये होंगे

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ग़ज़ल- चार

ज़िंदगी छोटी रहे, लम्बी रहे, जितनी रहे
लेकिन इतना हो कि वो औरों के काम आती रहे

अपने रिश्ते में बस इतनी-सी ही आज़ादी रहे
मैं मेरे जैसी रहूँ तू भी तेरे जैसा रहे

है मुझे वक़्त की उस बूँद की चाहत जिसमें
मैं तुझे सुनती रहूँ और तू मुझे कहता रहे

एक और एक से जुड़कर भी जवाब इक आये
मेरी और उसकी ये गिनती भी बस इतनी ही रहे

ज़िंदगी का यही मक़सद है कि जीते जी मेरे
सर भी ऊँचा रहे, गर्दन भी मेरी सीधी रहे

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ग़ज़ल- पाँच

आँखों के सूखते पानी को समझती हूँ मैं
आजकल बाग़ के माली को समझती हूँ मैं

मेरी गज़लों को पढ़ोगे तो समझ जाओगे
झुलसे पेड़ों की उदासी को समझती हूँ मैं

मुझसे कुछ भी तुम्हें कहने की ज़रूरत क्या है
इश्क़ रातों की ख़ुमारी को समझती हूँ मैं

मुझ अकिंचन का कभी साथ नहीं छोड़ेगा
अपने उस कुंज बिहारी को समझती हूँ मैं

मेरे अल्फाज़ न कह पाएँ मुझे मुमकिन है
अपनी ख़ामोश बयानी को समझती हूँ मैं

उसने क़ासिद से कहा कुछ भी नहीं है लेकिन
पीले पत्तों की निशानी को समझती हूँ मैं

जाने क्या बात थी ख़ुद को न समझ पाई थी
वैसे हर एक कहानी को समझती हूँ मैं

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रचनाकार परिचय

उपमा शर्मा

ईमेल : dr.upma0509@gmail.com

निवास : दिल्ली

जन्मतिथि- 5 सितंबर, 1979
जन्मस्थान- रामपुर(उत्तर प्रदेश)
शिक्षा- बी० डी० एस०
संप्रति- दंत चिकित्सक
प्रकाशन- लघुकथा संग्रह 'कैक्टस' (प्रभात प्रकाशन, 2023) एवं उपन्यास 'अनहद' (शुभदा प्रकाशन, 2023)
हंस, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, कथाक्रम, कथाबिम्ब, कथादेश, साहित्य अमृत, हरिगंधा, साक्षात्कार, पुरवाई, कथा समवेत, प्रेरणा अंशु, अविलोम, लोकमत, अमर उजाला, प्रभात ख़बर, हरीगंधा, साक्षात्कार जैसी पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर रचनाओं का प्रकाशन
प्रसारण- आकाशवाणी दिल्ली से समय-समय पर कविताएँ प्रसारित
सम्मान- 'सत्य की मशाल' द्वारा 'साहित्य शिरोमणि सम्मान', प्रेरणा अंशु अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में लघुकथा लेखन सम्मान, हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच, गुरुग्राम लघुकथा प्रतियोगिता में लघुकथा मणि सम्मान, कुसुमाकर दुबे लघुकथा प्रतियोगिता में लघुकथा सम्मान, श्री कमलचंद्र वर्मा स्मृति राष्ट्रीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में लघुकथा सम्मान, लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल के दिल्ली अधिवेशन में 'लघुकथा श्री सम्मान' एवं प्रतिलिपि सम्मान, पुस्तक 'कैक्टस' को श्री पारस दासोत स्मृति सम्मान
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