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हिंदी ग़ज़ल विचार युग की ग़ज़ल है- डॉ० भावना

हिंदी ग़ज़ल विचार युग की ग़ज़ल है- डॉ० भावना

हिंदी की समकालीन महिला ग़ज़लकारों में डॉ० भावना का महत्वपूर्ण स्थान है। ग़ज़ल लेखन के साथ-साथ ग़ज़ल पर आलोचनात्मक काम भी ये बराबर करती रही हैं। अनेक महत्त्वपूर्ण आलोचना ग्रन्थों और समवेत संकलनों में आपकी उपस्थिति रही है। इनकी रचनाएँ पाठ्यक्रम का हिस्सा भी रही हैं। प्रस्तुत है डॉ० भावना से शोध-छात्रा आरती देवी की बातचीत।

आरती देवी- आप अपने प्रारंभिक जीवन के बारे में कुछ बताइए?
डॉ० भावना- मेरा जन्म बिहार प्रांत के मुज़फ्फ़रपुर जिले में हुआ। मेरी परवरिश ननिहाल शाही मीनापुर में हुई, जो मुज़फ्फ़रपुर ज़िले में ही स्थित एक गाँव है। मेरी माँ एक सरकारी विद्यालय की शिक्षिका थीं। पिता पुलिस विभाग में थे। उनका तबादला होता रहता था। तबादले की वजह से शिक्षा में व्यवधान न हो इसलिए माँ ने हमें अपने ही साथ रखना उचित समझा। इस तरह मैंने प्राइमरी तक की शिक्षा गाँव में रहकर पूरी की। बाद के दिनों में माँ की पोस्टिंग बिहार की ही एक जगह शिवहर में हो गयी। यहाँ के बालिका उच्च विद्यालय में उनकी नियुक्ति हुई। इस तरह सातवीं कक्षा से दसवीं तक मेरी पढ़ाई शिवहर में हुई। हम तीन भाई बहन हैं। दो भाई बड़े एवं मैं सबसे छोटी। बचपन में मेरी परवरिश एक संयुक्त परिवार में हुई, जिसमें एक साथ कई पीढ़ियाँ रहा करती थीं। उस मिट्टी के खपरैल वाले मकान के सुख के आगे आज के सुख-सुविधा से संपन्न मकान की कोई कीमत नहीं। मेरे नानाजी स्व० रामदेवन शाही एग्रीकल्चर इंस्टीट्यूट, पूसा के सूगर केन विभाग में एक वैज्ञानिक थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में कई अनुसंधान किये। उन्होंने बेटा और बेटी में कभी अंतर नहीं समझा।यही वजह थी कि मेरी माँ उच्च शिक्षा ग्रहण करने में सफल हुईं। रिटायर होने के बाद मुझे उनका सानिध्य मिला। बचपन में मैं बुढ़िया कबड्डी खेल, घो-घो रानी, कितना पानी, बक ढिल्ल जैसे खेल खेला करती। पर मेरे भाई अपने दोस्तों के साथ खेलने नहीं देते। उन्हें लगता लड़कों के साथ लड़कियों को नहीं खेलना चाहिए। तब मेरे नानाजी, जिन्हें मैं प्रेम से बाबूजी कहा करती थी। एक कुर्सी लेकर दरवाज़े पर बैठ जाते और मुझे उन लोगों के साथ खेलने के लिए बोलते। उनका डर कहिए या लिहाज़ फिर मुझे कोई मना नहीं करता। अलग बात है कि मेरे भाई चिढ़ कर कबड्डी-कबड्डी खेलते मुझे ज़ोर से धक्का देते। मैं फिर रोते हुए बाबूजी से शिकायत करती पर खेलना नहीं छोड़ा। अगले दिन पुनः साथ खेलने की ज़िद लिए हाजिर रहती। मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं कि मैं उन चंद ख़ुशनसीब लड़कियों में से एक थी, जिन्हें अपने बचपन में लैंगिक भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा। अगर ईमानदारी से कहूँ तो सभी भाई-बहनों में मुझे ही पौष्टिक भोजन, सबसे बेहतर पहनावा दिया एवं मेरी ही सबसे कम पिटाई लगी। मेरे परिवार में मेरे नानाजी आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे इसलिए रामचरितमानस का सस्वर पाठ करना हमने बचपन में ही सीख लिया था। सूर्योदय से पूर्व गाये जाने वाले भजन 'पराती' से हमारी नींद खुलती एवं गाय बैल की घंटियों की ध्वनि से मन में उल्लास जगता। ये वे दिन थे जब जीवन में कोई भागम -भाग नहीं थी। किसी तरह का तनाव नहीं था। ग्लोबल वार्मिंग की चेतावनी भी नहीं थी, न ही कीटनाशक के बढ़ते प्रयोग से होने वाली बीमारियों का ही ख़ौफ था। पालतू जानवरों के गोबर से बनाए खाद जिसे गाँव में 'गोवा 'कहते थे से ,शुद्ध अनाज का उत्पादन होता था। यातायात के मुख्य साधन बैलगाड़ी व तांगे थे। प्रदूषण का कोई ख़तरा दूर-दूर तक नहीं था। हमारे गाँव में एक पुस्तकालय भी था। हमारी उम्र के लड़के-लड़कियाँ जहाँ गुड्डे-गुड़ियों के खेल खेलने में व्यस्त होते थे, मैं पुस्तकालय का चक्कर लगाती थी। इस पुस्तकालय के संस्थापक डॉक्टर प्रोफेसर श्री रंग शाही थे, जिनके जीवन का मुख्य उदेश्य समाज सेवा था। हम बच्चों के लिए वे रोल मॉडल थे। वे लेमन जूस वाले नाना जी के नाम से सुविख्यात थे। वे साहित्य की गूढ़ बातों को बहुत मनोरंजक तरीके से बताते थे। सादा जीवन, उच्च विचार के प्रतिमूर्ति और हिंदी के प्रकांड विद्वान डाॅ० शाही कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी जी के शिष्य थे और डॉ० श्यामनन्दन किशोर के निर्देशन में शोध कार्य किया था। कहीं न कहीं डॉ० श्री रंग शाही की समाजवादी विचारधारा का प्रभाव मुझ पर पड़ा। वे कर्मकांड के घोर विरोधी थे। उनका कहना था कि कर्म ही धर्म है और सत्य से बड़ी कोई शक्ति नहीं। मेरे व्यक्तित्व निर्माण में उनकी अप्रत्यक्ष भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। एक तरफ मेरा अपना परिवार, जो पूजपाठ में पूर्ण आस्था रखने वाला था एवं दूसरी तरफ ये गाँव के नाना जी, जिनकी नज़र में पूजा-पाठ बाह्य आडंबरों से अलग कुछ भी नहीं था।


आरती देवी- आपको ग़ज़ल लेखन की प्रेरणा कब और कैसे मिली?
डॉ० भावना- सच कहूँ तो मैं ग़ज़ल की ओर आठवीं कक्षा में ही आकृष्ट हो गई थी। उन दिनों रेडियो पर उर्दू प्रोग्राम आया करता था। उस प्रोग्राम में अक्सर ही ग़ज़लों का प्रसारण होता। 'ऐ मेरी जाने गजल, तू मेरे साथ ही चल' जैसी ग़ज़ल सुनकर मैं मंत्रमुग्ध हो जाया करती थी। माध्यमिक स्तर की मेरी पढ़ाई शिवहर में हुई जो बिहार का एक ज़िला है। उन दिनों वह अनुमंडल हुआ करता था। वहाँ साहित्य के प्रति लोगों को बहुत झुकाव था। राकेश बिहारी, जयप्रकाश मिश्र, रामचंद्र विद्रोही वगैरह हमारे घर आते और ख़ूब गोष्ठियाँ होतीं। ये वे दिन थे, जब हमने जमकर छंद का अध्ययन किया और ग़ज़ल की बारीकियों को समझने की भी कोशिश की। हमने क़ाफ़िया-रदीफ का निर्वहन करते हुए मात्रिक छंद में ग़ज़लें कहीं, जो एक भूल ही कही जाएगी। यह क्रम लगातार चलता रहा। 2012 में मेरा पहला ग़ज़ल संग्रह 'अक्स कोई तुम-सा' आया। इस पुस्तक की भूमिका नचिकेता ने लिखी थी। उन्हीं के द्वारा यह पुस्तक अलग-अलग प्रांतों के बड़े-बड़े ग़ज़लकारों के पास गयी। फिर तो कई महत्वपूर्ण ग़ज़लकारों के फोन आने लगे। सभी ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की। पर बहर पर काम करने की सलाह दी। अब मैं बहर को सीखने के लिए व्याकुल हो गई। इंटरनेट के साथ-साथ दर्जनों किताबों का अध्ययन किया, जिसमें ललित कुमार की 'ग़ज़ल कैसे लिखें' तथा शिवशंकर मिश्र की पुस्तक इत्यादि हैं। ऐसे ही किसी दोपहर में 'ग़ज़ल के बहाने' पत्रिका के संपादक डॉ० दरवेश भारती जी को मैंने फोन लगाया। उन्होंने मुझे 'ग़ज़ल के बहाने' के सारे अंक भेज दिए और अध्ययन करने को कहा। अब मुझे बहर समझ में आने लगी थी और मैं ग़ज़ल के अरूज को साधने में दिन-रात लगी रहती। शायद इसी साधना का प्रतिफल था कि दूसरा ग़ज़ल संग्रह 'शब्दों की कीमत' अंतिका प्रकाशन से 2015 में छपकर आया। इस पुस्तक का ब्लर्ब सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार ज़हीर कुरैशी ने लिखा है। इस पुस्तक की समीक्षा लगभग 25 छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में छपी। इसके बाद अगला संग्रह 2019 में 'चुप्पियों के बीच' छपकर आया, जिसकी भूमिका दरवेश भारती जी ने लिखी है। जहाँ तक लिखने की प्रेरणा का सवाल है तो इसके लिए मैं किसी एक शख्स को बिल्कुल श्रेय नहीं देती।

आरती देवी- आप घर-परिवार और लेखन कार्य में किस तरह तालमेल बिठा पाती हैं?
डॉ० भावना- सच कहूँ तो किसी भी स्त्री के लिए लेखन कार्य बहुत ही मुश्किल भरा होता है। स्त्री अगर कामकाजी हो तो यह काम और भी चुनौती पूर्ण हो जाता है। मेरे साथ तो पूरा परिदृश्य ही अलग है। घर-परिवार, कॉलेज, हॉस्पिटल (पतिदेव का) के साथ सृजन बहुत ही मुश्किल भरा काम है। पर संघर्ष जितना बड़ा होता है, सफलता का आनंद उतना ही अधिक होता है। ऐसे में मेरी अधिकांश रचनाएँ सब्जी छौंकते और रोटी बेलते ही जन्म लेती हैं। मैं उसे उसी क्षण अख़बार के किसी पन्ने पर जगह निकालकर लिख लेती हूँ। बाद में उसे पूरा करती हूँ। फिर बहर और वज़्न की दृष्टि से देखती हूँ। कई बार ऐसा भी होता है कि मन में बड़े अच्छे-अच्छे भाव आ रहे होते हैं और ठीक उसी वक्त घर की ज़िम्मेदारियाँ आड़े आ जाती हैं तब नहीं लिखने की पीड़ा असह्य होती है। मन बहुत विचलित हो जाता है। यही वजह है कि मैं देर रात लिखना ज़्यादा पसंद करती हूँ। रात की नीरवता मुझे बहुत पसंद है।

आरती देवी- एक स्त्री होने के नाते लेखन के क्षेत्र मे क़दम रखने पर आपको किन-किन गंभीर चुनोतियों का सामना करना पड़ा?
डॉ० भावना- लेखक होना आज समाज में एलियन होने जैसा है। एक स्त्री का लेखक होना कभी भी लोगों को पच नहीं पाता। स्त्री घर-परिवार संभालती, बच्चे जनती और अधिक से अधिक नौकरी करती ही पुरूषों को पसंद आती है। स्त्री अपने सारे काम करते हुए भी लेखन करे तो भी उन्हें समय की बरबादी लगती है। यह आर्थिक युग है। यहाँ आप कितना कमाते हैं, इस पर ही आपकी इज़्ज़त तय होती है। ऐसे में घर-परिवार से कुछ वक़्त चुरा, स्त्री कुछ सिरजती है तो लोग लेखन से आय की बात ज़रूर पूछते हैं। तुलसीदास की स्वान्तः सुखाय तो लोगों को ख़ूब पसंद है पर घर में कोई स्वान्तः सुखाय लिखे, पच नहीं पाता।मीराबाई के भजन तो लोगों को ख़ूब पसंद है पर मीराबाई घर में हो तो उसे विषपान करना ही पड़ता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है। माँ-पिता ने चिकित्सक बिटिया का ख़्वाब देखा, बिटिया लेखक बन गयी। पति ने अच्छे-अच्छे भोजन बनाने वाली तथा अस्पताल को नियंत्रित करने वाली कुशल प्रशासिका की कामना की तो एकांत खोजने वाली पत्नी मिली। पर अब सभी का सहयोगात्मक व्यवहार है। सभी समझ गये हैं कि लेखन मेरा जीवन है। मैं इसके बगैर ज़िन्दा नहीं रह सकती।

आरती देवी- हिंदी ग़ज़ल को काव्य विधा के रूप में स्थापित करने का श्रेय आपके अनुसार किसे जाता है?
डॉ० भावना- हिंदी ग़ज़ल को काव्य विधा के रूप में स्थापित करने का श्रेय निर्विवाद रूप से दुष्यंत कुमार को ही जाता है। दरअसल दुष्यंत छंद मुक्त कविता से हिंदी ग़ज़ल में आए थे। वे छंद मुक्त कविता की कमज़ोरियों और ख़ूबियों से बाख़ूबी वाक़िफ़ थे। शायद इसीलिए उन्होंने जो ग़ज़लें कहीं, वे पूर्व के शायरों के मिज़ाज से बिलकुल अलग थीं। जन सरोकार से लबरेज़ इनकी ग़ज़लें समकालीन कविता के बरक्स छंदबद्ध होने की वजह से कहीं अधिक धारदार थीं। ग़ज़ल की ग़ज़लियत को बरकरार रखते हुए समय की विद्रूपताओं और उसकी आक्रमकता को पूरी प्रतिबद्धता से व्यक्त करने का श्रेय दुष्यंत को जाता है। दुष्यंत की ग़ज़लें समकालीन व्यवस्था से सीधा लोहा लेते हुए सामान्य जनता के पक्ष में खड़ी होती हैं। उन्होंने अपनी ग़ज़लों में शहरों तथा गाँव में निरंतर श्रम की चक्की में पीसकर ज़िंदगी के बोझ से दबे हुए आदमी की पीड़ा को न केवल जुबान दी बल्कि आवश्यक चेतना भी जागृत की। दुष्यंत नये तेवर के साथ बोलचाल की भाषा में ग़ज़ल को जन-जन तक पहुँचाने और आंदोलित करने वाले ग़ज़लकार हैं। यही वज़ह है कि उन्होंने हिंदी ग़ज़ल में अपनी मुकम्मल ज़मीन बनाई और हिंदी ग़ज़ल को काव्य विधा में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।


आरती देवी- हिंदी ग़ज़ल का काल निर्धारण कब से माना जाना चाहिए?
डॉ० भावना- यूँ तो 12 वीं शताब्दी में लिखी अमीर खुसरो की ग़ज़ल 'हिंदवी', जो कि फ़ारसी और हिन्दी के बीच की भाषा है में कही गयी तथा मध्य काल में कबीर की ग़ज़ल की बात भी की गयी है। पर आधुनिक युग के प्रथम कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 'रसा' उपनाम से ग़ज़लें कही। परन्तु आलोचक डाॅ० बहादुर मिश्र के अनुसार "भारतेंदु न केवल कई भाषाओं के जानकार थे बल्कि उन भाषाओं में लिखते भी थे। अनुमान है कि उन्होंने अपनी ग़ज़लें उर्दू में लिखी है,जिनका बाद में लिप्यांतरण कर दिया गया। इस तरह मौलिकता के ख़याल से हिंदी ग़ज़ल के पुरोधा भारतेंदु नहीं निराला ठहरते हैं।" (तर्जनी- 1, ग़ज़ल अंक) सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (1896) ने न केवल ग़ज़ल को हिंदी ग़ज़ल के मुहावरे दिये बल्कि उसे समकालीनता का जामा भी पहनाया। उनकी पुस्तक 'बेला' का प्रकाशन (1943) हिंदी ग़ज़ल के इतिहास में बड़ी घटना कही जा सकती है। इस पुस्तक में संकलित सभी ग़ज़लें भाषा और शिल्प के साथ-साथ सामाजिक, वैचारिक संस्कार और बर्ताव भी उर्दू से बिलकुल अलग हैं। अतः सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' को हिंदी ग़ज़ल का प्रवर्तक माना जाता है। जयशंकर ‘प्रसाद’ ने भी हिंदी में ख़ूब ग़ज़लें कही हैं। उनके द्वारा रचित प्रेम की एक छटा देखिये–

सरासर भूल करते है उन्हें जो प्यार करते है
बुराई कर रहे है और अस्वीकार करते है

उन्हें अवकाश ही इतना कहाँ है मुझसे मिलने की
किसी से पूछ लेते है बस यही उपकार करते है

इसी परम्परा में शमशेर, त्रिलोचन, बलबीर सिंह रंग, जानकीवल्ल्भ शास्त्री एवं शलभ श्रीराम सिंह इत्यादि रचनाकारों ने हिंदी ग़ज़ल को एक नयी ऊँचाई दी।

आरती देवी- हिंदी ग़ज़ल को विदेशी विधा कहना कहाँ तक उचित है?
डॉ० भावना- हिंदी ग़ज़ल हिंदी कविता की एक महत्वपूर्ण विधा है। इसे विदेशी विधा कहना मेरे विचार से उचित नहीं है। हाँ! ग़ज़ल की उत्पत्ति का जहाँ तक सवाल है तो ग़ज़ल एक 'अरबी' शब्द है ,जिसका अर्थ होता है कताई-बुनाई करना। यह अरबी भाषा के क़सीदे के गर्भगृह से होकर यह 1000 साल पहले ईरान में आयी, जहाँ इसकी भाषा फ़ारसी थी। भारत में मुगलों के शासन आने पर यहाँ की राजकीय भाषा फारसी हो गयी। उस वक्त भारत में ग़ज़ल राज़ दरबारों में ख़ूब गायी जाने लगी। 17 वीं शताब्दी में ग़ज़ल फ़ारसी से होते हुए उर्दू में आयी। 19 वीं शताब्दी में उर्दू से होते हुए ग़ज़ल हिंदी में आयी। हिंदी में आने पर ग़ज़ल के व्याकरण में भले ही कोई समझौता नहीं किया गया पर उसके कहन, शिल्प, मुहावरे और ढब हिंदी के मिज़ाज के अनुरूप हो गये। ग़ज़ल हिंदी में रच बस गयी कविता की महत्वपूर्ण विधा के रूप में हमारे सामने है। अतः हिंदी ग़ज़ल को अब विदेशी विधा कहना उचित नहीं है।


आरती देवी- हिंदी ग़ज़ल ने उर्दू की रूमानियत को कहाँ तक प्रभावित किया है?
डॉ० भावना- हिंदी ग़ज़ल ने उर्दू की रूमानियत को बहुत हद तक प्रभावित किया है। आज की हिंदी ग़ज़ल जीवन की तमाम जटिलताओं से गुज़रते हुए आम आदमी की जीवन की विडंबनाओं और उसके सपनों तक जाती है। आज का ग़ज़लकार प्रेम-मुहब्बत में पूर्ण रूप से डूबा हुआ शायर नहीं है, जिसे 'रूख से ज़रा नक़ाब हटाओ मेरे हुज़ूर' के अलावा आँखों में छलकता दर्द न दिखे। स्त्री और पुरूष दोनों को सुख-दुख का अनुभव बराबर होता है। स्त्री के जीवन में प्रेम पक्ष प्रबल है। पर भूख गौण है, ऐसा भी नहीं है। अतः हिंदी ग़ज़लकारों ने रूमानियत को ग़ज़ल का केन्द्रीय विषय न बनाकर जीवन की जद्दोजहद को बनाया है। आज का ग़ज़लकार अपने समय के व्यक्ति, स्वभाव, समाज, राजनीति, स्त्री-पुरुष के रिश्ते, भ्रष्टाचार आदि पर अपने विचार को एक कला शिल्पी की तरह रचता है और उस पर शब्दों की कारीगरी करता है। हिंदी ग़ज़लकारों की प्रतिबद्धता समाज के उन लोगों के प्रति है, जो दमित हैं, चाह कर भी अपने मन की पीड़ा को व्यक्त नहीं कर पाते और यही एक सृजनशील जागरूक रचनाकार के साथ-साथ हिंदी ग़ज़ल की पहचान भी है।

आरती देवी- आपके अनुसार हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल की भाव और भाषा में क्या अंतर है?
डॉ० भावना- उर्दू ग़ज़ल की उत्पत्ति जहाँ राज दरबारों एवं कोठों पर हुई है इसलिए उसके भाव और भाषा में मुलायमियत ज़्यादा है वहीं हिंदी ग़ज़ल का जन्म ही प्रतिरोध से हुआ है। अतः भाव और भाषा में थोड़ी-सी तल्खी स्वाभाविक है। भाषा, भाव व कथ्य की दृष्टि से उर्दू ग़ज़ल के पारंपरिक छंद विधान मानने के बावजूद हिंदी ग़ज़ल दूर से पहचानी जा सकती है। एक बात और उर्दू ग़ज़ल जहाँ यथा स्थितिवाद की शिकार है वहीं हिंदी ग़ज़ल विचार युग की ग़ज़ल है।

आरती देवी- उर्दू और हिंदी विशेषण हटा दिया जाए तो ग़ज़ल से आपका क्या अभिप्राय है?
डॉ० भावना- उर्दू और हिंदी विशेषण हटा दिया जाए तो ग़ज़ल से मेरा अभिप्राय 'जीवन का प्रतिबिंब' है। इस परेशान व बेचैन करने वाले समय में जीवन की दुश्वारियाँ आँखों को बरसते बादल में बदल देती हैं और वही आँसू शब्दों का लिबास पहन प्रतिरोध में खड़े हो जाते हैं। सच कहूँ तो मेरे लिए ग़ज़ल समय की विसंगतियों को जुबान देने का नाम है। कम शब्दों में बड़ी से बड़ी बात कह जाने का पैगाम है। बहर और वज़्न को साधते हुए जीवन के हर इक रंग को समाहीत करने नाम है, जिसमें इश्क़-मुहब्बत हो या फिर जीवन संघर्षों की दास्तान। इस सवाल के जवाब में बस जाँ निसार अख्त़र याद आते हैं-

हमसे पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या है
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए

आरती देवी- हिंदी ग़ज़ल की अब तक की प्राथमिकताएँ क्या हैं?
डॉ० भावना- हिंदी ग़ज़ल की अब तक की प्राथमिकताओं में समय एवं समाज की गहरी चिंताओं को सामने लाना, बाज़ारवाद के तिलिस्म को नंगा करना, भूमंडलीकरण की आड़ में खेले जाने वाले खेल की विद्रूपताओं को उजागर करना, वर्ग-विभाजित समाज-व्यवस्था के अंतर्विरोधों, आर्थिक विषमताओं, राजनैतिक विसंगतियों का प्रतिरोध करना है।

आरती देवी- तथ्यगत विविधताओं के बावजूद हिंदी ग़ज़ल की कहन (अंदाज़ें-बयां) क्या उर्दू ग़ज़ल के समानांतर चल सकने में समर्थ है?
डॉ० भावना- जब हम दो भाषाओं की बात करते हैं तो उसमें समानता क्यों ढूँढते हैं? हरेक भाषा की अपनी कमी और ख़ूबी होती है, जिसकी तुलना नहीं की जा सकती। गुलाब की ख़ुशबू अलग है और बेला की अलग। कोई गुलाब पर मरता है, किसी को बेला की सुगंध मदहोश करती है। पसंद अपनी-अपनी है। उसी तरह हर भाषा का अपना रंग और स्वभाव है। सभी भाषाएँ अपनी सहज रूप में प्रभावित करने में समर्थ होती हैं। जिस प्रकार भूख और प्यास सभी भाषा बोलने वालों को बराबर लगती हैं उसी तरह पीड़ा और सुख भी सभी को एक जैसा महसूस होता है। हरेक भाषा की अपनी ख़ूबसूरती है, अपना अंदाज़े-बयां है। मैं तो कहूँगी कि हिंदी ग़ज़ल की कहन, उर्दू ग़ज़ल के बनिस्बत ज़्यादा मज़बूत है।


आरती देवी- हिंदी ग़ज़ल को आप आम आदमी के कितना नज़दीक पाते हैं?
डॉ० भावना- जैसा मैंने पहले ही कहा है हिंदी ग़ज़ल का जन्म ही आम आदमी के सुख-दुख, घुटन, परेशानी जैसी निजी भावनाओं की अभिव्यक्ति से हुआ है। यही वजह है कि हिंदी ग़ज़ल आम जनता के दिलों पर राज करती है। आज की ग़ज़लें महंगाई, कालाबाज़ारी, भुखमरी, भ्रष्टाचार, बेकारी, आर्थिक उदारीकरण, मुक्त अर्थ व्यवस्था, मंदी की मार, नैतिक मूल्यों का निम्नतम स्तर पर पतन के साथ समाज के स्तर पर बढ़ रही बेशर्मी तक की बात बड़ी सलीके से करने में समर्थ है। यहाँ तक की दुनिया को सकते में ला देने वाली महामारी कोविड 19 (कोरोना) की त्रासदी पर भी ख़ूब ग़ज़लें कही गयीं, जो इसके जन सरोकारों को दर्शाता है।

आरती देवी- हिंदी ग़ज़ल नारी के जीवन की समस्याओं को कहने में किस हद तक समर्थ हो पाई है?
डॉ० भावना- हिंदी ग़ज़ल में जीवन से जुड़ी तमाम समस्याओं के साथ-साथ नारी के जीवन की समस्याएँ भी आज मुख्य रूप में सामने आई हैं। इसकी वजह यह है कि पहले ग़ज़ल के क्षेत्र में अधिकांश पुरुष रचनाकार थे, जिन्होंने परकाया प्रवेश के द्वारा स्त्री की स्थिति का वर्णन किया है। परंतु अब स्थिति अलग है। आज महिलाएँ भी ग़ज़ल के क्षेत्र में बड़ी तेज़ी से अपना स्थान बना रही हैं। ऐसे में नारी के द्वारा भोगा हुआ सच नारी के द्वारा कलमबद्ध होने पर और अधिक प्रासंगिक हो गई है। आज नारी सिर्फ़ मनोरंजन की वस्तु नहीं रही बल्कि अपने दुख दर्द को बयान करने वाली सशक्त स्त्री हो गई है। मेरा ही एक शेर है कि 'जब से स्त्री अस्मिता के पक्ष में बातें हुईं/ औरत अपने घर की भी अब आदमी-सी हो गई' आज की औरत पत्नी, बेटी, बहू से अलग एक स्वतंत्र अस्तित्व भी रखती है। पर यह भी सच है कि आज भी स्त्री से जुड़ी कई समस्याएँ जैसे- भ्रूण-हत्या, विधवा-विवाह, गर्भाधान, बेमेल विवाह इत्यादि प्रमुखता से ग़ज़ल का विषय नहीं बन पाये हैं।


आरती देवी- शिल्प और भाव की दृष्टि से आपका प्रिय ग़ज़लकार कौन है?
डॉ० भावना- इस प्रश्न का जवाब देना बहुत ही कठिन है क्योंकि कई नाम लिखते वक़्त ध्यान नहीं रहता। ऐसे में भूल जाने के अपराध में कोप भाजन बनने का खतरा पूरी तरह रहता है, कुछ मेरी पाठकीय सीमा भी हो सकती है। परंतु जिन्हें मैं हमेशा पढ़ना चाहती हूँ उनमें से अगर मैं नाम लूँ तो भाव और शिल्प की दृष्टि से अनिरुद्ध सिन्हा, कमलेश भट्ट 'कमल', वशिष्ठ अनूप, जहीर कुरेशी, हरेराम समीप, महेश कटारे सुगम, दरवेश भारती, विज्ञान व्रत, माधव कौशिक, दिनेश प्रभात, हस्तीमल हस्ती, नंदलाल पाठक, ओमप्रकाश यती ,ज्ञान प्रकाश विवेक जैसे कई बड़े ग़ज़लकार ग़ज़ल के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। वहीं नए ग़ज़लकारों में अगर कुछ नाम लूँ तो के० पी० अनमोल, राहुल शिवाय, विकास, नज़्म सुभाष, सोनरूपा विशाल इत्यादि नाम हैं, जो पूरी प्रतिबद्धता से ग़ज़ल सृजन में संलग्न हैं।

आरती देवी- हिंदी ग़ज़ल हिंदी कविता के समानांतर कैसे खड़ी हो सकती है?
डॉ० भावना- हिंदी ग़ज़ल अपने कथ्य को और मजबूत कर हिंदी कविता के समानांतर खड़ी होने में पूर्ण समर्थ हो सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी ग़ज़ल आज समकालीन कविता का प्रमुख स्वर बनकर उभरी है। हिंदी कविता की अत्यधिक गद्यात्मक शैली से पाठक ऊब चुके हैं और वे एक ऐसी विधा की तलाश में हैं, जो हिंदी कविता के कथ्य को आत्मसात करते हुए पूरी शिद्दत से अपनी बात कहे। निश्चित रूप से वह विधा ग़ज़ल ही है, जिसमें जीवन जगत से जुड़ी हुई तमाम समस्याएँ पूरी शिद्दत से समाहित हो कर उभर पाने में समर्थ हैं।

आरती देवी- हिंदी ग़ज़ल तथा उर्दू ग़ज़ल एक-दूसरे से क्या सीख सकती हैं?
डॉ० भावना- हिंदी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल से उसका अरूज यानी कि बहर, वज़्न इत्यादि सीख सकती है। वहीं उर्दू ग़ज़ल हिंदी ग़ज़ल से समय और समाज के अंतर्विरोधों, असंगतियों और विडंबनाओं के साथ अपने समय के रक्तरंजित यथार्थ से टकराने की हुनर सीख सकती है।

आरती देवी- इस वक़्त हिंदी ग़ज़ल जहाँ है, क्या उसकी आलोचना उस के साथ न्याय कर पा रही है?
डॉ० भावना- इस वक़्त हिन्दी ग़ज़ल जहाँ पर है, उसकी सही आलोचना ग़ज़लकार ही कर रहे हैं। ग़ज़ल के आलोचना में अनिरुद्ध सिन्हा, कमलेश भट्ट कमल, सुल्तान अहमद, वशिष्ठ अनूप, ज्ञान प्रकाश विवेक, ज्ञान प्रकाश पांडेय, के० पी० अनमोल, राकेश जोशी इत्यादि शिद्दत से काम कर रहे हैं, जो सुखद है। हिंदी छंद मुक्त कविता वाले ग़ज़ल के व्याकरण से अनभिज्ञ होने की वज़ह से आलोचना करने की हिम्मत करते भी हैं तो शिल्प को बगैर छुए। ऐसे में ग़ज़ल की आलोचना इतना आसान भी नहीं की कोई भी आलोचक अपनी क़लम चला दे। हालांकि उमाशंकर सिंह परमार, अनिल कुमार पांडेय, अशोक सिंह, विनय कुमार शुक्ल जैसे कवि/आलोचक ग़ज़लकार न होते हुए भी ग़ज़ल की आलोचना में जुटे हुए हैं, जो बेहद सुखद है। परंतु आज भी हिंदी ग़ज़ल को ऐसे आलोचक की तलाश है, जो इसके साथ सम्पूर्णता से न्याय कर सके।

आरती देवी- हिंदी ग़ज़ल के विकास में महिला ग़ज़लकारों की क्या भूमिका है?
डॉ० भावना- जब सृष्टि का विकास ही महिला के बगैर संभव नहीं तो साहित्य की किसी विधा की बात करना बेमानी ही कही जायेगी। महिला न केवल जीवन बल्कि जीवन से जुड़े सभी क्षेत्रों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कर रही है। आकाश मार्ग में पायलट, अंतरिक्ष यात्री, वायु सेना या एअर हाॅस्टेस, उसी तरह थल यानी धरती पर कोई ऐसी जगह नहीं, जहाँ स्त्री अपनी महत्वपूर्ण भूमिका में न हो। घर-गृहस्थी से लेकर साहित्य, कला, स्वास्थ्य, शिक्षा, खेल, सेना, यातायात सेवा इत्यादि में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करती महिला हिंदी कविता की महत्वपूर्ण विधा ग़ज़ल में भी बहुत गंभीरता से काम कर रही है। ये अलग बात है कि कुछेक महिला ग़ज़लकार आज भी प्रेम-मुहब्बत से आगे नहीं निकल पायी हैं। पर ऐसा भी नहीं है कि पुरूष ग़ज़लकारों में यह स्थिति शून्य हो। आज की महिला ग़ज़लकार वर्ग-विभाजित पुरूषसत्तात्मक समाज में हो रहे स्त्रियों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक शोषण का कभी दबी जुबान से तो कभी मुखर होकर प्रतिरोध करती है।

आरती देवी- कहा जाता है कि पुरुष की सफलता के पीछे स्त्री का हाथ होता है, आपकी सफलता के पीछे किसका हाथ है?
डॉ० भावना- स्त्री और पुरूष, जीवन रूपी गाड़ी के दो पहलू हैं। दोनों की सफलता एक-दूसरे से मिलकर ही पूरी होती है। जैसे पुरूष की सफलता के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है, उसी तरह एक स्त्री की सफलता उसकी ख़ुद की इच्छाशक्ति के साथ-साथ पति एवं परिवार के सहयोगात्मक व्यवहार से ही संभव है। मैं इसकी अपवाद कैसे हो सकती हूँ!

आरती देवी- नई पीढ़ी के ग़ज़लकारों को आप क्या कहना चाहेंगी?
डॉ० भावना- नई पीढ़ी के ग़ज़लकारों को मैं कहना चाहूँगी कि वो अपने पूर्ववर्ती शायरों को ख़ूब पढें। ग़ज़ल के व्याकरण को आत्मसात करें। हिंदी ग़ज़ल में कहन, ढंग, मुहावरे किस तरह ग़ज़लियत के साथ अभिव्यक्त होते हैं, यह पढ़ते-पढ़ते ही हासिल होता है। हाँ! एक ज़रूरी बात जो मुक्तिबोध कहा करते थे कि "ख़राब कविता लिखते हुए मत डरो, तभी तुम अच्छी कविता लिखोगे।" यानी कि कोई आपकी ग़ज़लों की आलोचना करे तो डरें बिलकुल नहीं। बस और बेहतर लिखने की कोशिश करें।

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रचनाकार परिचय

आरती देवी

ईमेल : artidevi18495@gmail.com

निवास : जम्मू

सम्प्रति- शोध छात्रा, हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय
निवास- रूम नंबर- 197, ब्लॉक आई- 1, गवर्नमेंट क्वाटर्स, सुभाष नगर, जम्मू- 180005
मोबाइल- 7051089459