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जयनंदन की कहानी 'हनकी बूढ़ी का कवच'

जयनंदन की कहानी 'हनकी बूढ़ी का कवच'

हनकी और उसके बेटे जतिन दयाल और विपिन दयाल पांडव की तरह महाभारत में कूद पड़े लेकिन उसके साथ न कोई कृष्ण था, न कोई घटोत्कच। दीनदयाल ने लोभ, लाभ, पद के प्रभाव और प्रपंच के सहारे अपने पूरे जातीय टोले को अपने पक्ष में कर लिया था।

हनकी बूढ़ी जब सोती थी तो पूरा गाँव सो जाता था। कोसने, धिक्कारने और गरियाने का कार्यक्रम उसके मुखारविन्द से अहर्निश चलने लगा था। उसके जेठ का जुल्मी और अत्याचारी बेटा दीनदयाल उसके निशाने पर आ गया था।

जमीन-जायदाद का पूरा हिस्सा दीनदयाल अकेले डकार सके, इसके लिए चार चाचाओं वाले परिवार को उसने बारी-बारी से ठिकाने लगा दिया था। उसकी तीसरे नंबर की चाची कही जाने वाली एक हनकी बूढ़ी ही रह गयी, जिसे वह बहुत जतन करने के बाद भी मिटा नहीं सका। वह कायम रह गयी अपने दो विशालकाय पहलवान बेटों के साथ। तब दीनदयाल ने बेईमानी का एक नया पहाड़ा गढ़ लिया और उसे हिस्से के नाम पर टांड़-टिकुल की अढ़ाई बीघा ज़मीन और घर के नाम पर जानवरों वाला चार कोठरी का गोहाल घर दे दिया। वह ग्राम सेवक के पद पर सरकारी नौकर था लेकिन कर्म से वह ग्राम सेवक कम और ग्राम विध्वसंक ज़्यादा था। अलां-फलां की ज़मीन कैसे नुक्स निकालकर कब्जाया जाए, इसी फिराक में रहा करता था और बुरी तरह बदनाम था।

हनकी और उसके बेटे जतिन दयाल और विपिन दयाल पांडव की तरह महाभारत में कूद पड़े लेकिन उसके साथ न कोई कृष्ण था, न कोई घटोत्कच। दीनदयाल ने लोभ, लाभ, पद के प्रभाव और प्रपंच के सहारे अपने पूरे जातीय टोले को अपने पक्ष में कर लिया था। फौजदारी होती तो एक तरफ दो भाई और सामने दर्जनों अंध समर्थक, लाठी, बल्लम, फरसा, गड़ासा और सैप लेकर कौरव दल की तरह मोर्चा संभाल लेते। दोनों भाई बलिष्ठ थे, कुछ देर टिकते और अंततः घायल होकर मैदान से बाहर हो जाते।

बेटों द्वारा बहादुरी से मुकाबला करते हुए घायल हो जाने के बाद हनकी बूढ़ी कमर कस कर मैदान में उतर जाती और दीनदयाल को कोसने, धिक्कारने और गंदी-गंदी गालियाँ देने की जुबानी जंग शुरू कर देती। हर कोई उसकी धारा प्रवाह गाली-बौछार सिफत से वाकिफ था, इसलिए किसी की हिम्मत नहीं होती उसके सामने ठहरने की। उसकी गियारी में ग़ज़ब की खनक थी। हांक लगाती-सी उसकी आवाज़ गाँव में बहुत दूर तक गूंज जाती थी। पूरी निडरता से वह दीनदयाल के घर की ओर मुँह करके ललकारती हुई गालियों के परनाले बहा देती थी- "तू निरवंश हो जैम्ही (जाओगे) रे दिनदयलवा...! तोर देहिया में कोढ़ फुट जैतौ (जायेगा) रे बइमनमा....! तोरा हम सकरी नदी में गड़ लैवौ (लायेंगे) रे…! भंगलाहा, चोट्टा, ठूंट्ठा, बढ़नझट्टा, मुंहझौंसा, पिलुआहा, मोंछकबरा, गुहखौना, बेटी बेचना, बहिनसुतना, माईचो...हमर हिस्सवा-बखरवा मार के तू फलम्ही (फलोगे) नंय रे सुअरमुंहा!"

अपने को बब्बर शेर समझने वाला दीनदयाल उसका रिकार्ड शुरू होते ही पूंछ सटकाकर अपनी मांद में समा जाता। देर रात तक उसका सरापना जारी रहता। जब तक वह जारी रहती, आस-पड़ोस जगा रहता। गाली बकते-बकते वह सो जाती और सुनते-सुनते गाँव सो जाता।

बहुत सुबह ब्रह्म मुहूर्त में जागकर वह फिर शुरू हो जाती। उसकी गाली एक साथ लोरी भी बन गयी थी और परतकाली भी। उसकी गाली सुनकर ही पूरा गाँव जाग जाता था।

देखने में लगता था कि एक नंबर की गरिहन (गाली देने में माहिर) हनकी बूढ़ी बहुत बुरी और घटिया औरत है। गाँव में कम ही लोग थे, जो उसे एक अच्छी औरत मानते थे। लेकिन सच्चाई यह थी कि यह उसका अस्त्र था लड़ने का, प्रतिरोध का। वह हार कर भी हार मानने से इंकार करती थी। गाली देकर अपनी भड़ास निकाल लेना उसकी जिजीविषा का एक सबल पहलू था, ख़ुद को बचाये रखने का एक कवच था। उसका असली नाम हनुमंती देवी था लेकिन उसके हिनहिनाकर गरियाने की वजह से लोग उसे ‘हनकी बूढ़ी’ कहने लगे थे।

ज़मीन बंटवारे में दीनदयाल द्वारा की गयी धांधली की वजह से हनकी परिवार का गुज़ारा बहुत मुश्किलों में फंस गया। एक तो ज़मीन कम दी और जो दी भी वो अर्द्ध उपजाऊ। हनकी ने उपाय निकाला गोबर ठोककर गोइठा बनाने का और बेटों ने दूसरे की ज़मीन लेकर बंटाईदार बनने का। जो दयाल परिवार गाँव के पूर्व ज़मींदार कादिर बख्श के बाद गाँव का दूसरा सबसे मातवर परिवार माना जाता था, उसी के एक पटीदार को बंटवारे के दंश ने गर्दिश में ढकेल दिया था और दो जून की खर्ची चलाने के लाले पड़ गये थे। जो हनुमंती देवी राजरानी की तरह रहकर चौआ पर चलती थी, उसे भर दिन जानवरों के पीछे घूम-घूम कर गोबर चुनना और फिर उसे ठोकना पड़ रहा था। जो हाथ मक्खन, मलाई और घी में सने रहते थे, उन्हें अब गोबर गांजना पड़ रहा था।

अपने घर के आगे ही वह गोइठौर बनाने लगी थी। गोइठों का एक गोलाकार पिंड बन जाता था, उसके ऊपर वह गोइठा ठोकती जाती थी, पिंड की परिधि बढ़ती चली जाती थी। उन दिनों गैस चूल्हे की पहुँच शहरों तक ही सीमित थी, वह भी गिने-चुने घरों में। गाँव में गृहिणियों को लकड़ी, गोइठा या फिर कोयले के चूल्हे से खाना बनाना पड़ता था। जलावन के लिए विशेष प्रबंध और तैयारी की ज़रूरत होती थी। खाते-पीते लोगों का एक कमरा जलावन कमरा हुआ करता था। इसमें वे लकड़ी, कोयला या गोइठा आदि संजो कर रखते थे। ग़रीब-गुरबा लोगों की औरतों को जलावन के इंतजाम करने में काफी समय देना पड़ता था। वे हर रोज़ अपने मवेशियों के गोबर का गोइठा पाथ देती थीं। खेतों से केतारी के पतौड़े लाकर रखती थीं। बरसात में उन्हें कोयला या फिर जलावन भित्तर में संजोये गोइठा का सहारा लेना पड़ता था।

हनकी चूंकि घर के जानवर के अलावा गाँव भर के जानवरों के सामूहिक बथान या फिर उनके चरने की जगह चारागाह से घूम-घूम कर गोबर इकट्ठा करती थी, इसीलिए उसका एक उपनाम 'गोबर-चुननी' भी पड़ गया था। उसकी हर रोज़ की दिनचर्या हो गयी गोइठा ठोकने और बेचने की। गोइठा वह ठोकती जाती और अपने साथ हुई बेईमानी को याद कर करके दीनदयाल के नाम छिया-छिया गालियों का रेला बहाती रहती। जिस तेजी से उसके हाथ चलते थे, उसी तेजी से मुँह से गालियाँ भी निकलती थीं।

उसके गोइठों की स्थायी खरिदारिन गाँव के कलालों की औरतें थीं। इन सारी कलालिनों के शौहर बंगाल और उड़ीसा के शहरों में रहकर नकदी कमाई करते थे। कलाली में दारू बेचने से लेकर कपड़ा, फल, मुर्गा-अंडा कुल्फी, पावरोटी आदि बेचने के रोज़गार से जुड़कर। कलालिनें या तो ख़ुद आकर खचिये में गोइठा भरकर ले जाती थीं या फिर हनकी बूढ़ी गंडा के हिसाब से गिनकर उनके घर पहुँचा देती थी। हनकी के स्वभाव से कलालिनें परिचित थीं इसलिए मजाल नहीं कि कोई उसके मुँह लग जाए। दिनमा की ज़्यादती के बाद वह इतनी कटखनी हो गयी थी कि किसी से भी उसे भिड़ जाने में गुरेज नहीं रह गया था।

उसके बलिष्ठ बेटे गाँव के कम जोत वाले छोटे किसानों की तरह दूसरों के खेत बंटाई पर लेने की जुगत में लग गये। जिन्हें मालिक की तरह रहने की आदत थी, उन्हें अब बनिहार की तरह रहने की आदत डालनी थी। गाँव में ऐसा एक ही आदमी था पूर्व ज़मींदार कादिर बख्श, जो अपने सैकड़ों बीघे खेत बंटाई पर लगा दिया करता था। उनके खेत बंटाई पर लेने की आपाधापी मची रहती थी। उनका बड़ा ही रहम दिल उसूल था- वे अपने बंटाईदारों को खाद-मसाला के साथ ही जुताई के लिए अपना ट्रैक्टर भी उपलब्ध करवा देते थे। ज़मीन-जोत निगरानी करने और बांट-बखरा लाने के लिए उन्होंने चार-चार बराहिल बहाल कर रखे थे। बराहिल जिस किसान की सिफारिश कर देते, कादिर उसे बंटाई के लिए खेत दे देते। बराहिल से सिफारिश के एवज में उसे चढ़ावा चढ़ाना पड़ता। इस चढ़ावे के एवज में उसे फसल के बांटने में कुछ हेरा-फेरी करने की छूट मिल जाती।

हनकी के कड़ियल रुख और उसके पहलवान बेटों का डील-डौल देखकर कोई बराहिल उसकी सिफारिश के लिए इच्छुक नहीं था। रवैया देखकर हनकी बूढ़ी ने तय किया कि वह ख़ुद ही जाकर कादिर साहब से मिलेगी। कादिर साहब अपने इस्टेट के सायबान पर बिछे लंबे-चौड़े गद्देदार दीवान के गाव तकिये से टिके होते और सामने कुछ ग़रीब-गुरबा तथा अराहिल-बराहिल किस्म के लोग अपनी-अपनी फ़रियाद लेकर खड़े होते। गाँव में घटित किसी भी तरह के झगड़ा-टंटा के समाधान का वे एक अघोषित हाकिम थे। अपने ख़िलाफ़ होने वाले फैसले को भी मानने से कोई इंकार नहीं करता था। कहीं न कहीं गाँव का हर कोई उनके एहसान के बोझ से लदा था और सबको इस बात का इल्म था कि भविष्य में कभी भी उनके इमदाद की ज़रूरत पड़ सकती है। वे दरअसल थे भी ऐसे कि किसी के प्रति भी मन में कोई खोट या मैल नहीं रखते थे। यही कारण है कि गाँव-जवार में वे एक मातबर आला इंसान की नज़र से देखे जाते थे।

हनकी बूढ़ी जब अकस्मात वहाँ पहुँची तो सबकी आँखें फटी रह गयीं और कान खड़े हो गये। परिवार जब संयुक्त था तो हनकी बूढ़ी के कहीं भी आने-जाने में एक रौब और नफ़ासत का इज़हार टपकता रहता। वह ख़ुद भी जन-मजूरों का दुखड़ा सुनती और उनके साथ न्याय करती। आज उसे ख़ुद एक फ़रियादी बनकर आना पड़ा था। अब उसका खिला हुआ चेहरा एक सताये हुए आम आदमी का चेहरा हो गया था। उसे गोबर चुनते हुए या फिर गाली-गलौज के अजस्र झरने को बहाते हुए प्रायः हर आदमी देख और सुन रहा था। कादिर साहब तक भी आवाज़ आती रहती थी। उन्हें जब दीनदयाल के कारनामे और नाइंसाफी की जानकारी हुई तो हनकी का गाली की शक्ल में चीखना, चिल्लाना और गुहार लगाना बेज़ा प्रतीत नहीं हुआ। इस मामले में वे हनकी के लिए कुछ भी करने से लाचार थे। चूंकि दीनदयाल ख़ुद को उनकी बराबरी का समझने लगा था। उनकी ज़मींदारी चले जाने का मखौल उड़ाया करता था और किसी के मामले में हस्तक्षेप को ज़मींदारी का हैंगओवर कहा करता था।

हनकी पर नजर पड़ते ही कादिर साहब की आँखें चमक उठीं और वे बोल पड़े, "अरे आप! कहिए, कैसे आना हुआ? अरे इनके बैठने के लिए कुर्सी लाओ।"
"नंय नंय कादिर साहब, रहे देहो (रहने दीजिए)। अब हम कुर्सी पर बैठे लायक नंय रहलियो हे (नहीं रह गये हैं)। हमरा तोहर पांच बीघा खेत बंटाई पर चाही (हमें आपका पांच बीघा खेत बंटाई पर चाहिए)। तोहर कोई भी बराहिल हमरा साथ देवे ले तैयार नंय हो। (आपका कोई भी बराहिल हमारा साथ देने के लिए तैयार नहीं है)।" सुनकर कादिर मियां कुछ देर फक्क रह गये। अपनी सगी चाची और चचेरे भाइयों की ये हालत बना दी दीनदयाल ने! उन्होंने सामने खड़े अपने बराहिलों को कड़ी नज़र से घूरा और हनकी बूढ़ी से आवाज़ में मिठास लाकर कहा, "ठीक है, आप जाइए। अपने बेटों को भेज दीजिएगा। जो खेत ख़ाली होंगे, उन्हें मिल जायेंगे।"

खेत मिल गये। दोनों भाइयों ने कड़ी मेहनत शुरू कर दी। अब तक वे सुकुमार और आरामतलब जीवन के अभ्यस्त रहे थे। खेतों से जब पसीने से सराबोर हो थके-मांदे लौटते तो उनकी दशा देखकर हनकी बूढ़ी की टीस हरी हो जाती। वह अपने को रोक नहीं पाती और दीनदयाल के नाम गालियों का रेला बहना शुरू हो जाता, "नरक भोगमी रे दिनमा....पिल्लू पड़तऊ तोर देह में.....(नर्क भोगोगे रे दिनमा, तुम्हारी देह में कीड़े पड़ेंगे)।"

बेटों ने महसूस किया कि माँ की आवाज़ का ज़ोर थोड़ा मंद होने लगा है और आवाज़ वांछित जगह तक शायद ठीक से पहुँच नहीं रही है। ऐसा महसूस कर दोनों ने एक उपाय निकाला। पास ही एक बरगद का पेड़ था। आठ-नौ फीट की ऊंचाई पर चार डालियाँ चार दिशाओं में फैल गयी थीं। डालियों के मिलन स्थल पर काठ का एक चौड़ा पटरा डालकर उसने एक मचान की शक्ल दे दी और उस पर चढ़ने के लिए नीचे से एक सीढ़ी लगा दी।

हनकी बूढ़ी को जब-जब ज़ुल्म की यादें कचोटने लगतीं तो आराम से उस मचान पर चढ़कर दीनदयाल को फकड़ाने (बेछूट गाली देने) की क्रिया संपन्न कर देती। कभी-कभी इस काम के लिए रात हो जाने पर भी वह अपने को रोक नहीं पाती। गाँव में सबने सन्न होकर इस तरकीब को देखा और महसूस किया कि बदले और विरोध का यह अस्त्र सिर्फ उसे ही नहीं, उसके बेटों को भी संतोष का एहसास दे रहा है।

कादिर बख्श को जब जानकारी मिली कि हनकी बूढ़ी अब गाछ पर चढ़कर दीनदयाल को जहन्नुम भेजने का अभियान चला रही है तो भीतर से वे ख़ुश हुए और एक बराहिल से ऑफर भिजवा दिया कि अगर उसे और ऊंचाई चाहिए तो गाँव के बीचो-बीच स्थित उनकी हवेली के तीन मंजिले कोठे का इस्तेमाल कर ले। हनकी बूढ़ी ने उनका शुक्रिया अदा करते हुए कहवा भेजा कि वह बूढ़ी ज़रूर हो गयी है लेकिन उसकी आवाज़ में अभी भी इतना दम है कि आठ-दस फीट की ऊंचाई से दिनमा के कान और दिमाग़ में ज़हर उड़ेल सके। ज़्यादा ऊंचाई की ज़रूरत होगी तो वह ज़रूर उनसे इजाज़त लेकर उनके कोठे का इस्तेमाल कर लेगी।

गोबर के गोइठौर और बंटाई की खेती से रोज़ी-रोटी का जुगाड़ ठीक-ठाक चलने लगा तो हनकी ने सोचा कि अब दोनों बबुओं का ब्याह करके मदद के लिए बहुएँ ले आयी जाएँ। उसके ऐलान करते ही आसपास के गाँव से बरतुहार आने लगे। उसने शर्त तय की कि लड़की चाहे पढ़ी-लिखी न हो लेकिन उसे ख़ूब बोलना और निडर बनकर गाली-वाली देना आना चाहिए। लड़की वालों से सीधे-सीधे वह यह शर्त रख देती और पूछ लेती कि अगर इस तरह की आपकी बेटी है तो बात आगे बढ़ायी जाए। यह शर्त सुनते ही लोग खिसक लेते, यह मानकर कि बुढ़िया के दिमाग़ का पेंच ढीला हो गया है। भला ऐसे लक्षण की कोई लड़की चाहता है? कहा यह जाता है कि लड़की सुशील हो, सुंदर हो, कम बोले और मीठा बोले। यह उल्टा ही कह रही है।

काफी दिनों बाद दो अक्खड़ बरतुहार, एक बिन माँ-बाप की लड़की के फूफा और दूसरा मौसा, ऐसे मिले जिन्होंने उसकी शर्त के अनुकूल अपनी बेटी को बताया। एक ने कहा, "मोहल्ले में शायद ही कोई ऐसा घर बचा हो, जिससे उसकी बेटी का झगड़ा न हुआ हो। गाली देने में वह पारंगत है और कभी-कभी वह अपने घर के लोगों को भी नहीं बख्शती है।" हनकी बूढ़ी ख़ुश हो गयी कि बस-बस हमको ऐसी ही पतोहू की तलाश है। चलिए, हम उसे देख-दाख के बतिया लें और ज़रा थाह लें कि उसे वाकई कितनी गालियाँ आती हैं।

दूसरे बरतुहार ने कहा, "मेरी बेटी गाँव भर में झगड़ालू और लड़ाकिन लड़की के नाम से प्रसिद्ध है। कई लोग तो उस पर डायन होने का आरोप लगाते हैं और मारपीट करने पर उतारू हो जाते हैं। लेकिन मेरी बेटी किसी को भी सामने टिकने नहीं देती है। उसकी इसी फितरत के कारण अब तक उसे किसी ने पसंद नहीं किया।" हनकी ने कहा, "वाह, ई तो और भी सोने पर सोहागा हो गेलै (गया)। अव्वल तो डायन-वायन हम नंय मानो हियै (नहीं मानते हैं) लेकिन अगर लोग मानो है तो हमरा कौनो ऐतराज नंय है। ये ही बहाने लोग डरके और दुबक के रहतै (रहेंगे)। गाँव के कुछ लोग तो हमरो भी डायन कहो है। चलो ठीक है, तोहर बेटी के भी हम चलके देख लेहियो (लेते हैं)।"

इन्हीं दोनों लड़कियों से हनकी ने अपने बेटों को ब्याह दिया। उनके आते ही बता दिया, "हमर एके गो दुश्मन है गाँव में। ऊ हमर अपने ही जेठ के बेटा दिन दयलवा है। ओकर नाम दिनदयाल नंय अगिया बैताल होवे के चाहो हलै। ऊ दोगलाहा हमर जिनगी के नरक बना देलकई। बंटवारा में हमरा साथ दगाबाजी करके भीख जैसन उसर जमीन के चार-पांच टुकड़ा पकड़ा देलकई और हमनी सब के रातो-रात मालामाल से कंगाल बना देलकई। हम ठान लेलिए हे कि जिनगी भर ओकरा सरापना और ओकर नाम से लानत-मलामत भेजना है। कभी न कभी तो हमर आह ओकरा जरूरे लगतई, ई हमरा बिस्वास है। अभी तलक हमरा अकेले ई काम करे पड़ रहले हल। अब तूं दुन्हूं के आ जाये के बाद तीनों मिल के ई काम करवै। ओकरा बता देना है कि गरियावे और सरापे में भी ताकत होवो हई।"

बड़की और छोटकी दोनों बहुओें ने ख़ुशी-ख़ुशी हुंकारी भर दी। अपने चेहरे के भाव से दोनों ने स्पष्ट कर दिया कि गाली-गलौज करना उसका मन पसंद काम है, जिसे वह इस तरह करेंगी कि सास को कोई शिकायत नहीं होगी।

अगले दिन मचान पर बड़की बहू को चढ़ाया गया। गाँव वालों से उसका परिचय या मुँह दिखाई उसके एक सड़ी हुई गाली देने से आरंभ हुई। उसका पहला वाक्य था, "रे दिन दयलवा, तोर हगे के रस्तावा में पिल्लू पड़ जैतौ रे (तुम्हारे मलद्वार में कीड़े पड़ जाएँगे)। हमनी के बखरा में डंडी मारके तू भोग नंय सकमी (हमलोगों के हिस्सा में डंडी मारकर तुम भोग नहीं सकोगे) । हैजा हो जइतौ तोर समूचे बाल-बच्चा के और कुल्हे बइमानी वाला धन चल जइतौ डागदर के पेट में...(हैजा हो जायेगा तुम्हारे बाल-बच्चों को और बेईमानी का पूरा धन डॉक्टर के पेट में चला जाएगा)।"

नयी आवाज़ सुनकर दीनदयाल तक घर से निकल आया और टकटकी लगाकर मचान की तरफ देखने लगा, जैसे अपने लिए गलीज गाली नहीं आशीर्वचन सुनने निकल पड़ा हो। लड़की का चेहरा तो सुंदर था लेकिन उससे जो बोल निकल रहे थे, वे उसे बेचैन बना गये। नयी-नयी आयी एक कम उम्र लड़की से इस तरह के बेसउर बोल सुनकर जैसे वह धधक-सा पड़ा। लेकिन मन मसोसकर रह जाने के सिवा भला वह कर ही क्या सकता था! गाछ के नीचे सवा छह फीट लंबे हट्ठे-कट्ठे दोनों पहलवान बेटे अंगारे बरसाते नेत्र लिए खड़े थे। पांच-छह को तो दोनों अकेले ही देख लेने की कूबत रखते थे।

पंचफुटिया तोंदियल दीनदयाल ताकत के मामले में उनके पासंग बराबर भी नहीं ठहर सकता था। ऊपर से नाजायज़ करने का जो एक बोध होता है, वह भी उसे कमज़ोर बना देता था। हनकी बूढ़ी जब उसे फकड़ाती (गंदी गाली से गरियाती) थी, तब उसे ज़्यादा बुरा इसलिए नहीं लगता था कि वह उम्र में काफी बड़ी थी और चाची लगती थी। लेकिन यह लड़की तो उसकी कोई नहीं लगती, जो सीधे आकर उसे घिनाने लग गयी है।

बड़की बहू के शानदार आगाज से हनकी और उसके बेटे बहुत ख़ुश हुए। वाह! चुनाव बिलकुल फिट है। यह लड़की माई की पक्का उत्तराधिकारी साबित होगी।

अगले दिन छोटकी बहू को मचान पर दाखिल कराया गया। पास-पड़ोस वालों की नज़र टिक गयी मचान की तरफ। अब बारी छोटकी का जलवा देखने की थी। छोटकी ने बड़की से भी बढ़-चढ़कर ख़ुद को पेश करने की कोशिश करते हुए कहा, "अरे छौड़ापुत्ता दिन दयलवा, मरम्हीं तौ तोरा कफन तक नंय मिलतौ रे बइमनमा (मरोगे तो तुमको कफन तक नसीब नहीं होगा रे बेईमान)। हमनी ऐसे खाली गरिया के तोरा नंय छोड़े वाला हियौ (हमलोग सिर्फ गाली देकर तुम्हें छोड़ने वाले नहीं हैं)। आ गेलियो हे कमर कसके.....तोर छतिया पर चढ़ के लेवौ हिसवा। कौन बाप-बहनोई तोरा साथ देतौ, ओकरो हमन्हीं देख लेवै...(आ गये हैं कमर कसके...तुम्हारी छाती पर चढ़के लेंगे हिस्सा। तुम्हारा कौन बाप-बहनोई साथ देगा, उसे भी हमलोग देख लेंगे)।"

ताल ठोकते हुए छोटकी ने ललकारा तो दीनदयाल ने फिर अपने घर से निकलकर उसकी शक्ल देख ली। दे तो रही है गाली लेकिन आवाज इतनी मीठी और महीन है कि लगता है जैसे गाना गा रही हो। कुढ़न तो इतनी हुई कि जाके नरेटी दबा दे। लेकिन जतिन-विपिन पास में ही खड़े होकर अपनी-अपनी मूंछें ऐंठ रहे थे। पास तो परीक्षा में छोटकी भी हो गयी लेकिन उसकी आवाज़ एकदम पतली थी, जिसका रेंज बहुत दूर तक नहीं जा पा रहा था। विपिन ने कहा, "मैया, एकर अवजिया तो खूब दमस के नंय निकल पावो है। बड़ी पातर गियारी है एकर (मां, इसकी आवाज तो दमदार होके नहीं निकल रही है। बहुत पतला गला है इसका)।"

जतिन ने कहा, "मैया, एक उपाय तो है हमनी के पास। कादिर साहेब अपन कोठवा देवे ले तैयार हखुन (थे), तौ काहे नंय छोटकी के कोठवा पर चढ़ा देवल जाये। वहां से तो ओकर अवजिया समुच्चे बस्ती में गूंज जैइतै (जायेगी)।"
"कोठा पर चढ़ा देहीं चाहे चांद पर, एकर आवाज में कड़ुआहट और धिक्कार नंय हऊ। ई मामले में बड़की एकदम फिट हऊ (कोठा पर चढ़ा दो या चांद पर। इसकी आवाज में कड़वाहट और धिक्कार नहीं है। इस मामले में बड़की एकदम फिट है।)।" विपिन ने कहा।

"अरे ई भी फिट हो जइतै (अरे यह भी फिट हो जायेगी)। कोठवा पर चढ़ा के लौडिसपीकरवा लगा देवै। महजिदिया से पुरान होके एक ठो लौडिसपीकर कादिर साहब के इस्टेटवा में रक्खल है।"

"हां, ई ऐडिया ठीक हऊ।"

अगले दिन कादिर बख्श के तीन तल्ला कोठा पर चढ़कर माइक के सामने खड़ा होकर छोटकी ने दीनदयाल के नाम गालियों की बौछार कर दी- "सुन ले रे सियार के जलमल (सियार के जन्मे हुए)! तोरा एतना सरापबऊ...एतना सरापबऊ कि तोर जिनगी नरक बन जैइतऊ...(तुम्हें इतना सरापेंगे कि तुम्हारी जिंदगी नर्क बन जायेगी)।"

लाउडस्पीकर के चार चोंगे चार दिशाओं में बांध दिये गये। इस अदा पर गाँव वाले सन्न रह गये। दीनदयाल का तो जैसे खून खौल उठा। यह तो हद हो गयी। उसे लगा कि ई ससुर कदिरवा का ही यह सब किया धरा है। वही बुढ़िया का मन बढ़ा रहा है। खेती करने के लिए ज़मीन तो दिया ही अब उसे गरियाने के लिए अपना कोठा भी दे दिया और साथ में लाउडस्पीकर भी। शायद चाहता है कि गाँव के अन्य लोगों की तरह वह भी उसकी मस्काबाजी और जी-हुजूरी करे।

पंच बनने का बहुत शौक है उसे। उसके बंटवारे के मामले में भी पंचैती करने के लिए तड़फड़ा रहा है। लेकिन यह मौका उसे कभी नहीं मिलने वाला। जाति के सारे लोग उसके साथ हैं, कुछ बिगाड़ नहीं सकता कादिर बखश। हवा में तीर छोड़ने की तरह जितनी गालियाँ दिलवानी है, दिलवाता रहे। गाली कोई सट नहीं जाती है उसके बदन में। गाली तो हारे हुए असहाय आदमी का ही हानि रहित अस्त्र होता है। इससे सिर्फ गाली देने वाले की ऊर्जा बर्बाद होती है। जिसे गाली दी जाती है, उसका गाली से बाल बांका तक नहीं होता। दीनदयाल ने समझाया ख़ुद को।

लेकिन यह अजीब है कि दुनिया में गाली के कारण ही कितनी सारी फौजदारियाँ हो जाती हैं और कितने लोग मर-कट जाते हैं। लेकिन दीनदयाल या तो बेवकूफ़ नहीं है या फिर गाली को रुकवाने में समर्थ नहीं है।

परिस्थिति ऐसी हो गयी थी कि ज़्यादा धन हथियाकर भी दीनदयाल धनी होने के गर्व का मज़ा नहीं ले पा रहा था। दिन-दहाड़े गाली-गलौज से उसका सामाजिक-वजन बहुत हल्का होता जा रहा था। दूसरी तरफ हनकी बूढ़ी और उसके दोनों बेटे ग़रीबी में बसर करके भी सीना तान कर जी रहे थे। निर्भीकता और अक्खड़ता से उसे गरिया रहे थे, उसकी थूकम-फजीहत कर रहे थे और वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा था।

इसी बीच समय ने करवट बदल ली। समय की आदत है कि वह किसी के साथ एक समान नहीं रहता।

धान रोपने के लिए खेत में हल चला रहे विपिन को कड़क धूप में लू लग गयी और वह अचेत हो गया। युवराज जैसे आरामदेह जीवन को अचानक बनिहार के हाड़-तोड़ मेहनत वाले जीवन में रुपांतरण आसान नहीं था। जतिन उसे घर ले आया। विपिन खटिया पर जो गिरा तो फिर उठने में बहुत वक्त लग गया। हनकी बूढ़ी ने तमाम तरह की दवा-दारू और टोना-टोटका आज़माना शुरू कर दिया।

जब परिवार संयुक्त था तो दीनदयाल के पिता ने गाँव में स्थित एक भूखंड पर एक मंदिर बनवा दिया था। जो था तो मुख्यतः शिवालय ही लेकिन उसके अलग-अलग कोनों-अंतरों में कई और देवी-देवताओं की मूर्तियाँ लगा दी गयी थीं। दीनदयाल उसमें नियम से रोज़ धूप-दीप जलाने, जल चढ़ाने और कभी-कभी यज्ञ-हवन करने का भी कर्मकांड कर लिया करता था।

हनकी बूढ़ी भी कभी-कभी दर्शन कर आती थी लेकिन उसका कोई नियम नहीं था। विपिन जब कई दिनों तक बीमार पड़ा रहा और प्रायः दवाएँ बेअसर रहने लगीं तो वह रोज़-रोज़ मंदिर जाकर प्रार्थना करने चली जाने लगी कि उसका बेटा जल्दी स्वस्थ हो जाए। कई दिनों तक मूर्तियों के सामने गिड़गिड़ाने और निहोरा करने के बावजूद कोई असर होता नहीं दिखा तो उसका मन क्षुब्ध होने लगा।

दूसरी तरफ दीनदयाल को चम्हलाने (इतराने) का मौका मिल गया। उसे कई लोगों ने बताया कि दिनमा बहुत ख़ुश हो रहा है और कह रहा है कि देखा- दूसरे को गरियाने-सरापने का असर अपने ऊपर ही पड़ गया न! जो दूसरे के लिए गड्ढा खोदता है, वह ख़ुद ही उसमें गिर जाता है। मंदिर जाने से कुछ नहीं होगा। अब साबित हो गया कि भगवान किसके साथ है। जैसी करनी, वैसी भरनी। अभी भी चेत जाए, नहीं तो इससे भी बड़ा अहित होने लगेगा।

हनकी बूढ़ी ने मन में विचार किया कि अच्छा तो ये बात है! भगवान उस जालिम की सुन रहा है, जो अत्याचारी और गुनहगार है। ऐसे भगवान को फिर रहने देने का मतलब क्या है! उसने एक बड़ा-सा गैंता उठाया और मंदिर जाकर देवताओं की सारी मूर्तियाँ और शिवलिंग ध्वस्त कर उन्हें मिट्टी में मिला दिया। इसके बाद वह कोठे पर चढ़ गयी और माइक से ऐलान करने लगी, "जो रे नसपीट्टा। जे करेके हऊ कर ले। देखो हियो कौन भगवान तोरा मदत करो हऊ और कैसे तोर ठोरा पर ठिठियाहट आवो हऊ (जो करना है कर लो। देखते हैं कि कौन भगवान तुम्हारी मदद करता है और किस तरह तुम्हारे होंठ पर हँसी आती है)।"

पूरे गाँव में सनसनी समा गयी कि अरे हनकी बुढ़िया ने यह क्या कर दिया! दिनमा को हवा ख़राब करने का मौका मिल गया। अरे ये सब कादिर बख्श करवा रहा है। जबसे उसके बाउजी ने मंदिर बनवाया तभी से उसका विरोध था। वो यही चाहता रहा है कि गाँव में सिर्फ मस्जिद हो, मंदिर नहीं। बुढ़िया का मन चढ़ाते-चढ़ाते कोठा पर चढ़ा दिहिस और आज पर्दे के पीछे से उसने वो काम करवा दिया, जो सालों से उसके मन में बैठा हुआ था। यह सीधे-सीधे हिन्दुओं की आस्था पर हमला है।

दीनदयाल ने कादिर साहब के ख़िलाफ़ लोगों को भड़काने की बहुत कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो सका। इसलिए कि गाँव के ज़्यादातर लोग बंटाईदार के रूप में उनके एहसानमंद थे। मौके बे-मौके उनके सामने मुँह खोलने पर वे फराख़दिली से अपना हाथ खोल देते थे। कुछ बुजर्गों ने उसे सलाह दी कि बदले की भावना से कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है। देवताओं की मूर्तियाँ उसने तोड़ी है, अगर उनमें यश होगा तो दैवीय प्रकोप का वह ख़ुद ही शिकार हो जायेगी। हो सकता है उसका बीमार बेटा खाट से उठने की जगह दुनिया से ही उठ जाए।

हनकी बुढ़िया और उसके परिवार पर आने वाले दैवीय प्रकोप की सब प्रतीक्षा करने लगे। ख़ासकर दीनदयाल ने तो टकटकी लगा दी कि कभी भी उसके घर से अर्थी उठने का दृश्य प्रकट हो सकता है। इस बीच गालियों की खेपें जारी रहीं, कभी बड़की, कभी छोटकी तो कभी ख़ुद हनकी बूढ़ी। अब माइक की सुविधा हो गयी थी, इसलिए गला फाड़कर छाती का ज़ोर नहीं लगाना पड़ता था। 'अरे दिन दयलवा' कहते ही पूरे गाँव के कोने-कोने में आवाज़ पसर जाती थी।

जब कई दिन गुज़र गये और गालियाँ नियत समय पर सुबह-शाम पूरे सवाब पर प्रसारित होती रहीं तो दीनदयाल को यह एहसास होने लगा कि उसके घर में लगता है सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है और संभवतः विपिनमा भी लगता है ठीक होने लगा है।

यह अनुमान सच निकला। विपिन ठीक होकर बाहर घूमने-टहलने लगा। दीनदयाल और गाँववाले भौंचक रह गये कि देवी-देवताओं ने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा। दीनदयाल का मुँह लटक गया और उसे लगने लगा कि अब तक उसके द्वारा किया जाने वाला पूजा-पाठ-यज्ञ-हवन सब व्यर्थ चला गया। जिन देवी-देवताओं की आप पूजा कर रहे हैं, याचना कर रहे हैं, वरदान माँग रहे है, वे सब ख़ुद अपने ही अस्तित्व की रक्षा में असमर्थ सिद्ध हो गये। यह तो बड़ी अजीब बात है। सज़ा तो उसे कुछ न कुछ ज़रूर मिलनी चाहिए।

दीनदयाल जला-भुना तो रहता ही था। गालियों के लिए तो क्या मुकदमा करता लेकिन इस विध्वंसक कार्रवाई के लिए तो कर ही सकता है। यह तो सीधा किसी की आस्था पर प्रहार है। उसने थाने में जाकर प्राथमिकी दर्ज करा दी। थाने से आकर दारोगा ने निरीक्षण किया और हनकी बूढ़ी को गिरफ्तार कर लिया।

अगले ही घंटे थाने जाकर कादिर साहब ने उसकी जमानत ले ली और लिखित आश्वासन दे दिया कि जो भी मूर्तियाँ तोड़ी गयी हैं, उसका वे अपने खर्चे से निर्माण करवा देंगे।

दीनदयाल ठिसुआया-सा देखता रह गया। गालियों का रेला रात में फिर लाउडस्पीकर से देर तक बहाया जाता रहा और दीनदयाल उसमें लिथड़कर कसमसाता रहा।

 

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रचनाकार परिचय

जयनंदन

ईमेल :

निवास : जमशेदपुर (झारखण्ड)

जन्मस्थान- मिलकी गांव, नवादा (बिहार)
जन्मतिथि- 26 फरवरी, 1956
शिक्षा- एम. ए. (हिन्दी)
प्रकाशित कृतियाँ- अब तक कुल पैंतीस पुस्तकें प्रकाशित। सात उपन्यास, बाईस कहानी संग्रह, तीन नाट्य संग्रह तथा तीन वैचारिक लेखों के संकलन। ‘चिमनियों से लहू की गंध’, ‘चौधराहट’, ‘सल्तनत को सुनो गांववालो’, ‘विघटन’, ‘मिल्कियत की बागडोर’, ‘रहमतों की बारिश’, रंग प्रहरी’ (उपन्यास), ‘सन्नाटा भंग’, ‘विश्व बाजार का ऊंट’, ‘एक अकेले गान्ही जी’, ‘कस्तूरी पहचानो वत्स’, ‘दाल नहीं गलेगी अब’, ‘घर फूंक तमाशा’, ‘सूखते स्रोत’, ‘गुहार’, ‘गांव की सिसकियां’, ‘भितरघात’, ‘मेरी प्रिय कथायें’, ‘मेरी प्रिय कहानियां’, ‘सेराज बैंड बाजा’, ‘मायाबी क्षितिज’, ‘आई एस ओ 9000’, ‘निमुंहा गांव’, ‘गोड़पोछना’, ‘तितकी नहीं जायेगी अमेरिका’ आदि (सभी कहानी संग्रह), ‘नेपथ्य का मदारी’, ‘हमला’ तथा ‘हुक्मउदूली’ (तीनों नाटक), ‘मंथन के चौराहे’, ‘मीमांसा के पराग’ (वैचारिक लेखों का संग्रह) तथा ‘राष्ट्रनिर्माण के तीन टाटा सपूत’ (टाटाओं की जीवनी)।
2015 में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा ‘भारतीय साहित्य पुस्तकमाला’ योजना के अन्तर्गत साझी संस्कृति पर आधारित ‘जयनंदन संकलित कहानियां’ प्रकाशित
व्यक्तित्व एवं समग्र कृतित्व पर आधारित “जयनंदन : एक शिनाख्त” ग्रंथ।
मराठी में अनुदित कहानियों की एक पुस्तक ‘आईएसओ 900’ एवं उपन्यास की तीन पुस्तक ‘विघटन’, ‘मिल्कियत की वागडोर’ तथा ‘चौधराहट’ प्रकाशित।
कुछ कहानियों का फ्रेंच, स्पैनिश, अंग्रेजी, जर्मन, तेलुगु, मलयालम, तमिल, गुजराती, उर्दू, नेपाली, मराठी, मगही आदि भाषाओं में अनुवाद।

कुछ कहानियों के टीवी रूपांतरण टेलीविजन के विभिन्न चैनलों पर प्रसारित। नाटकों का आकाशवाणी से प्रसारण और विभिन्न संस्थाओं द्वारा विभिन्न शहरों में मंचन।
पुरस्कार/ सम्मान- राधाकृष्ण पुरस्कार, विजय वर्मा कथा सम्मान, बिहार सरकार राजभाषा सम्मान, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वश्रेष्ठ चयन के आधार पर युवा लेखक प्रकाशन सम्मान, आनंद सागर स्मृति कथाक्रम सम्मान, बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान, झारखंड साहित्य सेवी सम्मान, स्वदेश स्मृति सम्मान, निर्मल मिलिंद सम्मान, श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको साहित्य सम्मान 2022 आदि।
संप्रति- टाटा स्टील से अवकाश प्राप्त और अब पूर्णकालिक लेखन.
संपर्क- फ्लैट नं. - 4322, बेगोनिया, विजया गार्डेन, बारीडीह, जमशेदपुर (झारखण्ड) - 831017.
मोबाइल– 9431328758, 8709458751