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रियासतकालीन जीवन के स्याह पक्षों को उजागर करता उपन्यास: गोली- के० पी० अनमोल

रियासतकालीन जीवन के स्याह पक्षों को उजागर करता उपन्यास: गोली- के० पी० अनमोल

गोली एक रोचक और मार्मिक उपन्यास है। संभवत: हिंदी में इस विषय पर लिखी गयी यह पहली पुस्तक हो। रियासतों के ये गोले अर्थात् दास हरम में रखी जाने वाली महिलाओं से उत्पन्न राजा अथवा राजपुरुष ही की संतानें होती थीं, जिन्हें वैधानिक अधिकार नहीं दिए जाते थे लेकिन राज-परिवार उनके लालन-पालन और आजीविका की व्यवस्था करता था। इन गोले-गोलियों पर स्वामित्व राज-परिवार का रहता था और राज-परिवार उन्हें जैसे चाहे, प्रयोग में ले सकता था।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री हिंदी कथा साहित्य का एक बड़ा नाम हैं। ये कथा-सम्राट प्रेमचंद के समय के रचनाकार हैं और पिछली सदी के छठवें दशक तक सक्रिय रहे हैं। इनकी ख्याति इनकी सुप्रसिद्ध रचना वैशाली की नगरवधु के कारण अधिक रही है, जिसके विषय में इन्होंने कहा भी है कि मेरे समस्त लेखन के समक्ष यह रचना मुझे सर्वाधिक प्रिय है। इनका अधिकतर लेखन ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर रहा है।

चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास गोली मुझे काफ़ी समय से आकर्षित कर रहा था। जब इसके विषय में मुझे जानकारी मिली कि यह 'गोली', बंदूक की गोली नहीं बल्कि ग़ुलामी वाली 'गोली' है, यानी दासी तब सहसा राजस्थान के पश्चिमी इलाक़े में इस शब्द के प्रयोग की स्मृतियाँ उभर आयीं। मारवाड़ क्षेत्र से होने के कारण उस तरफ प्रचलित इस शब्द अथवा प्रथा से पूर्व परिचय रहा है और तबसे इस पुस्तक को पढ़ने का चाव बढ़ गया।

आचार्य चतुरसेन पेशे से आयुष चिकित्सक रहे हैं। इनका बहुत सारा समय जयपुर में बीता है। पढ़ाई के दौरान और बाद में भी। प्रतिष्ठित चिकित्सक होने के कारण उनकी राजे-रजवाड़ों में भीतर तक आवाजाही थी। जहाँ उन्होंने रियासतों के अंदर के भेद बुज़ुर्गों और कामगारों से सुने-जाने हैं। यानी इस विषय पर उनका ज्ञान 'ऑथेंटिक' कहा जा सकता है। यह इनकी रचनाओं से जाहिर भी होता है। पिछले दिनों अपने शहर के बुक स्टॉल से यह पुस्तक हाथ लगी तो ले आया और कुछ दिन पहले पढ़कर समाप्त किया।

'गोली' उपन्यास विधा की पुस्तक है, जिसका रचना काल 1958 का है। यानी आचार्य जी के अंतिम समय में यह रचना लिखी गयी। वर्ष 1960 में उनका देहांत हुआ। यह पुस्तक प्रकाशन से पूर्व 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुई है। इसका कथानक राजस्थान के राजे-रजवाड़ों में दास एवं दासियों के जीवन की करुण कथाओं का चित्रण है। पुस्तक में 'चंपाकली' और 'किसुन' के माध्यम से रियासतकालीन दास-प्रथा का मार्मिकता से उद्घाटन किया गया है। साथ ही आज़ादी के बाद इस प्रथा के उन्मूलन के द्वारा लाखों लोगों को इस भयानक प्रथा से मुक्ति दिलाने के उपक्रम से भी जोड़ा गया है और अंत में इसका श्रेय लौह पुरुष सरदार पटेल को दिया गया है।

'गोली' एक रोचक और मार्मिक उपन्यास है। संभवत: हिंदी में इस विषय पर लिखी गयी यह पहली पुस्तक हो। रियासतों के ये गोले अर्थात् दास हरम में रखी जाने वाली महिलाओं से उत्पन्न राजा अथवा राजपुरुष ही की संतानें होती थीं, जिन्हें वैधानिक अधिकार नहीं दिए जाते थे लेकिन राज-परिवार उनके लालन-पालन और आजीविका की व्यवस्था करता था। इन गोले-गोलियों पर स्वामित्व राज-परिवार का रहता था और राज-परिवार उन्हें जैसे चाहे, प्रयोग में ले सकता था। इन्हें विशेषकर राजकुमार एवं राजकुमारियों की देखरेख और महल की पहरेदारी का काम सौंपा जाता था तथा विवाह के उपरांत इन्हें राजकुमारियों के साथ दहेज़ में दे दिया जाता था। इनके अपने किसी प्रकार के अधिकार नहीं होते थे और अधिकतर इनका जीवन लगभग नारकीय होता था।

इस उपन्यास की कथा की नायिका 'चंपाकली' है, जो राजा की अवैध संतान है। वह राजकुमारी की सम-वय है और उनके साथ ही बड़ी हुई है लेकिन उसे इस तरह पाला-पोसा गया है कि वह ख़ूब जानती है कि वह राजकुमारी की 'चाकर' है। उनका कोई आदेश नहीं टालना है और हमेशा उनका ख़याल रखना है। राजकुमारी की शादी के समय चंपा को भी साथ भेज दिया जाता है। चंपा की सुंदरता के कारण राजकुमारी के ही पति, महाराज उस पर मोहित हो जाते हैं और उसे अपनी पड़दायत बना लेते हैं। इधर राजकुमारी, जो अब मुख्य रानी है, अपने स्वाभिमान को लेकर राजा से अलग हो जाती हैं और अपना पूरा जीवन अपनी तरह से जीती हैं।

रियासतों में पड़दायत का भी अजीब चलन रहा है। राजा हरम की किसी भी महिला को सोने का ज़ेवर पहनाकर अपनी पड़दायत बना लेता था। एक प्रकार से वह राजा की अवैधानिक पत्नी होती थी, जिसे सब ऐशो-आराम उपलब्ध करवाए जाते थे। वे रानियों की भांति जीवन जीती थीं लेकिन तभी तक जब तक राजा का उनसे जी न भर जाता था। पड़दायतों से उत्पन्न राजा की संतानों के लालन-पालन के लिए उनका विवाह किसी विश्वस्त गोले (दास) से करवाया जाता था। जिसका काम अपनी पत्नी के बच्चों को पालना और उसकी सेवा करना होता था लेकिन उसे अपनी पत्नी के स्पर्श का अधिकार नहीं होता था। यह केवल राजा का अधिकार होता था। पड़दायत को राजा द्वारा छोड़ दिए जाने के बाद वे पति-पत्नी की तरह रह सकते थे और राजा की अनुकम्पा पर अपना जीवन बिता सकते थे।

इस कथा में 'किसुन' चंपा का पति है, जो राजा का विश्वस्त पात्र है। लेखक ने किसुन का पात्र इस तरह गढ़ा है कि कथा नायक न होते हुए भी वह नायक बनकर उभरता है। कथा में एक तरफ चंपा और किसुन की प्रेम कहानी भी चलती है, जिसका प्रेम दैहिक न होने के बावजूद बहुत गाढ़ा साबित होता है। किसुन जीवनभर एवं अंत समय तक चंपा के प्रति समर्पित और एकनिष्ठ रहता है तथा उसके व उसकी संतानों के लिए भयानक यातनाएँ सहते हुए अपना बलिदान कर देता है। वह अंत तक चंपा की संपत्ति को राजा व उसके लोगों को नहीं सौंपता। इसी संपत्ति के बल पर अंत में चंपा और उसके बच्चे दिल्ली में अच्छा जीवन बिताते हैं।

चंपा इक्कीस वर्ष तक राजा की चहेती रहती है और जीवन की हर सुख-सुविधा को भोगती है लेकिन अंत समय में वह भी रियासत की भयंकर यातनाएँ सहती हुई जीवन बिताती है। लेखक ने चंपा के पात्र को बहुत प्रभावी तरीक़े से गढ़ा है। वह दास और ग्रामीण जीवन से लेकर एक संभ्रांत महिला तक अपना सफ़र तय करती है, जो अंत में अपने बच्चों को उच्च पदों पर पहुँचाकर पुन: वैभवशाली जीवन जीती है। राजा के साथ रहते हुए वह अंग्रेज़ी सीख लेती है और कई बार यूरोप की यात्राएँ भी करती है। उसका मानसिक स्तर बहुत ऊँचा हो जाता है और वह रियासत के अनेक प्रतिष्ठित लोगों में अपनी बैठ बना लेती है।

रियासत के वैभव और यातनापूर्ण जीवन का अंकन करने में आचार्य पूरी तरह सफल रहे हैं। अच्छी प्रकार गूँथी हुई इस कथा के माध्यम से वे रियासतकालीन जीवन के स्याह पक्षों को पूरी मज़बूती से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। वे पक्ष, जिनका उसी पृष्ठभूमि से होने के कारण मैंने भी काफ़ी-कुछ देखा-सुना है। इन दो मुख्य पात्रों के अलावा अनेक महत्त्वपूर्ण पात्र इस कथानक को आगे बढ़ाते हैं। इनमें केसर (चंपा की देखरेख करने वाली), लालजी खवास, वासुदेव महाराज, बंदर राजा, डॉ० रोबर्ट, डॉ० नायडू, गंगाराम, नवयुवक राजा और केसरीसिंह कुछ ऐसे ही पात्र हैं।

पुस्तक अनेक छोटे-छोटे शीर्षकों में विभक्त है तथा रोचक घटनाओं से भरपूर हैं। एक भाग से दूसरे भाग तक जाने में ऐसी जिज्ञासाएँ उठायी गयीं हैं कि पाठक-मन निरंतर पढ़ने के लिए उत्सुक रहता है। संभवत: ऐसा इसके धारावाहिक रूप में प्रकाशित होने के कारण रहा हो। नायिका चंपा की आत्मपरक एवं वर्णनात्मक शैली में कथा चलती है लेकिन यह रचना घटनाप्रधान भी है। वर्णन में कुछ कसावट कम अनुभव होती है लेकिन यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि इसका लेखन काल छह दशक से अधिक पुराना है और उस समय लेखन अब जैसा विकसित नहीं हुआ था। इसकी भाषा लेखक की अन्य ऐतिहासिक पुस्तकों से अलग सामान्य भाषा है, जिसमें बीच-बीच में राजस्थान या राजस्थानी के प्रचलित शब्द रखे गये हैं। ये शब्द लेखक के उस क्षेत्र के ज्ञान पर अधिकार को दर्शाते हैं, कहीं रुकावट नहीं डालते। पुस्तक निश्चित रूप से पठनीय एवं रोचक है।

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रचनाकार परिचय

के० पी० अनमोल

ईमेल : kpanmol.rke15@gmail.com

निवास : रुड़की (उत्तराखण्ड)

जन्मतिथि- 19 सितम्बर
जन्मस्थान- साँचोर (राजस्थान)
शिक्षा- एम० ए० एवं यू०जी०सी० नेट (हिन्दी), डिप्लोमा इन वेब डिजाइनिंग
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, दोहा, गीत, कविता, समीक्षा एवं आलेख।
प्रकाशन- ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल' (2013), 'कुछ निशान काग़ज़ पर' (2019), 'जी भर बतियाने के बाद' (2022) एवं 'जैसे बहुत क़रीब' (2023) प्रकाशित।
ज्ञानप्रकाश विवेक (हिन्दी ग़ज़ल की नई चेतना), अनिरुद्ध सिन्हा (हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे), हरेराम समीप (हिन्दी ग़ज़लकार: एक अध्ययन (भाग-3), हिन्दी ग़ज़ल की पहचान एवं हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा), डॉ० भावना (कसौटियों पर कृतियाँ), डॉ० नितिन सेठी एवं राकेश कुमार आदि द्वारा ग़ज़ल-लेखन पर आलोचनात्मक लेख। अनेक शोध आलेखों में शेर उद्धृत।
ग़ज़ल पंच शतक, ग़ज़ल त्रयोदश, यह समय कुछ खल रहा है, इक्कीसवीं सदी की ग़ज़लें, 21वीं सदी के 21वें साल की बेह्तरीन ग़ज़लें, हिन्दी ग़ज़ल के इम्कान, 2020 की प्रतिनिधि ग़ज़लें, ग़ज़ल के फ़लक पर, नूर-ए-ग़ज़ल, दोहे के सौ रंग, ओ पिता, प्रेम तुम रहना, पश्चिमी राजस्थान की काव्यधारा आदि महत्वपूर्ण समवेत संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
कविता कोश, अनहद कोलकाता, समकालीन परिदृश्य, अनुभूति, आँच, हस्ताक्षर आदि ऑनलाइन साहित्यिक उपक्रमों पर रचनाएँ प्रकाशित।
चाँद अब हरा हो गया है (प्रेम कविता संग्रह) तथा इक उम्र मुकम्मल (ग़ज़ल संग्रह) एंड्राइड एप के रूप में गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध।
संपादन-
1. ‘हस्ताक्षर’ वेब पत्रिका के मार्च 2015 से फरवरी 2021 तक 68 अंकों का संपादन।
2. 'साहित्य रागिनी' वेब पत्रिका के 17 अंकों का संपादन।
3. त्रैमासिक पत्रिका ‘शब्द-सरिता’ (अलीगढ, उ.प्र.) के 3 अंकों का संपादन।
4. 'शैलसूत्र' त्रैमासिक पत्रिका के ग़ज़ल विशेषांक का संपादन।
5. ‘101 महिला ग़ज़लकार’, ‘समकालीन ग़ज़लकारों की बेह्तरीन ग़ज़लें’, 'ज़हीर क़ुरैशी की उर्दू ग़ज़लें', 'मीठी-सी तल्ख़ियाँ' (भाग-2 व 3), 'ख़्वाबों के रंग’ आदि पुस्तकों का संपादन।
6. 'समकालीन हिंदुस्तानी ग़ज़ल' एवं 'दोहों का दीवान' एंड्राइड एप का संपादन।
प्रसारण- दूरदर्शन राजस्थान तथा आकाशवाणी जोधपुर एवं बाड़मेर पर ग़ज़लों का प्रसारण।
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